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योगसार टीका । देखकर बुद्धिमानको उचित है कि इस संसारसे मुक्ति पानेके लिये बुद्धि स्थिर करे ।
संसारमें तृष्णाका महान रोग है। बड़े २ सम्राट भी इच्छित भोगोंकी भोगत है परंतु तृष्णाको मिटानकी अपेक्षा उस अधिक अधिक बढ़ाते जाते हैं । शरीर के छूटनेके समयतक तृष्णा अत्यन्त बढ़ी हुई होती है । यह तृष्णा दुर्गनिमें जन्म करा देती है।
इसीलिये स्वामी समन्तभद्राचार्यने स्वयंभूस्तोत्रमें ठीक कहा हैस्वास्थ्य प्रदात्यन्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभंगरात्मा । तृषोऽनुषकान्न च तापशांतिरितीदमाख्यद् भगवान् सुपार्श्वः ।। ३१ ॥ __भावार्थ-हे सुपार्श्वनाथ भगवान ! आपने यही उपदेश दिया है कि प्राणियोंका उत्तम हित अपने आत्माका भोग है जो अनन्न कालतक बना रहता है । इन्द्रियोंका भोग सञ्चा हित नहीं है | क्योंकि वे भोग क्षणभंगुर नाशवंत हैं, तथा ताणाके रोगको बढ़ानेवाले हैं। इनको किनना भी भोगो, चाहकी दाह शांत नहीं होती है ।
इसलिये बुद्धिमानको इस दुःखमय संसारसे उदास होकर मोक्षपद पानेकी लालसा या उत्कण्ठा या भावना करनी चाहिये । मोक्षपदमें मर्व सांसारिक कष्टोंका अभाव है, रागद्रेप मोहादि विकारोंका अभाव है. सर्व पाप पुण्य कर्माका अभाव है, इसीलिये उसको निर्वाण कहते हैं । वहा सर्व परकी शून्यता है परन्तु अपने आस्माके द्रव्य गुण पर्यायोंकी शून्यता नहीं है । मोक्षमें यह आत्मा अपने शुद्ध स्त्रभावमें सदाकाल प्रकाश करता हैं, अपनी सत्ता बनाए रखता है ! संसारदशामें शरीर सहित मोक्षपदमें शरीरोंसे रहित होजाता है । निरन्तर स्वात्मीक आनन्दका पान करता है । जन्म मरणस रहित होजाता है।