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योगसार टीका |
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भावार्थ – निश्चयनयसे जाने हुये ये नौ पदार्थ सम्यक्त होते हैं अर्थात् ये नौ पदार्थ जीव अजीवके संयोगसे हैं । अनाबादि सात पदार्थ जीव व कर्मवर्गणाकं सयागसे होते हैं। इनमें एक जीव कर्मरहित ग्रहण करने योग्य है ऐसा श्रद्धान निश्चयसे सम्यक्त है ।
सब पदार्थों में चेतनेवाला एक जीव ही है।
सव्व अवेयण जाणि जिय एक सवेयण सारु । जो जाणेविण परममुणि लहु पायइ भवपारु ॥ ३६ ॥ अन्वयार्थ - ( सव्व अचेयण जाणि) पुहलादि सर्व पांचों द्रव्योंको व उनसे बने पदार्थोंको अचेतन या जड़ जानो ( एक्क जिय सचेयण सारु ) एक अकेला जब ही सचेतन हैं व सारभूत परम पदार्थ है (परम पुणि जो जाणंविण लहु भवपारु पावइ ) परम मुनि जिस जीव सत्वको अनुभव करके शीघ्र ही संसारसे पार होजाते हैं ।
भावार्थ-छः द्रव्यों में एक आत्मा ही सचेतन है जो अपनेको भी जानता है व सर्व जाननेयोग्य ज्ञेय पदार्थों को भी जानता है । पांच पुलादि द्रव्य चेतना रहित जड़ हैं। नौ पदार्थों में भी यदि शुद्ध निश्रयनयसे देखा जाये तो एक आत्मा भिन्न ही दीख पड़ता है। जैसे शकरको अन्नके साथ मिलाकर नौ मिठाइयां बनाई जावे तौभी उनमें शकरको देखनेवाला शकरको जुश देखता है ।
ज्ञानीको उचित है कि वह अपने आत्माको सर्व परद्रव्योंसे. भिन्न देखे | आठ कर्म भी जड़ हैं, शरीर भी जड़ है, कर्मके निमित्तसे होनेवाले औपाधिक विकारीभाव भी आत्माका स्वभाव नहीं । मतिज्ञानादि खण्ड व क्रमवर्ती ज्ञान भी कर्मके संयोगसे होते हैं, ये भी