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________________ २२४] योगसार तीक्षा मुझे सर्व मनके विकारोंको बंद करके व सर्व जगतके पदार्थों विरक्त होकर अपने उपयोगको अपने ही भीतर सूक्ष्मतासे लेजान चाहिये तब मुझे यही दिख जायगा कि मैं ही परब्रह्म परमात्मा हूँ यही आत्मदर्शन, यही आत्मानुभव केवलज्ञानका प्रकाशक है। परमात्मप्रकाशमें कहा हैमुत्तिविहणार णाणमड, परमाणंद सहाउ । णियमे जोइय अप्पु मुणि सिच्चु णिरंजग माद ॥ १४३।। भावार्थ-हे योगी| निश्वयसे तु आत्माको अमूर्नीक, ज्ञानमय परमानंद स्वभावधारी, नित्य, निरंजन पदार्थ जान | तत्वानुशासनमें कहा है सट्रव्यमस्मि चिदहं ज्ञाता द्रष्टा सदाप्युदासीनः । स्वोपात्तदेहमानस्ततः पृथग्गगनवदमूर्तः ॥ १५३ ॥ भावार्थ-मैं अपनी सत्ताको रखनेवाला एक निराला द्रव्य हूं, स्वानुभव रूप हूं. ज्ञाता व दृष्टा है, सदा ही वीतराग हूं, अपने शरीरमें व्यापक हूं तो भी शरीरसे भिन्न, आकाशके समान अमूर्तीक हूं । आकाशके समान होकर भी मैं सचेतन है। जेहउ सुद्ध अयासु जिय तेहउ अप्पा वुत्तु । आयासु वि जड जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु ॥५९॥ अन्वयार्थ (जिय) हे जीव1 (जेहउ अयासु सुद्ध तेहउ अप्पा बुत्तु) जैसा आकाश शुद्ध है वैसा ही आत्मा कहा गया है (जिय आयासु वि जड जाणि) हे जीव ! आकाशको जड़ अचेतन जान ( अप्पा चेयणुवंतु ) आत्माको सचेतन जान ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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