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संगणकावर विका।
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इसी तरह निर्वाण रूपी कार्यके लिये उपादान कारण अपने ही शुद्ध आत्माका ध्यान है । निमित्त कारण व्यवहार व्रत संयम तप आदि हैं । व्रत संयम तप आदिके निमित्तमे व आलम्बनसे जब आत्माका ध्यान होगा व भावोंमें शुद्धता बढ़ेगी तब ही संवर व निर्जरा तत्व होगा । इसलिये यहां कहा है कि व्रत संयम सहित
कर निर्मल आत्माका ध्यान सिद्ध सुखका साधन है | व्यवहार चारित्रकी इसलिये आवश्यक्ता है कि मन, वचन, कायको वश रखनेकी जरूरत है। जबतक ये तीनों चञ्चल रहेंगे तबतक आत्माका ध्यान नहीं हो सकता |
आत्माके ध्यानके लिये एकांत स्थानमें ठहरकर शरीरको निश्चल रखना होगा, वचनोंका त्याग करना होगा, जगतके प्राणियोंसे वार्तालाप छोड़ना होगा, पाठ पढ़ना छोड़ना होगा, जप करना छोड़ना होगा,. बिल्कुल मौनमें रहना होगा: मनका चिन्तन छोड़ना होगा, यहांतक कि आत्माके गुणोंका विचार भी छोड़ना होगा । जब उपयोग मन, वचन, कायसे हट करके केवल अपने ही शुद्धात्मा के भीतर श्रुतज्ञानके बलसे या शुद्ध निश्रयनयके प्रतापमे जमेगा तब ही मोक्षका साधन बनेगा, तब ही स्वानुभव होगा, तब ही वीतरागता होगी, तब ही आत्मा कर्ममलमे रहित होगा। ध्यान के समय मनके भीतर बहुत से विचार आजाते हैं ।
उनमें जो गृहस्थ सम्बंधी बातोंके विचार हैं वे महान बावक हैं। हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रहकी चिन्ता, ध्यानमें हानिकारक है। इसलिये साधुजन पांचों पापोंको पूर्णपने त्याग देते हैं, गृहस्थका व्यापारादि कुछ नहीं करते हैं। साधु केवल धार्मिक व्यवहार करते हैं। जैसे- शास्त्र पठन, उपदेश, बिहार, शिष्योंको शिक्षा, सन्तोषपूर्वक आहार | ध्यानके समय ये शुभ कामोंके विचार आ