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________________ २८.] योगमार टीका। न पुरा होनेपर यह मन्तीय म निराहार रह सके, सो वृनि परिसंख्यान तप है | जिल्हा इन्द्रिय बझ करनेको व शरीरमें मदन बढ़ने देने के लिये व रागक घटानके लिये दूध, दही, घी, तेल, लवण, शक्कर इन छड़ों को या कमको साधु न्यागकर नित्य आहार करते हैं । झरीकी स्थितिक लिये मात्र धर्मम्मवनार्थ आहार सन्तोष करने हैं मो रस परित्याग है । माधुजन स्त्री, पुरुष, नपुंसक, पशु, आदि. भावों में विचारके निमिन कारण जहां न हों ऐसे गानस्थानमें शयन व आलग करन हैं व ध्यान स्वाध्यायको सिद्धि करते हैं, स्ली विविक्त-शयासन नाप है। शरीरके सुखिया व आलसी स्वभावको मिदाने लिये कठिन २ निर्जन स्थानोंमें आसन जमाकर ध्यान करने हैं। __नदीजन, श्री . ' मा ठार मन तन होते हुए शीन ताप साहने हैं । दूसरोंको दीन्यता है कि कायको क्लेश देण्ई हैं पनु शीघ्र आत्मानंदमें मगन रहने है सो कायलंश तप है । जैसे कपड़ पर मेल लगने पर पानीम धोकर साफ किया जाता है बैंग्न मन, वचन काय सम्बंधी कोई दोप होजानेपर उमका प्रायश्चित्त लेकर व प्रतिक्रमण कग्य, शुद्ध करमा, भावीको निर्मल करना मो प्रायश्रिन सप है । रत्नत्रय धर्मकी व धर्म धारकोंकी भक्ति रखना व व्यवहार में विनशील रहना विनय नप है । - अन्य साधुको थका हुआ, रोगी, व अशक्त देवकर शरीन य उपदेशसे नया गृहीका व जगत प्राणियोंक) धनिदेशी उनकी आत्माओंको शानि घ सनोग पहुंचाना चैय्यानृत्य सप या सवाधर्म हैं । आत्मनानकी निर्मल नाके लिये व छः द्रव्योंके गुण पर्यायांका विशेष ज्ञान होने के लिये जिनवाणीके ग्रंथोंका पठन पाठन मनन व • कंठस्थ करना स्वाध्याय नर है । यह बड़ा ही उसकारी है ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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