Book Title: Shatkhandagama Pustak 11
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला-टीका-समन्वितः SR षटूखंडागमः वेदनाक्षेत्रविधान-वेदनाकालविधान खंड ४ भाग ५,६ पुस्तक ११ सम्पादक हीरालाल जैन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलि-प्रणीतः षट्रखंडागमः श्रीवीरसेनाचार्य-विरचित-धवला-टीका-समन्वितः । तस्य चतुर्थखंडे वेदनानामधेये हिन्दीभाषानुवाद-तुलनात्मकटिप्पण-प्रस्तावनानेकपरािशष्टः सम्पादितान वेदनानुयोगद्वारगर्भितानि वेदनाक्षेत्रविधान-वेदनाकालविधानानुयोगद्वाराणि सम्पादक: नागपुर-विश्वविद्यालय-संस्कृत-पाली-प्राकृतविभागाध्यक्षः एम्. ए., एल्एल्. बी., डी. लिट. इत्युपाधिधारी हीरालालो जैनः सहसम्पादकः पं. बालचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री संशोधने सहायकः डा. नेमिनाथ तनयः आदिनाथः उपाध्यायः एम्. ए., डी. लिट. प्रकाशक: श्रीमन्त शेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र जैन-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालय अमरावती ( बरार) वि. सं. २०११] वीर-निर्वाण संवत् २४८१ [ई. स. १९५५ मूल्यं रूप्यक-द्वादशकम् Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " प्रकाशकश्रीमन्त शेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र .. जैन-साहित्योद्धारक फंड कार्यालय अमरावती (बरार) मुद्रक१-१९ फार्म-सरस्वती मुद्रणालय, अमरावती, म. प्र. शेष-रघुनाथ दिपाजी देसाई न्यू भारत प्रिंटिंग प्रेस, ६ केलेवाड़ी, गिरगाँव, बम्बई ४. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE ȘAȚKHAŅDĀGAMA OF PUSPADANTA AND BHUTABALI WITH THE COMMENTARY DHAVALĀ OF VIRASENA VOL. XI Vedanāksetravidhāna-Vedanākālavidhāna Anuyogadwaras Edited with translation, notes and indexes BY Dr. HIRALAL JAIN, M. A., LL, B., D. LITT. ASSISTED BY Pandit Balchandra Siddhānta Shastri with the cooperation of Dr. A. N. UPADHYE, . A., D. LITT. Published by Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sāhitya Uddhāraka Fund Kāryālaya, AMRAVATI (Berar ). 1955 Price Rupees Twelve Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published byShrimant Soth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sahityn Uddharaka Fund Karyalaya, AMRAVATI ( Berar). Printer:Forms 1-19 Saraswati Printing Press, Amraoti, M. P. Rest-R. D. Desai, New Bharat P. Press, 6, Kolowadi, Girgaon, Bombay 4. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १ प्राक्कथन प्रस्तावना विषय-परिचय २ विषयसूची ३ शुद्धिपत्र मूल, अनुवाद और टिप्पण १ वेदनाक्षेत्रविधान २ वेदनाकालविधान ७५-३६८ . परिशिष्ट सूत्रपाठ वेदनाक्षेत्रविधानका सूत्रपाठ वेदनाकालविधानका सूत्रपाठ २ अवतरण-गाथासूची ३ ग्रन्थोल्लेख ४ पारिभाषिक शब्द-सूची Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्-कथन षट्खंडागम भाग १० के प्रकाशनके पश्चात् इतने शीघ्र प्रस्तुत भाग ११ को पाकर पाठक प्रसन्न होंगे, और प्रकाशनसम्बन्धी पूर्व विलम्बके लिये हमें क्षमा करेंगे, ऐसी आशा है। इस भागके प्रथम १९ फार्म अर्थात् पृष्ठ १ से १५२ तक पूर्वानुसार सरस्वती प्रेस, अमरावतीमें छपे हैं; और शेष समस्त भाग न्यूभारत प्रेस, बम्बई, में छपा है । इस कारण यदि पाठकोंको टाइप, कागज व मुद्रण आदिमें कुछ द्विरूपता व दोष दिखाई दे तो क्षमा करेंगे । यदि बम्बईमें मुद्रणकी व्यवस्था न की गई होती तो अभी और न जाने कितने काल तक इस भागके पूरे होनेकी प्रतीक्षा करनी पड़ती। बम्बईमें इसके मुद्रणकी व्यवस्था करा देनेका श्रेय श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमीको है इस कार्यमें हमें उनका औपचारिक रूपमात्रसे नहीं, किन्तु यथार्थतः तन, मन और धनसे सहयोग मिला है जिसके लिये हम उनके अत्यन्त कृतज्ञ हैं। उनकी बड़ी तीव्र अभिलाषा और प्रेरणा है कि धवलशास्त्रका सम्पादन-प्रकाशन-कार्य जितना शीघ्र हो सके पूरा कर देना चाहिये, और इसके लिये वे अपना सब प्रकार सहयोग देनेके लिये तैयार हो गये हैं। इस कार्यकी शेष सब व्यवस्था पूर्ववत् स्थिर रही है जिसके लिये हम धवलाकी हस्तलिखित प्रतियोंके स्वामियोंके तथा सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी व व्यवस्थापक समितिके अन्य सदस्योंके उपकृत हैं। सहारनपुरनिवासी श्री रतनचंद्रजी मुख्तार और उनके भ्राता श्री नेमिचन्द्रजी वकील इन सिद्धान्त ग्रंथोंके स्वाध्यायमें असाधारण रुचि रखते हैं, यह हम पूर्वमें भी प्रकट कर चुके हैं। यही नहीं, वे सावधानीपूर्वक समस्त मुद्रित पाठपर ध्यान देकर उचित संशोधनोंकी सूचना भी मेजनेकी कृपा करते हैं जिसका उपयोग शुद्धिपत्रमें किया जाता है। इस भागके लिये भी उन्होंने अपने संशोधन भेजनेकी कृपा की। इस निस्पृह और शुद्ध धार्मिक सहयोगके लिये हम उनका बहुत उपकार मानते हैं। पाठक देखेंगे कि भाग १२ वाँ भी प्रायः इसके साथ ही साथ प्रकाशित हो रहा है, जिससे पूर्वविलम्बका हमारा समस्त अपराध क्षम्य सिद्ध होगा। नागपुर, ३ फरवरी १९५५ हीरालाल जैन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय वेदना महाधिकारके अन्तर्गत जो वेदनानिक्षेपादि १६ अनुयोगद्वार हैं उनमेंसे आदिके ४ अनुयोगद्वार पुस्तक १० में प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत पुस्तकमें उनसे आगेके वेदनाक्षेत्रविधान और वेदनाकालविधान ये २ अनुयोगद्वार प्रकाशित किये जा रहे हैं । ५ वेदनाक्षेत्रविधान द्रव्यविधानके समान इस अनुयोगद्वारमें भी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये तीन अनुयोगद्वार हैं । यहाँ प्रारम्भमें श्री वीरसेन स्वामीने क्षेत्रविधानकी सार्थकता प्रगट करते हुए प्रथमतः नाम, स्थापना, द्रव्य व भावके भेदसे क्षेत्रके ४ भेद बतला कर उनमेंसे नोआगमद्रव्यक्षेत्र (आकाश ) को अधिकारप्राप्त बतलाया है। ज्ञानावरणादि आठ कर्म रूप पुद्गल द्रव्यका नाम वेदना है । समुद्घातादि रूप विविध अवस्थाओंमें संकोच व विस्तारको प्राप्त होनेवाले जीवप्रदेश उक्त वेदनाका क्षेत्र है । प्रकृत अनुयोगद्वारमें चूंकि इसी क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है, अतएव · वेदनाक्षेत्रविधान ' यह उसका सार्थक नाम है। (१) पदमीमांसा-जिस प्रकार द्रव्यविधान (पु. १०) के अन्तर्गत पदमीमांसा अनुयोगद्वारमें द्रव्यकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि कर्मोंकी वेदनाके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य तथा देशामर्शकभावसे सूचित सादिअनादि पदोंकी प्ररूपणा की गई है; ठीक उसी प्रकारसे यहाँ इस अनुयोगद्वारमें भी उन्हीं १३ पदोंकी क्षेत्रकी अपेक्षा प्ररूपणा की गई है। उससे यहाँ कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं है ( देखिए द्रव्यविधानका विषयपरिचय प्रस्तावना पृ. २-४ )। (२) स्वामित्व अनुयोगद्वारमें उत्कृष्ट पद विषयक स्वामित्व और जघन्य पद विषयक स्वामित्व, इस प्रकार स्वामित्वके २ भेद बतलाकर प्रकरण वश यहाँ जघन्य व उत्कृष्टके विषयमें निश्चित पद्धतिके अनुसार नामादि रूप निक्षेपविधिकी योजना की गई है। इसमें नोआगमद्रव्य. जघन्यके ओघ और आदेशकी अपेक्षा मुख्यतया २ भेद बतलाकर फिर उनमेंसे भी प्रत्येकके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा ४-४ भेद बतलाये हैं। उनमें ओघकी अपेक्षा एक परमाणुको द्रव्य-जघन्य कहा गया है । कर्मक्षेत्रजघन्य और नोकर्मक्षेत्रजघन्यके भेदसे क्षेत्रजघन्य दो प्रकारका है । इनमें सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहनाका नाम कर्मक्षेत्रजघन्य और एक आकाशप्रदेशका नाम नोकर्मक्षेत्रजघन्य बतलाया है। एक समयको कालजघन्य और परमाणुमें रहनेवाले एक स्निग्धत्व आदि गुणको भावजघन्य कहा गया है। आदेशतः तीन प्रदेशवाले स्कन्धकी अपेक्षा दो प्रदेशवाला स्कन्ध द्रव्यजघन्य, तीन आकाशप्रदेशोंमें अधिष्ठित द्रव्यकी अपेक्षा दो आकाशप्रदेशोंमें अधिष्ठित द्रव्य क्षेत्रजघन्य, तीन समय परिणत द्रव्यकी अपेक्षा दो Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय समय परिणत द्रव्य कालजघन्य, तथा तीन गुण-परिणत द्रव्यकी अपेक्षा दो गुण-परिणत द्रव्य भावजघन्य है । इसी प्रकारसे आदेशकी अपेक्षा इन द्रव्यजघन्यादिके भेदोंकी आगे भी कल्पना करना चाहिये । जैसे–चार प्रदेशवाले स्कन्धकी अपेक्षा तीन प्रदेशवाला तथा पाँच प्रदेशवाले स्कन्धकी अपेक्षा चार प्रदेशवाला स्कन्ध आदेशकी अपेक्षा द्रव्यजघन्य है, इत्यादि । यही प्रक्रिया उत्कृष्टके सम्बन्धमें भी निर्दिष्ट की गयी है। विशेष इतना है कि यहाँ ओघकी अपेक्षा महास्कन्धको द्रव्य-उत्कृष्ट, लोकाकाशको कर्मक्षेत्र-उत्कृष्ट, आकाशद्रव्यको नोकर्मक्षेत्र-उत्कृष्ट, अनन्त लोकोंको काल-उत्कृष्ट, और सर्वोत्कृष्ट वर्णादिको भाव-उत्कृष्ट कहा गया है। आगे इस अनुयोगद्वारमें ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंकी क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य वेदनायें किन किन जीवोंके कौन कौनसी अवस्थाओंमें होती हैं, इस प्रकार इन वेदनाओंके स्वामियोंकी विस्तारसे प्ररूपणा की गयी है । उदाहरणस्वरूप क्षेत्रकी अपेक्षा ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट वेदनाके स्वामीकी प्ररूपणा करते हुए बतलाया गया है कि एक हजार योजन प्रमाण आयत जो महामत्स्य स्वयम्भूरमण समुद्रके बाह्य तटपर स्थित है, वहां वेदनासमुद्धातको प्राप्त होकर जो तनुवातवलयसे संलग्न है तथा जो मारणान्तिकसमुद्धातको करते हुए तीन विग्रहकाण्डकोंको करके अनन्तर समयमें नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न होनेवाला है उसके ज्ञानावरण कर्मकी क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट वेदना होती है । इस उत्कृष्ट वेदनासे भिन्न ज्ञानावरणकी क्षेत्रकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना है । इसी प्रकारसे दर्शनावरण आदि शेष कर्मोंकी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट वेदनाओंकी प्ररूपणा की गयी है । वेदनीय कर्मकी क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट वेदना लोकपूरण केवलिसमुद्धातको प्राप्त हुए केवलीके कही गयी है। ज्ञानावरणकी क्षेत्रतः जघन्य वेदना ऐसे सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवके बतलायी है जो ऋजुगतिसे उत्पन्न होकर तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान व तृतीय समयवर्ती आहारक है, जघन्य योगवाला है, तथा सर्वजघन्य अवगाहनासे युक्त है । इस जघन्य क्षेत्रवेदनासे भिन्न अनघन्य क्षेत्रवेदना कही गयी है। इसी प्रकारसे शेष कर्मोंकी भी क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य व अजघन्य वेदनाकी यहाँ प्ररूपणा की गयी है। (३) अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारमें आठों कर्मोंकी उक्त वेदनाओंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा जघन्यपदविषयक, उत्कृष्टपदविषयक व जघन्य उत्कृष्टपदविषयक, इन ३ अनुयोगद्वारोंके द्वारा की गयी है । प्रसंग पाकर यहाँ (सूत्र ३०-९९ में) मूलग्रन्थकर्ताने सब जीवोंमें अवगाहनादण्डककी मी प्ररूपणा कर दी है। ६ वेदनाकालविधान इस अनुयोगद्वारमें पहिले नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल, समाचारकाल, अद्धाकाल, प्रमाणकाल और भावकाल, इस प्रकार कालके ७ मेदोंका निर्देश कर इनके और भी उत्तरमेदोंको बतलाते हुए तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकालके प्रधान और अप्रधान रूपसे २ मेद बतलाये हैं। इनमें जो काल शेष पांच द्रव्योंके परिणमनमें हेतुभूत है वह प्रधानकाल कहा गया है। यह Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय प्रधानकाल कालाणु स्वरूप होकर संख्यामें लोकाकाशप्रदेशोंके बराबर, रत्नराशिके समान प्रदेशप्रचयसे रहित, अमूर्त एवं अनादि-निधन है । अप्रधानकाल सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका बतलाया है। इनमें दंशकाल ( डांसोंका समय ) व मशककाल ( मच्छरोंका समय ) आदिको सचित्तकाल; धूलिकाल, कर्दमकाल, वर्षाकाल, शीतकाल व उष्णकाल आदिको अचित्तकाल; तथा सदंश शीतकाल आदिको मिश्रकालसे नामांकित किया गया है। समाचारकाल लौकिक और लोकोत्तरके मेदसे दो प्रकार है । वन्दनाकाल, नियमकाल, स्वाध्यायकाल, व ध्यानकाल आदिरूप लोकोत्तर समाचारकाल तथा कर्षणकाल (खेत जोतनेका समय) लुननकाल व वपनकाल (वोनेका समय ) आदि रूप लौकिक समाचारकाल कहा जाता है । वर्तमान, अतीत व अनागत रूप काल अद्धाकाल तथा पल्योपम व सागरोपम आदि रूप काल प्रमाणकाल नामसे प्रसिद्ध हैं। वेदनाद्रव्यविधान और क्षेत्रविधानके समान इस अनुयोगद्वारमें भी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ये ही तीन अनुयोगद्वार हैं। . (१) पदमीमांसा अनुयोगद्वारमें ज्ञानावरणादि कर्मोंकी वेदनाओंके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट आदि उन्हीं १३ पदोंकी प्ररूपणा कालकी अपेक्षा ठीक उसी प्रकारसे की गयी है जैसे कि द्रव्यविधानमें द्रव्यकी अपेक्षासे और क्षेत्रविधानमें क्षेत्रकी अपेक्षासे वह की गयी है । यहाँ उससे कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं है। (२) स्वामित्व—पिछले उन दोनों अनुयोगद्वारोंके समान यहाँ भी इस अनुयोगद्वारको उत्कृष्ट पदविषयक और अनुत्कृष्ट पदविषयक इन्हीं दो भेदोंमें विभक्त किया गया है । प्रकरणवश यहाँ भी प्रारम्भमें क्षेत्रके विधानके समान जघन्य और उत्कृष्टके विषयमें नामादि रूप निक्षेपविधिकी योजना की गयी है । तत्पश्चात् ज्ञानावरणादि कर्मों सम्बन्धी कालकी अपेक्षा होनेवाली उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट एवं जघन्य-अजघन्य वेदनाओंके स्वामियोंकी प्ररूपणा की गयी है। उदाहरणार्थ, ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट वेदनाके स्वामीका कथन करते हुए यह बतलाया है कि जो संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो चुका है, साकार उपयोगसे युक्त होकर श्रुतोपयोगसे सहित है, जागृत है, तथा उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य संक्लेशस्थानोंसे अथवा कुछ मध्यम जातिके संक्लेश परिणामोंसे सहित है, उसके ज्ञानावरण कर्मकी कालकी उत्कृष्ट वेदना होती है। उपर्युक्त विशेषताओंसे संयुक्त यह जीव कर्मभूमिज ( १५ कर्मभूमियोंमें उत्पन्न ) ही होना चाहिये, भोगभूमिज नहीं; कारण कि भोगभूमियोंमें उत्पन्न जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध सम्भव नहीं है । इसके अतिरिक्त वह चाहे अकर्मभूमिज ( देव-नारकी) हो, चाहे कर्मभमिप्रतिभागज ( स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्य भागमें उत्पन्न होः इसकी कोई विशेषता यहाँ अभीष्ट नहीं है। इसी प्रकार वह संख्यातवर्षायुष्क (अढाई द्वीप-समुद्रों तथा कर्मभूमि प्रतिभागमें उत्पन्न ) और असंख्यातवर्षायुष्क ( देव-नारकी ) इनमेंसे कोई भी हो सकता है । वह देव होना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० विषय-परिचय चाहिये, मनुष्य होना चाहिये, तिर्यंच होना चाहिये अथवा नारकी होना चाहिये; इस प्रकारकी गतिजन्य विशेषताके साथ ही यहाँ वेदजनित विशेषताकी भी कोई अपेक्षा नहीं की गयी है। वह जलचर भी हो सकता है, थलचर भी हो सकता है, और नभचर भी हो सकता है; इसकी भी विशेषता यहाँ नहीं ग्रहण की गयी । ___ इस उत्कृष्ट वेदनासे भिन्न वेदना अनुत्कृष्ट बतलायी गई है। इसी प्रकारसे यथासम्भव शेष कर्मोंकी कभी कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट वेदनाओंकी विशदतासे प्ररूपणा की गयी है। आयु कर्मकी कालतः उत्कृष्ट वेदनाका निरूपण करते हुए यह स्पष्ट किया है कि उत्कृष्ट देवायुके बन्धक मनुष्य सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, किन्तु उत्कृष्ट नारकायुके बन्धक मनुष्य पर्याप्त मिथ्यादृष्टिके साथ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच मिथ्यादृष्टि भी होते हैं। देवोंकी उत्कृष्ट आयुका बन्ध १५ कर्मभूमियोंमें ही होता है, कर्मभूमिप्रतिभाग और भोगभूमियोंमें उत्पन्न जीवोंके उसका बन्ध सम्भव नहीं है। उत्कृष्ट नारकायुका बन्ध १५ कर्मभूमियोंके साथ कर्मभूमिप्रतिभागमें भी उत्पन्न जीवोंके होता है, भोगभूमियोंमें उसका बन्ध नहीं होता। इस उत्कृष्ट देवायु और नारकायुके बन्धक संख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य व तिर्यंच उसके बन्धक नहीं होते। तीनों वेदोंमेंसे किसी भी वेदके साथ उत्कृष्ट आयुका बन्ध हो सकता है, उसका किसी वेदविशेषके साथ विरोध सम्भव नहीं है; यह जो मूल ग्रन्थकारद्वारा सामान्य कथन किया गया है उसका स्पष्टीकरण करते हुए श्री वीरसेन स्वामीने कहा है कि वेदसे अभिप्राय यहाँ भावबेदका रहा है। कारण कि अन्यथा द्रव्य स्त्रीवेदसे भी उत्कृष्ट नारकायुका बन्ध हो सकता है, किन्तु वह “ आ पंचमी त्ति सिंहा इत्थीओ जंति छठिपुढवि त्ति” इस सूत्र ( मूलाचार १२-११३ ) के विरुद्ध होनेसे सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त द्रव्यस्त्रीवेदके साथ उत्कृष्ट देवायुका भी बन्ध संभव नहीं है, क्योंकि, उसका बन्ध निर्ग्रन्थ लिंगके साथ ही होता है; परन्तु द्रव्यस्त्रियोंके वस्त्रादि त्यागरूप भावनिर्ग्रन्थता सम्भव नहीं है। कालकी अपेक्षा सब कर्मोंकी जघन्य वेदनाकी प्ररूपणा करते हुए ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मकी यह वेदना छद्मस्थ अवस्थाके अन्तिम समयको प्राप्त जीवके (क्षीणकषायके अन्तिम समयमें ) बतलायी गयी है । वेदना, आयु, नाम व गोत्रकी कालतः जघना वेदना अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें होती है । मोहनीय कर्मकी उक्त वेदना सूक्ष्मसाम्यरावके अन्तिम समयमें होती है । अपनी अपनी जघन्य वेदनासे भिद्ध सब कर्मोंकी कालतः अजघन्य वेदना कही गयी है। (३) अल्पबहुत्व-अनुयोगद्वारमें क्रमशः जघन्य पद, उत्कृष्ट पद और जघन्य-उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा आठों कर्मोंकी कालवेदनाके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार इन ३ अनुयोगद्वारोंके समाप्त हो जानेपर प्रस्तुत वेदनाकालविधान अनुयोगद्वारा समाप्त हो जाता है । आगे चलकर उसकी प्रथम चूलिका प्रारम्भ होती है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय चूलिका १ इस चूलिकामें निम्न ४ अनुयोगद्वार हैं—स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व । (१) स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणामें चौदह जीवसमासोंके आश्रयसे स्थितिबन्धस्थानोंके अल्पबहत्वकी प्ररूपणा की गयी है। अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेसे जघन्य स्थितिको कम करके एक अंकके मिला देनेपर जो प्राप्त हो उतने स्थितिस्थान होते हैं । इस अल्पबहुत्वको देशामर्शक सूचित कर श्री वीरसेन स्वामीने यहाँ अल्पबहुत्वके अव्वोगाढअल्पबहुत्व और मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व ये दो भेद बतला कर स्वस्थान-परस्थानके भेदसे विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की है। अब्बोगाढअल्पबहुत्वमें कर्मविशेषकी अपेक्षा न कर सामान्यतया जीवसमासोंके आधारसे जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, स्थितिबन्धस्थान और स्थितिबन्धस्थानविशेषका अल्पबहुत्व बतलाया गया है। परन्तु मूलप्रकृतिअल्पबहुत्वमें उन्हीं जीवसमासोंके आधारसे ज्ञानावरणादि कर्मोकी अपेक्षा कर उपर्युक्त जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबन्धादिके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है। आगे जाकर “ बध्यते इति बन्धः, स्थितिश्चासौ बन्धश्च स्थितिबन्धः, तस्य स्थानं विशेष. स्थितिबन्धस्थानम् ; अथवा बन्धनं बन्धः, स्थितेर्बन्धः स्थितिबन्धः, सोऽस्मिन् तिष्ठतीति स्थितिबन्धस्थानम् " इन दो निरुक्तियोंके अनुसार स्थितिबन्धस्थानका अर्थ आबाधास्थान करके पूर्वोक्त पद्धतिके ही अनुसार अव्वोगाढ़अल्पबहुत्वमें स्वस्थान-परस्थान स्वरूपसे जघन्य व उत्कृष्ट आबाधा, आबाधास्थान और आबाधास्थानविशेषके अल्पबहुत्वकी सामान्यतया तथा मूलप्रकृतिअल्पबहुत्वमें इन्हींके अल्पबहुत्वकी कर्मविशेषके आधारसे प्ररूपणा की गयी है। तत्पश्चात् जघन्य व उत्कृष्ट आबाधा, आबाधास्थान और आबाधाविशेष, इन सबके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा पूर्वोक्त पद्धतिके ही अनुसार सम्मिलित रूपमें एक साथ भी की गयी है। __तत्पश्चात् “स्थितयो बध्यन्ते एभिरिति स्थितिबन्धः, तेषां स्थानानि अवस्थाविशेषाः स्थितिबन्धस्थानानि" इस निरुक्तिके अनुसार स्थितिबन्धस्थानपदसे स्थितिबन्धके कारणभूत संक्लेश व विशुद्धि रूप परिणामोंकी व्याख्या प्ररूपणा, प्रमाण व अल्पबहुत्व इन ३ अनुयोगद्वारोंसे की गयी है। संक्लेशविशुद्धिस्थानोंका अल्पबहुत्व स्वयं मूलग्रन्थकर्ता भट्टारक भूतबलिके द्वारा चौदह जीवसमासोंके आधारसे किया गया है। तत्पश्चात् स्थितिबन्धकी जघन्य व उत्कृष्ट आदि अवस्थाविशेषोंके अल्पबहुत्वका भी वर्णन मूलसूत्रकारने स्वयं ही किया है। (२) निषेकप्ररूपणा-संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि पर्याप्त आदि विविध जीव ज्ञानावरणादि कर्मोंके आबाधाकालको छोड़कर उत्कृष्ट स्थितिके अन्तिम समय पर्यन्त प्रथमादिक समयोंमें किस प्रमाणसे द्रव्य देकर निषेकरचना करते हैं, इसकी प्ररूपणा इस अधिकारमें प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व, इन ६ अनुयोगद्वारोंके द्वारा विस्तारसे की गई है। १ यह अल्पबहुत्व श्वेताम्बर कर्मप्रकृति ग्रन्थकी आचार्य मलय गिरि विरचित संस्कृत टीकामें भी यत् किंचित् भेदके साथ प्रायः ज्योंका त्यों पाया जाता है (देखिये कर्मप्रकृति गाथा १, ८०-८१ की टीका)। इसके अतिरिक्त यहां अन्य भी कुछ प्रकरण अनूदित जैसे उपलब्ध होते हैं। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय- परिचय (३) आबाधाकाण्डकप्ररूपणा में यह बतलाया गया है कि पंचेन्द्रिय संज्ञी आदि जीव आयुकर्मको छोड़कर शेष ७ कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे आबाधाके एक एक समयमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र नीचे आकर एक आबाधाकाण्डकको करते हैं । उदाहरणार्थ विवक्षित जीव आबाधा अन्तिम समयमें ज्ञानावरणादिकी उत्कृष्ट स्थितिको भी बांधता है, उससे एक समय कम स्थितिको बांधता है, दो समय कम स्थितिको भी बांधता है, तीन समय कम स्थितिको भी बांधता है, इस क्रमसे जाकर उक्त समयमें ही पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्रसे हीन तक उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है । इस प्रकार आबाधाके अन्तिम समयमें जितनी भी स्थितियाँ बन्धके योग्य हैं उन सबकी एक आबाधाकाण्डक संज्ञा निर्दिष्ट की गयी है । इसी से आबाधा के द्विचरमादि समयोंके विवक्षित द्वितीयादिक आबाधाकाण्डकोंको भी समझना चाहिये । यह क्रम जघन्य स्थिति प्राप्त होने तक चालू रहता है । यहाँ श्री वीरसेन स्वामीने चौदह जीवसमासोंमें आबाधास्थानों और आबाधाकाण्डकशलाकाओंके प्रमाणकी भी प्ररूपणा की है । 1 १२ यहाँ आयु कर्मके आबाधाकाण्डकोंकी प्ररूपणा न करनेका कारण यह है कि अमुक आबाधामें आयुकी अमुक स्थिति बँधती है, ऐसा कोई नियम अन्य कर्मोके समान आयुकर्मके विषयमें सम्भव नहीं है । कारण कि पूर्वकोटिके त्रिभागको आबाधा करके उसमें तेतीस सागरोपम प्रमाण [ उत्कृष्ट ] आयु बँधती है, उससे एक समय कम भी बँधती है, दो समय कम भी बँधती है, तीन समय कम भी बँधती है, यहाँ तक कि इसी आबाधामें क्षुद्रभवग्रहण मात्र तक आयुस्थिति बँधती है । यही कारण है कि यहाँ आयुके आबाधाकाण्डकोंकी प्ररूपणा नहीं की गयी । ( ४ ) अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में मूलसूत्रकार द्वारा चौदह जीवसमासोंमें ज्ञानावरणादि ७ कर्मों तथा आयु कर्मकी जघन्य व उत्कृष्ट आबाधा, आबाधास्थान, आबाधाकाण्डक, नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, एक आबाधाकाण्डक, जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तथा स्थितिबन्धस्थान, इन सबके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा विशद रूपसे की गयी है' । आगे चलकर यहाँ श्री वीरसेन स्वामीने इस अल्पबहुत्वके द्वारा सूचित स्वस्थान व परस्थान अल्पबहुत्वोंकी भी प्ररूपणा बहुत विस्तार से की है । चूलिका २ इस चूलिका अन्तर्गत स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंकी प्ररूपणामें जीवसमुदाहार, प्रकृतिसमुदाहार और स्थितिसमुदाहार ये ३ अनुयोगद्वार निर्दिष्ट किये गये हैं । (१) जीवसमुदाहारमें यह बतलाया है कि जो जीव ज्ञानावरणादि रूप ध्रुवप्रकृतियोंके बन्धक हैं वे दो प्रकार होते हैं— सातबन्धक, और असातबन्धक । इसका कारण यह है कि १ तुलनाके लिये देखिये कर्मप्रकृति १-८६ गाथाकी आचार्य मलयगिरिविरचित संस्कृत टीका । