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________________ जमा - १४.] यांगसार टीका। 'मिथ्यादृष्टी ही रहता है। मोमके स्वरूपकी श्रद्धा न रखता हुआ अभव्य जीव कितना भी शास्त्र पढ़े, इसका पाट गुणकारी नहीं होता है, क्योंकि उसको आत्माके सम्यग्ज्ञानकी तरफ विश्वास नहीं आता है। भावपाइडमें कहा है कि भावमें आत्मज्ञानी ही सच्चा साघु हैदेहादिसगरहिओ माणकसारहिं सवलपरिचत्तो । अप्पा अप्पम्मि रओस भावलिंगी हय साहू ॥५६ ॥ भावार्थ---जो शरीराविकी ममतारहित हो व मानकपायसे बिलकुल अलग हो जालाको कारवायें हीन हे कही नानलिंगी साच होता है। - - वतीको निर्मल आत्माका अनुभवकरना योग्य है। जो जिम्मल अप्पा मुगाइ श्यसंजमुसंजुत्तु । तो लड्डु पाबइ सिद्ध सुहु इउ जिणणाहह वुत्तु ॥३०॥ अन्वयार्थ-(जो बयसंजमुसंजुनु पिम्पल मुणइ) जो व्रत, संयम सहित निर्मल आत्माका अनुभव कर (नो सिद्ध सङ्घ लहु 'पात्रइ) तो सिद्धि या मुक्तिका सुख शीन ही पाचे (इज जिणणाहह धुत्त) ऐसा जिनेन्द्रका कथन है। ___ भावार्थ-हरएक कार्यकी सिद्धि उपादान व निमित्त कारणसे होती हैं । अपादान कारण दो अवस्थाको पलटकर अवस्थांतर हो जाता है । मूल द्रव्य बना रहता है । निमित्त कारण दूर ही रह जाते हैं। मिट्टीका घड़ा बना है | घड़े रूपी कार्यका पादान कारण मिट्टी है। मिट्टीका पिंड ही पड़ेकी दशा में पलटा है | निमित्त कारण चाक व कुम्हारादि बड़े बनने तक सहायक हैं । घड़ा बन जानेपर ये सब दूर रह जाते हैं। - - -
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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