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________________ į योगसार टीका | [ १५ प्राणी दु:ग्बोंको पाता है । अनेक मानव पूर्वकृत पापके उदयसे धनरहित, कुटुम्बरहित होकर सदा भिक्षासे पेट भरते घूमते हैं, उनका कोई सम्बन्धी भी उनको सुखकी सामग्री नहीं देता है । छम्माला उगसेसे विलाइ माला विणस्स छाए *पति कप्परखा होइ विरागो य भोयाणं ॥ ९० ॥ भावार्थ -- देवगति में छः मास आयुके शेष रहने पर माला - मुरझा जानी है, शरीरको कांति मिट जाती है, कल्पवृक्ष कांपने हैं. भोगोंसे उदासीनना छा जाती है । एवं अगाइकाले जीओ संसारसारे घोरे । परिहिंडतो धम्मं सव्वण्हुपण्णत्तं ॥ ९४ ॥ भावार्थ - इसतरह अनादिकालमे यह जीव सर्वज्ञ भगवान के धर्मको न पाकर के भयानक संसार - सागर में गोते लगाया कम हुए करना है । श्री अमितगति आचार्य बृहत सामायिकपाठ में कहते हैं भ्राणामविसमेत रहितं दुर्जल्पमन्योन्यजं । दाहच्छेदविभेदना दिजनितं दुःखं तियां परं ॥ नृणां रोगवियोगजन्नमरणं स्वर्गेकसां मानसं । विश्वं वीक्ष्य संदेति कटकलितं कार्यामतिर्मुक्तये ॥ ७१ ॥ भावार्थ- नारकियों को असहनीय, परस्परकृत, अनन्त दुःख ऐसा होता है जिसका कहना कठिन है। तिर्यचांको अलने का, छिनेका भिदनेका आदि महान दुःख होता है । मानवोंको रोग, वियोग, जन्म, मरणका घोर कष्ट होता है | देवीको मानसीक केश रहता है । इसतरह सारे जगतके प्राणियोंको सदा ही कसे पीड़ित
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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