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________________ ३४] योगसार टीका । दशामें परमात्माका ध्यान करके अर्थात अपने ही आत्माको परमात्मा रूप अनुभव करके कमका क्षय करके परमात्मा होजाना योग्य है । धर्म साधनमें प्रमाद न करना चाहिये । सार समुचयमें कुलभद्राचार्य कहते हैं धर्मामृतं सदा पेयं दुःखातङ्कविनाशनम् । यस्मिन् पीते परं सौख्यं जीवानां जायते सदा ॥ ३३ ॥ भावार्थ- दुःख रूपी रोगके विनाशक धर्म रूपी अमृतको सदा पीना चाहिये, जिसके पीनेसे जीवों को सदा ही परमानन्द प्राप्त होगा। बहिरात्माका स्वरूप | मिच्छादंसणमोहियउ परु अप्पा ण मुणे । सो बहिष्पा जिणमणिउ पुण संसारु भमेह || ७ ॥ अन्वयार्थ -- (मिच्छादंसणमोहियउ ) मिथ्यादर्शनसे मोही जी (परु अप्पा ण मुणे ) परमात्माको नहीं जानता है (सो बहिरप्पा ) यही बहिरात्मा है ( पुण संसारु भमेइ ) वह वारवार संसार में भ्रमण करता है (जिणभणिउ) ऐसा श्रीजिनेन्द्र ने कहा है । भावार्थ - जैसे मदिरा पीकर कोई उन्मत्त होजावे तो वह Tags होकर अपने को भी भूल जाता है, अपना घर भी भूल जाता है, जैसे वह मिथ्यादर्शन कर्मके उदयसे मोही होकर अपने आत्मा के स्वरूपको भूले हुए हैं। आपको शरीर रूप ही मान लेता है च कर्मके उदयसे जो जो अवस्थाएं होती हैं उनको अपना स्वभाव मान लेता है । आत्माका यथार्थ स्वभाव सिद्ध परमात्मा के समान परम शुद्ध,
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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