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________________ ... योगसार टीका । सहज स्वरूप में रमण कर । जइ बद्र सुकउ मुणहि तां धियहि भिंतु । सहज-सरूवड़ जड़ रमहि तो पावहि सिव सन्तु ॥ ८७ ॥ [ ३०१ अन्वयार्थ (जब सुक्क मुणा ) यदि तु बन्ध मोक्ष की कल्पना करेगा ( तो भिंतु बंधियहि ) तो निःसन्देह तु बगा (जड़ सहज-सरुबइ रमहि ) यदि तू सहज स्वरूप में रमण करेगा (तो सन्तु मित्र पावदि ) तो शांत मोक्षको पायेगा | भावार्थ – निर्वाणका उपाय एक शुद्धात्मानुभव है, जहां मनके विकल्प या विचार सत्र बन्द मी जाते हैं, काय स्थिर होती हैं, वचन नहीं रहना है वहां ही स्वानुभवका प्रकाश होता है । इसीको निर्विकल्प समाधि कहते हैं । यहीं आत्मस्वभाव है, यहीं यथार्थ मक्षिका मार्ग है, यहीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रको एकता है, यहीं रागदेष रहित वीतरागभाव है, यहीं परम समता है, यही एक अद्वैतभाव है, यही संवर व निर्जरा तत्व है ।. अतएव ज्ञानीको व्यवहारनयके विचारको तो बिलकुल छोड़ देना चाहिये । व्यवहारनयसे ही यह देखा जाता है कि आत्मामें कर्मोका बन्ध है, आत्मा के साथ शरीर हैं । आत्मा में क्रोध, मान, माया, लोभ मात्र हैं। आत्मा अशुद्ध है, इसको शुद्ध करना है। मोक्षका लाभ करना है। हम चौथे, पांचवे, छठे या सातवे गुणस्थान में हैं । गुणस्थानोंकी उन्नति करके अरहन्त व सिद्ध होना है। हम मनुष्यगति में हैं, हम सेनी पंचेन्द्रिय है, त्रस हैं, मन वचन काय योगोंके धारी हैं, हम पुरुषवेदी हैं, हमारे कषाय भाव
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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