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________________ योगसार टीका। [ १५९ चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमाने । कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे । अथ सतत विविक्तं दृश्यतामेकरूपं ।। दानागालोतिरुधांतमानम् ॥ ८-१॥ भावार्थ-जैम सोनेकी मालामें सोना भिन्न झलकता है वैसे ही जीवोंको उचित है कि वह अनादिकालसे पदार्थाके भीतर छिपी हुई अपनी आत्मज्योतिको अलग निकाल कर सदा ही परसे भिन्न व एकरूप प्रकाशमान हरएक पदमें देखें-शुद्धात्माका ही अपने भीतर दर्शन करे । माक्षपाहड़में कहा हैहोऊण दिवचरित्तो दिवसम्मत्तेण मावियमईओ। झायंतो अप्पाणं परमपयं पावर जोई ॥ ४२ ॥ चरणं हवई सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो । सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणपणपरिणामो ॥ ५० ॥ भावार्थ -- योगी चारित्रमें पक्का होकर पक्के निर्मल सम्यग्दर्शनकी भावना करता हुआ जब अपने आत्माको ध्याता है तो परमपद मोक्ष पाता है | आत्माका धर्म या स्वभाव ही चारित्र है आत्माका धर्म आत्माका समभाव है। वह समभाव राग द्वेष रहित जीवका अपना ही भाव है। इस भावसे ही मोक्ष होता है। व्यवहारका मोह त्यागना जरूरी है। • बइ णिम्मलु अप्पा मुणहि छडिवि सह बवहारु । . जिण-सामिउ एमइ मपाइ ला. पाबहु भवपारुः॥ ३७
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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