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________________ ३५६] योगसार टीका । भावार्थ-जो कोई अपने शुद्ध स्वरूपके अनुभवसे छुटकर परभावोंमें आत्मापनेकी बुद्धि करता है, अपनेमें कषाय जगा लेता है वह अवश्य कर्म बंध करता है। परन्तु जो पर रागादि भावोंसे छूटकर अपने ही शुद्ध स्वरूपमें आत्मापनेकी भावना करता है वह झानी क्रमौम मुक्त होता है। मुर्ख बहिरात्मा इस दीखनेवाले जगतके प्राणियोंको तीन लिंगरूप स्त्री, पुरुष, नपुंसक, देखता है | परंतु ज्ञानी इस जगतका निश्चयसे एकसमान शब्द रहित व निश्चल ज्ञाता है। उमे सर्व जीव एकसमान शुद्ध दीखते हैं। ----- . आत्माका दर्शन ही सिद्ध होनेका उपाय है। जे सिद्धा जे सिज्झिहिहि जे सिज्झहि जिण-उत्तु । अप्पा-दसणि ते वि फुड एहउ जाणि णिमंतु ॥१०॥ अन्वयार्थ-(जिण उनु) श्री जिनेन्द्र ने कहा है (जे सिद्धा) जो सिद्ध होचुके हैं (जे सिज्झिहिहि) जो सिद्ध होंगे (ज सिज्झाहे) जो सिद्ध होरहे हैं (ते वि कुड अप्पा दंसाण) वे सब प्रगटपने आत्माके दर्शनसे हैं. ( एहउ णिभंतु जाणि ) इस बातको सन्देह रहित जानो। भावार्थ-ग्रन्थकारने ऊपर कथित गाथाओंमें सिद्ध कर दिया है कि मोक्षका उपाय केवल मात्र अपने ही आत्माका अनुभव है। मोक्ष आत्माका पूर्ण स्वभाव है। मोक्षमार्ग उसी स्वभावका श्रद्धा व ज्ञान द्वारा अनुभव है। अपना ही आत्मा · साध्य है, अपना ही आत्मा साधक है । मादान कारण ही कायरूप हो जाता है। पूर्व पर्याय कारण है, उत्तर पर्याय कार्य है। .::: ... सुवर्ण,आप ही धीरे. २ शुद्ध होता है। जैसा जैसा: अग्निका
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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