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________________ + योगसार टीका | [ ३ क्यानको ध्याता है। इस शुक्ल ध्यानके प्रतापसे पहले अरहंत होता है फिर स क जलाकर सिद्ध होता है। मन स्वभावले लोकके अग्रमें जाकर सिद्ध आत्मा ठहरता है। धर्मद्रव्यके विना arathiarat Tir नहीं होता है। सर्व ही सिद्ध उस सिद्ध क्षेत्र में अपनीर सत्ताको भिन्न रखते हैं। सर्व ही अपनेर आनन्दमें मगन हैं, चे पूर्ण वीतराग है। इससे फिर कभी कर्मबंधसे बंधते नहीं । इसीलिये फिर संसार अवस्थामें कभी आते नहीं । वे सर्व संसारके देशांन मुक्त रहते हैं । वे ही निर्वाण प्राप्त हैं। सिद्धोंके समान जो कोई अपने आत्माको निश्रयमे शुद्ध आत्मद्रव्य मानकर व रागद्वेष व्याग कर उसी निज स्वरूप में मगन होजाता है नहीं एक दिन शुद्ध होजाता है। कर्ता सिद्धों को सबसे पहले इसीलिये नमस्कार किया है कि भावों में सिद्ध समान आत्माका बल आज्ञावे । परिणाम शुद्ध क वीतराग होजावे । शुद्धोपयोग मिश्रित शुभ भाव होजावे जिससे दिनकारक कर्मों का नाश हो व सहायकारी पुण्यका बन्ध हो । मङ्गल उसे ही कहते हैं जिससे पाप गये व पुण्यका लाभ हो । मङ्गलाचरण करनेसे शुद्ध आत्माकी विनय होती है त्याय होता है। परिणाम कोमल होते हैं। काय होता है । । उद्धताका व मानका शांति व सुखका अन्द्र यह अव्यात्मीक ग्रंथ है-आत्माको साक्षात् सामने दिखानेवाला है | शरीर के भीतर बैठे हुए परमात्मदेवका दर्शन करानेवाला है ।इसलिये ग्रंथकर्ताने सिद्धोंको ही पहले स्मरण किया है। इसमे 'झलकाया है कि सिद्ध पदको पानेका ही उद्देश है। ग्रंथ लिखनेसे और किसी फलकी वांछा नहीं है- सिद्ध पदका लक्ष्य ही सिद्ध पदपर पहुँचा देता है।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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