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योगसार टीका ।
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भावार्थ - आत्माको तीन प्रकारका जानकर बहिरात्मस्वरूप भावको शीघ्र ही छोड़े और जो परमात्माका स्वभाव है उसे स्वयंवेदन ज्ञानसे अन्तरात्मा होता हुआ जान । वह स्वभाव केवलज्ञानकर परिपूर्ण है।
मिथ्यादर्शन आदि चौदह गुणस्थान होते हैं, इनकी शक्ति सर्व ही है। एक समय एक गुणस्थानकी संसारी आत्माओं में रहेगी । यद्यपि ये सर्व चौदह गुणस्थान संसारी आत्माओंमें होते हैं, सिद्धों में कोई गुणस्थान नहीं हैं नौभी संसारी जीवोंका बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा तीन अवस्थाओं में विभाग होता है। जो अपने आत्माको यथार्थ न जाने न श्रद्धान करे न अनुभवे वह बहिरामा है । मिथ्यात्य, सासादन व मिश्र गुणस्थानवाले सब बहिरात्मा हैं । जो अपने आत्माको सच्चा जैसेका तैसा श्रद्धान करे, जाने व अनुभव को वह अन्तरात्मा है। जहांका नहीं वहां तक बाँधे अविग्न सम्यक्तमे लेकर ५ देश विरत ६ प्रमुखविरत, ७ अप्रमत्त विश्व ८ अपूर्वकरण, ९ अनिवृतिकरण १० लोभ, २२ मोह १२ क्षीणमोह पर्वत व गुणस्थानवाली च सात्मा अन्तरात्मा सभ्य है। योग केवल जिन तेरहवें अयोग केवली जिन गुणस्थानवाले अरहंत परमात्मा हैं ।
इन दोनों गुणस्थानवालोंको संसारी इसलिये कहा है कि आयु, नाम, गोत्र, वेदमीय चार अवतीयकमका उदय है य नहीं हुआ है । यथार्थमें सिद्ध ही शरीर रहित परमाता हैं। अरहंत शरीर सहित परमात्मा है इतना ही अन्तर है। प्रयोजन कहनेका यह है कि बहरात्मापना त्यागने योग्य है । क्योंकि इस दशामें अपने आत्मा के स्वरूपका श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र नहीं होता है | उपयोग संसारासक्त मलीन होता है । तथा आत्मज्ञानी होकर अन्तरात्मा
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