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________________ योगसार टीका । [२९७ है । रागादि सर्व विभावोंके व मूछ के त्यागसे आरमाके एक असंग भावमें रमण करनेमे आत्मामें ही परिग्रह त्याग व्रत है । आत्मा 'आत्मामें सत्य भावस जब ठहरा है तब वहां निश्चवसे सामायिक है। 'जब आत्माका अनुभव करते हुए बीनरागता होती है तब गत कालके बन्धे हार काँसे वीरागना होती है व वे कर्म स्वयं निर्जराको प्राप्त होते जाते हैं. इसलिये वहीं निश्चय प्रतिक्रमण है । आत्मामें जा रनपता है बनायी होकार विभावों की त्याग है, इसलिये निश्चय प्रत्याख्यान है। आत्मा अपने आत्माके गुणोंमें या गुणी आत्मामें परम एकाग्र भावमें लीन हैं। यही निश्चय स्तुति है । आत्मा आत्माका ही आराधन ब विनय कर रहा है। यही निश्चय वंदना है। __ आत्मास शरीरादि सर्व परद्रव्योन मोह त्याग दिया है व आपसे आपमें थिरना की है, यही निश्चय कायोत्सर्ग है | मन, वचन, कायके सर्व विकारोंसे भिन्न होकर आत्मा आत्मामें ही गुप्त किलेमें विरा'जित है, यहीं नीन गुत्रिका पालन है। पांचों इंद्रियोंके विषयोंसे उपयोग रुककर एक आत्मामें ही तन्मय हो यही पांच इन्द्रिय निरोध संयम है। क्रोधादि चा कपायोंमें रदिन आत्मामें विराजमान होनेसे 'पूर्ण उत्तम क्षमा, उत्तम मादव, उत्तम आर्जब, उत्तम शौच धर्म है । आत्मा परम शांत है, परम कोमल है, परम सरल है, परम शुचि है । आत्माके दर्शन गुण है, वीर्वगुण है, आनन्दगुण है. ज्ञानचेतना है, सर्व ही शुद्ध गुणोंका निवास आत्मा है । जिसने आत्माका आराधन किया उसने सर्व आत्मीक गुणोंका आराधन कर लिया। आत्माके ध्यान ही आत्माके गुण विकसित होते हैं । श्रुतज्ञानकी पूर्णता होती है। अवधिज्ञान व मनापर्यग्रज्ञानकी रिद्धि प्रगट होती
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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