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________________ योगसार टीका। [११३ निर्विकारतासे स्थिर होता हुआ व ब्रह्मभावका भोग करता हुआ परम ब्रह्मचर्य गुणका स्वामी हूं । सत्ताधारी होते हुए भी स्वभावकी व गुणोंकी अपेक्षा मेरे आत्माकी व सिद्ध परमात्माकी पूणे एकता है। जो वह सौ में, जो में सो वह, इस तरह जो योगी निरन्तर अनुभव करता है वही मोक्षका साधक होता है। परमात्मप्रकाशमें कहा हैजेहउ शिम्मलु गाणमङ, सिद्धिहिं णिवसइ देउ । तेहर णिवसइ भुपरु, देहहं मंकरि भेट ॥ २६ ॥ भावार्थ-जैसा निर्मल ज्ञानमय परमात्मादेव सिद्ध गतिमें निवास करते हैं, परमब्रल परमात्मा इस अपने शरीरमें निवास करता है, कुछ भेद न जाने | बृहद् सामायिकपाटमें कहते हैं गौरो रूपधरी ज्ञः परिहटः स्थूलः कृशः कर्कशी। गीर्वाणो मनुजः पशुनरकभूः पंडः पुमानंगना ॥ मिथ्यात्वं विदधामि कल्पनमिदं मूढोऽविबुध्यात्मनो । नित्यं ज्ञानमयस्वभावममलं सर्वव्यपायच्युतं ॥ ७० ॥ भावार्थ-हे मूह प्राणी ! तु अपने आत्माको नित्य, ज्ञानमय स्वभावी, निर्मल व सर्व आपत्तियोंसे व नाशसे रहित नहीं जानके ऐसी मिथ्या कल्पना करता रहता है कि मैं गोरा हूं, रूपवान , बलिष्ट हूं, निबल हूं, मोटा हूं. पतला हूं, कठोर हूँ, मैं देव हूं, मनुष्य हूं, पशु हूं, नारकी हूं, नपुंसक हूं, पुरुप हूं, व स्त्री हूं। मोक्षपाइडमें कहा हैजो इच्छइ णिस्सरिदं संसारमहप्णयाउ रुदाओ। कम्भिधणाण हणं सो झायद भम्पयं सुद्धं ॥ २६ ॥
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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