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________________ योगमार नीला। स्वसंवेदनमुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः । अान्यतसहिष्यवाना मा लोकालोकविलोकनः ॥ २१ ॥ भावार्थ-ह. आत्मा लोकालोकको देखनेवाला अत्यंत सुखी नित्य द्रव्य है, स्वानुभवसे ही इसका दर्शन होला है | व अपने शरीरके प्रमाण हैं । अापत्र परमानंदपद अपने शुद्ध आत्मादेवको शरीरके प्रमाण आकारधारी मनन करे व ध्यावे तो शीव ही निर्वाण पाये। जीव सम्यक्त विना ८४ लाख योनिमें भ्रमण करता है। चरालीलपरवाह मिनिट काल अणाइ अणंतु। पर सम्मत्त ग ल जिउ एहउ जाणि णिमंतु ॥२५॥ अन्वयार्थ--(अणाइ काल) अनादिकालसे (चउरासी लक्खद फिरि ) यह जीव ८४ लाख योनियोंमें फिरता आरहा है । अणंतु ) व अनंतकाल तक भी सम्यक्त बिना फिर सक्ता है। (पर सम्मत्त ण लाद । परन्तु अबतक इलने सम्यग्दर्शनको नहीं पाया (जिउ है जीव ! (णिभंतु एहर जाणि) निःसंदेह इस यातको जान । भावार्थ-- सानपदार्थों का समूह होने से यह लोक तथा संसार अनादि-अमंत है। संसारी जीय अनादिसे ही कर्मबन्ध से ग्रसित हैं व नए कर्म बांधते हैं, पुराने कर्मोको छोड़ते हैं। मोहनीयकर्मके उदयसे मिथ्याष्ठी अज्ञानी, असंयमी होरहे हैं। उनको शरीरका व इंद्रियोंक सुखोंका व इंद्रियसुखके सहकारी पदार्थीका तीन मोह रहता है। इसीसे वे संसारमें नाना शरीरोको धार करके भ्रमण किया करते हैं।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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