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________________ योगसार टीका | [ ४८३ भावार्थ -- जो मानव व्यवहार चारित्रमें ही मृढ़ हैं उससे मोक्ष मानते हैं और परमार्थ या निश्चय रत्नत्रय या स्वानुभवको मोनमार्ग नहीं समझते हैं ये पुरुष बैसे ही मृढ़ हैं जैसे जो सुपको नंदु समझकर तुपको चावलोंके लिये कुटे | वे कभी चावल्लका लाभ नहीं कर सकेंगे। व्यवहार चारित्र तुप है निश्चय चारित्र तंदुल है। तंदुल बिना तुप वृथा है, निश्चय चारित्रविना व्यवहारचारित्र वृधा है । अकेला व्यवहारचारित्र वृथा है । जयनवर जमुसील जियस कच्छु । जाए ण जागह इक्क परु सुद्रउ भाउ पवितु ॥ ३१ ॥ अन्वयार्थ ( जिय) हे जीव ! ( जाणइ इक्क परु सुद्धउ पवित्र भाउ ण जाणइ ) जबतक एक उत्कृष्ट शुद्ध वीतराग भावका अनुभव न करें ( वयतत्र संजम सील ए सच्चे अकलु ) तत्रतक व्रत, तप, संयम, शील ये सर्व पालना इथा है, मोक्षके लिये नहीं है। पुण्य बांधकर संसार बढ़ानेवाले हैं। भावार्थ-व्यवहारचारित्र निश्चयचारित्रके विना निर्वाणके लिये व्यर्थ है। निर्वाण कर्मके क्षयसे होता है उसका उपाय वीतरागभाव है जो शुद्धात्मानुभव में प्राप्त होता है। निश्चय चारित्र र समयरूप है, आत्माहीका एक निर्मल भाव है। जहां इस भावपर लक्ष्य नहीं है वह मोक्षमार्ग नहीं है । व्यवहार तादि पाल्नमें मन, वचन, कायकी शुभ प्रवृत्ति होती है। शुभोपयोग या मन्द काय है । सम्यग्दर्शनके बिना मन्द कषायक भी वास्तव में शुभोपयोग नहीं कह सक्ते है सौ मी जहाँ
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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