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________________ ४८] योगसार टीका। . परमात्माका पद किसी कर्मका फल नहीं है। किंतु स्वाभाविक आत्माका पद है । इसलिये वह कभी विभाव रूप नहीं होसता है । चही परमात्मा सञ्ा विष्णु है, क्योंकि वह सर्वज्ञ होनेमे उसके झानमें सर्व द्रव्योंके गुणपर्याय एकसाथ विराजमान है। इसलिये वह सर्वव्यापी विष्णु है, वही सचा बुद्ध है, क्योंकि जाताना है व सर्व अज्ञानसे रहित है। वहीं समा शिव है, मंगलाप हैं । उसके भजनसे हमारा कल्याण होता है । तथा वह परमात्मा परम शांत है, परम धीतराग है। नियर सिद्ध हो जाने परमात्मा हैं। अतकी आत्मामें भी परमात्माके गुण प्रगट हैं। परंतु वे चार अचानीय कर्मसाहित हैं, शरीर रहित है। परंतु शीघ्र ही निद्ध होगे । इसलिये उनको भी परमात्मा कहते हैं । सर्वज्ञ व वीतराग दोनों ही अरहंत व सिद्ध परमात्मा है। परमात्मा हमारे लिये आदी है, हमें उनको पहचानकर उनके समान अपनको बनानेकी चेष्टा करनी चाहिये । परमात्मपकाशमें कहा है अप्पा लद्धड गाणपउ. कम्भविमुके जण । मेल्लिवि सन्य वि नन्नु परु, सो पर मुगाई मार्गणा ॥१५॥ णि गिरजणु माणसट, परमाणवाहा। जो पहाइ सो संतु मिर, साप मुणिजह 12 ॥ वयहि सत्यहिं इंटियहि, झो जिय मु य भाइ । णिम्मल-झागहं जो जिनउ, भो परमप्यु मलाइ ॥२३॥ भावार्थ-जिसने सर्व कर्मोंको दूर करके व सर्व देहादि परद्रव्योका संयोग हटाकर अपने ज्ञानमय आत्माको पाया है वही परमात्मा है, उसको शुद्ध मनसे जान | वह परमात्मा नित्य है, निरं
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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