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________________ १५८] योगसार टीका। रागादि भावक्रम, शरीरादि नोकर्मसे भिन्न है, शुद्ध चैतन्य ज्योतिमय हैं। पर भावोंका न तो कर्ता है न पर भावोंका भोक्ता है । यह सदा स्वभावके रमणमें रहनेवाली स्वानुभुति मात्र है। इसतरह अपने आत्माके शुद्ध स्वभावकी प्रतीति करके साधक इसी ज्ञानका मनन करता है। भेद विज्ञानके द्वारा यद्यपि आप अशुद्ध है तो भी अपनेको कर्दम रहित जलके समान शुद्ध मानकर पारवार विचार करता है । इस मालामना तसे भी की समय समय अनंतगुणा बनती हुई विशुद्धताको एक अन्तमुहूर्त के लिये पाता है | ऐसे परिणामं की प्राप्तिको करणलब्धि कहते हैं । तब यकायकः अनंतानुबंधी कषाय और दर्शन मोहका विकार दूर होता है और यह जीव अविरत सम्यक्ती या साथमें अप्रत्याख्यान कपायका विकार भी हदनेसे एकदम देशविरती श्रावक या प्रत्याख्यान कपायका भी विकार हदनेमे एकदम अप्रमत्तविरत साधु होजाता है। चौथे अविरत सम्यक्त गुणस्थानमें आत्माका अनुभव प्रारंभ होजाता है, वह दोयजके चन्द्रमाके समान होता है। उसी आत्मानुभवके सतत अभ्याससे पात्रके शुणस्थानके योग्य आत्मानुभव निर्मल होजाता है, इस तरह गुणस्थान २ प्रति जैसे २ चढ़ता है आत्मासुभवकी शुद्धता व स्थिरता अधिक अधिक पाता जाता है। आत्मानुभवको ही धर्मध्यान कहते हैं। उसीको ही कमाय मलके. अधिक दूर होनेसे शुक्ल यान कहते हैं। इसीसे चार घातीय कर्म क्षय होते हैं तब आत्मा अरहंत परमात्मा होजाता है। शेष चार अघातीय कर्मोंक दूर होनेपर यही सिद्ध होजाता है । भूत भावी वर्तमान तीनों झी कालों में सिद्ध होनेका एक ही मार्ग है। .
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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