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय - परिचय १३ साता व असातावेदनीयके बन्धके विना उक्त ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंका बन्ध सम्भव नहीं है । इनमें जो सातबन्धक हैं वे तीन प्रकार हैं-चतुः स्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । असातबन्धक भी तीन प्रकार ही हैं — द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक । इनमें साताके चतुःस्थानबन्धक सर्वविशुद्ध ( अतिशय मंदकषायी), उनसे उसीके त्रिस्थानबन्धक संक्लिष्टतर होते हैं । असाताके द्विस्थानबन्धक सर्वविशुद्ध, इनसे त्रिस्थानबन्धक संक्लिष्टतर, और इनसे भी उसके चतुःस्थानबन्धक संक्लिष्टतर, होते हैं । साताके चतुःस्थानबन्धक जीव उक्त ज्ञानावरणादि प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिको, त्रिस्थानबन्धक अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिको, तथा द्विस्थानबन्धक उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं । असाताके द्विस्थानबन्धक उपर्युक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिको, त्रिस्थानबन्धक अजघन्य - अनुत्कृष्ट स्थितिको, तथा चतुःस्थानबन्धक उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के साथ ही असाताकी भी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं। तत्पश्चात् साता व असाताके चतुः स्थानबन्धक व द्विस्थानबन्धक आदि जीवोंमें ज्ञानावरणकी जघन्य आदि स्थितियोंको बाँधनेवाले जीव कितने हैं, तथा ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोगसे बंधनेवाली स्थितियाँ कौन कौनसी हैं, इत्यादि बतलाकर छह यवोंके अधस्तन व उपरिम भागोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । ( २ ) प्रकृतिसमुदाहार में प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व ये दो अनुयोगद्वार हैं इनमें प्रमाणानुगमके द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मोंकी स्थिति बन्धके कारणभूत स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा तथा अल्पबहुत्वके द्वारा उक्त आठों कर्मोंके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । (३) स्थिति समुदाहार में प्रगणना, अनुकृष्टि और तीव्र-मंदता ये तीन अनुयोगद्वार हैं । इनमें प्रगणना द्वारा ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त पाये जानेवाले स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंकी संख्या और उनके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । अनुकृष्टिमें उपर्युक्त जघन्य आदि स्थितियोंमें इन्हीं स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंकी समानता व असमानताका विचार किया गया है। तीव्र-मंदता अनुयोगद्वार में जघन्घ स्थिति - आदिके आधारसे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंके अनुभागकी तीव्रता व मंदताका विवेचन किया गया है । इस प्रकार द्वितीय चूलिकाके समाप्त हो जानेपर प्रस्तुत वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार समाप्त होता है । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम १ २ विषय-सूची विषय ५ वेदना क्षेत्रविधान वेदना क्षेत्रविधानमें ज्ञातव्य पदमीमांसा आदि ३ अनुयोगद्वारोंका उल्लेख क्षेत्रके सम्बन्धमें नामादि निक्षेपोंकी योजना ( पदमीमांसा ) ३ पदमीमांसा में क्षेत्रकी अपेक्षा ज्ञानावरणकी वेदना सम्बन्धी उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट आदि १३ पदोंका विचार ४ शेष कर्मोंके उक्त पदोंका विचार १७ उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि कर्मोंकी क्षेत्रवेदनाका अल्पबहुत्व | १८ जघन्य - उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा उक्त वेदनाका अल्पबहुत्व | १९ मूल सूत्रोंद्वारा सब जीवोंमें अवगाहनामेदोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा । पृष्ठ ( स्वामित्व ) ५ स्वामित्वके जघन्य व उत्कृष्ट पदविषयक २ भेदोंका निर्देश ६ जघन्यके विषयमें नामादि निक्षेपोंकी योजना ७ उत्कृष्टके विषय में नामादि निक्षेपोंकी योजना ८ क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदनाके स्वामी की प्ररूपणा ९ क्षेत्रतः अनुत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदनाके स्वामीकी अनेक विकल्पों में प्ररूपणा २३ १० अनुत्कृष्ट क्षेत्र विकल्पों के स्वामियोंका प्ररूपणा आदि ६ अनुयोगद्वारोंके द्वारा निरूपण । २७ ११ दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदनाकी प्ररूपणा ज्ञानावरणीय समान बतलाकर वेदनीय कर्मकी उत्कृष्ट वेदनाके स्वामीका निरूपण । १२ वेदनीय कर्मकी अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदनाके स्वामीकी प्ररूपणा करते हुए प्ररूपणा आ ६ अनुयोगद्वारोंके द्वारा अनुत्कृष्ट क्षेत्रभेदोंके स्वामियोंका निरूपण २९ १३ वेदनीय कर्मके ही समान आयु, नाम और गोत्रकी उत्कृष्ट क्षेत्रवेदना बतला कर क्षेत्रतः ज्ञानावरणीयकी जघन्य वेदनाके स्वामीका निरूपण १४ वेदनीय सम्बन्धी अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदनाके स्वामियोंकी अनेक भेदोंमें प्ररूपणा करते हुए चौदह जीवसमासोंमें क्रमशः वृद्धिको प्राप्त होनेवाले अवगाहनाभेदोंकी प्ररूपणा ( अल्पबहुत्व ) १५ अल्पबहुत्वप्ररूपणा में जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य उत्कृष्ट पदविषयक ३ अनुयोगद्वारों का उल्लेख । १६ जघन्य पदकी अपेक्षा आठों कर्मोंसम्बन्धी जघन्य क्षेत्रवेदनाकी परस्पर समानताका उल्लेख । १ २ ३ ११ 33 33 १३ १४ ३० ३३ ३६ ५३ "" ५४ ५५ ५६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची s २० एक सूक्ष्म जीवकी अपेक्षा दूसरे सूक्ष्म जीवकी, सूक्ष्म जीवकी अपेक्षा बादर जीवकी तथा बादर जीवकी अपेक्षा सूक्ष्म जीवकी अवगाहना सम्बन्धी गुणाकारविशेषोंका उल्लेख। २१ संदृष्टिद्वारा अवगाहनाभेदोंके स्वामियोंका निर्देश । ६ वेदनाकालविधान १ वेदनाकालविधानमें ज्ञातव्य ३ अनुयोगद्वारोंका उल्लेख करते हुए कालके ७ मूल भेदोंका उल्लेख करते हुए कालके ७ मूलभेदों एवं उत्तर भेदोंका स्वरूप। ७५ २ पदमीमांसा आदि उक्त ३ अनुयोगद्वारोंका नामोल्लेख (पदमीमांसा ) ३ पदमीमांसामें कालकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना सम्बन्धी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट आदि १३ पदोंकी प्ररूपणा ४ शेष ७ कर्मोकी कालवेदनाके उक्त १३ पदोंका विचार (स्वामित्व) ५ स्वामित्वके जघन्य व उत्कृष्ट पदविषयक २ भेदोंका निर्देश ६ जघन्यके विषयमें नामादि निक्षेपोंकी योजना ७ उत्कृष्टके विषयमें नामादि निक्षेपोंकी योजना ८ कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदनाके स्वामीकी प्ररूपणा ९ कालकी अपेक्षा अनेक भेदोंमें विभक्त अनुत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदनाके स्वामियोंकी प्ररूपणा १० प्ररूपणा आदि ६ अनुयोगद्वारोंके द्वारा उक्त अनुत्कृष्ट स्थानविकल्पोंके स्वामियोंकी प्ररूपणा। १०८ ११ झानावरणीयके ही समान शेष ६ कर्मोंकी भी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट वेदना बतलाकर आयु कर्मकी उत्कृष्ट कालवेदनाके स्वामीका निरूपण । ११२ १२ कालकी अपेक्षा आयु कर्म सम्बन्धी अनुत्कृष्ट वेदनाकी प्ररूपणा । ११६ १३ कालकी अपेक्षा जघन्य ज्ञानावरणीयवेदनाके स्वामीका विवेचन । ११८ १४ कालकी अपेक्षा अजघन्य ज्ञानावरणीयवेदनाके स्वामिभेदोंकी प्ररूपणा । १२० १५ दर्शनावरणीय और अन्तराय सम्बन्धी जघन्य व अजघन्य वेदनाओंकी ज्ञानावरणसे समानताका उल्लेख । १३२ १६ कालकी अपेक्षा जघन्य वेदनीयवेदनाके स्वामीका निर्देश । १७ वेदनीयकी अजघन्य वेदनाके स्वामीकी प्ररूपणा । १३३ १८ आयु, नाम और गोत्र सम्बन्धी जघन्य-अजघन्य कालवेदनाओंकी वेदनीयवेदनासे समानताका उल्लेख । १३४ १९ कालकी अपेक्षा जघन्य व अजघन्य मोहनीयवेदनाओंके स्वामियोंका उल्लेख १३५ . (अल्पबहुत्व) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३६ १४७ .१४८ विषय-सूची २० अल्पबहुत्व प्ररूपणामें जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्य-उत्कृष्ट पदविषयक ३ अनुयोग- . द्वारोंका निर्देश। २१ जघन्य पदकी अपेक्षा आठों कर्मोंकी जघन्य वेदना सम्बन्धी परस्पर समानताका उल्लेख। २२ उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा आठों कर्मोंकी वेदनाका अल्पबहुत्व । २३ जघन्य-उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा उक्त कर्मवेदनाका अल्पबहुत्व । १३८ प्रथम चूलिका २४ मूलप्रकृति-स्थितिबन्धकी प्ररूपणामें स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व, इन ४ अनुयोगद्वारोंका निर्देश करके उनकी आवश्यकताका दिग्दर्शन । (स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा) २५ चौदह जीवसमासोंमें स्थितिबन्धस्थानोंका अल्पबहुत्व । १४२ २६ इस अल्पबहुत्वद्वारा सूचित चार प्रकारके अल्पबहुत्वमेंसे स्वस्थान अव्वोगाढ . अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा । २७ परस्थान अव्वोगाढअल्पबहुत्व । २८ स्वस्थान मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व । ....... १५० २९ चौदह जीवसमासोंमें आठों कर्मोंका परस्थान अल्पबहुत्व । ३० व्युत्पत्तिविशेषसे स्थितिबन्धस्थानका अर्थ आबाधास्थान करके उनकी प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्वके द्वारा व्याख्या । १६२. ३१ प्रस्तुत अल्पबहुत्व प्ररूपणामें स्वस्थान अव्वोगाढ़अल्पबहुत्व । १६३ ३२ परस्थान अव्वोगाढअल्पबहुत्व । - : १६४ ३३ स्वस्थान मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व । -१६६ ३५ परस्थान मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व । ३५ उपर्युक्त दोनों अल्पबहुत्वदण्डकोंकी सम्मिलित प्ररूपणामें स्वस्थान अव्वोगाढ अल्पबहुत्व ३६ परस्थान अव्वोगाढअल्पबहुत्व १७९ ३७ खस्थान मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व १८२ ३८ परस्थान मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व ३९ चौदह जीवसमासोंमें संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंका अल्पबहुत्व ४० जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व २२५ (निषेकप्ररूपणा) ४१ अनन्तरोपनिधा द्वारा पंचेंन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीवोंमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मोकी निषेकरचनाका क्रम २३८ १६९ १७७ १९० Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ २४८ विषय-सूची ४२ उपर्युक्त जीवोंमें मोहनीय कर्मकी निषेकरचनाका क्रम । ४३ पंचेंद्रिय संज्ञी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीवोंमें आयु कर्मकी निषेकरचनाका क्रम २४५ ४४ पंचेंद्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तोंमें नाम व गोत्रकी निषेकरचनाका क्रम २४६ ४५ पंचेंद्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि अपर्याप्तोंमें सात कर्मोकी निषेकरचनाका क्रम २४७ ४६ पंचेंद्रियादिक अपर्याप्तों तथा सूक्ष्म एकेंद्रिय पर्याप्त-अपर्याप्तोंमें आयुकी निषेक रचनाका क्रम। ४७ पंचेंद्रिय असंज्ञी, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और बादर एकेंद्रिय पर्याप्तोंमें आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोंकी निषेकरचनाका क्रम । २४९ ४८ उपर्युक्त जीवोंमें आयु कर्मकी निषेकरचनाका क्रम । २५१ ४९ उपर्युक्त अपर्याप्तोंमें तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्तोंमें सात कर्मोकी निषेकरचनाका क्रम २५२ ५० परम्परोपनिधाके द्वारा विविध जीवोंमें निषेकरचनाक्रमकी प्ररूपणा २५३ ५१ श्रेणिरूपणासे सूचित अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा। २५८ (आबाधाकाण्डकारूपणा) ५२ पंचेंद्रिय संज्ञी व असंज्ञी आदि जीवोंमें आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोंके आबाधा काण्डक करनेका नियम।। ५३ आयुकर्मसम्बन्धी आबाधाकाण्डकप्ररूपणा न करनेका कारण । २६९ (अल्पबहुत्व) पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंमें सात कर्मोकी जघन्य-उत्कृष्ट आबाधा आदिका अल्पबहुत्व । पंचेन्द्रिय संज्ञी व असंज्ञी पर्याप्त जीवोंमें जघन्य व उत्कृष्ट आबाधा आदिका अल्पबहुत्व। २७३ पंचेन्द्रिय संज्ञी व असंज्ञी अपर्याप्तों तथा शेष चतुरिन्द्रियादि पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंमें आयुसम्बन्धी जघन्य आबाधा आदिका अल्पबहुत्व । २७५ पंचेन्द्रिय असंज्ञी आदि पर्याप्त-अपर्याप्तोंमें सात कर्मोकी आबाधा आदिका भरपबहुत्व। २७६ एकेन्द्रिय बादर व सूक्ष्म पर्याप्त-अपर्याप्तोंमें सात कर्मोकी आबाधा आदिका अल्पबहुत्व । २७८ श्री वीरसेन स्वामीके द्वारा प्रकृत अल्पबहुत्व सूचित स्वस्थान-परस्थान अल स्वस्थान अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा । परस्थान अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा।। २८७ ६१ प्रकृत अल्पबहुत्व सम्बन्धी विषम पदोंकी पंजिका । २६७ २७९ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ विषय-सूची द्वितीय चूलिका ६२ इस चूलिकाके अन्तर्गत स्थितिबन्धाध्यवसायप्ररूपणामें जीवसमुदाहार, प्रकृति समुदाहार और स्थितिसमुदाहार, इन तीन अनुयोगद्वारोंका निर्देश । ६३ प्रकृत चूलिकाकी अनावश्यकताविषयक शंका और उसका परिहार । (जीवसमुदाहार) ६४ ज्ञानावरणादि ध्रुवप्रकृतियोंके बन्धक जीवोंके साताबन्धक व असाताबन्धक इन दो मेदोंका निर्देश। ३११ ६५ साताबन्धकोंके ३ भेद । ३१२ ६६ असाताबन्धकोंके ३ भेद । ३१३ ६७ उक्त मेदोंमें सर्वविशुद्ध व संकिलिष्टतर अवस्थाओंका निर्देश । ३१४ ६८ साताके चतुःस्थानबन्धकादिकोंमें तथा असाताके द्विस्थानबन्धकादिकोंमें जघन्य स्थिति आदिके बंधनेका नियम । ६९ ज्ञानावरणादि ध्रुवप्रकृतियोंके स्थितिविशेषोंको आधार करके उनमें स्थित जीवोंकी प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन ६ अनुयोगद्वारोंके द्वारा प्ररूपणा। ३२० ७० ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके द्वारा बंधने योग्य स्थितियोंका उल्लेख । ७१ छह यवोंके अधस्तन व उपरिम भागोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा। ३३४ ७२ साताके व असाताके चतुःस्थानादिबन्धकोंका अल्पबहुत्व । ३४१ (प्रकृतिसमुदाहार) ७३ प्रकृतिसमुदाहारमें प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व इन दो अनुयोगद्वारोंका निर्देश करके प्रमाणानुगमके द्वारा ज्ञानावरणादिके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंकी प्रमाणप्ररूपणा। उक्त स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंका अल्पबहुत्व । ३४७ (स्थितिसमुदाहार) स्थितिसमुदाहारमें प्रगणना, अनुकृष्टि और तीव्र-मन्दता इन ३ अनुयोगद्वारोंका निर्देश। ३४९ प्रगणना द्वारा ज्ञानावरणीयादि कर्मोंकी जघन्य स्थिति आदि सम्बन्धी स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंकी गणना। ३५० अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधाके द्वारा उक्त स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंकी प्ररूपणा। ७८ श्रेणिप्ररूपणासे सूचित अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्वके द्वारा उपर्युक्त स्थानोंकी प्ररूपणा। ३५८ ७९ अनुकृष्टि द्वारा उक्त स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंकी समानता-असमानताका विचार । ३६२ तीव्र-मन्दता द्वारा उपर्युक्त स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानोंके अनुभाग सम्बन्धी तीव्रता व मन्दताका विचार। ३६६ ३४६ ७५ ३५२ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र शुद्ध orm पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध वेदनानिक्षेपविधान २ २२ वह आकाश है पदणावायाभावादो विसेसाभादो ७ १२ उकसा ११-१४ सुत्तस्था ११ मोण एवमगेगास वेदनाक्षेत्रविधान वह क्षेत्र है पदणोवायाभावादो विसेसाभावादो उक्कस्सा सुत्तत्थो मोत्तण एवमेगेगास ४ 1 4 . 20 V वणा पुविल्ल वट्ठावेदव्वा द्विदिबंधट्ठाणाणि लभंति पंचेन्द्रियोंमें पाये तदियसमओ तृतीय समय स्थितिसंतकर्म परूवणा पुग्विल्ल वड्ढावेदव्वा विदिबंधट्ठाणाणि ण लभंति पंचेन्द्रियोंमें नहीं पाये बिदियसमओ द्वितीय समय स्थितिसत्कर्म २४ २६ १०० १०० १३ णापुणरुत्तट्ठाणं ण पुणरुत्तट्टाणं समय देखा समय कम देखा अपुनरुक्त पुनरुक्त ताप्रती 'सेसफालीहिंतो ण x x x पुणरुत्तट्ठाणं' दुसमयूण- दो समय एक समय x x x २ अ-आ-काप्रतिषु 'दुसमयूण' इति पाठः। शतपृथक्त्व तक शतपृथक्त्व स्थिति तक छेदभागहारो। छेदभागहारो होदि। समयूण-२ १०४ १०४ १०९ १२७ ३३ २३ ४ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० शुद्धि-पत्र पृष्ठ पंक्ति १३१ ५ १३९ __१२ १३९ २६ ११ २६ ३१ १५२ १६२ १६४ १६८ १६८ अशुद्ध अब इस छेदभागहारको इसका छेदभागहार होता है। कहते हैं। पुव्वत्तंसं पुबुत्तंसं असंखेजगुणाओ संखेजगुणाओ' योगद्दार' संगतो योगद्दारं सगंतोअसंख्यातगुणी संख्यातगुणी १ अ-आ-काप्रतिषु १ प्रतिषु 'असंखेजगुणाओ' इति पाठः ___ २-अ-आ-का प्रतिषु समत्ते समत्तं संखेज्जगुणो असंखेज्जगुणो संख्यातगुणो असंख्यातगुणो २ ताप्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु २ ताप्रती 'संखेज्जगुणो' _ 'असंखेज्जगुणो" उसीसे उसीके...अधिक है। x x x स्थितिबन्धस्थान स्थितिवन्धस्थानविशेष तस्स तस्य [ एवं सण्णिपंबिंदिय-] [ सण्णिपंचिंदिय-] उक्कस्सिया आवाहा विसेसाहिया । एवं हैं । इसी हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इसी है स्व-स्थान है-स्वस्थान चतुरिन्द्रिय बादर एकेन्द्रिय तेइंदियपज्जत्तयस्स तेइंदिय अपज्जत्तयस्स' त्रीन्द्रिय पर्याप्तक त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक प्रतिषु 'तेइंदियपज्ज०' इति पाठः । पर्याप्तक अपर्याप्तक आवाधास्थान आवाधास्थानविशेष वादरेइंदिय बेइंदिय वादर एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय संक्लेशस्थानोंकी विशुद्धि परिणामोंकी अपज्जयस्स अपज्जत्तयस्स १ एवं २१ ३२ १७७ १९० २७ १९१ १९१ १९२ १२२ १९७ १९७ २०७ २८ २३ WW. २८ २२२ २२२ ३० कधं......"असंखेज्जगुणतं असंख्यातगुणे कधं....."संखेज्जगुणतं संख्यातगुणे Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ शुद्धि-पत्र पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १ अ-आ-काप्रतिषु 'संखेज्जागुणतं, १ ताप्रतौ २२७ २४ २२८ आबाहा अबाहा २२९ असंखेज्जगुणो असंखेज्जगुणों २२९ अपज्जयस्स अपज्जत्तयस्स २३३ १७ एकेन्द्रियके त्रींद्रियके २३६ १८ असंख्यात असंयत २३६ २५ संशी पंचेन्द्रिय संशी मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय २४५ क्षपित-गुणित-घोलमान क्षपितघोलमान व गुणितघोलमान तीस तेतीस -मुहुत्तयाबाधं मुहुत्तमाबाधं २६२ २४ है । (१६४१२४४)x१:(१६४१२)४ २८० कम्माणमाबाहाहाणा कम्माणमावाहाट्ठाणाणि २८० असंखेज्जगुणाणि संखेज्जगुणाणि असंख्यातगुणे संख्यातगुणे १ मप्रतिपाठोऽयम् ।... १ मप्रती असंखेजगुणाणि ' इति पाठः। इति पाठः। २८१ असंखेजगुणो संखेजगुणो' २८१ असंख्यातगुणा संख्यातगुणा २८१ १ प्रतिषु ' असंखेज्जगुणो' इति पाठः। असंखेज्जगुणो संखेज्जगुणो' २८६ असंख्यातगुणा संख्यातगुणा २८६ xxx १ अ-आ-काप्रतिषु 'असंखेज्जगुणो' इति पाठः। ३०२ १० विसेसाहिओ । मोहणीयस्त विसेसाहिओ। [चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ। ] मोहणीयस्स ३०२ २७ है । मोहनीयका है। [चार कौका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ] मोहनीयका २६ समय तक समय कम ३०५ १५ उत्पत्तिका अनुत्पत्तिका ३०६ १९ घन्य जघन्य ३०८ ९ अणिआग अणिओगटि० ३१३ ३३ कर्षः त्रिस्थानगतः कर्षः स त्रिस्थानगत: २८० २८६ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For or शुद्धि-पत्र पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध टि० ३१४ २१ सर्वविशुद्धा रसं सर्वविशुद्धा जन्तवस्ते परावर्तमानशुभ प्रकृतीनां चतुःस्थानगतं रसं टि० ३१५२८ ते तास त तासा ३१५ ३० , ८१ ३२९ २६ ३-४ १६४४ ३३२ पढमासु अपढमासु ३३२ २४ प्रथम अप्रथम ३३२ ३१ २अणगारप्पाउग्गा २ प्रतिषु 'पढमासु' इति पाठः । ३ अणगारप्पाउग्गा ३३५ १३ असंख्यातगुणे संख्यातगुणे ३३५ २५ तेम्योऽपि......३। यह टिप्पण नं.१ का अंश है जो टिप्पण २के ___अन्तर्गत छप गया है। ३३६ २१ देख देव ३३६ २५ होना है। अशुभ होना है। ३३८ ११ अंतोकोडाकोडिआबाधूणा अंतोकोडाकोडी आबाधूणा टि० ३३९ ३० स्थिति यस्थिति स्थितिबयस्थिति ३४८ ३ टिदिं बंधंताण ट्ठिदिबंधट्ठाणाण ३४८ १७ शंका-नाम किन्तु नाम ३४९ १८ संख्यातगुणे असंख्यातगुणे ३५२ कुदो ३५९ रिज्जंति तं रिज्जति । तं रूपेणु रूपेषु ३६२ २१ अजघन्य जघन्य ३६३ ३ णिव्वग्गणकंदयं' णिव्वग्गणकंदयं ३६३ पदियखंडं तदियखंड ३६७ ३१ समुदहारे समुदाहारे karom 2 0 2.2.30 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणखेत्तविहाणणिओगदारं वेयणकालविहाणणिओगद्दार Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबाले-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीर सेणाइरिय- विरइय-धवला टीका-समणिदो तस्स चउत्थे खंडे वेयणाए वेदणाखेत्तविहाणाणिओगद्दारं ) वेयणखेत्तविहाणेत्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणिओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति ॥ १॥ वेदणाणिक्खित्तल्लिया खेत्तं णिक्खिविदव्वं । किमट्ठे खेत्तणिक्खेिवो कीरदे ? अवगद खेत्तद्वाणपडिसेहूं कादूण पयदखेत्तट्टपरूवणङ्कं । उक्तं च अवगणिवारणङ्कं पयदस्स परूवणाणिमित्तं च । संसयविणासणङ्कं तच्चत्थवहारणटुं च ॥ १ ॥ वेदना निक्षेपविधान यह जो अनुयोगद्वार है उसमें ये तीन अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं ॥ १ ॥ वेदना में निक्षिप्त क्षेत्रका यहां निक्षेप करना चाहिये । शंका - क्षेत्रका निक्षेप किसलिये करते हैं ? समाधान - अप्रकृत क्षेत्रस्थानका प्रतिषेध करके प्रकृत क्षेत्रकी अर्थप्ररूपणा करनेके लिये क्षेत्रका निक्षेप करते हैं। कहा भी है अप्रकृतका निवारण करनेके लिये, प्रकृतकी प्ररूपणा करनेके लिये, संशयको नष्ट करने के लिये, और तत्त्वार्थका निश्चय करनेके लिये निक्षेप किया जाता है ॥ १ ॥ रु. ११-१. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वैयणाखंड [१, २, ५, १. तत्थ खेत्तं चउन्विहं णामखेत्तं एवणखेत्तं दवखेत्तं भावखेत्तं चेदि । तत्थ णामट्ठवणखेत्ताणि सुगमाणि । दव्वखेत्तं दुविहमागम-णोआगमदव्ववेत्तभेएण । तत्थ आगमदवखेतं णाम खेत्तपाहुडजाणगो अणुवजुत्तो । णोआगमदव्वखत्तं तिविहं जाणुगसरीर-भवियतव्वदिरित्तभेदेण । तत्थ जाणुगसरीर-भवियणोआगमदव्वखेत्ताणि सुगमाणि । तव्वदिरित्त'णोआगमखेत्तमागासं। तं दुविहं लोगागासमलोगागासमिदि । तत्थ-लोक्यन्ते उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादयः पदार्थाः स लोकस्तद्विपरीतस्त्वलोकः । कधभागासस्स खेत्तववएसो १ क्षीयन्ति निवसन्त्यस्मिन् जीवादय इति आकाशस्य क्षेत्रत्वोपपत्तेः । भावखेत्तं दुविहं आगम-णोआगमभावखेत्तभेएण । तत्थ खत्तपाहुडजाणगो उवजुत्तो आगमभावखेत्तं । सव्वदव्वाणमप्पप्पणो भावो णोआगमभावखेत्तं । कधं भावस्स खेत्तववएसो १ तत्थ सव्वव्वावट्ठाणाद।।। एत्थ णोआगमदव्वखेत्तेण अहियारो। अट्टविहकम्मदव्वस्स वेयणे त्ति सण्णा। वेयणाए खेत्तं वेयणाखेत्तं, वेयणाखेत्तस्स विहाणं वेयणाखेत्तविहाणमिदि पंचमस्स अणिओगद्दारस्य गुणणाम । इदिसद्दो ववच्छेदफलो । तत्थ वेयणखेत्तविहाणे इमाणि तिण्णि अणिओगद्दाराणि क्षेत्र चार प्रकार है- नामक्षेत्र, स्थापनाक्षेत्र, द्रव्यक्षेत्र और भावक्षेत्र । उनमें नामक्षेत्र और स्थापनाक्षेत्र सुगम हैं । द्रव्यक्षेत्र आगम और नोआगम द्रव्यक्षेत्रके भेदसे दो प्रकार है। उनमें क्षेत्रपाभृतका जानकार उपयोग रहित जीव आगमदव्यक्षेत्र कहलाता है। नोआगमद्रव्यक्षेत्र ज्ञायकशरीर, भावी और तदव्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है। उनमें शायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्यक्षेत्र सुगम हैं । तद्: व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य क्षेत्र आकाश है। वह दो प्रकार है - लोकाकाश और अलोकाकाश। इनमें जहां जीवादिक पदार्थ देखे जाते हैं या जाने जाते हैं यह लोक है। उससे विपरीत अलोक है। शंका- आकाशकी क्षेत्र संशा कैसे है ? समाधान- 'क्षीयन्ति अस्मिन् ' अर्थात् जिसमें जीवादिक रहते हैं वह अकाश है, इस निरुक्तिके अनुसार अकाशको क्षेत्र कहना उचित ही है। भावक्षेत्र आगम और नोआगम भावक्षेत्रके भेदसे दो प्रकार है। उनमें क्षेत्र प्राभृतका जानकार उपयोग युक्त जीव आगमभावक्षेत्र है। सब द्रव्योंका अपना अपना भाव नोभागमभावक्षेत्र कहलाता है। शंका-भावकी क्षेत्र संज्ञा कैसे हो सकती है ? . समाधान- उसमें सब द्रव्योंका अवस्थान होनेसे भावकी क्षेत्र संशा बन जाती है। यहाँ नोआगमद्रव्यक्षेत्रका अधिकार है। आठ प्रकारके कर्मद्रव्यकी वेदना संज्ञा है । वेदनाका क्षेत्र वेदनाक्षेत्र, घेदनाक्षेत्रका विधान वेदनाक्षेत्रविधान । यह पांचर्षे अनुयोगद्वारका गुणनाम है। सूत्र में स्थित 'इति' शब्द व्यवच्छेद करनेवाला है। उस वेदनाक्षेत्रविधानमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं। १ प्रतिषु तध्वदिरित्त वि-' ताप्रतौ 'तव्वदिरित्त [म] वि' इति पाठः । २ प्रतिघु '-दव्वस्स कम्मवेयणा चि' इति पाठः। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ३. ] माहियारे वेयणखेत्तविहाणे पदमीमांसा ३ हति । एत्थ अहियारा तिण्णि चेव किमहं परूविज्जति ? ण, अण्णेसिमेत्थ संभवाभावादो । कुदो ? [ण] संखा-ट्ठाण जीवसमुदाहाराणमेत्थ संभवो, उक्कस्साणुक्कस्स-जहण्णाजहण्णभेदभिण्णसामित्ताणिओगद्दारे एदेसिमंत भावादो | ण ओज - जुम्माणिओगद्दारस्स वि संभवो, तस्स पदमीमांसाए पवेसादो । ण गुणगाराणिओगद्दारस्स वि संभवो, तस्स अप्पाबहुए पवेसादो । तम्हा तिणि चेव अणिओगद्दाराणि होंति त्ति सिद्धं । पदमीमांसा सामित्तं अप्पा बहुए ति ॥ २ ॥ पढमं चैव पदमीमांसा किमट्ठमुच्चदे ?