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________________ २७४ ] योगसार टीका | नम्मादखण्डमभिक्रखण्डमेकमैकान्तशान्तमचलं चिन्हं महोस् || २४ - ११ ॥ भावार्थ - यह आत्मा नानाप्रकारकी शक्तियों का समुदाय है एक एक नय से एक एक गुणकी पर्याय या शक्तिका विचार करने आत्माका खंड मात्र विचार होता है इसलिये खंड विचारको छोडक में अपनेको ऐसा अनुभव करता हूं कि यह अखंड है तौभी अनेक भेदों को रखता है. एक है, पर शांत है, निश्चल है, चैतन्यमई ज्योति स्वरूप हैं | दोको छोड़कर दो गुण विचारे । छंडिवि वे गुण सहिउ जो अप्पाणि बसे । जिणु साभिउ एसई मगर लहु णिवाणु लहेह ॥ ७७ ॥ अन्वयार्थ -- (जो वे छंडिवि ) जो दोकी अर्थात् राग द्वेपक छोड़कर (गुण सहि अप्पाणि वसेइ ) ज्ञानदर्शन दी गुणधार आत्मामें विना है (लहू णिवाणु लहेइ ) वह शीघ्र ही निर्वा पाता है (एमई जिणु सामिउ भणइ ) ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं । भावार्थ - बन्धकं मूल कारण रागद्वेष हैं उनका त्याग करे त्याग करनेका कम यह हैं कि पहले मिध्यात्व और अनन्तानुबन्ध कषाय सम्बन्धी रागद्वेषको छोड़े। मिथ्यादृष्टी जीवके भीतर पर पदार्थको आत्मा माननेकी भूल करता है जिससे यह परमें अहंकार व ममकार भाव करता है । इन्द्रियजनित पराधीन सुखको सद सुख मानता है | इस मियाभाव के कारण जिन विषयोंके मेन इन्द्रियसुखकी कल्पना करता है इन पदार्थों में रागभाव करता है
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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