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योगसार टीका ।
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-देखता हूं तो वहीं सर्व रागादि क्षय होजाते हैं, तब मेरा कोई शत्रु या मित्र नहीं होता है, समभाव छा जाता है।
aanti at पदार्थोंका ज्ञान आवश्यक है ।
छहदह जे जिण कहिआ णव पयत्थ जे तत्त |
हारे जिणउत्तिया ते जाणियहि पयत्त ।। ३५ ॥ अन्वयार्थ - ( जिण जे छहदव्बह णव पयत्य जे तत्त कहिआ ) जिनेन्द्रने जो छः द्रव्य, नौ पदार्थ और सात तत्व कहे हैं (वहारे जिउत्तिया ) वे सब व्यवहारनयसे कहे हैं (पयत्त ते जाणियहि ) प्रयत्न करके उनको जानना योग्य है ।
भावार्थ - निर्वाणका उपाय निश्चयसे एक आत्माके दर्शन या आत्मानुभवको बताया है । परन्तु उपाय तत्र ही किया जाता है जब यह निश्चय हो कि उपाय करनेकी क्या आवश्यक्ता है ? इसलिये सावकको यह भलेप्रकार जानना चाहिये कि वह निश्वयनयसे शुद्ध है तथापि वह अनादिसे कर्मबन्धके कारण अशुद्ध होरहा है।
यह अशुद्धता कैसे होती है व कैसे मिट सकती है इस बातका विस्तारसे कथन व्यवहारनयसे जिनेन्द्र ने बताया है। क्योंकि परके आश्रयको लेकर आत्माका कथन व्यवहारनयसे ही किया जाता है तब छः द्रव्योंको, सात तत्वोंको व नौ पदार्थोंको भलेप्रकार जानना चाहिये। इसलिये साधकको अध्यात्म शान में प्रवेश करने के पहले श्री तत्वार्थसूत्र व उनकी टीकाएं सर्वार्थसिद्धि, राजधार्तिक, श्लोकवार्तिक, गोमसार आदि व्यवहार प्रधान ग्रंथोंको जानना जरूरी है। इनके अद्धानको ही व्यवहार सभ्यक्त कहा गया है, जो आत्म प्रतीतिरूप निश्चय सम्यक्त के लिये निमित्त कारण है ।
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