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१३६ ] योगसार टीका। है, मानते हैं तो इन्द्र प्रसिद्ध है जैसा इस गाथामें कहा है। ये सब अरहंत परमात्माको नमन करते हैं।
भवणालय चालीसा वितर देवाण होंति बनीला । कष्पामर चौवीसा चन्दा नूरा गरो लिरिओ।
भावार्थ-भवनवाली देव, असुर कुमार, नागकु०, विशुतकु०, सुवर्णकु.८, अग्निकु०, वाताः, स्तनितकु०, उदधिकु०, द्वीपकुछ, दिककुमार ऐस दश जातिके होते हैं। हरएकमें दो दो इंद्र, दो दो प्रत्येन्द्र होते हैं । इसतरह चालीस इन्द्र हुए | व्यंतर देव आठ प्रकाके होते हैं-किन्नर, किंपुरुष, नहोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाघ । इनमें भी दो दो उन्द्र, दो दो प्रत्येन्द्र इसतरह बत्तीस इन्द्र हुए। सोलह स्वर्ग में प्रथम चारमें चार, मध्य आठमें चार, अन्त चारमें चार ऐसे बारह इन्द्र, शारद प्रत्येन्द्र इसत्तरह २४ हुए | ज्योतिषी देवोंमें चन्द्रमा इन्द्र, मुय प्रत्येन्द्र, मनुष्यों में इन्द्र चक्रवर्ती, पशुओंमें इन्द्र अष्टापद, नब १०० इन्त्र नमस्कार करते हैं।
नमस्कार दो प्रकारका होता है. व्यवहार नमस्कार, निश्चय नमस्कार | जहां शरीरादि बहरी पदार्थों की प्रशंसाकं द्वारा स्तुति हो, वह व्यवहार ननकार है । जहाँ आत्माकं गुणोंकी स्तुति हो वह निश्चय नमस्कार है । में अवहन्तके शरीरकी झोभा कहना कि वे परम देदीप्यमान हैं, १७०८ लक्षणोंके धारी हैं, निरक्षरी वाणी प्रगट करते हैं, समवसरण सहित हैं, बारह सभामें बैठे प्राणियोंको उपदेश देते हैं । यह सब ठसवहार स्तुति है।
भगवान अरहन्त अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त बीर्यके धारी है, परम वीतराग हैं, परमानन्दमय है, असंख्यात प्रदेशी हैं, अमूर्तीक है, इत्यादि | आत्माश्रित स्तुति सो
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