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________________ योगसार टीका। भावार्थ-कनकपल गेरे हुए जलके समान या शरद् कालमें निर्मल सरोवरके पानीकं समान जब सर्व मोहकर्म उपशम हो तब यह साधु उपातिकपाय नाम गुणस्थानधारी होता है। (१२) क्षीणमाह गुणस्थान णिम्सेसखीणमाहो फलिहामलमावणुदयसमचित्तो । सीजससानो भदि यो बीयरायहि ॥ १२ ॥ भावार्थ-सर्व मोहको नाश करके जिसका भाव स्फटिकमणिके वर्तनमें रक्खे हुए जलके समान निर्मल हो वह निग्रंथ साधु क्षीणकषाय है ऐसा वीनराग भगवानने कहा है। (१३) सयोगकवलीनिन गुणस्थान केवलणाणदिवायरकिरणकलाबप्पणासियष्णाणो । पाबकेवललझुगमरजाणिवपरमप्पवचएसो ॥ ६३ ॥ असहायगाणदसणसहिषो इदि केवली हु जोगेगा । जुत्तोत्ति सामिजिणो अणाणिहणारिसे उत्तो ॥ ६ ॥ भाशर्थ-जिसने फेवलज्ञान रूपी सूयकी किरणोंसे अज्ञानका नाश कर दिया है व नौ केवललब्धिके प्रकाशसे परमात्मा पद पाया है व जो सहाय रहित केवलज्ञान केवल दर्शन सहित केवली है , योग सहित है उनको अनादि निधन आगममें सयोग केवली जिन कहा है | अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग, अनंत वीर्य, क्षायिक सम्यक्त, क्षायिक चारित्र ये नौ केवल सन्धियां हैं। (१४) अयोगकेवलि जिन गुणस्थान सीसि संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो । . कम्मरविष्पमुको गयजोगो केवली होदि ॥६५॥
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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