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योगसार टीका । वे तृष्णाको जीत लेते हैं। तृष्णाक नीत्र रोगसे पीड़ित सर्व ही अज्ञानी प्राणियोंको वोर कष्ट होता है । इसलिये विचारवान को अपने आत्मापर करुणाभाव लाना चाहिये। व यह भय करना चाहिये कि हमारा आत्मा संसारके लेगोको न महन करे | यह आत्मा भववनमें न भ्रमे, भवसागरमें न दूत्र, जन्म जरा मरणके घोर दा न सहन करें।
श्री पद्मनन्दिमुनि धम्मरसायण ग्रन्थमें कहते हैंउपाणसमयपहुदी आमरणत महति दुक्खाई । अच्छिणिमौल्यमेनं सावक ा लहंति णेरझ्या ॥ ७२ ॥
भावार्थ-वरक गतिमें नारकी प्राणी उत्पनिके समयमलकर मरण पचन दुःश्याको सहन करने रहते हैं। वे विचार आंग्नके टिमकार मात्र भी समय तक सुख नहीं पाते हैं।
ईदिए पंचमु अयोगीनु वी रियविहणो । मुंजनी पावले. चिरकालं. हिडाए जीत्रो ।। ७८ ॥
भावार्थ-नियंचम्पतिमें एकन्द्रियस पंचेन्द्रिय नककी अनेक योनियोंमें जन्म लेकर दाक्तिहीन होते हुए प्राणी पापका फल दुग्न भोगने हार चिरकाल भ्रमण करते रहते हैं। अनंतकाल वनम्पति निगोदमें जाता है।
बहुवेयपाउला सिरियगई। मित्त चिरकालं । माणुसहत्र वि पावइ पावस फलाई दुक्खाई॥८॥ धणुबंधविप्पणी भिक्खं नमिण भुंजए णिच्च । पुनस्यपावकम्मो सुगुणो वि गा यच्छा सोक्ख ॥ ८॥
भावार्थ-चिरकालतक नियँच गतिमें महान वेदनाओंमे आकुलित हो भ्रमण करके मनुष्यभयमें जन्मकर पापके फलसे यह