ण, पदेसुं अणवगएसु सामित्तप्पाबहुआणं परूवणोवायाभावादो' । तदणंतरं सामित्ताणिओगद्दारमेव किमहं वुच्चदे ? ण, अणवगए पदप्पमाणे तदप्पा बहुगाणुववत्तदो । तम्हा एसेव अहियारविण्णासक्कमो इच्छियव्वो, रिवज्जाद | पदमीमांसा णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो किं उक्कस्सा किमणुक्कस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा ? ॥ ३ ॥ ) शंका यहां केवल तीन ही अधिकारोंकी प्ररूपणा किसलिये की जाती है। समाधान- नहीं, क्योंकि, और दूसरे अधिकार यहां सम्भव नहीं है। कारण कि संख्या, स्थान और जीवसमुदाहार तो यहां सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, इनका अन्तर्भाव उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य व अजघन्य भेदसे भिन्न स्वामित्वअनुयोगद्वार में होता है । ओज-युग्मानुयोगद्वार भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, उसका प्रवेश पदमीमांसा में है । | गुणकार अनुयोगद्वार भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, उसका प्रवेश अल्पबहुत्वमें है । इस कारण तीन ही अनुयोगद्वार हैं, यह सिद्ध है । पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये तीन अनुयोगद्वार यहां ज्ञातव्य हैं ॥ २ ॥ शंका - पदमीमांसाको पहिले ही किसलिये कहा जाता है ? समाधान चूंकि पदों का ज्ञान न होनेपर स्वामित्व और अल्पबहुत्वकी प्ररू पणा की नहीं जा सकती, अत एव पहिले पदमीमांसाकी प्ररूपणा की जा रही है । शंका - उसके पश्चात् स्वामित्व अनुयोगद्वारको ही किसलिये कहते हैं ? - समाधान - नहीं, क्योंकि, पदप्रमाणका ज्ञान न होनेपर उनका अल्पबहुत्व बन नहीं सकता। इस कारण निर्दोष होनेसे उक्त अधिकारोंके इसी विम्यासक्रमको स्वीकार करना चाहिये । पदमीमांसा— ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, और क्या अजघन्य है १ ॥ ३ ॥ १ ताप्रतौ ' पदे [ से ] ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'पदणावायाभावादो' इति पाठः । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेदणाखंड [१, २, ५, ४. एत्थ णाणावरणग्गहणेण सेसकम्माण पडिसेहो कदो । दव्व-काल-भावादिपडिसेहई खेत्तणिदेसो कदो । एदं पुच्छासुत्तं देसामासियं, तेण अण्णाओ णव पुच्छाओ एदेण सूचिदाओ। तम्हा णाणावरणीयवेयणा किमुक्कस्सा, किमणुक्कस्सा, किं जहण्णा, किमजहण्णा, किं सादिया, किमणादिया, किं धुवा, किमडुवा, किमोजा, किं जुम्मा, किमोमा, किं विसिट्ठा, किं णोम-णोविसिट्ठा त्ति वत्तव्वं । एवं णाणावरणीयवेयणाए विसेसाभावेण सामण्णरूवाए सामण्णं' विसेसाविणाभावि त्ति कट्ट तेरस पुच्छाओ परूविदाओ । एदेणेव सुत्तेण सूचिदाओ अण्णाओ तेरसपदविसयपुच्छाओ वत्तव्वाओ। तं जहा- उक्कस्सा णाणावरणीयवेयणा किमणुक्कस्सा, किं जहण्णा, किमजहण्णा, किं सादिया, किमणादिया, किं धुवा, किमडुवा, किमोजा, किं जुम्मा, किमोमा, किं विसिट्ठा, किं गोम-णोविसिवा त्ति बारस पुच्छाओ उक्कस्सपदस्स हवंति । एवं सेसपदाणं पि बारस पुच्छाओ पादेक्कं कायवाओ । एत्थ सव्वपुच्छासमासो एगूणसत्तरिसदमेत्तो । १६९/ तम्हा एदम्हि देसामासियसुत्ते अण्णाणि तेरस सुत्ताणि दहव्वाणि त्ति। उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा जहण्णा वा अजहण्णा वा ॥४॥ एदं पि' देसामासियसुत्तं । तेणेत्थ सेसणवपदाणि वत्तव्वाणि । देसामासियत्तादो चेव सेसतेरससुत्ताणमस्थ अंतभावो वत्तव्यो । तत्थ ताव पढमसुत्तपरूवणा कीरदे । तं जहा सूत्र में शानावरण पदका ग्रहण करके शेष कर्मोका प्रतिषेध किया गया है। द्रव्य, काल और भाव आदिका प्रतिषेध करनेके लिये क्षेत्रका निर्देश किया है। यह पृच्छासूत्र देशामर्शक है, इसलिये इसके द्वारा अन्य नौ पृच्छाएं सूचित की गई हैं। इस कारण ज्ञानावरणकी वेदना क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, क्या अजघन्य है, क्या सादिक है, क्या अनादिक है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है, क्या ओर है, क्या युग्म है, क्या मोम है, क्या विशिष्ट है, और क्या नोम-नोविशिष्ट है, ऐसा कहना चाहिये । इस प्रकार सामान्य चूंकि विशेषका अविनाभावी है अतः विशेषका अभाव होनेसे सामान्य स्वरूप ज्ञानावरणीयवेदनाके विषय में इन तेरह पृच्छाओंकी प्ररूपणा की गई है। इसी सूत्रसे सूचित अन्य तेरह पद विषयक पृच्छाओंको कहना चाहिये। यथा- उत्कृष्ट झानावरणवेदना क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, क्या अजघन्य है, क्या सादिक है, क्या अनादिक है, क्या धुव है, क्या अध्रुव है, क्या ओज है, क्या युग्म है, क्या ओम है, क्या विशिष्ट है, और क्या नोम-नोविशिष्ट है, ये बारह पृच्छाएं उत्कृष्ट पदके विषयमें होती हैं। इसी प्रकार शेष पदों से भी प्रत्येक पदके विषयमें बारह पृच्छाएं करना चाहिये । यहां सब पृच्छाओंका जोड़ एक सौ उनत्तर (१६९) मात्र होता है। इसी कारण इस देशामर्शक सूत्रमें अन्य तेरह सूत्रोंको देखना चाहिये। उक्त वेदना उत्कृष्ट भी है, अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी है, और अजघन्य भी है ॥४॥ यह भी देशामर्शक सूत्र है । इसलिये यहां शेष नौ पदोंको कहना चाहिये। देशामर्शक होनेसे ही इस सूत्रमें शेष तेरह सूत्रोंका अन्तर्भाव कहना चाहिये। उनमें पहिले प्रथम सूत्रकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-शानावरणीयकी वेदना १ प्रतिषु ' सामण्ण' इति पाठः। २ प्रतिषु एवं दि' इति पाठः। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ५, ४.] वेयणमहाहियारे वैयणखेत्तविहाणे पदमीमांसा णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो सिया उक्कसा, अद्वैरज्जूण मुक्कमारणंतियमहामच्छम्मि उक्कस्सखेत्तुवलंभादो । सिया अणुक्कस्सा, अण्णत्थ अणुक्कस्सखेत्तदंसणादो । सिया जहण्णा, तिसमयआहारय-तिसमयतब्भवत्थसुहुमाणिगोदम्हि जहण्णखेत्तुवलंभादो। सिया अजहण्णा, अण्णत्थ अजहण्णखेत्तदंसणादो । सिया सादिया, पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे सव्वलेताणं सादित्तुवलंभादो । सिया अणादियां, दव्वट्टियणए अवलंबिज्जमाणे अणादित्तदंसणादो । सिया धुवा, दवट्ठियणयं पडुच्च णाणावरणीयखेत्तस्स सव्वलोगस्स धुवत्तुवलंभादो । सिया अद्धवा. पज्जवट्रियं पडच्च अदवत्तदंसणादो। सिया ओजा, कत्थ वि खेत्तविसेसे कलितेजोजसंखाविसेसाणमुवलंभादो । सिया जुम्मा, कत्थ वि खेत्तविसेसे कद-बादरजुम्माणं संखाविससाणमुवलंभादो । सिया ओमा, कत्थ वि खेत्तविसेसे परिहाणिदसणादो। सिया विसिट्ठा, कत्थ वि वड्डिदंसणादो । सिया णोम-णोविसिट्ठा, कत्थ वि वड्डि-हाणीहि विणा खेत्तस्स अवट्ठाणदसणादो | १३| । संपहि बिदियसुत्तत्थो उच्चदे । तं जहा- उक्कस्सणाणावरणीयवेयणा जहण्णा अणुक्कस्सा च ण होदि, पडिवक्खत्तादो । सिया अजहण्णा, जहण्णादो उवरिमासेसखेत्तवियप्पावहिदे अजहण्णे उक्कस्सस्स वि संभवादो । सिया सादिया, क्षेत्रकी अपेक्षा कथंचित् उत्कृष्ट है, क्योंकि, आठ राजुओंमें मारणान्तिक समुद्घातको करनेवाले महामत्स्यके उत्कृष्ट क्षेत्र पाया जाता है । कथंचित् वह अनुत्कृष्ट है, क्योकि, महामत्स्यको छोड़कर अन्यत्र अनुत्कृष्ट क्षेत्र देखा जाता है। कथंचित जघन्य है, क्योंकि, त्रिसमयवर्ती आहारक व त्रिसमयवर्ती तद्भवस्थ सूक्ष्म निगोद जीवके जघन्य क्षेत्र पाया जाता है। कथंचित् वह अजघन्य है, क्योंकि, उक्त सूक्ष्म निगोद जीवको छोड़कर अन्यत्र अजघन्य क्षेत्र देखा जाता है। कथंचित् वह सादिक है. क्योकि, पयायाथिक नयका आश्रय करने पर सब क्षेत्रोके सादिता पार्य जाती है। कथंचित् वह अनादिक है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका आश्रय करनेपर अनादिपना देखा जाता है । कथंचित् वह ध्रुव है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा शानावरणीय कर्मका क्षेत्र जो सब लोक है वह ध्रुव देखा जाता है । कथंचित् वह अधव है, क्योंकि, पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा उक्त क्षेत्र के अध्रुवपना भी देखा जाता है। कथंचित् वह ओज है, क्योंकि, किसी क्षेत्रविशेषमें कलिओज और तेजोज संख्याविशेष पायी जाती हैं । कथंचित् वह युग्म है, क्योंकि, किसी क्षेत्रविशेषमें कृतयुग्म और बादरयुग्म ये विशेष संख्यायें पायी जाती हैं। कीचत् वह ओम है, क्योंकि, किसी क्षेत्रविशेषमें हानि देखी जाती है। कर्थचित् वह विशिष्ट है, क्योंकि, कहीं वृद्धि देखी जाती है। कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, कहींपर वृद्धि और हानिके विना क्षेत्रका अवस्थान देखा जाता है (१३)। ____ अब द्वितीय सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है-उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयघेदना जघन्य और अनुत्कृष्ट नहीं है, क्योंकि, वे उसके प्रतिपक्षभूत हैं। कथंचित् पाह अजयल्प भी है, क्योंकि, जघन्यसे ऊपरके समस्त विकल्पोंमें रहनेवाले अजघन्य पदमें उत्कृष्ट पद भी सम्भव है। कथंचित् वह सादिक भी है, क्योंकि, अनुस्कृष्ट १ प्रतिषु 'अद्ध ' इति पाठः। २ ताप्रतौ ' अणादि' इति पाठः । ३ म-काप्रत्योः 'जहण्णा अजहूण्णा', ताप्रतौ 'जहण्णाजहण्णा' इति पाठः | Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे बैयणाखंड अणुक्कस्सादो उक्कस्सखेत्तुप्पत्तीए । सिया अदुवा, उक्कस्सपदस्स सव्वकालमवट्ठाणाभावादो। सिया कदजुम्मा, उक्कस्सखेत्तम्मि बादरजुम्म-कलि-तेजोजसंखौविसेसाणमणुवलंभादो । सिया णोम-णोविसिट्ठा, वड्डिदे हाइदे च उक्कस्सत्तविरोहादो । एवं उक्कस्सणाणावरणीयवेयणा पंचपदप्पिया' | ५ || अणुक्कस्सणाणावरणीयवेयणा सिया जहण्णा, उक्कस्सं मोत्तूण सेसहेट्ठिमासेसवियप्पे अणुक्कस्से जहण्णस्स [वि संभवादो। सिया अजहण्णा, अणुक्कस्सस्स अजहण्णाविणाभावित्तादो । सिया सादिया, उक्कस्सादो अणुक्कस्सुप्पत्तीदो अणुक्कस्सादो वि अणुक्कस्सविसेसुप्पत्तिदंसणादो च । अणादिया ण होदि, अणुक्कस्सपदविसेस्स विवक्खियत्तादो। अणुक्कस्ससामण्णम्मि अप्पिदे वि अणादिया ण होदि, उक्कस्सादो अणुक्कस्सपदपदिदं पडि सादित्तदंसणादो। ण च णिच्चणिगोदेसु अणादित्तं लब्भदि, तत्थ अणुक्कस्सपदाणं पल्लट्टणेण सादित्तुवलंभादो। सिया अडुवा, अणुक्कस्सेक्कपदविसेसस्स सव्वदा अवट्ठाणामावादो । सामण्णे अस्सिदे वि धुवत्तं णत्थि, अणुक्कस्सादो उक्कस्सपदं पडिवज्जमाणजीवदंसणादो। सिया ओजा, कत्थ वि पदविसेसे अवट्ठिददुविहविसमसंखुवलंभादो । सिया जुम्मा, कत्थ वि अणुक्कस्सपदविसेसे दुविहसमसंखदंसणादो | सिया ओमा, कत्थ क्षेत्रसे उत्कृष्ट क्षेत्रकी उत्पत्ति है । कथंचित् वह अध्रुव भी है, क्योंकि, उत्कृष्ट पद सर्वदा नहीं रहता । कथंचित् वह कृतयुग्म भी है, क्योंकि, उत्कृष्ट क्षेत्रमें बादरयुग्म, कलि ओज और तेजोज रूप विशेष संख्यायें नहीं पायी जातीं । कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट भी है क्योंकि, वृद्धि और हानिके होनेपर उत्कृष्टपनेका विरोध है। इस प्रकार उत्कृष्ट पानावरणीयवेदना पांच (५) पद स्वरूप है। अनुत्कृष्ट शानावरणीयवेदना कथंचित् जघन्य है, क्योंकि, उत्कृष्टको छोड़कर शेष सब नीचेके विकल्प रूप अनुत्कृष्ट पदमें जघन्य पद भी सम्भव है। कथंचित् वह अजघन्य भी है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट अजघन्यका अविनाभावी है। कथंचित् वह सादिक भी है, क्योंकि, उत्कृष्ट पदसे अनुत्कृष्ट पदकी उत्पत्ति है, तथा अनुत्कृष्टसे भी अनुत्कृष्टविशेषकी उत्पत्ति देखी जाती है। वह अनादिक नहीं है, क्योंकि, यहां अनुत्कृष्ट पदविशेषकी विवक्षा है । अनुत्कृष्ट सामान्य की विवक्षा करनेपर भी वह अनादि नहीं हो सकती, क्योंकि, उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट पदमें गिरनेकी अपेक्षा सादिपना देखा जाता है । यदि कहा जाय कि नित्य निगोद जीवोंमें उसका अनादिपना पाया जाता है, सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि, उनमें भी अनुत्कृष्ट पदोंके पलटनेसे सादिपना पाया जाता है। कथंचित् वह अध्रुव भी है, क्योंकि, सर्वदा एक अनुत्कृष्ट पदविशेष रह नहीं सकता। सा माश्रय करनेपर भी ध्रुवपना सम्भव नहीं है, क्योंकि, अनुत्कृष्टसे उत्कृष्ट पदको प्राप्त होनेवाले जीव देखे जाते हैं । कथंचित् वह ओज भी है, क्योंकि किसी पदविशेष में अवस्थित दोनों प्रकारकी विषम संख्या पायी जाती है। कथंचित् वह युग्म भी है, क्योंकि, किसी अनुत्कृष्ट पदविशेषमें दोनों प्रकारकी सम संख्या देखी जाती है। कथंचित् वह १ प्रतिशु 'संका' इति पाठः । १ ताप्रती 'पंचपदंसिया' इति पाठः । ३ तापतौ "अण्णुक्क- [स्सा] दो ' इति पाठः। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ५, १.] यणमहाहियारे धेयगखत्तीवहाणे पदमीमांसा वि हाणीदो' समुप्पण्णअणुक्कस्सपदुवलंभादो । सिया विसिट्ठा, कत्थ वि वढीदो अणुक्कस्सपदुवलंभादो । सिया णोम-णोविसिट्ठा, अणुक्कस्स-जहण्णम्मि अणुक्कस्सपदविसेसे वा आप्पिदे वडि-हाणीणमभावादो । एवं णाणावरणाणुक्कस्सवेयणा णवपदप्पिया | ९|| एवं तदियसुत्तपरूवणा कदा। संपहि चउत्थसुत्तपरूवणा कीरदे । तं जहा- जहण्णा णाणावरणीयवेणा सिया अणुक्कस्सा, अणुक्कस्सजहण्णस्स ओघजहणेण विसेसाभादो । सिया सादिया, अजहण्णादो जहण्णपदुप्पत्तीए । सिया अदुवा, सासदभावेण अवट्ठाणाभावादो । अणादिय-धुवपदाणि णत्थि, जहण्णक्खेत्तविसेसम्मि अणादिय-धुवत्ताणुवलंभादो । सिया जुम्मा, चदुहि अवहिरिज्जमाणे णिरग्गत्तदंसणादो। सिया णोम-णोविसिट्ठा, तत्थ वड्डि-हाणीणमभावादो । एवं जहण्णक्खेत्तवेयणा पंचपयारा सरूवेण छप्पयारा वा|५|| एवं चउत्थसुत्तपरूवणा कदा। __संपहि पंचमसुत्तपरूवणा कीरदे । तं जहा- अजहण्णा णाणावरणीयवेयणा सिया उक्कसा, अजहण्णुक्कस्सस्स ओघुक्कस्सादो पुधत्ताणुवलंभादो । सिया अणुक्कस्सा, तदविणाभावादो । सिया सादिया, पल्लट्टणेण विणा अजहण्णपदविसेसाणमवट्ठाणाभावादो । सिया अडवा । कारणं सुगमं । सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा । ओम भी है, क्योंकि, कहीं पर हानिसे भी उत्पन्न अनुत्कृष्ट पद पाया जाता है। कथंचितू वह विशिष्ट भी है, क्योंकि, कहींपर वृद्धिसे अतुत्कृष्ट पद पाया जाता है। कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट भी है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट जघन्यमें अथवा अनुत्कृष्ट पदविशेषकी विवक्षा करनेपर धृद्धि और हानि नहीं पायी जाती है। इस प्रकार ज्ञानावरणकी अनुत्कृष्ट वेदना नौ (९) पदात्मक है। इस प्रकार तीसरे सूत्रकी अर्थप्ररूपणा की गई है। अब चतुर्थ सूत्रकी अर्थप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् अनुत्कृष्ट है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट जघन्य ओघजघन्यसे भिन्न नहीं है। कथंचित् वह सादिक भी है, क्योंकि, अजघन्यसे जघन्य पद उत्पन्न होता है। कथंचित् वह अध्रुव भी है, क्योंकि, उसका सर्वदा अवस्थान नहीं रहता। अनादि और ध्रुव पद उसके नहीं हैं, क्योंकि, जघन्य क्षेत्रविशेषमें अनादि एवं ध्रुवपना नहीं पाया जाता । कथंचित् वह युग्म है, क्योंकि, उसे चारसे अपहृत करनेपर शेष कुछ नहीं रहता। कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, उसमें वृद्धि और हानिका अभाव है। इस प्रकार जघन्य क्षेत्रवेदना पांच (५) प्रकार अथवा अपने रूपके साथ छह प्रकार है। इस प्रकार चतुर्थ सूत्रकी प्ररूपणा की है। अव पांचवें सूत्रकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-अजघन्य ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, क्योंकि, अजघन्य उत्कृष्ट ओघउत्कृष्टसे पृथक् नहीं पाया जाता । कथंचित् वह अनुत्कृष्ट भी है, क्योंकि, वह उसका अविनाभावी है। कथंचित वह सादिक भी है, क्योंकि, पलटनेके विना अजघन्य पदविशेषोंका अवस्थान नहीं है। कथंचित् वह अध्रुव भी है। इसका कारण सुगम है । कथंचित् यह ओज भी है, युग्म भी है, ओम भी है, और विशिष्ट भी है। इसका कारण सुगम १ ताप्रती · कथं ? हाणीदो' इति पाठः । २ ताप्रती · सासदाभावेण ' इति पाठः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंगगमे वेयणाखंड [१, २, ५, १. सुगर्म । सिया णोम-णोविसिट्ठा, णिरुद्धपदविसेसत्तादो । एवमजहण्णा णवभंगा दसभंगा वा| ९ । एसो पंचमसुत्तत्थो। सादिया णाणावरणवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया अटुवा । ण [अणादिया] दुवा, सादियस्स अणादिय-धुवत्तविरोहादो। सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोम-णोविसिट्ठा एवं सादियवेयणाए दस भंगा एक्कारस भंगा वा १० ।। एसो छट्ठसुत्तत्थो । ___ अणादियणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया । कधमणादियवेयणाए सादित्तं ? ण, वेयणाए सामण्णावेक्खाए अणादियम्मि उक्कस्सादिपदावेक्खाए सादियत्तविरोहाभावादो। सिया धुवा वेयणा, सामण्णस्स विणासाभावादो। सिया अदुवा, पदविसेसस्स विणासदसणादो । अणादियत्तम्मि सामण्णविवक्खाए समुप्पण्णम्मि क, पदविसेससंभवो ? ण, सगंतोक्खित्त. असेसविसेसम्मि सामण्णम्मि अप्पिदे तदविरोहादो । सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया है । कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट भी है, क्योंकि, यहां पदविशेषकी विवक्षा है। इस प्रकार अजघन्य वेदनाके नौ (९) या दस भंग होते हैं। यह पांचवें सूत्रका अर्थ है। __ सादिकज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट, कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य, कथंचित् अजघन्य, और कथंचित् अध्रुव भी है। वह [अनादि व] ध्रुव नहीं है, क्योंकि, सादि पदके अनादि व ध्रुव होनेका विरोध है। कथंचित् वह ओज, कथंचित् युग्म, कथंचित् ओम, कथंचित् विशिष्ट और कथंचित् नोम-नोविशिष्ट भी है। इस प्रकार सादि वेदनाके दस (१०) भंग अथवा ग्यारह भंग होते हैं । यह छठे सूत्रका अर्थ है। ___अनादिज्ञानावरणवेदना कथंचित् उत्कृष्ट, कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य, कथंचित् अजघन्य और कथंचित् सादिक भी है। शंका-अनादि वेदना सादि कैसे हो सकती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सामान्यकी अपेक्षा वेदनाके अनादि होनेपर भी उत्कृष्ट आदि पदविशेषों की अपेक्षा उसके सादि होने में कोई विरोध नहीं है। कथंचित् वह वेदना ध्रुव है, क्योंकि, सामान्यका कभी विनाश नहीं होता। कथंचित् वह अध्रुव भी है, क्योंकि, पदविशेषका विनाश देखा जाता है। शंका-सामान्य विवक्षासे अनादित्वके होनेपर पदविशेषकी सम्भावना ही कैसे हो सकती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अपने भीतर समस्त विशेषोंको रखनेवाले सामान्यकी विवक्षा होनेपर उसमें कोई विरोध नहीं है। ___ कथंचित् वह ओज, कथंचित् युग्म, कथंचित् ओम, कथंचित् विशिष्ट और १ तापतौ ' वि णासाभावादो' इति पाठः । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ४. ] वैयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे पदमीमांसा ( ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोम- गोविसिद्धा । एवमणादिया वेयणा बारसभंगा तेरसभंगा वा |१२|| एसो सत्तमसुत्तत्थो । धुवणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अणादिया, सिया अदुवा, सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोम - णोसिट्ठा । एवं धुवपदस्स बारस भंगा तेरस भंगा वा |१२|| एसो अट्टमसुत्तत्थो । अडवणाणावरणीयत्रेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोम गोविसिट्टा । एवमद्भुवपदस्स दस भंगा एक्कारस भंगा वा | १० || एसो वमत्तत्थो । ओजणाणावरणीयवेयणा उक्कस्स - जण्णपदेसु णत्थि, कदजुम्मे ते सिमवदो । तदो सिया अणुक्कस्सा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया । सिया अणादिया । कुदो ? सामण्णविवक्खादो । सिया धुवा, सामण्णविवक्खादो चेव । सिया अन्दुवा, विसेसविवक्खाए । दव्वविहाणे अणादिय-धुवत्तं किण्ण परूविदं ? ण, तत्थ सामण्ण कथंचित् नोम-नोविशिष्ट भी है । इस प्रकार अनादिवेदना के बारह (१२) भंग अथवा तेरह भंग होते हैं । यह सातवें सूत्रका अर्थ है । ध्रुवज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट, कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य, कथंचित् अजघन्य, कथंचित् सादि, कथंचित् अनादि, कथंचित् अध्रुव, कथंचित् ओज, कथंचित् युग्म, कथंचित् ओम, कथंचित् विशिष्ट और कथंचित् नोम-नोविशिष्ट भी है । इस प्रकार ध्रुव पदके बारह ( १२ ) अथवा तेरह भंग होते हैं । यह आठवें सूत्रका अर्थ है । अध्रुवज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् उत्कृष्ट कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य, कथंचित् अजघन्य, कथंचित् सादि, कथंचित् ओज, कथंचित् युग्म, कथंचित् ओम, कथंचित् विशिष्ट और कथंचित् नोम-नोविशिष्ट भी है । इस प्रकार अध्रुव पदके दस (१०) अथवा ग्यारह भंग होते हैं । यह नौवें सूत्रका अर्थ है । ओजज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट और जघन्य पदोंमें नहीं होती, क्योंकि, उनका अवस्थान कृतयुग्म राशिमें है । इसलिये वह कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् अजघन्य व कथंचित् सादि है । वह कथंचित् अनादि भी है, क्योंकि, सामान्यकी विवक्षा है । कथंचित् वह ध्रुव भी है, क्योंकि, उसी सामान्यकी ही विवक्षा है । कथंचित् वह विशेषकी विवक्षासे अध्रुव भी है । शंका - द्रव्यविधान में अनादि और ध्रुव पदोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? छ. ११-२. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [१, २, ५, १. विवक्खाभावादो । सामण्णविवक्खाए पुण संतीए तत्थ वि एदे दो भंगा वत्तव्वा । सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोम-णोविसिट्ठा । एवमोजस्स णव भंगा दस भंगा वा | ९|| एसो दसमसुत्तत्थो। जुम्मणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अणादिया, सिया धुवा, सिया अद्भुवा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोम-णोविसिट्ठा । एवं जुम्मस्स एक्कारस बारस मंगा वा । ११ । । एसो एक्कारसमंसुत्तत्यो । ओमणाणावरणीयवेयणा सिया अणुक्कस्सा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया । सिया अणादिया, ओमत्तसामण्णविवक्खाए । सिया धुवा तेणेव कारणेण । सिया अदुवा । सामण्णविवक्खाए अभावणे दव्वविहाणे ओमस्स अणादिय-धुवत्तं ण परविदं । सिया ओजा, सिया जुम्मा । एवमोमपदस्स अट्ठ णव मंगा वा । ८ ।। एसो बारसमसुत्तत्था । विसिट्ठणाणावरणीयवेयणा सिया अणुक्कस्सा , सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अणादिया, सिया धुवा, सिया अद्भुवा, सिया ओजा, सिया जुम्मा । एवं विसिट्ठपदस्स अट्ठ भंगा णव भंगा वा ] ८|| एसो तेरसमसुत्तत्था । समाधान - नहीं, क्योंकि, वहां सामान्यकी विवक्षाका अभाव है। यदि सामान्यकी विवक्षा अभीष्ट हो तो वहां भी इन दो पदोंको कहना चाहिये। वह कथंचित् ओम, कथंचित् विशिष्ट और कथंचित् नोम-नोविशिष्ट भी है। इस प्रकार ओज पदके नौ (९) भंग अथवा दस भंग होते हैं । यह दसवे सूत्रका अर्थ है । युग्मज्ञानावरणीयवेदना कचित् उत्कृष्ट, कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य, कथंचित् अजघन्य, कथंचित् सादि, कथंचित् अनादि, कथंचित् ध्रुव, कथंचित् अध्रुव, कथंचित् भोम, कथंचित् विशिष्ट और कथंचित् नोम-नोविशिष्ट भी है। इस प्रकार युग्म पदके ग्यारह (११) अथवा बारह भंग होते हैं । यह ग्यारहवें सूत्रका अर्थ है। ___ ओमज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् अजघन्य व कथंचित् सादि भी है । वह कथंचित् अनादि भी है, क्योंकि, ओमत्व सामान्यकी विवक्षा है। इसी कारणसे वह कथंचित् ध्रुव भी है। कथंचित् वह अध्रुव भी है। सामान्यकी विवक्षा न होनेसे द्रव्यविधानमें ओमके अनादि और ध्रुव पद नहीं कहे गये हैं। वह कथंचित् ओज और कथंचित् युग्म भी है। इस प्रकार ओम पदके आठ (८) अथवा नौ भंग होते हैं । यह बारहवे सूत्रका अर्थ है। विशिष्टशानावरणीयवेदना कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् अजघन्य, कथंचित् सादि, कथंचित् अनादि, कथंचित् ध्रुव, कथंचित् अध्रुव, कथंचित् ओज और कथंचित् युग्म भी है। इस प्रकार विशिष्ट पदके आठ (८) अथवा नौ भंग होते हैं। यह तेरहवें सूत्राका अर्थ है। ताप्रतौ ' एक्कारस' इति पाठः। २ तापतौ 'सिया अधुवा सामण्णविववखाए अभावेण ।' इति पाठः। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ६.1 वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्त ___णोम-णोविसिट्ठा णाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया । सिया अणादिया । कुदो ? णोम-णोविसिद्वत्तविवक्खाए । सिया धुवा तेणेव कारणेण । सिया अद्धवा, सिया ओजा, सिया जुम्मा । एवं दस भंगा एक्कारसभंगा वा | १०) । एसो चोद्दसमसुत्तत्थो । एदेसि भंगाणमंकविण्णासो- | १३| ५ | ९| ५ | ९ | १० | १२ | १२| १०/९/११ / ८८|१०|| एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥५॥ जहा णाणावरणीयस्स पदमीमांसा कदा तहा सेससत्तणं कम्माणं पदमीमांसा कायव्वा । एवमंतोखित्तोजाणियोगद्दारपदमीमांसा समत्ता । सामित्तं दुविहं जहण्णपदे उक्कस्सपदे ॥६॥ तत्थ जहण्णं चउन्विहं णाम-द्ववणा-दव्व-भावजहण्णमिदि । णामजहणं टुवणाजहण्णं च सुगमं । वजहण्णं दुविहं आगमदवजहणं णोआगमदव्वजहण्णं चेदि । तत्थ जण्णपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमदव्वजहणं । णोआगमदव्वजहण्णं तिविहं, जाणुग नोम-नोविशिष्टज्ञानावरणीयवदना कथेचित् उत्कृष्ट, कथीचत् अनुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य, कथंचित् अजघन्य व कथंचित् सादि भी है। कथंचित् वह अनादि भी है, क्योंकि, नोम-नोविशिष्टत्व सामान्यकी विवक्षा है। इसी कारणसे वह कथंचित् ध्रुव भी है । वह कथंचित् अध्रुव, कथंचित् ओज और कीचत् युग्म भी है। इस प्रकार नोम-नोविशिष्ट पदके दस (१०) भंग अथवा ग्यारह भंग होते हैं। यह चौदहवें सूत्रका अर्थ है। इन भंगोंका अंकविन्यास इस प्रकार है- १३ + ५ + ९ +५+९ +१०+ १२ + १२ + १०+९ + ११ + ८+ ८ + १० = १३१।। इसी प्रकार सात काँकी पदमीमांसा सम्बन्धी प्ररूपणा करना चाहिये ॥५॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकी पदमीमांसा की है उसी प्रकार शेष सात कमौकी पदमीमांसा करना चाहिये । इस प्रकार ओजानुयोगद्वारगर्भित पदमीमांसा समाप्त हुई। स्वामित्व दो प्रकार है-जघन्य पदरूप और उत्कृष्ट पदरूप ॥ ६ ॥ उनमें जघन्य पद चार प्रकार है-नामजघन्य, स्थापनाजघन्य, द्रव्यजघन्य और भावजघन्य । इनमें नामजघन्य और स्थापनाजघन्य सुगम है। द्रव्यजघन्य दो प्रकार है-आगमद्रव्यजघन्य और नोआगमद्रव्यजघन्य। इनमें जघन्य प्राभृतका जानकार उपयोग रहित जीव आगमद्रव्यजघन्य कहा जाता है। नोआगमगन्यजघन्य , ताप्रती १० । १३ । १०।९।१०। ८ । इति पाठ । २ प्रतिषु ' एवमंतोखेत्तो - ' इति पाठः । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, ६. सरीर-भविय-तव्वदिरित्तणोआगमदव्वजहण्णभेदेण । जाणुगसरीरं भवियं गदं । तव्वदिरित्तं णोआगमदव्वजणं दुविहं- ओघजहण्णमादेसेण जहणं चेदि । तत्थ ओघजहणं चउव्विहं - दव्वदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि । तत्थ दवजहण्णमेगो परमाणू । खेत्तजहण्णं दुविहं कम्म-णोकम्मखत्तजहण्णभेदेण । तत्थ सुहुमणिगोदस्स जहणिया ओगाहणा कम्मखेत्तजहणं । णोकम्मखेत्तजहण्णभेगो आगासपदेसो । कालजहण्णभेगो समओ । भावजहण्णं परमाणुम्हि णिद्धत्तादिगुणो । आदेसजहण्णं पि व्य-खेत्त-कालभावभेदेहि चउम्विहं । तत्थ दव्वदो आदेसजहण्णं उच्चदे । तं जहा - तिपदेसियं खधं दळूण दुपदेसियखंधो आदेसदो दव्वजहण्णं । एवं सेसेसु विणेदव्वं । तिपदेसोगाढदव्वं दळूण दुपदेसोगाढदव्वं खेत्तदो आदेसजहण्णं । एवं सेसेसु वि णेदव्वं । तिसमयपरिणदं दण दुसमयपरिणदं दव्वमादेसदो कालजहणं । एवं सेमेसु वि णेदव्वं । तिगुणपरिणदं दव्वं दतॄण दुगुणपरिणदं दव्वं भावदो आदेसजहणं । भावजहण्णं दुविहं आगम-णोआगमभावजहण्णभेदेण । तत्थ जहण्णपाहुडजाणओ उवजुत्तो आगमभावजहण्णं । सुहुमणिगोदजीवलद्धिअपज्जत्तयस्स जं सव्वजहण्ण-णाणं तं तीन प्रकार है-ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त । इनमें शायकशरीर और भावी अवगत हैं । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यजघन्य दो प्रकार है- ओघजघन्य और भादेशजघन्य । इनमें ओघजघन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार प्रकार है। उनमें द्रव्यजघन्य एक परमाणु है । क्षेत्रजघन्य कर्मक्षेत्रजघन्य और नोकर्मक्षेत्रजघन्यके भेदसे दो प्रकार है। उनमें सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहना कर्मक्षेत्रजघन्य है। नोकर्मक्षेत्रजघन्य एक आकाशप्रदेश है । एक समय कालजघन्य है। परमाणुमें रहनेवाला स्निग्धत्व आदि गुण भावजघन्य है। आदेशजघन्य भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे चार प्रकार है। उनमें द्रव्यसे आदेशजघन्यको बतलाते हैं। वह इस प्रकार है-तीन प्रदेशवाले स्कन्धको देखकर दो प्रदेशवाला स्कन्ध आदेशसे द्रव्यजघन्य है । इसी प्रकार शेष स्कन्धों में (चार प्रदेशवाले की अपेक्षा तीन प्रदेशवाला, पांच प्रदेशवालेकी अपेक्षा चार प्रदेशवाला स्कन्ध इत्यादि) भी ले जाना चाहिये । तीन प्रदेशोंको अवगाहनकरनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा दो प्रदेशको अवगाहन करनेवाला द्रव्य क्षेत्रकी अपेक्षा आदेशजघन्य है। इसी प्रकार शेष प्रदेशों में भी ले जाना चाहिये । तीन समय परिणत द्रव्यको देखकर दो समय परिणत द्रव्य आदेशसे कालजघन्य है। इसी प्रकार शेष समयों में भी ले जाना चाहिये। तीन गुण परिणत द्रव्यको देखकर दो गुण परिणत द्रव्य भावसे आदेशजघन्य है। भावजघन्य आगमभावजघन्य और नोआगमभावजघन्यके भेदसे दो प्रकार है। उनमें जघन्य प्राभृतका जानकार उपयोग युक्त जीव आगमभावजघन्य है । सूक्ष्म निगोद जीव लब्ध्यपर्याप्तकका जो सबसे जघन्य ज्ञान है वह नोआगमभावजघन्य है। १ मतिषु 'णिव्वत्तादिगुणो' इति पाठः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ६.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्त णोआगमभावजहण्णं । एत्थ ओघजहण्णखेत्तेण पयदं, णाणावरणीयखेत्तेसु सव्वजहण्णखत्तगहणादो । सव्वजहण्णखेत्तमेगो आगासपदेसो त्ति एत्थ ण घेत्तव्वं, णाणावरणीयखेत्तेसु तदभावादो। उक्कस्सं चउब्विहं णाम-ट्ठवणा-दव्व-भावुक्कस्सभेएण । तत्थ णाम-ट्ठवणुक्कस्साणि सुगमाणि । दव्वुक्कस्सं दुविहं आगम-णोआगमदब्बुक्कस्सभेएण । तत्थ उक्कस्सपाहुडजाणगो अणुवजुत्तो आगमदव्वुक्कस्स । णोआगमदव्बुक्कस्सं तिविहं जाणुगसरीर-भवियतव्वदिरित्तगोआगमदव्बुक्कस्सभेदेण । जाणुगशरीर-भवियोगमदबुक्कस्साणि सुगमाणि । तव्वदिरित्तणोआगमदब्बुक्कस्सं दुविहं- ओघुक्कस्समादेसुक्कस्सं चेदि । तत्थ ओघुक्कस्सं चउविहं- दव्यदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि । तत्थ दव्वदो उक्कस्सं महाखंधो । खेत्तुक्करसं दुविहं-- कम्मवखेत्तं णोकम्मक्खेत्तमिदि । कम्मखेत्तुक्कस्सं लोगागासं । णोकम्मक्खेत्तुक्कस्सं आगासदव्वं । कालदो उक्कस्समणंता लोगा । भावदो उक्कस्सं सव्वुक्कस्सवण्ण-गंध-रस-पासा । आदेसुक्कस्तं पि चउविहं- दव्वदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि । तत्थ दबदो एपरमाणुं दळूण दुपदेसियक्खंधो आदेसुक्करसं । दुपदेसियखधं दह्ण तिपदेसियक्वंधो वि आदेसुक्कस्सं । एवं सेसेसु वि णेदवं । खेत्तदो एयक्खेत्तं दळूण __यहां ओघजधन्य क्षेत्र कृत है, क्योंकि, ज्ञानावरणीयके क्षेत्रोंमें सर्वजघन्य क्षेत्रका ग्रहण है। यहां सर्वजघन्य क्षेत्ररूप एक आकाशप्रदेशको नहीं लेना चाहिये, क्योंकि, शानावरणीयके क्षेत्रोंमें उसका (सर्वजघन्य क्षेत्रका) अभाव है। उत्कृष्ट नामउत्कृष्ट, स्थापनाउत्कृष्ट, द्रव्य उत्कृष्ट और भावउत्कृष्टके भेदसे चार प्रकार है । उनमें नामउत्कृष्ट और स्थापनाउत्कृष्ट सुगम है। द्रव्यउत्कृष्ट आगमद्रव्यउत्कृष्ट और नोआगमद्रव्यउत्कृष्टके भेदसे दो प्रकार है । उनमें उत्कृष्ट प्राभृतका जानकार उपयोग रहित जीव आगमद्रव्यउत्कृष्ट है। नोआगमद्रव्यउत्कृष्ट ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यउत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकार है । इनमें शायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्य उत्कृष्ट सुगम हैं। तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यउत्कृष्ट दो प्रकार है- ओघउत्कृष्ट और आदेशउत्कृष्ट । इनमें ओघउत्कृष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार प्रकार है। उनमें द्रव्यले उत्कृष्ट महास्कन्ध है। क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट दो प्रकार है- कर्मक्षेत्र और नोकर्मक्षेत्र । लोकाकाश कर्मक्षेत्र उत्कृष्ट है। आकाश द्रव्य नोकर्मक्षेत्रउत्कृष्ट है। अनन्त लोक कालसे उत्कृष्ट हैं। भावसे उत्कृष्ट सर्वोत्कृष्ट वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हैं। आदेशउत्कृष्ट भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार प्रकार है । इनमें एक परमाणुको देखकर दो प्रदेशवाला स्कन्ध द्रव्यसे आदेशउत्कृष्ट है। दो प्रदेशवाले स्कन्धको देखकर तीन प्रदेशवाला स्कन्ध भी आदेश उत्कृष्ट है। इसी प्रकार शेष स्कन्धों में भी ले जाना चाहिये । क्षेत्रकी अपेक्षा एक क्षेत्रप्रदेशको देखकर दो क्षेत्रप्रदेश Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'छक्खंडांगमे बेयणाखंड [१, २, ५, ७. दोक्खेत्तपदेसा आदेसदो उक्कस्सं खेत्तं । एवं सेसेसु वि णेदव्वं । कालदो एगसमयं दतॄण दोसमया आदेसुक्कस्सं । एवं सेसेसु विणेदव्वं । भावदो एगगुणजुत्तं दळूण दुगुणजुत्तं दव्वमादेसुक्कस्सं । एवं सेसेसु वि णेदव्वं । भावुक्कस्सं दुविहं- आगम-णोआगमभावुक्कस्सभेदेण । तत्थ उक्कस्सपाहुडजाणगो उवजुत्तो आगमभावुक्कस्सं । णोआगमभावुक्कस्सं केवलणाणं । एत्थ ओघखेत्तुक्कस्सेण अहियारो, अप्पिदकम्मखेत्तसु उक्कस्सखेत्तग्गहणादो । ओघुक्कस्समागासदव्वं, तस्स गहणं किण्ण कदं ? ण, कम्मक्खेत्तसु तदभावादो । एगं सामित्तं जहण्णपदे, अण्णेगमुक्कस्सपदे, एवं दुविहं चेव सामित्तं होदि; अण्णस्सासंभवादो। ___ सामित्तेण उक्कस्सपदे णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥ ७॥ जहण्णपदपडिसेहट्ठ उक्कस्सपदणिद्देसो कदो। णाणावरणग्गहणं सेसकम्मपडिसेहफलं। खेत्तग्गहणं दव्वादिपडिसेहफलं । पुव्वाणुपुट्विं मो ण पच्छाणुपुबीए उक्कस्सखेत्तस्स परूवणा किमढे कीरदे ? ण, महल्लपरिवाडीए परूवगटुं कीरदे । आदेशकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षेत्र हैं । इसी प्रकार शेष प्रदेशों में भी ले जाना चाहिये । कालकी अपेक्षा एक समयको देखकर दो समय आदेशउत्कृष्ट हैं । इसी प्रकार शेष समय में भी ले जाना चाहिये । भावकी अपेक्षा एक गुण युक्त द्रव्यको देखकर दो गुण युक्त द्रव्य आदेशउत्कृष्ट है । इसी प्रकार शेष गुणों में भी ले जाना चाहिये। भावउत्कृष्ट आगमभावउत्कृष्ट और नोआगमभावउत्कृष्टके भेदसे दो प्रकार है। उनमें उत्कृष्ट प्राभृतका जानकार उपयोग युक्त जीव आगमभाव उत्कृष्ट है । नोआगमभावउत्कृष्ट केवलज्ञान है। यहां ओघक्षेत्रउत्कृष्टका अधिकार है, क्योंकि, विवक्षित कर्मक्षेत्रों में उत्कृष्ट क्षेत्रका ग्रहण किया गया है। शंका-ओघउत्कृष्ट आकाश द्रव्य है, उसका ग्रहण क्यों नहीं किया ? समाधान - नहीं, क्योंकि, कर्मक्षेत्रों में आकाशद्रव्यका अभाव है। एक स्वामित्व जघन्य पदमें और दूसरा एक उत्कृष्ट पदमें, इस प्रकारसे दो प्रकार का ही स्वामित्व है, क्योंकि, इनके अतिरिक्त अन्य स्वामित्वकी सम्भावना नहीं है । स्वामित्वसे उत्कृष्ट पदमें ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥७॥ जघन्य पदके प्रतिषेधके लिये सूत्र में उत्कृष्ट पदका निर्देश किया है । ज्ञानावरणका ग्रहण शेष कर्मोका प्रतिषेध करता है । क्षेत्र पदके ग्रहणका फल द्रव्य आदिका प्रतिषेध करना है। - शंका-पूर्वानुपूर्वीको छोड़कर पश्चादानुपूर्वीसे उत्कृष्ट क्षेत्रकी प्ररूपणा किसलिये की जाती है? Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ८. ] वेयणमहाहियारे वेयणखे सविहाणे सामित्तं [ १५ जो मच्छो जोयणसहस्सिओ सयंभुरमणसमुद्दस्स बाहिरिल्लए तडे अच्छिदो ॥ ८॥ जो मच्छो जोयणसहस्सओ त्ति एदेण सुत्तवयणेणगुलस्स असंखेज्जदिभागमार्दि कादून जा उक्कस्सेण पदेसूणजोयणसहस्स त्ति आयामेण जे ट्ठिदा मच्छा तेसिं पडिसेहो कदो । उस्सेह-विक्खंभे हि महामच्छासरिसलद्धमच्छेसु गहिदेसु विण कोच्छि दोसो अस्थि, तदो तेर्सि गहणं किण्ण कीरदे ? ण एस दोसो, महामच्छायाम - विक्खंभुस्सेहेसु अणवगएसु लद्धमच्छायामविक्खंभुस्सेहाणं अवगमोवायाभावादो | ण महामच्छायामो अण्णा अवगम्मदे, सुत्तभूदस्स एदम्हादो जेट्ठस्स अण्णस्सासंभवादो । महामच्छस्स आयामो जोयणसहस्सं १००० । एदस्स विक्खंभुस्सेहा केत्तिया होंति त्ति उत्ते, उच्चदे – एसो महामच्छो पंचजोयणसदविक्खंभो ५०० पंचासुत्तरबीस दुस्सेहो २५० । सुत्तेण विणा कधमेदं णव्वदे ? समाधान-- नहीं, महान् परिपाटीसे प्ररूपणा करनेके लिये पश्चादानुपूर्वी से प्ररूपणा की जा रही है । (अर्थात् उद्देश्यके अनुसार यद्यपि पहिले जघन्य पदकी प्ररूपणा करना चाहिये थी, तथापि विस्तृत होने से पहिले उत्कृष्ट पदकी प्ररूपणा की जा रही है। ) जो मत्स्य एक हजार योजनकी अवगाहनावाला स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तटपर स्थित है ॥ ८ ॥ जो मत्स्य एक हजार योजनकी अवगाहनावाला है ' इस सूत्रांशसे, जो मत्स्य अंगुलके असंख्यातवें भागको आदि लेकर उत्कर्षसे एक प्रदेश कम हजार योजन प्रमाण तक आयामसे स्थित हैं, उनका प्रतिषेध किया गया है । शंका - उत्सेध और विष्कम्भकी अपेक्षा महामत्स्यके सदृश पाये जानेवाले मत्स्यौका ग्रहण करनेपर भी कोई दोष नहीं है, अतः उनका ग्रहण क्यों नहीं करते ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जब तक महामत्स्यके आयाम, विष्कम्भ और उत्सेधका परिज्ञान न हो जावे तब तक प्राप्त मत्स्योंके आयाम, विष्कम्भ और उत्सेधका परिज्ञान होना किसी प्रकार से सम्भव नहीं है । महामत्स्यका आयाम किसी अन्य सूत्रसे नहीं जाना जाता है, क्योंकि, इस सूत्रले ज्येष्ठ प्राचीन सूत्रभूत कोई अन्य वाक्य सम्भव नहीं है । महामत्स्यका आयाम एक हजार ( १००० ) योजन प्रमाण है । इसके विष्कम्भ और उत्सेधका प्रमाण कितना है, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि उस महामत्स्यका विष्कम्भ पांच सौ (५००) योजन और उत्सेध दो सौ पचास (२५०) योजन मात्र है । - यह सूत्र के विना कैसे जाना जाता है ? शंका Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ १, २, ५, ८. आइरियपरंपरागयपवाइज्जतुवदेसादो । ण च महामच्छविक्खंभुस्सेहाणं सुत्तं णत्थि चेवे त्ति णियमो, देसामासिएण 'जोयणसहस्सिओ' त्ति उत्तेण सूचिदत्तादो । एदे विक्खंभुस्सेदा महामच्छस्स सव्वत्थ सरिसा । मुह-पुच्छेसु विवखंभुस्सेहाणं पमाणमेतिय होदि ति, एदेहितो पुघभूदविक्खंभुस्सेहाणं परूवयसुत्त-वक्खाणाणमणुवलंभादो जायणसहस्साणदेसण्णहाणुववत्तीदो च। के वि आइरिया महामच्छो मुह पुच्छेसु सुठु सण्हओ ति भणति । एत्थतणमच्छे दळूण एदं ण घडदे, कहल्लिमच्छगेसु वियहिचारदसणादो । अधवा एदे विक्खंभुस्सेहा समकरणसिद्धा त्ति के वि आइरिया भणति । ण च सुठु सण्णमुहो महामच्छो अण्णेगंजोयणसदोगाहणतिमिगिलादिगिलणखमो, विरोहादो । तम्हा वक्खाणग्मि उत्तविक्खंभुस्सेहा चेव महामच्छस्स घेत्तव्वा । अधवा मज्झपदेसे चेव उत्तविक्खंभुस्सेहो मच्छो घेत्तव्वो, आदिमज्झवसाणेसु एदम्हाद। तिगुणं विपुंजमाणस्स उक्कस्सखेत्तुप्पत्तिं पडि विरोहाभावादो । 'सयंभुरमणसमुदस्से ' त्ति सव्वदीव-समुद्दबाहिरसमुद्दस्स गहणटुं । सव्वबाहिरो समुद्दो चेव समाधान- वह आचार्य परम्पराके प्रवाह स्वरूपसे आये हुए उपदेशसे जाना जाता है । और महामत्स्यके विष्कम्भ व उत्सेधका ज्ञापक सूत्र है ही नहीं, ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, 'जोयणसहस्सिओत्ति' अर्थात् एक हजार योजनवाला इस देशामर्शक सूत्रवचनसे उनकी सूचना की गई है। ये विष्कम्भ और उत्सेध महामत्स्यके सब जगह समान हैं । मुख और पूंछमें विष्कम्भ एवं उत्सेधका प्रमाण इतने मात्र ही है, क्योंकि, इनसे भिन्न विष्कम्भ और उत्सेधकी प्ररूपणा करनेवाला सूत्र व व्याख्यान पाया नहीं जाता, तथा इसके विना हजार योजनका निर्देश बनता भी नहीं है। महामत्स्य मुख और पूंछमें अतिशय सूक्ष्म है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु यहांके मत्स्योको देखकर यह घटित नहीं होता, तथा कहीं कहीं मत्स्यों के अंगोंमें व्याभिचार देखा जाता है। अथवा, ये विष्कम्भ और उत्सेध समकरणसिद्ध हैं, ऐला कितने ही आचार्य कहते हैं। दूसरी बात यह है कि अतिशय सूक्ष्म मुखसे संयुक्त महामत्स्य एक सौ योजनकी अवगाहनावाले अन्य तिमिंगल आदि मत्स्योके निगलनेमें समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि, उसमें विरोध आता है । अत एव व्याख्यानमें महामत्स्यके उपर्युक्त विष्कम्भ और उत्सेधको ही ग्रहण करना चाहिये। __ अथवा, उक्त विष्कम्भ और उत्सेध महामत्स्यके मध्य प्रदेशमें ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि आदि, मध्य और अन्तमें इससे तिगुणे फैलनेवालेके उत्कृष्ट क्षेत्रकी उत्पत्तिके प्रति कोई विरोध नहीं है। 'सयंभुरमणसमुदस्स' इस पदके द्वारा द्वीप-समुद्रों में सबसे बाहा समुद्रका ग्रहण किया गया है। १ प्रतिषु मच्छाओसु' इति पाठः।- २ ताप्रती 'अणेग ' इति पाठः । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ५, ८. वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं [१७ होदि ति कधं णव्वदे ? सयंभुरमणसमुद्दरस बाहिरे' दीवे अच्छिदो त्ति अभणिय 'सयंभुरमणसमुद्दस्स बाहिरिल्लए तडे अच्छिदो' त्ति सुत्तादो णव्वदे ? सगबाहिरवेइयाए परंतो त्ति सयंभुरमणसमुद्दो, तरस बाहिरिल्लतडो णाम समुद्दपरभूभागदेसो । तत्थ अच्छिदो त्ति घेत्तव्वं । सयंभुरमणसमुद्दस्स बाहिरिल्लतडो णाम तदवयवभूदबाहिरवेइया, तत्थ महामच्छो अच्छिदो त्ति के वि आइरिया भणंति । तण्ण घडदे, 'कायलेस्सियाए लग्गों' ति उवरि भण्णमाणसुत्तेण सह विरोहादो । ण च सयंभुरमणसमुद्दबाहिरवेइयाए संबद्धा तिण्णि वि वादवलया, तिरियलोगविवखंभरस एमरज्जुपमाणादो ऊणत्तप्पसंगादो । तं कधं णव्वदे ? जंबूदीवजोयणलक्खविखंभदो दुगुणक्कमेण गदसव्वदीव-सागरविक्खंभेसु मेलाविदेसु जगसेडीए सत्तमभागाणुप्पत्तीदो । तं पि कधं णव्वदे ? रूवाहियदीव-सागररूवाणि विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थं कादूण तत्थ तिण्णि रुवाणि अवणिय जोयणलक्खेण गुणिदे दीवसमुद्दरुद्धतिरियलोगखेत्तायामुप्पत्तीदो । ण च एत्तियो चेव तिरियलोगविक्खंभो, जगसेडीए शंका-सर्वबाह्य समुद्र ही है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-' स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य द्वीपमें स्थित' ऐसा न कहकर स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तटपर स्थित' ऐसा जो सूत्र है उसीसे वह जाना जाता है। अपनी बाह्य वेदिका पर्यन्त स्वयम्भूरमण समुद्र है, उसके बाह्य तटसे अभिप्राय समुद्र के पर भूभागप्रदेशका है। वहांपर स्थित, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तटका अर्थ उसकी अंगभूत बाह्य येदिका है, वहां स्थित महामत्स्य, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, वैसा स्वकिार करने पर आगे कहे जानेवाले 'तनुवातवलयसे संलग्न हुआ' इस सूत्रके साथ विरोध आता है। कारण कि स्वयम्भूरमण समुद्र की बाह्य वेदिकासे तीनों ही वातवलय सम्बद्ध नहीं हैं, क्योंकि, वैसा होने पर तिर्यग्लोक सम्बन्धी विस्तारप्रमाणके एक राजुसे हीन होने का प्रसंग आता है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- चूंकि जम्बूद्वीप सम्बन्धी एक लाख योजन प्रमाण विस्तारकी अपेक्षा दुगुणे क्रमसे गये हुए सब द्वीप-समुद्रोंके विस्तारोको मिलाने पर जगश्रेणिका सातवां भाग (राजु) उत्पन्न नहीं होता है, अतः इसीसे जाना जाता है कि तीनों वातवलय स्वयम्भुरमण समुद्रकी बाह्य वेदिकासे सम्बद्ध नहीं है। शंका - वह भी कैसे जाना जाता है ? । समाधान-एक अधिक द्वीप-समुद्र सम्बन्धी रूपोंका विरलन कर दुगुणा करके परम्पर गुणित करने पर जो प्राप्त हो उसमें तीन रूपोंको कम करके एक लाख योजनसे गुणित करनेपर द्वीप-समुद्रों द्वारा रोके गये तिर्यग्लोक क्षेत्रका आयाम उत्पन्न होता है, अतः इसीसे जाना जाता है कि उक्त प्रकारसे जगश्रेणिका सातवां भाग नहीं उत्पन्न होता। १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्योः 'समुद्दयबाहिरे'; ताप्रतौ 'समुद्दे बाहिरे' इति पाठः। २ षट्. भा. ३ पृ. ३७. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, ९. सत्तमभागम्मि पंचसुण्णाणुवलंभादो । ण च एदम्हादो रज्जुविक्खंभो ऊणो होदि, रज्जुअब्भं. तरभूदस्स चउब्बीसजोयणमेत्तवादरुद्धक्खेत्तस्स बज्झमुवलंभादो । ण च तेत्तियमेत्तं पक्खित्ते पंचसुण्णओ फिटृति, तहाणुवलंभादो । तम्हा सयलदीव-सायरविक्खभादो बाहिं केत्तिएण वि क्खेत्तेण होदव्वं । सयंभुरमणसमुद्दभंतरे द्विदमहामच्छो जलचरो कधं तस्स बाहिरिल्लं तडं गदो ? ण एस दोसो, पुव्ववइरियदेवपओगेण तस्स तत्थ गमणसंभवादो । वेयणसमुग्धादेण समुहदो ॥९॥ वेयणावसेण जीवपदेसाणं विक्खंभुस्सेहेहि तिगुणविपुजणं वेयणासमुग्धादो णाम । ण च एस णियमा सव्वेसिं जीवपदेसा वेयणाए तिगुणं चेव विपुंजति त्ति, किंतु सगविक्खंभादो तरतमसरूवेण ट्ठिदवेयणावसेण एग-दोपदेसादीहि वि वड्डी होदि । ते वेयणसमुग्घादा एत्थ ण गहिदा, उक्कस्सेण खेत्तेण अहियारादो । महामच्छो चेव किमिदि वेयणसमुग्घादं णीदो ? महल्लोगाहणत्तादो, जलयरस्स थले क्खित्तस्स उण्हेण दज्झमाणंगस्स संचियबहुपावकम्मस्स महावयणुप्पत्तिदंसणादो च ।। तिर्यग्लोकका विस्तार इतने मात्र ही हो, सो भी नहीं है। क्योंकि, जगश्रेणिके सातवें भागमें पांच शून्य नहीं पाये जाते । और इससे राजुविष्कम्भ हीन भी नहीं है, क्योंकि राजुके अन्तर्गत चौबीस योजन प्रमाण वायुरुद्ध क्षेत्र बाह्यमें पाया जाता है। दूसरे, उतने मात्र क्षेत्रको मिलाने पर पांच शून्य नष्ट भी नहीं होते, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता । इसी कारण समस्त द्वीप-समुद्र सरन्धी विस्तारके बाहिर भी कुछ क्षेत्र होना चाहिये। शंका-स्वयम्भूरमण समुद्रके भीतर स्थित महामत्स्य जलचर जीव उसके बाह्य तटको कैसे प्राप्त होता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पूर्वके वैरी किसी देयके प्रयोगसे उसका वहां गमन सम्भव है। वेदनासमुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त हुआ ॥९॥ वेदनाके वशसे जीवप्रदेशोंके विष्कम्भ और उत्सेधकी अपेक्षा तिगुणे प्रमाणमें फैलनेका नाम वेदनासमुद्घात है। परन्तु सबके जीवप्रदेश वेदनाके वशसे तिगुणे ही फैलते हों, ऐसा नियम नहीं है। किन्तु तरतम रूपसे स्थित वेदनाके वशसे अपने विष्कम्भकी अपेक्षा एक दो प्रदेशादिकोंसे भी वृद्धि होती है । परन्तु उन वेदनासमुद्घातोंका यहां ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि, यहां उत्कृष्ट क्षेत्रका अधिकार है। शंका-महामत्स्यको ही वेदनासमुद्घातको क्यों प्राप्त कराया है ? समाधान- क्योंकि, एक तो उसकी अवगाहना बहुत अधिक है, दूसरे जलचर जीवको स्थलमें रखनेपर उष्णताके कारण अंगोंके संतप्त होनेसे बहुत पापकौके संचयको प्राप्त हुए उसके महा वेदनाकी उत्पत्ति देखी जाती है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ५, .१०] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं कायलेस्सियाए लग्गो ॥ १० ॥ कायलेस्सिया णाम तदियो वादवलओ। कधं तस्स एसा सण्णा ? कागवण्णत्तादो सो कागलेरिसओ णाम । एत्थ अंधकायलेस्सों ण घेत्तव्वा, तत्थ अंधत्तवेण्णाणुवलंभादो। लोगवड्डिवसेण लोगनाडीदो परदो संखेज्जजोयणाणि ओसरिय द्विदतदियवादे लोगणालीए अब्भंतरट्ठिदमहामच्छो कधं लग्गदे ? सच्चमेदं महामच्छस्स तदियवादेण संपासो णत्थि त्ति । किंतु एसा सत्तमी सामीवे वदि । न च सप्तमी सामीप्ये असिद्धा, गंगायां घोषः प्रतिवसतीत्यत्र सामीप्ये सप्तम्युपलंभात् । तेण काउलेस्सियाए छुत्तदेसो काउलेस्सिया ति गहिदो । तीए काउलेस्सियाए जाव लग्गदि ताव वेयणासमुग्घादेण समुहदो त्ति उत्तं होदि। भावत्थो-पुव्ववेरियदेवेण महामच्छो सयंभुरमणवाहिरवेइयाए बाहिरे भागे लोगणालीए समीवे पादिदो । तत्थ तिव्ववेयणावसेण वेयणसमुग्घादेण समुहदों जाव लोगणालीए बाहिरपेरंतो लग्गो त्ति उत्तं होदि । जो तनुवातवलयस स्पृष्ट है ॥ १० ॥ काकलेश्याका अर्थ तीसरा वातवलय है। शंका-उसकी यह संशा कैसे है ? समाधान----तनुवातवलयका काकके समान वर्ण होनेसे उसकी काकलेइया संशा है। यहां अंधकाकलेश्या (काला स्याह काकवर्ण) का ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, उसमें अंधत्त्व अर्थात् काला स्याह वर्ण नहीं पाया जाता। शंका- लोकनालीके भीतर स्थित महामत्स्य लोकविस्तारानुसार लोकनालीके आगे संख्यात योजन जाकर स्थित तृतीय वातवलयसे कैसे संसक्त होता है ? समाधान-यह सत्य है कि महामत्स्यका तृतीय वातवलयसे स्पर्श नहीं होता, किन्तु यह सप्तमी विभक्ति सामीप्य अर्थमें है। यदि कहा जाय कि सामीप्य अर्थमें सप्तमी विभक्ति असिद्ध है, सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि 'गंगामें घोष (ग्वालवसति) वसता है' यहां सामीप्य अर्थमें सप्तमी विभक्ति पायी जाती है। इसलिये कापोतलेश्यासे स्पृष्ट प्रदेश भी कापोतलेल्या रूपसे ग्रहण किया गया है । उस कापोतलेश्यासे जहां तक संसर्ग है वहां तक वेदनासमुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त हुआ, यह उसका अभिप्राय है। भावार्थ-पूर्वके वैरी किसी देवके द्वारा महामत्स्य स्वयम्भुरमण समुद्रकी बाह्य घेदिकाके बाहिर भागमें लोकनालीके समीप पटका गया। वहां तीव्र वेदनाके वश घेदनासमुद्धातसे समुद्घातको प्राप्त होकर लोकनालीके बाह्य भाग पर्यन्त वह संसक्त होता है, यह अभिप्राय है। १ ताप्रती · अद्धकायलेस्सा' इति पाठः । २ ताप्रती ' अध्वत्त' इति पाठः । ३ ताप्रती 'समीवे' इति पाठः। ४ ताप्रती ' ण च सप्तमी सामीप्पे ' इति पाठः । ५ ताप्रती 'सप्तम्युपलंभादो' इति पाठः। १ प्रतिषु पुचीदो'; ताप्रती पुत्ती (पति) दो इति पाठः। ७ प्रतिषु 'समुग्धादो' इति पाठः । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ' छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, ११. पुणरवि मारणंतियसमुग्घादेण समुहदो तिण्णि विग्गहकंदयाणि कादूण ॥ ११ ॥ ___ महामच्छो लोगणालीए वायव्वदिसाए पुव्ववेरियदेवसंबंधेण दक्खिणुत्तरायामेण पदिदो । तत्थ मारणंतियसमुग्धादेण समुहदो । तेण महामच्छेण वेयणसमुग्घादेण मारणंतियसमुग्धादं करतेण तिष्णि विग्गहकंदयाणि कदाणि । विग्गहो णाम वक्कत्त, तेण तिण्णि कदंयाणि कदाणि । तं जहा- लोगणालीवायव्वदिसादो कंडुज्जुवाए गईए सादिरेयअद्धरज्जूमेत्तमागदो दक्खिणदिसाए । तमेगं कंदयं । पुणो तत्तो वलिदूण कंडुज्जुवाए गईए एगरज्जुमेत्तं पुन्वदिसमागदो' । तं बिदियं कंदयं । पुणो तत्तो वलिदूण अधो छरज्जुमेत्तद्धाणमुजुगदीए गदो। तं तदिय कंदयं । एवं तिणि कंदयाणि कादूण मारणंतियसमुग्घादं गदो । चत्तारि कंदए किण्ण कराविदो ? ण, तसेसु दो विग्गहे मोत्तूण तिष्णिविग्गहाणमभावादो । तं कधं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । से काले अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उप्पज्जिहिदि त्ति तस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा ॥१२॥ फिर भी जो तीन विग्रह करके मारणान्तिकसमुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त हुआ है ॥ ११ ॥ महामत्स्य लोकनालीकी वायव्य दिशामें पूर्वके वैरी देवके सम्बन्धसे दक्षिण-उत्तर मायाम स्वरूपसे गिरा । वहां वह मारणान्तिकसमुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त हुआ। वेदनासमुद्घातके साथ मारणान्तिकसमुद्घातको करनेवाले उक्त महामत्स्यने तीन विग्रहकाण्डक किये । विग्रहका अर्थ वक्रता है, उससे तीन काण्डक किये । वे इस प्रकारसे- लोकनालीकी वायव्य दिशासे बाणके समान ऋजुगतिसे साधिक अर्ध राजु मात्र दक्षिण दिशामें आया। वह एक काण्डक हुआ। फिर वहांसे मुड़कर बाण जैसी सीधी गति से एक राजु मात्र पूर्व दिशामें आया । वह द्वितीय काण्डक हुआ। फिर वहांसे मुड़कर नीचे छह राजु मात्र मार्गमें ऋजुगतिसे गया। वह तृतीय काण्डक हुआ। इस प्रकार तीन काण्डकोंको करके मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त हुआ। शंका-चार काण्डकोंको क्यों नहीं कराया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रसोंमें दो विग्रहोंको छोड़कर तीन विग्रह नहीं होते। शंका-वह कैसे ज्ञात होता है ? समाधान-वह इसी सूत्रसे ज्ञात होता है। अनन्तर समयमें वह सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न होगा, अनः उसके ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ १२ ॥ १ मप्रतिपाठोध्यम् । अ-काप्रत्योः 'पुवदिसावसमागदो', साप्रती 'पुवदिसाव (ए) समागदो' इति पाठः। २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-कानयोः 'तं तदियकंडयाणि', ताप्रती ' तं तदियकंड [य] | या (ता)णि' इति पाठः। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, १२. ] महाहियारे वैणखेत्तविहाणे सामित्तं [२१ सत्तमपुढविं मोत्तूण हेट्ठा णिगोदेसु सत्तरज्जुमेत्तद्धाणं गंतूण किण्ण उप्पाइदो ? णिगोदेसुप्पज्जमाणस्स अइतिव्ववेयणाभावेण सरीरतिगुणवेयणसमुग्धादस्स अभावादो । जदि एवं तो पुव्विल्लविक्खंभुस्सेहेहिंतो वेयणाए जहा विक्खंभुस्सेहा दुगुणा होंति तहा कादूण गोदे कि उपाइदो ? ण, वडिदक्खेत्तादो परिहीणखेत्तस्स सादिरेयअट्टगुणत्तुवलंभादो । जदि वि वारुणदिसादो एगरज्जुमेतं पुव्वदिसाए गंतूण पुणो हेट्ठा सत्तरज्जुअद्धाणं गंतूण दक्खिण आहुरज्जुओ गंतूण सुहुमणिगोदेसु उप्पजदि तो वि पुव्विल्लखेत्तादो एदस्स खेत्तं विसेसहीणं चेव, विक्खंभुस्सेहाणं तिगुणत्ताभावादो । सुहुमणिगोदेसु उप्पज्जमाणस्स महामच्छस्स विक्खंभुस्सेहा तिगुणा ण होंति, दुगुणा विसेसाहिया वा होंति त्ति क वदे ? अधो सत्तमा पुढवीए पेरइएस से काले उप्पज्जिहिदि ति सुत्तादो णव्वदे । संतकम्मपाहुडे पुण णिगोदेसु उप्पाइदो, णेरइएसु उप्पज्जमानमहामच्छो व्व सुहुमणिगोदेसु शंका- सातवीं पृथिवीको छोड़कर नीचे सात राजु मात्र अध्वान जाकर निगोद जीवों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया ? समाधान - नहीं, क्योंकि, निगोद जीवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवके अतिशय तीव्र वेदनाका अभाव होनेसे विवक्षित शरीर से तिगुणा वेदनासमुद्घात सम्भव नहीं है । शंका - यदि ऐसा है तो वेदनासमुद्घातमें पूर्वोक्त विष्कम्भ और उत्सेधसे जिस प्रकार दुगुणा विष्कम्भ व उत्सेध होता है वैसा करके निगोद जीवोंमें क्यों नहीं उत्पन्न कराया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उसके वृद्धिंगत क्षेत्रकी अपेक्षा हानिको प्राप्त क्षेत्र साधिक आठगुणा पाया जाता है । यद्यपि पश्चिम दिशासे एक राजु मात्र पूर्व दिशा में जाकर फिर नीचे सात राजु अध्वान जाकर, फिर दक्षिणसे साढ़े तीन राजु जाकर सूक्ष्म निगोद जीवों में उप्पन्न होता है, तो भी पूर्वके क्षेत्र से इसका क्षेत्र विशेष हीन ही है, क्योंकि, इसमें विष्कम्भ और उत्सेध तिगुणे नहीं हैं । शंका - सूक्ष्म निगोद जीवोंमें उत्पन्न होनेवाले महामत्स्थका विष्कम्भ और उत्सेध तिगुणा नहीं होता, किन्तु दुगुणा अथवा विशेष अधिक होता है; यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - " नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियों में वह अनन्तर कालमें उत्पन्न होगा " इस सूत्र से जाना जाता है । सत्कर्मप्राभृत में उसे निगोद जीवों में उत्पन्न कराया है, क्योंकि, नारकियों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्य के समान सूक्ष्म निगोद जीवों में उत्पन्न होनेवाला महामत्स्य Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] raati aणाखंडे [ ४, २, ५, १२. उपज्जमानमहामच्छो वि तिगुणसरीरबाहल्लेण मारणंतियसमुग्धादं गच्छदिति । णच एदं जुज्जदे, सत्तमपुढवीणेरइएस असादबहुलेसु उप्पज्जमाण महा मच्छवेयणा-कसाए हिंतो सुमणिगोद उप्पज्जमानमहामच्छवेयण-कसायाणं सरिसत्ताणुववत्तदो । तद। एसो चेव अत्थो पहाणो त्ति घेत्तव्वो । ' लोगणालीए अंते सत्तमपुढवीए सेडिबद्धो अस्थि त्ति' देण सुत्ते णव्वदे, अण्णा तिण्णि विग्गहप्पसंगादो । से काले उप्पज्जिद्दिदि' त्ति किमङ्कं उच्चदे १ ण णेरइएसुप्पण्णपढमसमए उवसंहरिदपढमदंडस्स य उक्कस्सखेत्ताणुववत्तदो । एत्थ संदिट्ठीसादिरेयमद्धगुरज्जुपमाण के वि आइरिया -☀ एवं होदित्ति भणति । तं जहा- अवरदिसादो मारणंतियसमुग्धादं काढूण पुव्वदिसमागदो जाव लोगणालीए अंतं पत्तो त्ति । पुणो विग्गहं करिय हेट्ठा छरज्जुपमाणं गंतूण पुणरवि विग्ग करिय वारुणदिसाए अद्धरज्जुपमाणं गंतूण अवहिद्वाणम्मि उप्पण्णस्स खेत्तं होदि त्ति । एदं ण घडदे, उववादट्ठाणं वोलेदूण गमणं णत्थि त्ति पवाइज्जत उवदेसेण सिद्धत्ताद । । - भी विवक्षित शरीरकी अपेक्षा तिगुणे बाहल्यसे मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त होता है | परन्तु यह योग्य नहीं है, क्योंकि, अत्यधिक असाताका अनुभव करनेवाले सातवीं पृथिवीके नारकियों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यकी वेदना और कषायकी अपेक्षा सूक्ष्म निगोद जीवों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यकी वेदना और कवाय सदृश नहीं हो सकती । इस कारण यही अर्थ प्रधान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । लोकनाली अन्तमें सातवीं पृथिवीका श्रेणिबद्ध है इस सूत्र से जाना जाता है, क्योंकि, इसके विना तीन विग्रहोंका प्रसंग आता है । 66 " शंका - अनन्तर कालमें उत्पन्न होगा, यह किसलिये कहते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, नारकियों में उत्पन्न होनेके प्रथम समय में प्रथम दण्डका उपसंहार हो जानेसे उसका उत्कृष्ट क्षेत्र नहीं बन सकता । यहां संदृष्टि - (मूल में देखिये) । साधिक साढ़े सात राजुका प्रमाण इस (निम्न) प्रकार होता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । यथा - " पश्चिम दिशासे मारणान्तिकसमुद्घातको करके लोकनालीका भन्त प्राप्त होने तक पूर्वदिशामें आया । फिर विग्रह करके नीचे छह राजु मात्र जाकर पुनः विग्रह करके पश्चिम दिशामें आध राजु प्रमाण जाकर अवधिस्थान नरक में उत्पन्न होने पर उसका उत्कृष्ट क्षेत्र होता I किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, वह उपपादस्थानका अतिक्रमण करके गमन नहीं होता' इस परम्परागत उपदेश से सिद्ध है । "" " १ अप्रतौ ' उप्पज्जदि', ताप्रतौ ' उप्पज्जहिदि ' इति पाठः । २ ताप्रती 'सादिरेयमय रज्जुपमाणं ' इति पाठ: । ३ प्रतिषु ' होंति' इति पाठः । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, १३. ] arrमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं [ २३ एत्थ उवसंहारो उच्चदे । तं जहा- एगरज्जुं ठविय सादिरेयअद्धट्टमरूवेहि गुणेदूण पुणो तिगुणिदविक्खंभेण | १५०० | तिगुणिदउस्सेहगुणिंदण | ७५० | गुणिदे णाणावरणीयस्स उक्कस्सखेत्तं होदि । तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा ॥ १३ ॥ उक्करसमहामच्छवखेत्ता दो वदिरित्तं खेत्तं तव्वदिरित्तं णाम । सा अणुक्कस्सा खेत्तवेयणा । सा च असंखेज्जवियप्पा | तिस्से सामी किरण परुविदा ? ण, उक्कस्तसामी चव अणुक्करसरस वि सामी होदि त्ति पुधसामित्तपरूवणाकरणादो, सेसवियप्पाणं पि एदम्हादो चैव सिद्धीदो च । तं जहा - मुहम्मि एगागासपदेसेणूणुक्कर से गाहणमहामच्छेण पुव्ववेरियदेवसंबंघेण लोगणालीए वायव्वदिसाए णिवदिय वेयणसमुग्वादेण पुव्वविक्खंभुस्सेहेहिंतो तिगुणविक्खंभुस्सेहे आवण्णेण मारणंतियसमुग्घादेण तिष्णि कंदयाणि कादूण सत्तमपुढविं पत्ते अणुक्करसुक्करसक्खेत्तं कदं । तेण एदस्स अणुक्क सुक्क सक्खेत्तस्स महामच्छो चैव सामी | पुणो मुहपदेसे दोहि आगासपदेसेहि ऊणओ महामच्छो वेयणसमुग्धादेण समुहदो होदूण तिण्णि विग्गहकंडयाणि काढूण मारणंतियसमुग्धादेण सत्तमपुढवि गदो बिदियअणुक्कस्सखेत्तस्स सामी होदि । पुणो तीहि आगासपदेसेहि परिहीणमुहो यहां उपसंहार कहते हैं । वह इस प्रकार है- - एक राजुको स्थापित करके साधिक साढ़े सात रूपसे गुणित करके पश्चात् तिगुणे उत्सेध ( २५० x ३ = ७५० ) से गुणिततिगुणे विष्कम्भ ( ५०० x ३ = १५०० ) के द्वारा गुणित करनेपर ज्ञानावरणीय का उत्कृष्ट क्षेत्र होता है । महामत्स्यके उपर्युक्त उत्कृष्ट क्षेत्र से भिन्न अनुत्कृष्ट वेदना है || १३ || उत्कृष्ट महामत्स्यक्षेत्र से भिन्न क्षेत्र तद्व्यतिरिक्त है । वह अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना है । वह असंख्यात विकल्प रूप है । शंका-उसके स्वामीकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? समाधान -- महीं, क्योंकि, उत्कृष्टका स्वामी ही चूंकि अनुत्कृष्टका भी स्वामी होता है, अतः उसके स्वामित्वकी पृथक् प्ररूपणा नहीं की गई है, तथा शेष विकल्प भी इसीसे सिद्ध होते हैं । यथा— मुखमें एक प्रदेश से हीन उत्कृष्ट अवगाहनासे संयुक्त, पूर्ववैरी देवके सम्बन्ध से लोकनालीकी वायव्य दिशामें गिरकर वेदनासमुद्घात से पूर्व विष्कम्भ व उत्सेधकी अपेक्षा तिगुणे विष्कम्भ व उत्सेधको प्राप्त, तथा मारणान्तिकसमुद्घातसे तीन काण्डकोंको करके सातवीं पृथिवीको प्राप्त हुआ महामत्स्य अनुत्कृष्ट उत्कृष्ट क्षेत्रको करता है । इस कारण इस अनुत्कृष्ट-उत्कृष्ट क्षेत्रका महामत्स्य ही स्वामी है । पुनः मुखप्रदेश में दो आकाशप्रदेशोंसे हीन महामत्स्य वेदनासमुद्घात से समुद्घातको प्राप्त होकर तीन विग्रहकाण्ड कोको करके मारणान्तिकसमुद्घातसे सातवीं पृथिवीको प्राप्त होता हुआ द्वितीय अनुत्कृष्ट क्षेत्रका स्वामी होता है । फिर तीन Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, १३. महामच्छो पुव्वविहिणा चेव मारणंतियसमुग्घादेण सत्तमपुढविं गदो तदियखेत्तस्स सामी । मुहम्मि चत्तारिआगासपदेसूणमहामच्छो मारणंतियसमुग्धादेण सादिरेयअट्ठमरज्जुआयदो चउत्थखेत्तस्स सामी । एवमेदेण कमेण महामच्छमुहपदेसे ऊणे करिय संखेज्जपदरंगुलमेत्ता अणुक्कस्सक्खेत्तवियप्पा उप्पादेदव्या । एत्थतणसव्वपच्छिमखेत्तं केण सरिसं होदि त्ति वुत्ते वुच्चदे - ओघुक्कस्सोगाहणमहामच्छस्स वेयणसमुग्घादेण तिगुणविक्खंभुस्सेहे गंतूण पदेसूणद्धट्ठमरज्जूण मुक्कमारणंतियस्स खेत्तेण सरिसं होदि । पुणो वि महामच्छमुहवियप्पे अस्सिदूण पदेसूणद्धट्ठमरज्जूणं मारणंतियं मल्लाविय संखेज्जपदरंगुलमेत्तखेत्ताणं सामित्तपरूवणा कायव्वा । एत्थ अंतिमक्खेत्तवियप्पो केण सरिसो होदि त्ति उत्ते, उच्चदे-- ओघुक्कस्सोगाहणामहामच्छस्स पुव्वविहाणेण दुपदेसूणद्धट्ठमरज्जूण मुक्कमारणंतियस्स खेत्तेण सरिसो। पुणो एदं मारणंतियखेत्तायामं धुवं कादूण महामच्छमुहवियप्पे अस्सिदूण संखेज्जपदरंगुलमेत्तखेत्ताणं सामित्तपरूवणं कायव्वं । पुणो एत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो तिपदेसूर्णद्धट्ठमरज्जूणं मुक्कमारणंतियखेत्तेण सरिसो। आकाशप्रदेशोसे हीन मुखवाला महामत्स्य पूर्व विधिसे ही मारणान्तिकसमुद्घातसे सातवीं पृथिवीको प्राप्त होकर तृतीय अनुत्कृष्ट क्षेत्रका स्वामी होता है । मुखमें चार आकाशप्रदेशोंसे हीन महामत्स्य मारणान्तिकसमुद्घातसे साधिक साढ़े सात राजु मात्र आयामसे युक्त होता हुआ चतुर्थ अनुत्कृष्ट क्षेत्रका स्वामी होता है। इस प्रकार इस क्रमसे महामत्स्यके मुखप्रदेशोंको हीन करके संख्यात प्रतरांगुल प्रमाण अनुत्कृष्ट क्षेत्रके विकल्पोंको उत्पन्न कराना चाहिये। शंका-यहांका सबसे अन्तिम क्षेत्र किसके सदृश होता है ? समाधान- इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि यह क्षेत्र सामान्योक्त उत्कृष्ट अवगाहनावाले और वेदनासमुद्घातसे तिगुणे विष्कम्भ व उत्सेधको प्राप्त होकर एक प्रदेश कम साढ़े सात राजु तक मारणान्तिकसमुद्घातको करनेवाले महामत्स्यक क्षेत्रके सदृश होता है। फिरसे भी महामत्स्यके मुख सम्बन्धी विकल्पोंका आश्रय करके प्रदेश कम साढ़े सात राजु तक मारणान्तिकसमुद्घातको छुड़ाकर संख्यात प्रतरांगुल प्रमाण क्षेत्रोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये। शंका-यहां अन्तिम विकल्प किसके सदृश होता है ? समाधान - इस प्रकार पूछनेपर उत्तर देते हैं कि वह क्षेत्र ओघोक्त उत्कृष्ट अवगाहनासे संयुक्त और पूर्व विधिके अनुसार दो प्रदेशोंसे हीन साढ़े सात राजु तक मारणान्तिकसमुद्घातको छोड़नेवाले महामत्स्यके क्षेत्रके सदृश होता है। फिर इस मारणान्तिकक्षेत्रके आयामको अवस्थित करके महामत्स्यके मुख. विकल्पोंका आश्रय कर संख्यात प्रतरांगुल मात्र क्षेत्रोंके स्वामित्वको प्ररूपणा करना चाहिये । यहां सबसे अन्तिम विकल्प तीन प्रदेश कम साढ़े सात राजु तक मारणान्तिक १ तापतौ - वियप्पो त्ति पदेसूण - ' इति पाठः । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, १३. ] पण महाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं [ २५ एवमेगेगासपदेसूणाओ कमेण मारणंतियं मेलाविय अणुक्कस्सखेत्ताणं सामित्तपरूवणं कायव्वं । सत्तमपुढविं मारणंतियं मेल्लमाणजीवाणं मारणंतियखेत्तायामो सव्वेसिं किण्ण सरिसो ? ण, मारणंतियं मेल्लिदूर्ण पुणो मूलसरीरं पविसिय कालं करेंताणं मारणंतियखेत्तायामाणमणेगवियपत्तं पडि विरोहाभावादी । समुप्पत्तिक्खेत्तमपाविय कयमारणंतियसमुग्धादजीवा पल्लट्टिय मूलसरीरं पविरसंति त्ति कथं णव्वदे ? पवाइज्जतउवदेसादो । सुहुमणिगोदेसु उपज्जमाण महामच्छे अस्सिदूण किण्ण सामित्तं उच्चदे ? ण, तेसु तिव्ववेयणाकसायविवज्जिएस एक्कसराहेण महामच्छुक्कस्स मारणीतयखेत्तादो अणेगरज्जुमेत्तखेत्तपदेसूणेसु महामच्छुक्कस्सखेत्तादो पदेसूणादिखे त्तवियप्पाणुवलंभादो । सुहुमणिगोदे सुप्पज्जमाणमहामच्छस्स उक्कस्समारणंतियखेत्तसमाणं सत्तमपुढविम्हि समुप्पज्जमाणमहामच्छमारणं तियखेत्तप्पहुडि हेडिमखेत्तवियप्पा सुहुमणिगोदेसु सत्तमपुढवीए च उष्पज्जमानमहामच्छे अस्सिदूर्ण उप्पादेदव्वा | अहवा, महामच्छं चेव एगादिएगुत्तरागासपदेसकमेण पुरदो समुद्घातको छोड़नेवाले महामत्स्यके क्षेत्रके सदृश होता है । इस प्रकार एक एक आकाशप्रदेशकी हीनता के क्रमसे मारणान्तिकसमुद्घातको छुड़ाकर अनुत्कृष्ट क्षेत्रोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये । शंका- सातवीं पृथिवीमें मारणान्तिकसमुद्घातको करनेवाले सब जीवोंके मारणान्तिकक्षेत्रोंका आयाम समान क्यों नहीं होता ? समाधान- नहीं, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्घातको करके फिर मूल शरीर में प्रवेश कर मृत्युको प्राप्त होनेवाले जीवों सम्बन्धी मारणान्तिकक्षेत्रोंके आयामोंके अनेक विकल्प रूप होने में कोई विरोध नहीं है । शंका-उत्पत्तिक्षेत्रको न पाकर मारणान्तिकसमुद्वातको करनेवाले जीव पलटकर मूल शरीरमें प्रविष्ट होते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - वह परम्परागत उपदेश से जाना जाता है । शंका- सूक्ष्म निगोद जीवोंमें उत्पन्न होनेवाले महामत्स्योंका आश्रय करके स्वामित्व की प्ररूपणा क्यों नहीं की जाती है ? समाधान - - नहीं, क्योंकि, तीव्र वेदना व कषायसे रहित होनेके कारण एक साथ पूर्वोक्त महामत्स्य के उत्कृष्ट मारणान्तिकक्षेत्रकी अपेक्षा अनेक राजु प्रमाण क्षेत्रप्रदेशोंसे होन उक्त निगोद जीवोंमें उत्पन्न होनेवाले महामत्स्योंमें, सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न होनेवाले महामत्स्य के उत्कृष्ट क्षेत्र से एक प्रदेश कम दो प्रदेश कम इत्यादि क्षेत्र विकल्प नहीं पाये जाते । सूक्ष्म निगोद जीवों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यके उत्कृष्ट मारणान्तिकक्षेत्रके समान सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यके मारणान्तिकक्षेत्रको आदि लेकर अधस्तन क्षेत्रके विकल्पोंको सूक्ष्म निगोद जीवों में और सातवीं पृथिवी में भी उत्पन्न होनेवाले महामत्स्योका आश्रय करके उत्पन्न करना चाहिये । अथवा, १ अ-काप्रत्योः ' मेल्लिदोण', ताप्रतौ 'मेहिदो ण ' इति पाठः । म छ. ११-४. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, १३. ओसारिय अणुक्कस्सखेत्ताणं परूवणा कायव्वा । एवं णेदव्वं जाव वेयणसमुग्धादेण समुहदमहामच्छखेतं ति। ___ पुणो एदेण खेत्तेण कम्हि महामच्छे मारणतियखेतं सरिसमिदि उत्ते उच्चदे, तं जहा--जो महामच्छो वेयणसमुग्धादेण विणा मूलायामेण सह णवजोयणसहस्साणि मारणंतियं मेल्लिदि, तस्स खेत सरिसं होदि । पुणो पुविल्लं मोत्तूण इमं घेत्तूण खेत्तस्स सामित्तपरूवणं कायव्वं । तं जहा- मुहम्मि एगागासपदेसेण ऊणमहामच्छेण णवजोयणसहस्साणि मुक्कमारणंतिए मेलाविय अणतरहेटिमअणुवकस्समारणंतियखेत्तं होदि । एवमेगेगासपदेसं मुहम्मि ऊणं करिय णवजोयणसहस्साणि मारणंतियं मेल्लाविय संखेज्जपदरंगुलमेत्तखेत्ताणं सामित्तपरूवणं कायव्वं । एवं परिहाइदण ट्ठिदपच्छिमखेत्तण ओघुक्कस्सोगाहणाए पदेसूणणवजोयणसहस्साणि मुक्कमारणंतियमहामच्छखेत्तं सरिसं होदि ? एवं जाणिदूण पदेसूणादिकमेण सेसखेत्ताणं पि सामित्तपरूवणं कायव्वं जाव महामच्छस्सद्धाणुक्करसोगाहणे त्ति । पुणो पदेसूणुक्करसोगाहणमहामच्छो तदणंतरहेट्ठिमअणुक्कस्सखेत्तसामी । एवमेगेगं खेत्तपदेस णिरंतरं ऊणं करिय णेयवं जाव बादरवणप्फदिकाइयपत्तयमहामत्स्यको ही एकको आदि लेकर एक अधिक आकाशप्रदेशके क्रमसे आगे बढ़ाकर अनुत्कृष्ट क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार वेदनासमुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त महामत्स्यके क्षेत्र तक ले जाना चाहिये ।। शंका-इस क्षेत्रसे कौनसे महामत्स्यका क्षेत्र सदृश है ? समाधान - इस शंकाका उत्तर कहते हैं । वह इस प्रकार है-जो महामत्स्य वेदनासमुद्घातके विना मूल आयामके साथ नौ हजार योजन मारणान्तिकसमुद्घातको करता है उसका क्षेत्र इस क्षेत्रके सदृश होता है। अब प्रवेके क्षेत्रको छोड़कर व इसे ग्रहण कर स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये। वह इस प्रकार है-मुखमें एक आकाशप्रदेशसे हीन होकर नौ हजार योजन मारणान्तिकसमुद्घातको करनेवाले महामत्स्यका अनन्तर अधस्तन अनुत्कृष्ट मारणान्तिकक्षेत्र होता है। इस प्रकार एक एक आकाशप्रदेशको मुखमें कम करके नौ हजार योजन मारणान्तिकसमुद्घातको कराकर संख्यात प्रतरांगुल मात्र क्षेत्रों के स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार हीन होकर स्थित अन्तिम क्षेत्रसे ओघोक्त उत्कृष्ट अवगाहनामें एक प्रदेश कम नौ हजार योजन मारणान्तिकसमुद्घातको करनेवाले महामत्स्यका क्षेत्र सदृश होता है । इस प्रकार एक प्रदेश कम, दो प्रदेश कम इत्यादि क्रमसे महामत्स्यके अध्वानमें उत्कृष्ट अवगाहना तक शेष क्षेत्रों के भी स्वामित्वकी प्ररूपणा जानकर करना चाहिये। पुनः एक प्रदेश कम उत्कृष्ट अवगाहनावाला महामत्स्य उससे अनन्तर अधस्तन अनुत्कृष्ट क्षेत्रका स्वामी होता है। इस प्रकार एक एक क्षेत्रप्रदेशको निरन्तर कम करके बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीरकी उत्कृष्ट अवगाहना प्राप्त १ अप्रती ' -मेगेगाणसपदेस', तापतौ —-मेगेगागासपदेस-' इति पाठः। २ प्रतिषु “खेत्तस्स' इति पाठः। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, १३.] वेयणमहाहियारे वेयगखेत्तविहाणे सामित्त सरीरउक्कस्सागाहणं पत्तमिदि । पुणो तत्तो एगेगपदेसूणं करिय णेदव्वं जाव इंदियणिव्वत्तिपज्जत्त उक्कस्सोगाहणं पत्तमिदि । पुणो तत्तो णिरंतरं पदेसूणादिकमेण णेदव्वं जाव चरिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं पत्तमिदि । पुणो तत्तो पदेसूणादिकमेण णेदवं जाव तेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं पत्तमिदि । पुणो एगेगपदेसूणादिकमेण णेदव्वं जाव तेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स अजहण्णमणुक्कस्समेगघणंगुलोगाहणं पत्तमिदि। एवं णिरंतरकमेण एगेगपदेसूणं करिय णेयव्वं जाव सुहमणिगोदलद्धिअपज्जत्तजहण्णोगाहणं पत्तमिदि । एवमसंखेज्जसेडिमेत्ताणमणुक्कस्सखेत्तवियप्पाणं सामित्तपरूवणा कदा। ____ संपहि एदेसिं खेत्तवियप्पाणं जे सामिणो जीवा तेसिं परूवणाए कीरमाणाए तत्य छअणियोगद्दाराणि णादश्वाणि भवंति । तत्थ परूवणा उच्चदे । तं जहा- उक्कस्सए ठाणे अस्थि जीवा । एवं णेदव्वं जाव जहण्णट्ठाणे त्ति । परूवणा गदा। उक्कस्सए ठाणे जीवा केत्तिया ? असंखेज्जा । एवं तसकाइयपाओग्गखेतवियप्पेसु असंखेज्जजीवा त्ति वत्तव्यं । थावरकाइयपाओग्गेसु वि असंखेज्जलोगा। णवरि वणप्फइकाइयपाओग्गेसु अणंता । एवं पमाणपरूवणा गदा । सेडी अवहारो च ण सक्कदे णेदुमुवदेसाभावादो । णवरि एइदिएसु जहण्णवाणहोने तक ले जाना चाहिये। फिर उसमेंसे एक एक प्रदेश कम करके द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। फिर उसमेंसे निरन्तर एक प्रदेश कम, दो प्रदेश कम इत्यादि क्रमसे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । फिर उससे प्रदेश हीनादिके क्रमसे त्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। फिर उसमेंसे एक एक प्रदेश हीनादिके क्रमसे त्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी अजघन्य. अनुत्कृष्ट एक घनांगुल मात्र अवगाहनाके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। इस प्रकार निरन्तर क्रमसे एक एक प्रदेश हीन करके सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। इस प्रकार असंख्यात श्रोणि मात्र अनुत्कृष्ट क्षेत्र सम्बन्धी विकल्पोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा की गई है। अब इन क्षेत्रविकल्पोंके जो जीव स्वामी हैं उनकी प्ररूपणा करते समय यहाँ छह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है-[प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग औ अल्पबहुत्व ]। उनमें प्ररूपणा अनुयोगद्वारको कहते हैं। वह इस प्रकार है-उस्कर स्थानमें जीव हैं । इस प्रकार जघन्य स्थान तक ले जाना चाहिये। प्ररूपणा समाप्त हुई। उत्कृष्ट स्थानमें जीव कितने हैं ? वे वहां असंख्यात हैं । इस प्रकार सकायिकाके योग्य क्षेत्रविकल्पों में असंख्यात जीव हैं, ऐसा कहना चाहिये। स्थावरकायिकोंके योग्य क्षेत्रविकल्पों में भी असंख्यात लोक प्रमाण जीव हैं । विशेष इतना है कि वनस्पतिकायिक योग्य क्षेत्रविकल्पोंमें अनन्त जीव हैं । इस प्रकार प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। श्रेणि और अवहारकी प्ररूपणा नहीं की जा सकती, क्योंकि, उनका उपदेश प्राप्त नहीं है। विशेष इतना है कि एकेन्द्रिय जीवों में जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवोंकी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८॥ छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ५, १३. जीवेहितो विदियट्ठाणजीवा विसेसाहिया विसेसहीणा वा अंतोमुहुत्तपडिभागेण । उक्कस्सट्ठाणजीवा सव्वट्ठाणजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतिमभागो । जहण्णए हाणे जीवा सव्वट्ठाणजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो। अजहण्णअणुक्कस्सएसु ट्ठाणेसु जीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो? असंखेज्जा भागा। एवं भागाभागपरूवगा गदा । . सव्वत्थोवा उक्कस्सए ढाणे जीवा । जहण्णए ठाणे अणतगुणा । अजहण्णअणुक्कस्सएसु हाणेसु जीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगा। ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो । अजहण्णए ढाणे जीवा विसेसााहया । अणुक्कस्सए ठाणे जीवा विसेसाहिया। सव्वेसु ट्ठाणेसु जीवा विसेसाहिया । अधवा अप्पाबहुगं तिविहं- जहण्णयमुक्कस्सयमजहण्णमणुक्कस्सयं चेदि । तत्थ जहण्णए - सव्वत्थोवा जहण्णए ठाणे । अजहण्णए ठाणे जीवा असंखेज्जगुणा। उक्कस्सए पयदं- सव्वत्थोवा उक्कस्सए द्वाणे जीवा । अणुक्कस्सए द्वाणे जीवा अणंतगुणा । अजहण्णअणुक्कस्सए पयदं- सव्वत्थोवा उक्कस्सए ठाणे जीवा । जहण्णए ट्ठाणे जीवा अणंतगुणा । अजहण्णअणुक्कस्सएसु ठाणेसु जीवा असंखेज्जगुणा । अजहण्णए - अ अपेक्षा द्वितीय स्थान सबन्धी जीव अन्तर्मुहूर्त प्रतिभागसे विशेष अधिक अथवा विशेष हीन हैं। उत्कृष्ट स्थानके जीव सब स्थान सम्बन्धी जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? वे उनके अनन्तवें भाग प्रमाण हैं। जघन्य स्थानमें जीव सब स्थानों सम्बन्धी जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? वे उनके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थानों में जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? वे उनके असंख्यात वहभाग प्रमाण हैं। इस प्रकार भागभागप्ररूपणा समाप्त हुई। उत्कृष्ट स्थानमें जीव सवसे थोड़े हैं । उनसे जघन्य स्थानमें वे अनन्तगुणे हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थानों में जीव असंख्यातगुणे हैं । शंका-गुणकार क्या है ? समाधान-गुणकार अंगुलका असंख्यातवां भाग है । उनसे अजघन्य स्थानमें जीव विशेष अधिक है। अनुत्कृष्ट स्थानमें जीव उनसे विशेष अधिक हैं । उनसे सब स्थानों में जीव विशेष अधिक है। ___अथवा, अल्पबहुत्व तीन प्रकार है- जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्य अनुत्कृष्ट । उनमें जघन्य अल्पबहुत्व प्रकृत है- जघन्य स्थानमें जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अजघन्य स्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं। उत्कृष्ट अल्पवहुत्व प्रकृत है-- उत्कृष्ट स्थानमें जीव सबसे थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट स्थानमें जीव उनसे अनन्तगुणे हैं। अजघन्यअनुकृष्ट अल्पबहुत्व प्रकृत है-उत्कृष्ट स्थान में जीव सबसे स्तोक हैं। जघन्य स्थानमें जीव उनसे अनन्तगुणे हैं। अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थानों में जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ५, १६.] वेयणमहाहियारे वेयणवेत्तविहाणे सामित्त ट्ठाणे जीवा विसेसाहिया । अणुक्कस्सए द्वाणे जीवा विसेसाहिया । सव्वेसु डाणेसु जीवा विसेसाहिया । एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ १४ ॥ एदेसिं तिण्डं घादिकम्माणं जहा णाणावरणीय उक्कस्साणुक्कस्सखेत्तपरूवणा कदा तहा कादव्वं, विसेसाभावाद।। सामित्तण उक्कस्सपदे वेदणीयवेदणा खेत्तदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥१५॥ उक्कस्सपदे त्ति णिद्देसेण जहण्णपदपडिसेहो कदो। वेदणीयवेदणा त्ति णिदेसेण सेसकम्मवेयणाए पडिसेहो कद।। खेत्तणिद्देसेण दव्यादिवेयणाणं पडिसेहो कदो। कस्से त्ति किं देवरस, किं णरइयस्स, किं तिरिक्खस्स, किं मणुस्सस्स होदि त्ति पुच्छा कदा। अण्णदरस्स केवलिस्स केवलिस मुग्घादेण समुहदस्स सव्वलोगं गदस्स तस्स वेदणीयवेदणा खेत्तदो उकस्सा ॥ १६ ॥ अण्णदरस्से त्ति णिदेसेण आगाहणाविसेसाणं भरहादिक्खेत्तविसेसाणं च पडिसहाउनसे अजघन्य स्थानमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट स्थानमें जीव विशेष अधिक हैं । उनसे सब स्थानों में जीव विशेष अधिक है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मके भी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट वेदनाक्षेत्रोंकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ १४ ॥ जैसे ज्ञानावरणीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट क्षेत्रों की प्ररूपणा की गई है वैसे ही इन तीन घाति कौके उक्त क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उनमें कोई विशेषता नहीं है। स्वामित्वसे उत्कृष्ट पदमें वेदनीय कर्मकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥ १५॥ 'उत्कृष्ट एद.' इस निर्देशसे जघन्य पदका प्रतिषेध किया गया है । ' वेदनीय कर्मकी वेदना' इस निर्देशसे शेष कर्मोंकी वेदनाका प्रतिषेध किया है । क्षेत्रका निर्देश करनेसे द्रव्यादि वेदनाओंका प्रतिषेध किया गया है। 'किसके होती है?' इससे उक्त वेदना क्या देवके, क्या नारकीके, क्या तिर्यचके और क्या मनुष्यके होती है। यह पृच्छा की गई है। __ अन्यतर केवलीके, जो केवलिसमुद्घातसे समुद्घातको व उसमें भी सर्वलोक अर्थात् लोकपूरण अवस्थाको प्राप्त हैं, उनके वेदनीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥१६॥ 'अन्यतर ' पदके निर्देशसे अवगाहनाविशेषोंके और भरतादिक क्षेत्रविशेषोंके १ अ- काप्रयोः “ तरस ' इति पाठः । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.) छक्खंडागमे वैयणाखंड (१, २, ५, १७. मावो परविदो । केवलिस्से ति णिद्देसेण छदुमत्थाणं पडिसेहो कदो। केवलिसमुग्धादेण समुहदस्से ति गिद्देसेण सत्थाणकेवलिपडिसेहो कदो । सव्वलोगं गदस्से ति णिद्देसेण दंडकवाड-पदरगदाणं पडिसेहो कदो। सव्वलोगपूरणे वट्टमाणस्स उक्कस्सिया वेयणीयवेयणा होदि ति उत्तं होदि । एत्थ उवसंहारो सुगमो।। तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा ॥ १७ ॥ एदम्हादो उक्कस्सखेत्तवेयणादो वदिरित्ता खेत्तवेयणा अणुक्कस्सा होदि । तत्थतणउक्कस्सियाए खेत्तवेयणाए पदरगदो केवली सामी, एदम्हादो अणुक्कस्सखेत्तेसु महल्लखेत्ताभावादो । एदं च उक्कस्सखेत्तादो विसेसहीण, वादवलयभंतरे जीवपदेसाणमभावादो। सव्वमहल्लोगाहणाए कवाडं गदो केवली तदणंतरअणुक्कस्सखेत्तट्ठाणसामी । णवरि पुविल्लअणुक्कस्सखेत्तादो बिदियमणुक्कस्सक्खेत्तमसंखेज्जगुणहीण, संखेज्जसूचीअंगुलबाहल्लजगपदरपमाणकवाडखेत्तं पेक्खिदूण मंथक्खेत्तस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो। पदेसूणुक्कस्सविक्खंभोगाहणाए कवाडं गदो केवली तदियखेत्तसामी । णवीर बिदियमणुक्कस्सक्खेतं पेक्खिदूण तदियमणुक्कस्सक्खेत्तं विसेसहीणं हादि, पुबिल्लक्खेत्तादो जगपदरमेत्तखेत्तपरिहाणिदसणादो। दुपदेसूणुक्कस्सविक्खंभेण कवाडं गदो चउत्थखेत्तसामी। एदं पि प्रतिषेधका अभाव बतलाया गया है। केवली' पदका निर्देश करके छद्मस्थोंका प्रतिषेध किया गया है। केवलि समुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त ' इस निर्देशसे स्वस्थानकेवलीका प्रतिषेध किया है । 'सर्व लोकको प्राप्त ' इस निर्देशसे दण्ड, कपाट और प्रतर समुद्घातको प्राप्त हुए केवलियोंका प्रतिषेध किया है। सर्वलोकपूरण समुद्धातमें रहनेवाले केवलीके उत्कृष्ट वेदनीयवेदना होती है, यह उसका अभिप्राय है। यहां उपसंहार सुगम है। उत्कृष्ट क्षेत्रवेदनासे भिन्न क्षेत्रवेदना अनुत्कृष्ट है ॥ १७ ॥ इस उत्कृष्ट क्षेत्रवेदनासे भिन्न क्षेत्रवेदना अनुत्कृष्ट होती है । अनुत्कृष्ट क्षेत्रघेदनाविकल्पोंमें उत्कृष्ट क्षेत्रवेदनाके स्वामी प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवली हैं, क्योंकि, अनुत्कृष्ट क्षेत्रोंमें इससे और कोई बड़ा क्षेत्र नहीं है । यह क्षेत्र उत्कृष्ट क्षेत्रकी अपेक्षा विशेष हीन है, क्योंकि, इस क्षेत्रमें जीवके प्रदेश वातवलयोंके भीतर नहीं रहते। सबसे बड़ी अवगाहना द्वारा कपाटसमुद्घातको प्राप्त केवली तदनन्तर अनुत्कृष्ट क्षेत्रस्थानके स्वामी हैं । विशेष इतना है कि पूर्वके अनुत्कृष्ट क्षेत्रसे द्वितीय अनुत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यातगुणा हीन है, क्योंकि, संख्यात सूच्यंगुल बाहल्य रूप जगप्रतर प्रमाण कपाटक्षेत्रकी अपेक्षा मंथक्षेत्र असंख्यातगुणा पाया जाता है । एक प्रदेश कम उत्कृष्ट विष्कम्भ युक्त अवगाहनासे कपाटसमुद्घातको प्राप्त केवली तृतीय क्षेत्रके स्वामी है। विशेष इतना है कि द्वितीय अनुत्कृष्ट क्षेत्रकी अपेक्षा तृतीय अनुत्कृष्ट क्षेत्र विशेष हीन है, क्योंकि, इसमें पूर्वके क्षेत्रकी अपेक्षा एक जगप्रतर मात्र क्षेत्रकी हानि देखी जाती है। यो प्रदेश कम उत्कृष्ट विष्कम्भसे कपाटको प्राप्त केवली चतुर्थ अनुत्कृष्ट क्षेत्रके स्वामी , अ-काप्रत्योः ‘समुहस्से त्ति' इति पाठः । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ५, १७.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्त [ ३१ अणंतरपुव्विल्लखेत्तं पक्खिदण विसेसहीणं दोजगपदरमेत्तेण । एवं सांतरकमेण खेत्तसामित परूवेदव्वं जाव आहुदूरयणिउस्सेहओगाहणाए विक्खंभेणूणपंचधणुसद-पणुवीसुत्तरुस्सेहओगाहणविक्खंभमेत्तकवाडखेत्तवियप्पा त्ति । पुणो एदेण सवजहण्णपच्छिमक्खेत्तेण सरिसमुत्तराहिमुहकवाडक्खेत्तं घेत्तण पुणो तत्तो एगेगपदसं विक्खंभम्मि ऊणं करिय कवाडं णेदूण खेत्तवियप्पाणं सामित्तं परूवेदव्वं जाव उत्तराभिमुहकेवलिजहण्णकवाडक्खेत्तं पत्तो त्ति । पुणो तदणंतरहेट्ठिमअणुक्कस्सखेत्तसामी महामच्छो तिष्णिविग्गहकंदएहि सत्तमपुढविमारणंतियसमुग्धादेण समुहदो सामी, अण्णरस कवाडजहण्णखेत्तादो ऊणरस अणुक्कस्सखेत्तस्स अणुवलंभादो । णवरि कवाडजहण्णक्खेत्तादो महामच्छरस उक्कस्समसंखेज्जगुणहीणं । एत्तो प्पहडि उवीरमवखेत्तवियप्पाणं घादिकग्माणं भणिदविहाणेण सामित्तपरूवणं कायव्वं । दंडगयकेवलिखेत्तट्ठाणाणि संखेज्जपदरंगुलमेत्ताणि महामच्छक्खेत्ततो णिवदंति त्ति पुध ण परूविदाणि । केवली दंडं करेमाणो सव्वो सरीरतिगुणबाहल्लेणं [ण ] कुणदि, वेयणाभावादो। को पुण सरीरतिमुणबहल्लेण दंडं कुणइ ? पलियंकण णिसण्णकेवली। हैं। यह भी अव्यवहित पूर्वक क्षेत्रकी अपेक्षा दो जगप्रतर मात्रसे विशेष हीन है । इस प्रकार सान्तरक्रमसे साढ़े तीन रत्नि उत्सेध युक्त अवगाहनाके विष्कम्भसे हीन पांच सौ पच्चीस धनुष उत्सेध युक्त अवगाहनाके विष्कम्भ प्रमाण कपाटक्षेत्र के विकल्पों तक क्षेत्रस्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये। फिर इस सर्वजघन्य अन्तिम क्षेत्र के सदृश उत्तराभिमुख कपाटक्षेत्रको ग्रहण करके पश्चात् उससे विष्कम्भमें एक एक प्रदेश कम करके कपाटसमुद्घातको लेकर उत्तराभिमुख के.वलीके जघन्य कपाटक्षेत्रको प्राप्त होने तक क्षेत्रविकल्पोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये । पुनः तीन विग्रहकाण्डको द्वारा सातवीं पृथिवीमें मारणान्तिकसमुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त महामत्स्य तदनन्तर अधस्तन अनुत्कृष्ट क्षेत्रका स्वामी है, क्योंकि, उक्त जघन्य कपाटक्षेत्रसे हीन और दूसरा अनुत्कृष्ट क्षेत्र पाया नहीं जाता। विशेष इतना है कि जघन्य कपाटक्षेत्रसे महामत्स्यका उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यातगुणा हीन है। अब यहांसे आगे पूर्वोक्त घातिकमौके विधानसे उपरिम क्षेत्रविकल्पोंकी प्ररूपणा करन । चाहिये। दण्डगत केवलीके संख्यात प्रतरांगुल मात्र क्षेत्रस्थान चूंकि महामत्स्यक्षेत्रके भीतर आजाते हैं, अतः उनकी पृथक् प्ररूपणा नहीं की गई है। दण्डसमुद्घातको करनेवाले सभी केवली शरीरसे तिगुणे बाहल्यसे उक्त समुद्घातको नही करते, क्योंकि, उनके वेदनाका अभाव है। शंका - तो फिर कौनसे केवली शरीरसे तिगुणे बाहल्यसे दण्डसमुद्घातको करते हैं ? ___समाधान- पल्यंक आसनसे स्थित केवली उक्त प्रकारसे दण्डसमुद्घातको करते हैं। १ अ-काप्रत्याः 'बाहिल्लेण' इति पाठः। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२) छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ५, १७. एदेसिं खेत्ताणं सामिजीवाणं परवणे कीरमाणे छअणिओगद्दाराणि हवंति । तत्थ परूवणाए वेयणीयसव्वक्खेत्तवियप्पेसु अस्थि जीवा । परूवणा गदा।। उक्कस्सए ठाणे जीवा केत्तिया ? संखेज्जा । एवं णेयव्वं जाव कवाडगदकेवलिजहण्णक्खेत्तत्रियप्पे त्ति । उवीर महामच्छउक्कस्सखत्तप्पटुडि तसपाओग्गक्खेत्तसु असंखेज्जा। वणप्फदिकाइयपाओग्गेसु अणंता। एवं पमाणपरूवणा गदा । सेडिपरूवणा ण सक्कदे णदु, पवाइज्जतुवदेसाभावादो। अवहारो उच्चदे- उक्कस्सट्ठाणजीवपमाणेण सव्वट्ठाणजीवा केवचिरेण कालेण अवहिरिजंति ? अणंतेण कालेण । एवं णदव्वं जाव तसकाइय-पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइयवाउकाइयपाओग्गट्ठाणे ति । सुहुम-बादरवणप्फदिकाइयपाओग्गट्ठाणजीवपमाणेण सव्वजीवा वेवचिरेण कालेण अवहिरिज्जति ? असंखेज्जेण । भागाभागो वुच्चदे -- उक्कस्सए ढाणे जीवा सव्वट्ठाणजीवाणं केवडिओ भागो ? अणतिमभागो । जहण्णए ट्टाणे सव्वट्ठाणजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो । अजहण्णुक्कस्सए ट्ठाणे जीवा सव्वट्ठाणजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखज्जा भागा। भागाभागपरूवणा गदा । इन क्षेत्रोंके स्वामी जीवोंकी प्ररूपणा करनेमें छह अनुयोगद्वार हैं। उनमें प्ररूपणा अनुयोगद्वारकी अपेक्षा वेदनीय कर्मके सब क्षेत्रविकल्पों में जीव हैं । प्ररूपणा समाप्त हुई। उत्कृष्ट स्थानमें जीव कितने हैं ? संख्यात है। इस प्रकार कपाटसमुदघातगत केवलीके जघन्य क्षेत्रविकल्प तक ले जाना चाहिये। आगे महामत्स्यके उत्कृष्ट क्षेत्रले लेकर त्रस योग्य क्षेत्रोंमें असंख्यात जीव हैं। वनस्पतिकायिक योग्य क्षेत्रों में अनन्त जीव हैं । इस प्रकार प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। श्रेणिप्ररूपणा बतलाना शक्य नहीं है, क्योंकि, उसके विषयमें प्रवाह स्वरूपसे प्राप्त हुए परम्परागत उपदेशका अभाव है। ____ अवहारकी प्ररूपणा करते हैं - उत्कृष्ट स्थानमें रहनेवाले जीवोंके प्रमाणसे सब जीव कितने कालस अपहृत होते हैं? वे उक्त प्रमाणसे अनन्त कालमें अपहृत होते हैं । इस प्रकार त्रसकायिक, पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक और वायुकायिक योग्य स्थानों तक ले जाना चाहिये । सूक्ष्म व वादर वनस्पतिकायिक योग्य स्थानों सम्बन्धी जीवोंके प्रमाणसे सब जीव कितने कालसे अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे असंख्यात कालमें अपहृत होते हैं। भागाभागकी प्ररूपणा करते हैं - उत्कृष्ट स्थान में रहनेवाले जीव सव स्थानों सम्बन्धी जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? वे उनके अनन्त भाग प्रमाण हैं। जघन्य स्थानमें रहनेवाले जीव सब स्थानों सम्बन्धी जीवों के कितने भाग प्रमाण हैं ? वे उनके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अजघन्योत्कृष्ट स्थानमें रहनेवाले जीव सव स्थानों सम्बन्धी जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? वे उनके असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। भागाभागप्ररूपणा समाप्त हुई। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ १, २, ५, २०.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं __ अप्पाबहुगं वत्तइस्सामो - सव्वत्थोवा उक्कस्सए ठाणे जीवा । जहण्णए ठाणे जीवा अणंतगुणा । अजहण्णअणुक्कस्सए ट्ठाणे जीवा असंखेज्जगुणा । अजहण्णए ठाणे जीवा विसेसाहिया । अणुक्कस्सए द्वाणे जीवा विसेसाहिया । सव्वेसु हाणेसु जीवो विसेसाहिया । एवमाउव-णामा-गोदाणं ॥ १८ ॥ _जहा वेदणीयस्स उक्कस्साणुक्कस्सक्खेत्तपरूवणा कदा तहा आउव-णामा-गोदाणं पि खेत्तपरूवणं कायव्वं, विसेसाभावादो । एवमुक्कस्साणुक्कस्सखेत्तपरूवणा समत्ता । सामित्तेण जहण्णपदे णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो जहणिया कस्स ? ॥ १९॥ ___ जहण्णपदणिद्देसो सेसपदपडिसेहफलो । णाणावरणीयणिदेसो सेसकम्मपडिसेहफलो। खेत्तणिदेसो दव्वादिपडिसेहफलो । कस्से त्ति देव-णेरइयादिविसयपुच्छा। अण्णदरस्स सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स तिसमयआहारयस्त तिसमयतम्भवत्थस्स जहण्णजोगिस्स सव्वजहणियाए सरीरोगाहणाए वट्टमाणस्स तस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो जहण्णा ॥२०॥ अल्पबहुत्वको कहते हैं- उत्कृष्ट स्थान में जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे जघन्य स्थानमें जीव अनन्तगुण हैं। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अजघन्य स्थानमें जीव विशेष अधिक है। उनसे अनुत्कृष्ट स्थानमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे सब स्थानों में जीव विशेष अधिक है। इसी प्रकार आयु, नाम व गोत्र कर्मके उत्कृष्ट एवं अनुत्कृष्ट वेदनाक्षेत्रोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥१८॥ जिस प्रकार वेदनीय कर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार आयु, नाम व गोत्र कर्मके भी उक्त क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टक्षेत्रप्ररूपणा समाप्त हुई। स्वामित्वसे जघन्य पदमें ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ १९ ॥ जघन्य पदका निदश शेष पदोंके प्रतिषेधके लिये किया है। ज्ञानावरणीयका निर्देश शेष कौंका प्रतिषेध करनेवाला है। क्षेत्रका निर्देश द्रव्यादिकका प्रतिषेध करता है। - किसके होती है ' इस निर्देशसे देव व नारकी आदि विषयक पृच्छा प्रगट की गई है। __ अन्यतर सूक्ष्म निगोद जीव लब्ध्यपर्याप्तक, जो कि त्रिसमयवर्ती आहारक है, तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान है, जघन्य योगवाला है, और शरीरकी सर्वजघन्य अवगाहनामें वर्तमान है; उसके ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती १ अ-काप्रत्योः 'जीवा' इत्येतत् पदं नोपलभ्यते । २ सुहुमणि गोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयम्हि । अंगुलअसंखभागं जहणमुक्कस्सयं मच्छे ।। गो. जी. ९४. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] छवखंडागमे वेयणाखंड सुहुमणिगादा अणता अस्थि, तत्थ एक्कस्स गहणट्ठमण्णदरस्स सुहुमणिगोदजीवस्से ति उत्तं । तत्थ पज्जत्तणिराकरणमपज्जत्तस्से त्ति उत्तं । पज्जत्तणिराकरणं किमठ्ठे कीरदे ? अपज्जत्तजहण्णोगाहणादो पज्जत्तजहण्णोगाहणाए बहुत्तुवलंभादो । विग्गहगदीए जागाणा विपुव्विल्लोगाहणाए सरिसा त्ति तप्पडिसेह तिसमयआहारयस्से त्ति भणिदं । उजुगदी उप्पण्णो त्ति जाणावणङ्कं तिसमयतन्भवत्थस्से त्ति भणिदं । एग-दो- तिणि वि विग्ग काढूण उप्पाइय छसमयतव्भवत्थस्स जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, पंचसु समएसु असंखेज्जगुणाए सेडीए वड्ढिदेण एगंताणुवड्डिजेोगेण वड्ढमाणस्स बहुओगाहणम्पसंगादो' । पढमसमयआहारयरस पढमसमयतव्भवत्थस्स जहणक्खेत्तसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, तत्थ आयदच उरस्सखेत्तागारेणं द्विदम्मि ओगाहणाए त्थोवत्ताणुववत्तदो । उजुगदीए उप्पण्णपढमसमम्मि आयदचउरंस सरुवेण जीवपदेसा चिट्ठेति त्ति कथं णव्वदे ? पवाइ सूक्ष्म निगोदिया जीव अनन्त हैं, उनमेंसे एकका ग्रहण करनेके लिये 'अन्यतर सूक्ष्म निगोद जीवके ' ऐसा कहा है । उनमें पर्याप्तका निराकरण करनके लिये अपर्याप्तके ' ऐसा निर्देश किया है । शंका- पर्याप्तका निराकरण किसलिये किया जा रहा है ? समाधान - अपर्याप्त की जघन्य अवगाहनासे चूंकि पर्याप्तकी जघन्य अवगाहना बहुत पायी जाती है, अतः उसका निषेध किया गया है । विग्रहगतिमै चूंकि जघन्य अवगाहना भी पूर्व अवगाहनाके सदृश है, अतः उसका निषेध करनेके लिये 'त्रिसमयवर्ती आहारक' ऐसा कहा है । ऋजुगतिसे उत्पन्न हुआ, इस बातके ज्ञापनार्थ 'तृतीय समयघर्ती तद्भवस्थ ' ऐसा कहा है । 6 [ १, २, ५, २०. " शंका- एक, दो अथवा तीन भी विग्रह करके उत्पन्न कराकर षष्ठसमयवर्ती तद्भवस्थ निगोद जीवके जघन्य स्वामीपना क्यों नहीं देते ? समाधान- नहीं, क्योंकि, पांच समयों में असंख्यातगुणित श्रेणिसे वृद्धिको प्राप्त हुए एकान्तानुवृद्धियोगसे बढ़नेवाले उक्त जीवके बहुत अवगाहनाका प्रसंग आता है । शंका- प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ हुए निगोद जविके जघन्य क्षेत्रका स्वामीपना क्यों नहीं देते ? समाधान नहीं, क्योंकि, उस समय आयतचतुरस्र क्षेत्रके आकारसे स्थित उक्त जीव में अवगाहनाका स्तोकपना बन नहीं सकता । शंका- ऋजुगति से उत्पन्न होनेके प्रथम समय में आयतचतुरस्र स्वरूपसे जीवप्रदेश स्थित रहते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? १ तर्हि ऋजुगत्यात्पन्नस्यैव कथमुक्तम् ? विग्रहगतौ योगवृद्धियुक्तत्वेन तदवगा वृद्धिसम्भवात् । गो. जी. (जी. प्र ) ९४. २ प्रतिषु ' चउरस्सं खेत्तागारेण ' इति पाठः । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, २०.] वेपणमहाहियारे वेयणखत्तविहाणे सामित्त [ ३५ ज्जंतुवदेसादो। बिदियसमयआहारय-विदियसमयतब्भवत्थरस जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण, तत्थ समचउरंससरूवेण जीवपदेसाणमवट्ठाणादो । बिदियसमए विक्खंभसमो आयामो जीवपदेसाणं होदि त्ति कुदो णव्वदे ? परमगुरूवदेसादो। तदियसमयआहारयस्स तदियसमयतब्भवत्थस्स चेव जहण्णक्खेत्तसामित्तं किमढें दिज्जद ? ण एस दोसो, चउरंसखेत्तरस चत्तारि वि कोणे संकोडिय वट्ठलागोरण जीवपदेसाणं तत्थावट्ठाणदंसणादों । तत्थ बटुलागारेण जीवावट्ठाणं कधं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । उप्पण्णपढमसमयप्पहुडि जहण्णउववादजोग-जहण्णएगताणुवडिजोगेहि चेव तिसु वि समएसु पयट्टो त्ति जाणावणटुं जहण्णजोगिस्से त्ति भणिदं । तदियसमए अजहण्णाओ वि ओगाहणाओ अस्थि त्ति तप्पडिसेहट्ठ सव्वजहण्णियाए सरीरोगाहणाए वट्टमाणस्से त्ति भणिद । एवंविहविसेसणेहि विसेसि समाधान- वह आचार्यपरम्परागत उपदेशसे जाना जाता है। शंका-द्वितीय समयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके द्वितीय समयमें वर्तमान जीवके जघन्य स्वामीपना क्यों नहीं देते ? समाधान नहीं, क्योंकि, उस समयमें भी जीवप्रदेश समचतुरस्र स्वरूपसे अवस्थित रहते हैं। शंका- द्वितीय समयमें जीवप्रदेशोंका विष्कम्भके समान आयाम होता है, यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान- वह परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है । शंका- तृतीय समयवर्ती आहारक और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ निगोद जीवके ही जघन्य क्षेत्रका स्वामीपना किसलिये देते हैं ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उस समयमें चतुरस्र क्षेत्रके चारों ही कोनोंको संकुचित करके जीवप्रदेशीका वर्तुल अर्थात् गोल आकारसे अवस्थान देखा जाता है। शंका- उस समय जीवप्रदेश वर्तुल आकारसे अवस्थित होते हैं, यह कैसे जाना जाता है। समाधान- वह इसी सूत्रसे जाना जाता है । उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर जघन्य उपपादयोग और जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगसे ही तीनों समयों में प्रवृत्त होता है, इस बातको जतलाने के लिये 'जघन्य योगवालके' ऐसा सूत्र में निर्देश किया है। तृतीय समयमें अजघन्य भी अवगाहनायें होती हैं, अतः उनका प्रतिषेध करनेके लिये 'शरीरकी सर्वजघन्य अवगाहनमें वर्तमान ' यह कहा है । इन विशेषणोंसे विशेषताको प्राप्त हुए सूक्ष्म निगोव , ननूत्पन्नतृतीयसमये एव सर्वजघन्याबगाहनं कथं सग्भवेत् इति चेत्- प्रथमसमये निगोदजीवशरीरस्यायतचतुरसत्वात् द्वितीयसमये समचतुरसत्वात् तृतीयसमये कोणापनयनेन वृत्तत्वात् तदेव [ तदेव ] तदवगाहनस्याल्पत्वसम्भवात् । गो. जी. (जी. प्र.) ९४. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६) छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ५, २१. यस्स सुहमणिगोदजीवस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो जहण्णा । एत्थ उवसंहारो उच्चदेएगउस्सेहघणंगुलं ठविय तप्पाओग्गेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे णाणावरणीयस्स जहण्णक्खेतं होदि ? तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ २१ ॥ तत्तो जहण्णक्खेत्तादो वदिरित्ता खेत्तवेयणा अजहण्णा । सा च बहुपयारा । तासिं सामित्तपरूवणं कस्सामो । तं जहा- पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं विरलेदूण घणंगुलं समखंडं करिय दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणं पावदि । पुणो एदिस्से उवरि पदेसुत्तरोगाहणाए तत्थेव द्विदो अजहण्ण-जहण्णक्खेत्तस्स सामी। एत्थ काए वड्डीए वड्डिदो बिदियक्खेत्तवियप्पो ? असंखेज्जभागवड्ढाएँ । तं जहा- जहण्णोगाहणं हेट्ठा विरलेदूण उवरिमएगरूवधरिदं समखंडं कादूण दिण्णे एगागासपदेसो पावदि । पुणो एत्तियमेत्तेण अहियमुवरिमएगरूवधरिदमिच्छामो त्ति रूवाहियहट्ठिमविरलणाए जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धे उवरिमविरलणाए सरिसच्छेदं कादूण सोहिदे अजहण्ण-जहण्णोगाहणाए भागहारो होदि । जीवके शानावरणीयकी वेदना क्षेत्रसे जघन्य होती है। यहां उपसंहार कहते हैंएक उत्सेधघनांगुलको स्थापित करके तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर ज्ञानावरणीयका जघन्य क्षेत्र होता है। उससे भिन्न अजघन्य वेदना होती है ॥ २१ ॥ __ उससे अर्थात् जघन्य क्षेत्रसे भिन्न क्षेत्रवेदना अजघन्य है। वह अनेक प्रकार है। उन बहुविध क्षेत्रवेदनाओंके स्वामित्वकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार हैपल्योपमके असंख्यातवें भागका विरलन करके धनांगुलको समखण्ड करके देने पर एक एक रूपके प्रति सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवकी जघन्य अवगाहना प्राप्त होती है। पश्चात् इसके आगे एक प्रदेश अधिक अवगाहनासे वहां (निगोद पर्यायमें) ही स्थित जीव अजघन्य क्षेत्रवेदनाके जघन्य स्थानका स्वामी होता है। शंका- यहां द्वितीय क्षेत्रविकल्प कौनसी वृद्धि के द्वारा वृद्धिंगत हुआ है ? समाधान-- वह असंख्यातभागवृद्धिके द्वारा वृद्धिंगत हुआ है । वह इस प्रकारसे-जघन्य अवगाहनाका नीचे विरलन करके उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर एक आकाशप्रदेश प्राप्त होता है। अब इतने मात्रसे अधिक उपरिम एक रूपधरित राशिकी चूंकि इच्छा है, अतः एक रूपसे अधिक अधस्तन नमें यदि एक रूपकी हनि पायी जाती है तो उपरिम विरलन राशिमें वह कितनी पायी जावेगी. इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छाको अपवर्तित करके लब्धको समच्छेद करके उपरिम विरलनमेंसे घटा देनेपर अजघन्य जघन्य अवगाहनाका भागहार होता है । , अवरुवरि इगिपदेसे जदे असंखेजभागवहीए। आदी निरंतरमदो एगेगपदेसपरिवड्डी ॥ गो. जी. ९०१. