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________________ योगसार टीका। [३५५ इस कारण संसारी जीव विचित्र दोखते हैं। रागी जीव इन जीयोंको देखकर जिनसे कुछ इन्द्रिय विषयके साधनमें मदद मिलती है उनस प्रीति जिनसे बाबा पहुंचत, दिस है उनसे द्वेप कर लेते हैं । उसीसे कर्मबन्ध करते हैं व उन कमौका फल भोगते हैं । इस दृष्टि से देखते हुए वीतरागीको बन्ध नहीं होना है। समभाव ही मोक्षका उपाय है, इस भावके लानेके लिये साधकको व्यवहार दृष्टि से भेद है, ऐसा जानते हुए भी, ऐसा धारणामें रखते हुए भी इस इष्टिका विचार बंद करके निजय दृष्टिसे अपने आत्माको व सर्व संसारी आत्माओंको देखना चाहिये तब अपना आत्मा व सर्व संसारी आत्माएं एकसमान शुद्ध, निरंजन, निर्विकार, पूर्ण ज्ञान, दर्शन, वीर्य व आनन्दमय अमूर्तीका, असंख्यात प्रदेशी ज्ञानाकार देख पड़ेंगे । तव सिद्धोंमें ब संसारी आत्माओंमें कोई भेद नहीं दीख पड़ेगा। समभावको लानेके लिये ध्यानाको निश्चयनयसे देखकर राग 'द्वेषको दूर कर देना चाहिये । फिर केवल अपने ही आत्माको शुद्ध देखना चाहिये | उसे ही परम देव मानना चाहिये। आप ही निरंजन हैं, परमात्मा देव हैं ऐसा भाव लाकर इसी भावमें उपयोगको स्थिर करना चाहिये तब भावनाके प्रतापस यकायक स्वानुभव हो जायगा, मोक्षमार्ग प्रगद हो जायगा । वीतराग भाव ही परमानन्द प्रद है व निर्जराका कारण है । समांधिशनको कहा है -- परित्राहम्मतिः स्वस्माच्युतो बनात्यसंशयम् । स्वस्मिन्नहम्मतियल्युत्वा परस्मान्मुच्यते बुधः ॥ १३ ॥ दृश्यमानमिदं. मूढस्त्रिलिममवबुध्यते । इदमित्यमबुद्धस्तु निष्पन शब्दवर्जितम् ।। *"....
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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