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________________ योगसार टीका । [१४५ ज्ञानमें रहना है, यही मोक्षका साधन है | क्योंकि यहाँ उपयोग एक ही आत्मा द्रव्यके स्वभावमें तन्मय है। शुभ क्रियाकांडमें वर्तना आत्माके ज्ञान में परिणमन नहीं है, यह मोक्षका कारण नहीं है। क्योंकि अन्य द्रव्यके स्वभावपर यहाँ लक्ष्य है, आत्मापर ध्यान नहीं है । माक्षपाहुडमें कहा है-- जो पुण परदब्बरओ मिच्छादिट्टी हुवेइ सो साहू । मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुकम्मेहिं ।। १५ ।। भावार्थ-जो कोई आत्माको छोड़कर परद्रव्यमें रति करता है वह मिध्यादृष्टी है । मिथ्या श्रद्धानसे परिणमता हुआ दुष्ट आठों कौंको बांधना रहता है। पुण्य पाप दोनों संसार है । पुर्णिण पावट् सम्ग जिउ पात्रइ गरयणिवासु । वे छडिवि अप्पा मुमइ त लभइ सिक्वासु ॥ ३२॥ अन्वयार्थ----(जिउ पुरिणं सग पावइ। यह जीय पुण्यसे स्वर्ग पाता है ( पावइ णरयाणिवासु) पापसे नर्फमें जाता है (वे छंडिवि अप्पा मुणइ) पुण्य पाप दोनोंसे ममता छोड़कर जो अपने आत्माका मनन करे ( तउ सिववासु लन्मइ तो शिय महलमें वास पाजावे। भावार्थ-पुण्य व पाप दोनों ही कर्म संसार-भ्रमणके कारण हैं। दोनों ही प्रकार के कर्मोंके बन्धके कारण कषायभाव है । मन्दकषायसे पुण्य कर्मका बन्ध होता है, तीव्र कषायसे पापका बंध होता है । पुण्य कर्म सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, उच्च गोत्र है। इनका. बंध प्राणी मात्रपर दयाभाव, आहार, औषधि, अभय व प्रिया
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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