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, २१.] वैयणमहाहियारे वेयगखेत्तविहाणे सामित्त जहण्णखेत्तस्सुवरि दोआगासपदेसे वड्डिय हिदो विदियअजहण्णखेत्तस्स सामी । एत्थ वि असंखज्जभागवड्डी चेव । तं जहा- हेट्ठिमविरलणाए दुभागेण रूवाहिएण उवरिमविरलणं खंडिय तत्थ एगखंडेण उवरिमविरलणाए अवणिदे बिदियक्खेत्तभागहारो होदि । तिपदेसुत्तरजहण्णोगाहणाए वट्टमाणो जीवो तदियखेत्तसामी । एत्थ वि भागहारपरिहाणी पुव्वं व कायब्वा । णवरि हेट्टिमविरलणाए तिभागो रूवाहियो उवरिमविरलणाए भागहारो होदि । एवमेगेगागासपदेसं वड्ढाविय णेदव्वं जाव जहष्णपरित्तासंखेज्जमेत्तागासपदेसा वड्विदा त्ति । एत्थ भागहाराणयणं उच्चदे- जहण्णपरित्तासंखज्जेणावहिदहेट्टिमविरलणाए रूवाहियाए उवरिमविरलणमोवहिय तत्थुवलद्धे तत्थेव अवणिदे तदित्थखेत्तभागहारो होदि । एवं पदेसेसु एगादिएगुत्तरकमेण वड्डमाणेसु केत्तिए अद्धाणे गदे उवरिमविरलणाए एगरूवपरिहाणी' लन्भदे ? रूवूणुवरिमविरलणाए जहण्णोगाहणाए खंडिदाए तत्थ एगखंडमेत्तसु अजहण्णखेत्तवियप्पेसु अदिक्कतेसु एगरूवपरिहाणी लब्भदि । तं जहा- रूवूणुवरिमविरलणं हेट्ठा विरलिय जहण्णखेत्तं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि वड्डिरूवाणि पावेंति । पुणो एदाणि उवरि दादृण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं पमाणं उच्चदे- रूवाहिय जघन्य क्षेत्रके ऊपर दो आकाशप्रदेशोंको बढ़ाकर स्थित जीव द्वितीय अजघन्य क्षेत्रका स्वामी होता है । यहां भी असंख्यातभागवृद्धि ही है । यथा- अघस्तन विरलनके रूपाधिक द्वितीय भागसे उपरिम चिरलन राशिको खण्डित कर उसमेंसे एक खण्डको उपरिम चिरलनमसे कम कर देनेपर द्वितीय क्षेत्रका भागहार होता है। तीन प्रदेश अधिक जघन्य अवगाहनामें रहनेवाला जीव तृतीय क्षेत्रका स्वामी है। यहांपर भी भागहारकी हानिको पहिलेके समान ही करना चाहिये । विशेष इतना है कि अधस्तन विरलनका रूपाधिक तृतीय भाग उपरिम चिरलनका भागहार होता है । इस प्रकार एक एक आकाश प्रदेशको बढ़ाकर जघन्य परीतासंख्यात प्रमाण आकाशप्रदेशोंकी वृद्धि होने तक ले जाना चाहिये । यहां भागहार लानेकी विधि कहते हैं- जघन्य परीतासंख्यातसे अपवर्तित रूपाधिक अधस्तन विरलन द्वारा उपरिमविरलनको अप करके जो वहां उपलब्ध हो उसे उसीमसे घटा देने पर वहांके क्षेत्रका भागहार होता है। शंका-इस प्रकार एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे प्रदेशोंके बढ़नेपर कितना अध्यान जाने पर उपरिम विरलनमें एक रूपकी हानि पायी जाती है ? समाधान ~ रूप कम उपरिम बिरलनसे जघन्य अवगाहनाको खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण अजघन्प क्षेत्र के विकल्पोंके बीत जानेपर एक रूपकी हानि पायी जाती है। वह इस प्रकारसे- रूप कम उपरिम विरलनको नीचे विरलित कर जघन्य क्षेत्रको समखण्ड करके देनेपर विरलन रूपके प्रति वृद्धिरूप प्राप्त होते हैं। अब इनको ऊपर देकर समकरण करते समय हीन रूपोंके प्रमाण १ अ-काप्रत्योः '-पदेसो' इति पाठः। २ अ-काप्रत्योः '- अजहणखेत्तस्सुवरि सामी' इति पाठः। ३ अ-फाप्रस्योः ‘एगसरूवपरिहाणी', ताप्रतौ 'एग [स] रूवपरिहाणी' इति पाठः । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्खंडागमे वेयणाखंड 自己 t ४, २, ५, ११. विरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामोत्त पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एवरूवमागच्छदि । तग्मि उवरिमविरलणाए अवणिदे तदित्थखेत्तवियप्पभागहारो होदि । एवं गंतूण जहण्णोगाहणं' जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडे - दूण तत्थ एखंडे वडिदे वि असंखेज्जभागवड्डी चेव । एत्थ समकरणे कीरमाणे परिहीणरुवाणयणं उच्चदे -- रूवाहियजहण्णपरित्तासंखेज्जमेत्तद्धाणम्मि जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदार परिहाणि - रूवाणि आगच्छति । पुणो ताणि उवरिमविरलणाए अवणिदे तदित्थअजहण्णखेत्तट्ठाण भागा होदि । पुणो एदिस्से ओगाहणाए उवरि' पदेसुत्तरं वड्डिय द्विदजीवो तदणंतर उर्वरिमखेतसामी होदि । एत्थ वि असंखेज्जभागवड्डी चेव, उक्कस्स संखेज्जेण जहण्णोगाहणं खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तपदे साणं वड्डीए अभावाद । एवं गंतूण उक्कस्ससंखेज्जेण जहण्णोगाहणं खंडिय तत्थेगखंडे जहण्णोगाहणाए उवरि वड्डिदे संखेज्जभागवड्डीए आदी असंखेज्जभागवड्डीए परिसमत्ती च जादाँ । एत्थ भागहारो उच्चदे । तं जहा- उक्करससंखेज्जं विरलिय उवरिमएगरूत्रकहते हैं- रूपाधिक विरलन राशि प्रमाण अध्वान जाकर यदि एक रूपकी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलन में वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर एक रूप आता है । उसको उपरिम विरलनमें से कम करनेपर वहां के क्षेत्रविकल्पका भागहार होता है। इस प्रकार जाकर जघन्य अवगाहनाको जघन्य परीता संख्यात से खण्डित करके उसमेंसे एक खण्ड मात्र वृद्धि हो जानेपर भी असंख्यात भागवृद्धि ही रहती है । --- यहां समकरण करते समय हीन रूपोंके लानेके विधानको कहते हैं- रूपा - धिक जघन्य परीता संख्यात मात्र अध्वान जाकर यदि एक रूपकी हानि पायी जाती है तो उपरम विरलन में वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर हीन रूपोंका प्रमाण आता है । उनको उपरिम विरलन में से कम करनेपर वहां अजघन्य क्षेत्रस्थानका भागहार होता है । पुनः इस अवगाहनाके ऊपर एक प्रदेश अधिक क्रमसे बढ़कर स्थित जीव तदनन्तर उपरिम क्षेत्रका स्वामी होता है। यहां भी असंख्यात भागवृद्धि ही रहती है, क्योंकि, उत्कृष्ट संख्यातसे जघन्य अवगाहनाको खण्डित कर उसमें एक खण्ड मात्र प्रदेशोंकी वृद्धिका अभाव है । इस प्रकार जाकर जघन्य अवगाहनाको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमेंसे एक खण्ड मात्र जघन्य अवगाहनाके ऊपर वृद्धि हो चुकनेपर संख्यात भागवृद्धि की आदि और असंख्यात भागवृद्धिकी समाप्ति हो जाती है । यहां भागहार कहते हैं । वह इस प्रकार है- उत्कृष्ट संख्यातका विरलन १ अ-काप्रत्योः ' जहण्णोगाहणा', ताप्रतौ ' जहण्णोगाहणा (ण) इति पाठः । २ प्रतिषु ' उवरिम ' इति पाठः । ३ काप्रतौ ' जहण्णोगाहणा' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'वड्डी-अभावादो'; तात्रौ ' वह्निअभावादो' इति पाठः । ५ अवरोग्गाहणमाणे जहणपरिमिदअसंखरासिहिदे । अवरस्तुवरि उड्डे जेट्टमसंखेज्जमागस्स ।। गो. जी. १०३. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ५, २१.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं धरिदं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि वडिपदेसपमाणं पावदि । पुणो एदं उवरिमरूवधरिदेसु दादूण समकरणे कीरमाणे णहरुवाणं पमाणं उच्चदे- रूवाहियटिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लम्भदि तो उवरिमविरलणाए कि लमामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए परिहीणरूवोवलद्धी होदि । पुणो लद्धरूवेसु उवरिमविरलणाए अवणिदेसु तदित्यभागहारो होदि । एत्तो प्पहुडि उवरि संखेज्जभागवड्डी चेव होदूण गच्छदि जाव उवरिमविरलणाए अद्धं चेट्ठदे ति। तत्थ संखेज्जगुणवड्डीए आदी संखेज्जभागवड्डीए परिसमत्ती च जादौ । ___संपधि पुणरवि तदो पहुडि पदेसुत्तर-दुपदेसुत्तरकमेण खेत्तवियप्पेसु वड्डमाणेसु जहण्णखेत्तमेत्तपदेसेसु वड्डिदेसु तिगुणवड्डी होदि। तिरसे ओगाहणाए भागहारो जहण्णोगाहणभागहारस्स तिभागो होदि। तत्तो एग दोपदेसुत्तरादिकमेण जहण्णोगाहणमेत्तपदेसेसु वड्डिदेसु चदुगुणवड्डी होदि । तत्थ भागहारो जहण्णोगाहणाए भागहारस्स चदुभागो होदि । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्ससंखेज्जमेत्तो जहण्णोगाहणाए गुणगारो जादो त्ति । तिस्से ओगाहणाए पुण भागहारो जहण्णोगाहणाभागहार उक्कस्ससंखज्जेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तो होदि । पुणो करके उपरिम एक रूपधरित राशिको समखण्ड करके देने पर विरलनरूपके प्रति वृद्धिंगत प्रदेशोंका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इसको उपरिम रूपधरित राशियोंपर देकर समकरण करते समय नष्ट रूपोंका प्रमाण कहा जाता है - रूपाधिक अधस्तन विर. लन मात्र अध्वान जाकर यदि एक रूपकी हानि पायी जाती है, तो उपरिम विरलनमें वह कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगणित इच्छाको अपवर्तित करने पर परिहीन रूप प्राप्त होते हैं। पश्चात् प्राप्त रूपोंको उपरिम विरलनमेंसे घटा देनेपर वहांका भागहार होता है। यहांसे लेकर ऊपर संख्यातभागवृद्धि ही होकर जाती है जब तक उपरिम विरलनका अर्ध भाग स्थित रहता है। वहां संख्यातगुणवृद्धिकी आदि और संख्यातभागवृद्धिकी समाप्ति हो जाती है। ___ अब वहांसे लेकर फिर भी एक प्रदेश अधिक दो प्रदेश अधिक क्रमसे क्षेत्रविकल्पोंकी वृद्धि होकर जघन्य क्षेत्र प्रमाण प्रदेशोंके बढ़ जानेपर तिगुणी वृद्धि होती है। उस अवगाहनाका भागहार जघन्य अवगाहना सम्बन्धी भागहारके तृतीय भाग प्रमाण होता है। पश्चात् एक प्रदेश अधिक दो प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे जघन्य अवगाहना मात्र प्रदेशोंकी वृद्धि होनेपर चतुर्गुणी वृद्धि होती है। वही भागहार जघन्य अवगाहना सम्बन्धी भागहारके चतुर्थ भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार जघन्य अवगाहना सम्बन्धी गुणकारके उत्कृष्ट संख्यात मात्र हो जाने तक ले जाना चाहिये। उस अवगाहनाका भागहार, जघन्य अवगाहना सम्बन्धी भागहारको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्डके बराबर होता है। पश्चात् , अप्रतौ ‘विरलणरूवं परि वड्डी' इति पाठः। २ गो. जी. १०६-७. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ५, २१. तिस्से उवरि पदेसुत्तर-दुपदेसुत्तरादिकमेण एगजहण्णागाहणमत्तपदेसेसु वडिदेसु असंखेज्जगुणवड्डीए आदी संखेज्जगुणवड्डीए परिसमत्ती च होदि । तिस्से ओगाहणाए जहण्णोगाहणभागहारे जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तो भागहारो होदि । पुणो एत्तोप्पहुडि उवरि पदेसुत्तर-दुपदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जगुणवड्डीए गच्छमाणाए सुहुमणिगोदजहण्णोगाहणाए सुत्तमणिदआवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तगुणगारे पविढे सुहुमवाउकाइयलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी सुहुमणिगोदलद्धिअपज्जत्तयस्स अजहण्ण-अणुक्कस्सओगाहणा होदि । संपहि सुहुमणिगोदोगाहणं मोत्तूण वाउकाइयलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वडीहिं बड्डावेदव्या जाव सुहुमतेउक्काइयलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी सहवाउबकाइयलद्धिअपज्जत्तयस्स अजहण्ण-अणक्करसओगाहणा जादाँ ति। पुणो तं मोत्तण इमं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि बड्डीहि वड्डावेदव्व जाव सुहुमआउक्काइयलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो तं मोत्तूण सुहुमआउक्काइयलीद्धअपज्जत्तयस्स जहह्मणोगाहणं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण चउहि वड्ढीहि वड्ढावेदव्या जाव सुहुमपुढविकाइयलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी उसके ऊपर एक प्रदेश अधिक दो प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे एक जघन्य अब. गाहना मात्र प्रदेशोंके बढ़ जानेपर असंख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ और संख्यातगुणवृद्धिका अन्त होता है। उस अवगाहनाका भागहार, जघन्य अवगाहना लम्बन्धी भागहारको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करने पर उसमसे एक खण्डके बराबर होता है। पश्चात् यहांसे लेकर आगे एक प्रदेश अधिक दो प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातगुणवृद्धि के चालू रहनेपर सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहनामें सूत्रोक्त आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र गुणकारके प्रविष्ट हो जानेपर सूक्ष्म वायुकायिक लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश सूक्ष्म निगोद जीव लब्ध्यपर्याप्तककी अजघन्यअनुत्कृष्ट अवगाहना होती है। ___ अब सूक्ष्म निगोद जीवकी अवगाहनाको छोड़कर और सूक्ष्म वायुकायिक लब्धपपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा सूक्ष्म वायुकायिक लब्ध्यपर्याप्तककी अजघन्य अनुत्कृष्ट अवगाहनाक सूक्ष्म तेजकायिक लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके समान हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । तत्पश्चात् उसको छोड़कर और इसे ग्रहण करके प्रदेश अधिक क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा सूक्ष्म जलकायिक लमध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। फिर उसको छोड़कर और सूक्ष्म जलकायिक लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा सूक्ष्म पृथिवीकायिक लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक १ गो. जी. १०८-९. २ प्रतिषु 'भागहार' इति पाठः। ३ अ-काप्रत्योः 'जादो' इति पाटः । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, २१.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं [४१ जादा त्ति । पुणो तं मोत्तूण सुहुमपुढविकाइयलद्धिअपज्जत्तजहण्णागाहणं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वडीहि वड्ढावेदव्वा जाव बादरवाउक्काइयलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी जादा ति । णवीर एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कुदो ? परत्थाणगुणगारादो । पुणो तं मोत्तूण बादरवाउक्काइयलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणं घेतूण पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव बादरतेउक्काइयलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी जादा त्ति । एत्थ वि गुणगारा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कुदो? बादरादो बादरस्स ओगाहणागुणगारो' पलिदोवमस्स असंखज्जीदभागो त्ति सुत्तवयणादों । इमं मोत्तूण बादरतेउक्काइयलद्धिअपज्जत्तजहण्णोगाहणं घेत्तूण पदेसुत्तररादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव बादरआउक्काइयैलद्धिअपज्जत्तजहण्णागाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ वि गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । पुणो इमं मोत्तूण बादरआउक्काइयलद्धिअपज्जत्तजहण्णोगाहणं घेत्तूण पदेसुत्तररादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव बादरपुढविकाइयलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो बढ़ाना चाहिये । फिर उसको छोड़ करके और सूक्ष्म पृथिवीकायिक लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर वायुकायिक लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सहश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । विशेष इतना है कि यहां गुणकार पत्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, वह परस्थानगुणकार है । फिर उसको छोड़कर और वायुकायिक लब्ध्य. पर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर तेजकायिक लब्ध्य पर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। यहां भी गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि, बादरसे बादर जीवकी अवगाहनाका गुणकार पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण है, सूत्रवचन है। अब इसको छोड़कर और बादर तेजकायिक लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि फमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर जल कायिक लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । यहां भी गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। इसका कारण पहिलेके ही समान कहना चाहिये। पश्चात् इसको छोड़कर और बादर जलकायिक लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना को ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर पृथिवीकायिक लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। फिर उसको छोड़कर और १ ताप्रती 'बादरस्स गुणगारो' इति पाठः । २ क्षेत्रविधान ९८. सुहमेदरगुणगारो आवलि-पल्ला असंखमागो दु। सट्ठाणे सेटिगया अहिया तत्थेगपडिभागो ॥ गो. जी. १०१. ३ अ-काप्रत्योः 'वाउक्काइय', ताप्रतौ वा (आ) उ०' इति पाठः । ४ अ - काप्रत्योः ‘घेतूण', तापतौ 'घे (मो) तूण ' इति पाठः । छ. ११-६. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, २१. तं मोत्तण इमं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण चहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव बादरणिगोदलद्धिअपज्जत्तजहण्णोगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो तं मोत्तूण इमं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव णिगोदपदिहिदलीद्धअपज्जत्तजहण्णागाहणाए सरिसी जादा ति। तं मोत्तूण इमं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्डमवेदध्वं जाव बादरवणप्फदिकाइयपत्तयसरीरलद्धिअपज्जत्तजहण्णोगाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ वि गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागो। कारणं पुवं व वत्तव्वं । 'तं मोत्तूण इमं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदवं जाव बेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी जादा त्ति। एत्थ वि गुणगारो पलि दोवमरस असंखेज्जदिभागो। कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । तं मोत्तूण इमं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी जादा त्ति । एत्थ वि गुणगारो पलिदोक्मरस असंखेज्जदिभागो । कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । तं मोतूण इमं घे तूण पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव चउरिदियलद्धिअपज्जतय स्स जहण्णोगाहणाए सरिसी जादात्ति। एत्थ वि गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । तं मोत्तूण इमं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि इसे ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्वियों द्वारा बादर निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । पश्चात् उसे छोड़कर और इसको ग्रहण करके प्रदेशाधिककमसे चार चडियोंके द्वारा निगोदप्रतिष्ठित लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। अब उसको छोड़कर और इसको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर लब्ध्यपर्याप्तकी जघन्य अवगाहनके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । यहां पर भी गुणकार पल योपमका असंख्यातवां भाग है। कारणका कथन पहिलेके ही समान करना चाहिये। अब उसको छोड़कर और इसको करके एक प्रदेश आधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । यहांपर भी गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इसका कारण पहिलेके ही समान कहना चाहिये। अब उसको छोड़कर और इसको ग्रहण करके चार वृद्धियों द्वारा त्रीन्द्रिय लब्ध् यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। यहांपर भी गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । कारण पहिलेके समान कहना चाहिये। अब उसको छोड़कर और इसे ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमले चार वृद्धियों द्वारा चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। यहांपर भी गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। कारण इसका पहिलेके ही समान कहना चाहिये । पश्चात् , द्वीन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तसम्बन्धी प्रबन्धोऽयं तापतौ [ ] एतत्को ष्ठकान्तर्गतो दर्शितः । २ चतुरिन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तसम्बन्धी प्रबन्धोऽयं तापतौ नोपलभ्यते । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४३ ४, २, ५, २१.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे समितं वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव पंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी जादा त्ति' । एत्थ वि गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । __पुणो पंचिंदियलद्धिअपज्जत्तजहण्णागाहणं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव सुहुमणिगोदणिवत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। कुदो ? बादरादो सुहुमस्स ओगाहणागुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो त्ति सुत्तणिदेसादो । पुणो मुहुमणिगोदणिवीत्तपज्जत्तयस्स जहण्णागाहणं घेत्तण पदेसुत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वं । एवं वढिदूण विदओगाहणाए सुहुमणिगोदणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्करसोगाहणा सरिसा हादि । पुणो पुबिल्लं मोत्तूण इमं घेतूण पदेसुत्तरादिकमेण एवं चेव ओगाहणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं जाव अहियं होदि ताव वड्ढावेदव्वं । एवं यड्डिदूण विदओगाहणा सुहुमणिगोदणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणाए सरिसा होदि । पुणो एदमोगाहणं पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव सुहुमवाउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणं पत्तं ति । पुणो एत्थ गुणगारो आवलियाए उसको छोड़कर और इसको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । यहांपर भी गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । कारण इसका पहिलेके ही समान कहना चाहिये । ___ तत्पश्चात् पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा सूक्ष्म निगोद जीव निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । यहां गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, बादरसे सूक्ष्मका अवगाहनागुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है, ऐसा सूत्रमें निदिष्ट है। अब सूक्ष्म निगोद जीब निवृत्ति पर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि ऋमसे आवल के असंख्यातवे भागसे खण्डित करनेपर उसमेस एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित 3 सूक्ष्म निगोद निवृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश होती है । पश्चात् पूर्व अवगाहनाको छोडकर और इसको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे इसी अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण जब तक वह आधक न हो जाये तब तक बढ़ाना इस प्रकार बढ़कर स्थित अवगाहना सूक्ष्म निगोद निवृत्तिपर्याप्तक जीवकी उत्कृष्ट अवगाहनाके समान होती है । फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश आधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा सूक्ष्म वायुकायिक निवृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये । परन्तु यहां गुणकार आवलीका असंख्यांतवां भाग . पंचेन्द्रियलमध्यपर्याप्तसम्बन्धी प्रबन्धोऽयं ताप्रती पुनलिखितः। २ 'पुणो पंचिंदियलद्धिअपज्जत्तजहण्णो. गाहणं घेत्तूण' इत्येतस्य स्थाने ताप्रती 'तं मोत्तूण इमं घेत्तण' इति पाठः। ३ क्षेत्रविधान ९७.४ प्रतिषु 'एवमोगाहणं' इति पाठः। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] छक्खंडाग वेयणाखंड [४, २, ५, २१. असंखेज्जदिभागो । कुदो ? सुहुमादो सुहुमस्स ओगाहणगुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो त्ति सुत्तवयणादो'। एसो गुणगारो सुहुमेसु सव्वत्थ वत्तव्यो । पुणो इमं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण इमिस्से ओगाहणाए उवरि एदं चेव ओगाहणमावलियाए असंखेज्जभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वं । एवं वड्ढाविदे सुहुमवाउक्काइयणिब्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा होदि । पुणो पदेसुत्तरादिकमेण तं चेव आगाहणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्ते वड्देि सुहुमवाउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं पावदि । पुणो तत्थ पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव सुहुमतेउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणं पत्तं ति । पुणो एदमोगाहणं पदेसुत्तरादिकमेण असंखज्जभागवड्डीए आवलियाए असंखेज्जदिमागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वं जाव सुहुमते उक्काइयणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं पत्तं त्ति । पुणो एवं पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेतं वड्ढावेदव्वं जाव सुहुमतेउक्काइयणिन्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणाए सरिसा जादा ति। पुणो पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि इमा ओगाहणा वड्ढावेदव्वा जाव आउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्सै जहण्णो है, क्योंकि, सूक्ष्मसे सूक्ष्मका अवगाह नागुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है, ऐसा सूत्रमें निर्देश किया गया है । यह गुणकार सूक्ष्म जीवोंमें सर्वत्र कहना चाहिये। पश्चात् इसको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि ऋमसे इ अवगाहनाके ऊपर इसी अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमें से एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ानेपर सूक्ष्म घायुकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना होती है । पश्चात् एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे उक्त अवगाहनाको ही आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण वृद्धि हो जानेपर सूक्ष्म वायुकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना प्राप्त होती है। पश्चात् उसको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा सूक्ष्म तेजकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये। पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा आवाके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि सूक्ष्म सेजकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना न प्राप्त हो जावे । पश्चात इसको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमेंसे एक खण्ड मात्र बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह सूक्ष्म तेजकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके समान नहीं हो जाती । फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश आधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा सूक्ष्म जलकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके १ क्षेत्रविधान ९५. २ तातौ ' सरिसी' इति पाठः । ३ तापतौ ' अपज्ज० ' इति पाठः । