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१२] योगसार टीका ।
ग्रन्थको कहनेका निमित्त व प्रयोजन। संसारहं भयभीयाहं मोक्खह लालसियाह । अप्पासंबोहणकयइ कय दोहा एकमनाई ॥ ३ ॥
अन्वयार्थ (संसारहं भयभीयाह) संसारसे भय रखनेवालोंके लिये व (मोक्ख लालसिया) मोक्षकी लालसा धारण करनेवालोंके लिये (अप्पासंबोहणकयइ) आत्माका स्वरूप समझाने के प्रयोजनसे ( एक्कमणाई) एकान मनसे (दोहा कय) दोहोकी रचना की है। - भावाथ - जिसमें अनादिकालसे चार गतियोंमें संसरण या भ्रमण जीवोंका होरहा हो उसको संसार कहते हैं। चारों गतियों में लेश व चिंताएं रहती है, शारीरिक व मानसिक दुःख जीवको कमौके उदयसे भोगने पड़ते हैं। जन्म व मरणका महान क्लेश तो चारों ही गतियों में है, इसके सिवाय नरक आगमके प्रमाणसे तीन शारीरिक व मानसिक दुःख जीवको बहुत काल सहने पड़ते हैं। वहां दिन रात मार थाइ रहती है, नारकी परस्पर नाना प्रकार शरीरकी अपृथग़ विक्रियासे पशु रूप व शास्त्रादि बनाकर दुःख देते हैं व सहते हैं । तीसरे नरक तक संदेश परिणामोंक धारी असुरकुमार देव भी उनको लड़ाकर क्लेश पहुंचाते हैं। बैंक्रियिक शरीर होता है। पारेके समान गलकर फिर बन जाता है । तीन भूख प्यासकी वेदना सहनी पड़ती है । नारकी नरकके भीतर रत नहीं होते हैं, इसीलिये वे स्थान नरत व नरक कहलाते हैं।
तिच गतिमें एकेन्द्रिय स्थावर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदिक प्राणियोंको पराधीनपने व निर्मलतासे घोर कष्ट सहने पड़ते हैं। मानव पशुगण सर्व ही इनका व्यवहार करते हैं । वे बार बार