SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यांगसार टीका। है, केवलजानका लाभ होता है। निर्माणका परम ध्याय एक आत्माका ध्यान है । तत्वानुशासन में कहा है यो मध्यस्थः पश्यति जानात्यात्मानमामिलामन्यामा । हावगमचरणरूपम्स निश्चयान्मुक्तिहेतुरिनि जिनोक्तिः ।।३।। भावार्थ-जो वीतरागी आत्मा आत्माक भीतर आत्माकं द्वारा आत्माको देखता व जानता है वह स्वयं सम्यग्दर्शन, ज्ञानचारिकरूप होता है। इसलिये निश्चय मोनमार्ग स्वरुप है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं । एक आत्माका ही मनन कर । एकलउ इंदिय रहियउ मण वय काय ति-सुद्धि । अप्पा अपु मुणेहि तु९ लहु पावहि सिव-सिद्धि ॥८६।। अन्वयार्थ-(एकलउ) एकाकी निग्रंथ होकर (इंदिय रहियउ) पांचों इन्द्रियोस विरक्त होकर । मण वय काय ति. सुद्धि ) मन वचन कायकी शुद्धिमे ( तुहं अप्पा अप्पु मुणहि । त आत्माके द्वारा आत्माका मनन कर (सिव-सिद्धि लहु पावहि) मोलकी सिद्धिः शीघ्र ही कर सकेगा । भावार्थ-आत्माका मनन निश्चिन्त होकर करना चाहिये। इसलिये गृहस्थीका त्याग जरूरी है । गृहस्थके व्यवहार धर्म, पैसा कमाना, काम भोग करना, इन तीनों कामोंके लिये मन बचन कायको चंचल व राग द्वेपसे पूणि व आकुलित रखना पड़ता है व पांचों इन्द्रियोंके भोगांमें उलझना पड़ता है। जब सर्व चिंताएं न रहेगी तब ही मन स्थिर होकर संकल्प विकल्पसे रहित होकर अपने आत्माके शुद्ध स्वभावका मनन कर -- - ---
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy