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________________ 1 योगसार टीका | [ २३५ रहनेवाला परम पदार्थ परमात्मा है। मैं ऐसा ही हूं। ऐसा निश्चय अनुभव पूर्वक होना ही सम्यग्दर्शन गुणका प्रगट होना है। सो मिध्यात् कर्म व अतानुबंधी कपायके उपशम बिना नहीं होता है। शास्त्रोंको ठीक ठीक जाननेपर भी जहृतिक स्वानुभव न हो वहां तक ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता है । सम्यग्दर्शन के प्रकाश पोते की ज्ञान है। उचित है कि आत्मा के श्रद्धान व ज्ञानमें बार बार रमण करें। बार बार भावना भाव | भावना में चलना सी चारित्र है । जहाँ आत्मा आपसे आपमें स्थिर होजाता है वहां रत्नत्रयकी एकता होती है। वही मोक्षमार्ग है। रत्नत्रय धर्म निज आत्माका स्वभाव ही है । पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा है दर्शनमात्मविनिश्वितिरालपरिज्ञानमिष्यते बोधः । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥ २१६ ॥ सम्यक्चरित्रमोघलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः । मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ॥ २२२ ॥ भावार्थ --- अपने आत्माका निश्चय सम्यग्दर्शन है । अपने आत्माका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । अपने आत्मामें स्थिरता सम्यक्चारित्र है | इन तीनोंसे कर्मबंध नहीं होता है | निश्चय व्यवहार रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग यही आत्माको परमपद में पहुंचा देता है । आत्मानुभव में सब गुण हैं । जहि अप्पा तहि सयल गुण केवलि एम भणति । तिहि कारणएं जोइ फुड अप्पा विमलु मुणंति ॥ ८५ ॥ अन्वयार्थ - ( जहिं अप्पा तहिं सयल गुण ) जहां आत्मा
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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