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________________ -- योगसार टीका । समयसारकलशमें कहा हैइति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः 1 रागादीनात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः ॥ १४ ॥ भावार्थ -- ज्ञानी अपनी आत्म वस्तुके स्वभावको ठीक ठीक जानता है, इसलिये रागादि भावोंको कभी आत्माका धन नहीं मानता हैं, आप उनका कर्ता नहीं होता है, वे कर्मोदयसे होते हैं, यह उनका जाननेवाला है । ५८ ] बृहत् सामायिक पाठ श्री अभितिगति आचार्य कहते हैंनाहं कस्यचिदस्मिकथन न मे भावः परो विद्यते मुक्त्वात्मानमपास्तकर्म्मसमिति ज्ञानक्षणालंकृति । यस्यैषा मतिरस्ति चेतसि सदा ज्ञातात्मतत्त्वस्थिते स्तस्य न मंत्रितस्त्रिभुवनं सांसारिक बंधनेः ॥ ११ ॥ भावार्थ - अंतरात्मा ज्ञानी विचारता है कि मैं तो ज्ञान नेत्रों अलंकृत व सर्व कर्म-समूहसे रहित एक आत्मा द्रव्य हूं। उसके सिवाय कोई परद्रव्य या परभाव मेरा नहीं है न में किसीका संबंधी हूं। जिस आत्मीक तत्यके ज्ञाताके भीतर ऐसी निर्मल बुद्धि सदा रहती है उसका संसारीक बंधनोंसे बंधन तीन लोकमें कहीं भी नहीं होता । नागसेन मुनि तत्वानुशासनमें कहते हैं-सद्द्रव्यमस्मि चिदहं ज्ञाता द्रष्टा सदाप्युदासीनः । स्वोपारादेहमात्रस्ततः पृथग्गगनबदमृतः ॥ १५३ ॥ भावार्थ - मैं सत भाव द्रव्य हूं, चैतन्यमय हूं, ज्ञाता दृष्टा हूँ । सदा ही वैराग्यवान हूं । यद्यपि शरीर में शरीर प्रमाण हूं तो भी शरीरसे जुदा हूँ | आकाशके समान अमृतक हूं ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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