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________________ १२८ ] योगसार टीका । सम्यग्दर्शन आत्माका स्वभाव यलका देता है । इंद्रिय सुखस श्रद्धा हटा देता है । नसार शरीर भोगोंम वैराग्यभाव पैदा कर देना है, स्वाधीनता या पोका मातो बन्लाना है तो न्यि मामा भोक्ता कर देता है । सम्यनकं प्रकाशम संसारके भ्रमणसे अरुचि होजाती है | एक इफे सम्यक्त होजानेपर यह जीव संसार दशामें अर्द्धपुगलपरिवर्तन कालम अधिक नहीं रहता है । यद्यपि वहां भी अनंतकाल है नथापि सीमित है । समयको सीन ही निवाणका भागी होजाता है। सम्यसके बिना यह जीब नरकके भवाम दशहजार वर्षकी आयुसे लेकर अनीस सागर तक, लियचगतिक भवामें एक अंतर्मुहूतसे लेकर तीन पत्यकी आयु तक मनु यगतिक नवों में एक अंतमुहूर्तमे लेकर तीन पल्य: आयु तक, देवमतिके भवामें दशहजार वर्षकी आयुमे लेकर नौमें वे रिस्कके इकनोस सामगरको आयु तकक सर्व जन्म वारवार धारण कर चुका है । न अबेनिकम ऊपर नौ अनुदिश व पाच अनुत्तरों में व मोक्षमें सम्पन्द्रष्टी ही जाता है। संसारभ्रमणकी योनियां चौरासीलाख है । जहां संसारी जीव उत्पन्न होते हैं उसको योनि कहते हैं, वे मुलमें नौ हैं। श्री मोमट्टसार जीवकांड में कहा हैसामागा व गवं पव जोगी इनि विस्था । लक्लाण चरसीदी जोणीओ होति णियमेण ।। ८८ ॥ णिच्चिदरधदुसत्त व तरुदम् वियलिदियम् उच्चव । सुरणिश्यतिरियचउरो चोइस मशुए सदसहम्सा ॥ ८१ ॥ भावार्थ-मूल भेद योनियोंके गुणों के सामान्यमे नौ होते हैंसचिस, अचित्त, मिश्र तीन; शीत, उष्ण, मिश्र तीन; संवृत (हकी),
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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