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________________ यामसार टीका । (९) अनित्तिकरण-५, मुंवेद, सज्वलन कपाय ४-५ (१०) सूक्ष्मसापराय-१६, ज्ञानावरण ५, दर्शना० ४, अन्तराय. ५. अश, उच्च गोत्र=१६ (११) उपशांत कषाय- ५ ० (१२) क्षीणकषाय--. (१३) सयोगकेवली-१ साताबेदनीय । १२ आत्मानुभवफे प्रतापमे कमवन्ध घटता जाता है ! अयोगकेवली पूर्ण आत्मरमी है। योगोंकी चंचलता नहीं है इससे कोई कर्मका बंध नहीं होता है | समयसारकलशमें कहा है रागद्वेपविमोहानां झानिनो यदसंभवः । तत एव न बन्धो स्य ते हि बन्धस्य कारणम् ॥ ७-५॥ भावार्थ---ज्ञानीकै गग द्वेष मोह नहीं होते इसलिये ज्ञानीको बन्ध नहीं होता, वे ही अन्धके कारण हैं | आत्मरमण तत्वसे वीनरागभान बढ़ता है, बन्ध रुकता है। समसुख भोगी निर्वाणका पात्र है ! जो समसुक्ख णिलीणु बुहु पुण पुण अनु मुगेइ । कम्मक्खर करि सो वि फुड ला णिव्याणु लहेई ॥ ९३ ।। अन्वयार्थ (जो बुहु सम सुक्ख णिलीशु युग गुण अप्पु मुणेइ) जो ज्ञानी सब सुखमें लीन होकर चार कार आत्माका अनुभव करता है ( सो वि कुटु कम्मखउ कर लहु णिव्वाणु लहेइ) वही प्रगढ़पने कौका क्षय करके शीघ्र ही निर्वाणको पाता है। . भावार्थ-निर्माणका उपाय कष्ट सहन नहीं है किंतु समभा
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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