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योगसार टीका। [५१. सात प्रकार योग होते है-सन्य मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्य वचनयोग, अनुभ्य वचनयोग, औदारिक काययोग; फेवलि समुद्घानमें ही होनेवाले औदारिक मिश्र काययोग और कार्मणयोग | भाव मनका काम नहीं होता है, क्योंकि श्रुतज्ञान य चिन्ता व तर्कका कोई काम नहीं रहता है । मनोवगणाका ग्रहण होनेपर द्रव्य मनमें परिणमन होता है। इसी अपेक्षा मनोयोग कहा है । वाणी खिरती. है, बिहार होता है | केवली समुद्रातमें लोकाकाश प्रमाण आत्मप्रदेश फैलते हैं । यह तेरहवां गुणस्थान आयुपर्यंत रहता है । जय इतना काल आयुमें शेष रहता है जितना काल अ, इ, उ, ऋ, लू इन पांच लघु अक्षर के बोलने में लगता है तब अयोग केवली जिन होजाते हैं, चौदहा गुणस्थान होजाता है। यहां योग काम नहीं करता है, अन्तके दो समयमें चार अघातीय कर्मोकी ८५ प्रकृतियोंका क्षय करके सिद्ध व अशरीर होकर मिहनारें जाकर विराजते हैं । तेरहवे गुणस्थानमें १४८ कर्मप्रकृतियोंमेंस ६३ कर्मप्रकृतियों का नाश हो चुकता है वे ६३ हैं
४७ चार घातियाकी-- ज्ञा+ ९ दर्शना०+२८ मोह + ५ अंत० तथा १६ अघातीयको जरक तियच देवायु ३ + नरकगति + नरक गत्यानुपूर्वी, + तिर्यंचगति, + लियंचगत्या • + एक, दो, तीन, चार इंद्रिय जाति ४ + उद्योन + आतप + साधारण + सूक्ष्म + स्थावर
ग्रंथकर्ताने अपने शालझानक मुल श्रोत रूप अरहंत भगवानको परोपकारी जान कर नमस्कार किया है व ग्रंथको कहनेकी प्रतिज्ञा की है