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, २१. ] dr माहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं [ ४५ गाहणाए सरिसी जादा त्ति । तदो इमा ओंगाहणा पदेमुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्ता वड्ढावेदव्वा जाव सुहुमआउक्काइयणिव्वतिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणाए सरिसी जादा ति । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवडीए इमम गाहणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वढावेदव्वं जाव सुहुमआ उक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्करसोगाहणाए सरिसी जादा त्ति । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव सुहुमपुढविकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी जादा ति । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए अप्पिदोगाहणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वं जाव हुमपुढविकाइयणिव्वत्तिअपज्जत्तयरसे उवकस्सियाए ओगाहणार सरिसी जादा ति । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए अप्पिदोगाहणमावलियाए असंखेज्जदिभांगण खंडिदेगखंडमेत्ता वढावेदय्वा जाव सुहुमपुढविकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्करसोगाहणाए सरिसी जादा ति । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरारादिकमेण चदुहि वड्डीहि वढावेदव्वा जाव बादरवाउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहसदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यात भागवृद्धि द्वारा आवलोके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह सूक्ष्म जलकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है । फिर इस अवगाहना के ऊपर एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यात भागवृद्धि द्वारा इसी अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें से एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह सूक्ष्म जलकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना के सदृश नहीं हो जाती । तत्पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा सूक्ष्म पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रम से असंख्यात भागवृद्धि द्वारा विवक्षित अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें से एक खण्ड मात्र बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह सूक्ष्म पृथिवीकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना के सदृश नहीं हो जाती । पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यात भागवृद्धि विवक्षित अवगाहनाको आयलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें से एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह सूक्ष्म पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है । तत्पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर वायुकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना १ प्रतिषु ' पज्जतयस्स ' इति पाठः । द्वारा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ छक्खडागमे वेयणाखंड [ ४, ३, ५, २१. णाए सरिसी जादा ति । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कुदा ? सुहुमादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो त्ति सुत्तवयणादो' । तदो इमा ओगाहणां पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवडीए अप्पिद गाहणमावलियाए असंखेज्जदिभागण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव बादरवाउक्काइयणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्करसोगाहणाए सरिसी जादा ति । तदो पदेसुत्तरादिकमेण इमा आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वढावेदव्वा जाव बादरवाउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सो गाहणाए सरिसा जादा ति । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्ढीहि वड्ड वेदव्वा जाव बादरतेडक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कुदो ? बादरादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो पलिदोवमरस असंखेज्जदिभागोति सुत्तवयणादो । तदो पदेसुत्तरादिकमेण इमा ओगाहणा असंखेज्जभागवड्डीए आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्डावेदव्वं जाव बादरतेउक्काइयणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सो गाहणाए सरिसी जादो त्ति । तदो एसा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेग चाहिये । यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, सूक्ष्म से बादरका अवगाहनागुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, ऐसा सूत्रवाक्य है । पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा विवक्षित अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर वायुकायिक निर्वृत्त्य पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती । तत्पश्चात् एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे इस अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागले खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह वायुकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है । फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर तेजकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये | यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, बादरसे बादरका अवगाहनागुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, ऐसा सूत्रमें निर्दिष्ट है । पश्चात् एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे इस अवगाहनाको असंख्यात भागवृद्धि द्वारा आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर तेजकायिक निर्वृत्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती । पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यात भागवृद्धि द्वारा आवलीके असंख्यातवें भागले खण्डित करनेपर उसमेंसे एक भाग प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि १ क्षेत्रविधान ९६. २ अ-काप्रत्योः 'ओगाहणाए ', ताप्रतौ ' ओगाहणा [ ए ]' इति पाठः । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ५, २१.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्तं [४७ खंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव बादरतेउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसा जादा ति । तदो एसा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव बादरआउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसा जादा ति । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कारणं पुव्वं व परूवेदव्वं । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डाए इममोगाहणमावलियाए असंखेज्जभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव बादरआउक्काइयणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाएं ओगाहणाए सरिसा जादा त्ति । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए अप्पिदोगाहणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावे. दव्वा जाव बादरआउक्काइयणिव्वन्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो इमा ओगाहणा पदसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव बादरपुढविकाइयणिवत्तिपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । पुणो पदेसुत्तरादिकमेण अप्पिदोगाहणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण वह बादर तेजकायिक निवृत्तिपर्याप्त ककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है । तत्पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर जल कायिक निर्वृत्ति पर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। कारणकी प्ररूपणा पहिले के ही समान करना चाहिये । पश्चात इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा इस अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर जलकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है। फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यात भाग वृद्धि द्वारा विवक्षित अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे स्वण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर जलकायिक निर्वतिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है। तत्पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। कारणकी प्ररूपणा पहिलेके ही समान करना चाहिये । फिर एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे विवक्षित अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड मात्र इस अवगाहनाको १ प्रतिषु ' उक्कस्सिया' इति पाठः। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ५, २१. खंडिदेगखंडमेत्तमिमा ओगाहणा वट्ठावेदव्वा जाव बादरपुढविक्काइयणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो पदेसुत्तररादिकमेण इमा ओगाहणा आवलियाए असंखज्जदिमागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव बादरपुढविकाइयणिवत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव बादरणिगोदणिवत्तिपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। पुणो पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव बादरणिगोदणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव बादरणिगोदणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । तदो पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव णिगोदपदिहिदपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ ओगाहणागुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । पुणो पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए आवलियाए असंखेज्जदिभागेण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर पृथिवीकायिक निर्वत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है। फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमें से खण्ड मात्रले बढाना चाहिये जब तक कि वह बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है । तत्पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर निगोद निवृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। फिर एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमें एक खण्ड मात्रसे बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर निगोद निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है। फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमले आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमें एक खण्ड मात्रसे बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर निगोद निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है। तत्पश्चात् एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा उसके निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। यहां अवगाहनागुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। फिर एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्ड मात्रसे बढ़ाना चाहिये Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, २१.] वेषणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्त [ ४९ खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव णिगोदपदिद्विदणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । तदो पदेसुत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव णिगोदपदिहिदपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । तदो पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। पुणो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव बीइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। संपहि उस्सेहघणंगुलस्स भागहारो संखेज्जरूवमेत्तो जादो । उवरि एसा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण तीहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव तेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणाए सरिसी जादा त्ति । एत्थ गुणगारो संखज्जा समया । कुदो ? बादरादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो संखेज्जा समया त्ति सुत्तवयणादो । पुणो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण तीहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव चरिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण तीहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव पंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो इमा जब तक कि वह निगोदप्रतिष्टित निवृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है। फिर एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमें एक खण्ड मात्रसे बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है । तत्पश्चात् एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा उसके बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। अब उत्सेधघनांगुलका भागहार संख्यात रूपों प्रमाण हो जाता है। इसके आगे इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों द्वारा त्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । यहां गुणकार संख्यात समय है, क्योंकि, बादरसे बादरका अवगाहनागुणकार संख्यात समय है, ऐसा सूत्रमें निर्देश है। फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों द्वारा चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों द्वारा पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । फिर इस अवगाहनाको छ, ११-७. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] ___ छक्खंडागमे वेयणाखंडं [१, २, ५, २१. ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण तीहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव तेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । तदो एसा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण तीहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव चीरंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण तीहि वड्डीहि वड्ढावेदव्या जाव बीइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो एसा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण तीहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव बादरवणप्फदिकाइयपत्तयसरीरणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण तीहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव पंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो वि एसा ओगाहणा पदेसुत्तररादिकमेण तीहि वड्डीहि वडावेदव्वा जाव तेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो एसा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण तीहि वड्डीहि वडावेदव्वा जाव चरिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो एसा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण तीहि वड्डीहि वडावेदव्वा जाव बेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कसियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । तदो इमा ओगाहणा पदे एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों द्वारा त्रीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों द्वारा चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। तत्पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रममे तीन वृद्धियों द्वारा द्वीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों द्वारा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों द्वारा पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । फिर भी इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों द्वारा श्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों द्वारा चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों द्वारा द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५१ ५, २, ५, २१.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे सामित्त सुत्तरादिकमेण तीहि वडीहि वडावेदव्वा जाव बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । तदो पदेसुत्तरादिकमेण तीहि वड्डीहि इमा ओगाहणा' वडावेदव्वा जाव पंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो अण्णेगेण विक्खंभुस्सेहेहि महामच्छसमाणेण महामच्छायामादो संखेज्जगुणहीणायामेण मुहप्पदेसे वड्विदेगागासपदेसेण लद्धमच्छेण पुविल्लायामेण सह जोयणसहस्सस्स वेयणाए विणा मारणंतियसमुग्घादे कदे महामच्छोगाहणादो एसा ओगाहणा पदेसुत्तरा होदि, मुहम्मि वडिदएगागासपदेसेण अहियत्तुवलंभादो । पुणो एदेणेव लद्धमच्छेण मुहम्मि वड्डिददोआगासपदेसेण जोयणसहस्समारणंतियसमुग्घादे कद पुविल्लक्खेत्तादो [दो-] पदेसुत्तरवियप्पो होदि । एवमेदेण कमेण संखेज्जपदरंगुलमेत्ता आगासपदेसा वडावेदव्वा । एवं वड्डिदूण ट्ठिदखेत्तेण पदेसुत्तरजोयणसहस्सस्स मारणंतियसमुग्घादे कदे लद्धमच्छखेत्तं सरिसं होदि । पुणो पदेसुत्तरादिकमेण मुहम्मि संखेज्जपदरंगुलाणि पुव्वं व वडिय हिदखेत्तेण दुपदेसुत्तरजोयणसहस्सस्स कदमारणंतियसमुग्घादक्खेत्तं सरिसं होदि । एवं एदेण कमेण णेदव्वं जाव आयामो सादिरेयअद्धट्ठमरज्जुमेत्तो जादो त्ति । एदेण खेत्तेण द्वारा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये । तत्पश्चात् एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे तीन वृद्धियों द्वारा इस अवगाहनाको पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। फिर विष्कम्भ व उत्सेधकी अपेक्षा महामत्स्यके सदृश व महामत्स्यके आयामसे संख्यातगुणे हीन आयामवाले तथा मुखप्रदेशमें एक आकाशप्रदेशकी वृद्धिको प्राप्त हुए अन्य एक प्राप्त मत्स्यके द्वारा पूर्व आयामके साथ वेदनाके विना एक हजार योजन मारणान्तिकसमुद्घात किये जानेपर महामत्स्यकी अवगाहनासे यह अवगाहना एक प्रदेश अधिक होती है, क्योंकि, वह मुखमें वृद्धिको प्राप्त हुए एक आकाशप्रदेशसे अधिक पायी जाती है। पश्चात् इसी प्राप्त मत्स्यके द्वारा मुखमें दो आकाश प्रदेशोसे वृद्धिंगत होकर एक हजार योजन मारणान्तिक समुद्घात किये जानेपर पूर्वके क्षेत्रकी अपेक्षा [ दो ] प्रदेशों से अधिक विकल्प होता है। इस प्रकार इस क्रमसे संख्यात प्रतरांगुल प्रमाण आकाशप्रदेशोंको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़कर स्थित क्षेत्रसे एक प्रदेश अधिक एक हजार योजन मारणान्तिकसमुद्घात करनेपर प्राप्त मत्स्यका क्षेत्र समान होता है। पश्चात् एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे मुखमें पूर्वके समान संख्यात प्रतरांगुल बढ़कर स्थित क्षेत्रसे दो प्रदेश अधिक एक हजार योजन मारणान्तिकसमुद्घात करनेवालेका क्षेत्र समान होता है। इस प्रकार इस क्रमसे आयामके साधिक साढ़े सात राजु प्रमाण हो १ अ-काप्रत्योः 'इमाओ वड्डीओ ' इति पाठः। २ अ-काप्रत्योः 'अणेगेण ' इति पाठः । . प्रतिधु ' -समुग्पादं कद- ' इति पाठः। ॥हय । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] छैक्खंडाममे वेयणाखंड [ ४, २, ५, २१. लोगणाली वायव्वदिसादो तिण्णि विग्गहकंदयाणि काढूण मारणंतियसमुग्धादेण सत्तमपुढवीणेरइएस सेकाले उप्पज्जहिदि ति ट्ठिदस्स खेत्तं सरिसं होदि । एवं वड्डदू दो च अण्णगो वेयणसमुग्धादेण तिगुणविक्खंभुस्सेहे काऊण मारणंतियसमुग्धादेण अद्धदुमरज्जूर्ण णवमभागं गंतूण ट्ठिदो च ओगाहणाए सरिसा । पुणो वि पुव्विल्लं मोत्तूण इमं घेण निरंतर -सांतरकमेण पुव्वं व वढावेदव्वं जाव आयामो अद्धट्ठमरज्जुमत्तं पत्तोति । एवं वड्डाविदे णाणावरणीयस्स अजहण्णसव्वखेत्तवियपाणं सामित्तपरूवणा कदा होदि । अधवा सित्थंमच्छो चेव मारणंतियसमुग्धादेण तिण्णि विग्गहकंदयाणि कादूण सादिरेयजद्धट्ठमरज्जुआयामस्से णेदव्वो । पासखेत्ते वड्डाविज्जमाणे एक्कसराहेण पासम्म वड्डिदअद्धट्टमरज्जूओ पदरंगुलस्स संखेज्जदिभागेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तमायामम्मि अवणिय सरिसं काढूण पुणो सांतर - निरंतर कमेण ऊणक्खेत्तं वढावेदव्वं । एवं पुणो पुणो पासखेत्तं वड्डाविय पुव्विल्लखेत्तेण सरिसं करिय पुणो ऊणक्खेत्तं वढ्ढाविय णदव्वं जाव महामच्छुक्कस्ससमुग्धादखेत्तेण सरिसं जादं ति एवं णाणावरणीयस्स अजहण्णसामित्तपरूवणा कदा होदि । । जाने तक ले जाना चाहिये । इस क्षेत्रसे, जो लोकनालीकी वायव्य दिशासे तीन विग्रहकाण्डक करके मारणान्तिकसमुद्घातसे सातवीं पृथिवीके नारकियों में अनन्तर समय में उत्पन्न होनेके सन्मुख स्थित है उसका, क्षेत्र समान है । इस प्रकार बढ़कर स्थित तथा दूसरा एक वेदनासमुद्घातसे तिगुणे विष्कम्भ व उत्सेधको करके मारणान्तिकसमुद्घातसे साढ़े सात राजुओके नौवें भागको प्राप्त होकर स्थित हुआ, ये दोनों जीव अवगाहनाकी अपेक्षा समान हैं । फिरसे भी पहिलेको छोड़कर और इसे ग्रहणकर निरन्तर - सान्तर क्रमसे आयामके साढ़े सात राजु प्रमाणको प्राप्त होने तक पहिलेके ही समान बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाने पर ज्ञानावरणीयके सब अजघन्य क्षेत्र विकल्पोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा समाप्त हो जाती है । अथवा सिक्थ मत्स्यको ही मारणान्तिकसमुद्घातसे तीन विग्रह काण्ड को को कराकर साधिक साढ़े सात राजु आयामको प्राप्त कराना चाहिये । पार्श्वक्षेत्र के बढ़ाते समय एक साथ पार्श्वक्षेत्रमें वृद्धिको प्राप्त साढ़े सात राजुओं को प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे खण्डित करके उसमेंसे एक खण्डप्रमाणको आयाममें से कम करके सदृश कर फिर सान्तर निरन्तर क्रमसे कम किये गये क्षेत्रको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार वार वार पार्श्वक्षेत्रको बढ़ाकर पूर्व क्षेत्र के समान करके पश्चात् कम किये गये क्षेत्रको बढ़ाकर महामत्स्यके उत्कृष्ट समुद्घातक्षेत्र के सदृश हो जाने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार ज्ञानावरणीयके अजघन्य क्षेत्र सम्बन्धी स्वामित्वकी प्ररूपणा समाप्त होती है । ' प्रतिषु 'सिद्ध' इति पाठः । पासयत्तं ' इति पाठः । २ ताप्रतौ 'सादिरेया अद्बठ्ठमरज्जू आयामस्स ' इति पाठः । ३ प्रतिषु Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, २४.] वैयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे अप्पाबहुगं [ ५३ एत्थ खेत्तट्ठाणसामिजीवपरूवणाए परूवणा पमाणं सेडी अवहारो भागाभागं अप्पाबहुगमिदि छ अणिओ गद्दाराणि । एदेसिं छण्णमणिओगद्दाराणमुक्कस्साणुक्कस्सट्ठाणेसु जहा परूवणा कदा तहा कायव्वा । एवं सत्तणं कम्माणं ॥ २२ ॥ जहा णाणावरणीयस्स जहण्णाजहण्णक्खेत्तपरूवणा कदा तहा सत्तण्णं कम्माणं कायव्वं, विसेसाभावादो | एवं सामित्तपरूवणा सगंतो क्खित्तसंख ट्ठाण - जीवसमुदाहारा समत्ता । अप्पा हुए ति । तत्थ इमाणि तिण्णि अणिओगद्दाराणिजहणपदे उक्कस्सपदे जहष्णु कस्सपदे ॥ २३ ॥ एत्थ तिणि चेव अणिओगद्दाराणि त्ति संखाणियमो किमहं कीरदे ? ण एस दोसो, अण्णेसिमेत्थ अणिओगद्दाराणं संभवाभावादो । जहणपदे अट्टणं पि कम्माणं वेयणाओ तुल्लाओ ॥ २४ ॥ यहां क्षेत्रस्थानोंके स्वामिभूत जीवोंकी प्ररूपणा में प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व, ये छह अनुयोगद्वार हैं। इन छह अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा जैसे उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट क्षेत्रों में की गयी है वैसे ही यहां भी करना चाहिये | इसी प्रकार शेष सात कर्मों के जघन्य व अजघन्य क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ २२ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मके जघन्य व अजघन्य क्षेत्रोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मो के उक्त क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार अपने भीतर संख्या, स्थान और जीवसमुदाहारको रखनेवाली स्वामित्वप्ररूपणा समाप्त हुई । अल्पबहुत्व अधिकृत है । उसकी प्ररूपणा में ये तीन अनुयोगद्वरा हैं- जघन्य पदमें, उत्कृष्ट पदमें और जघन्योत्कृष्ट पदमें ॥ २३ ॥ शंका- यहां तीन ही अनुयोगद्वार हैं, ऐसा संख्याका नियम किसलिये किया जाता है ? यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, और दूसरे अनुयोगद्वारोंकी यहां सम्भावना नहीं है । जघन्य पद में आठों ही कर्मोंकी वेदनायें समान हैं ॥ २४ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, २५. कुदो १ तदियसमयआहारय-तदियसमयतब्भवत्थसुहुमणिगोदलद्धिअपज्जत्तयम्मि जहण्णजोगिम्हि अट्ठण्णं पि कम्माण जहण्णक्खेत्तुवलंभादो । तम्हा जहण्णपदप्पाबहुगं णस्थि त्ति भणिदं होदि । उक्कस्सपदे णाणावरणीय- दंसणावरणीय-मोहणीय - अंतराइयाणं वेयणाओ खेत्तदो उक्कस्सियाओ चत्तारि वि तुल्लाओ थोवाओ ॥२५॥ कधमेदेसि तुल्लत्तं १ एगसामित्तादो। सादिरेयअट्ठमरज्जूहि संखेज्जपदरंगुलेसु गुणिदेसु घादिकम्माणमुक्कस्सखेतं होदि । एदं थोवमुवरिभण्णमाणखेत्तादो त्ति उत्तं होदि। वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवेयणाओ खेत्तदो उक्कस्तियाओ चत्तारि वि तुल्लाओ असंखज्जगुणाओ ॥ २६ ॥ __एत्थ गुणगारो जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो। कुदो ? संखेज्जपदरंगुलगुणिदजगसेडिमेत्तेण घादिकम्माणं उक्कस्सक्खेत्तेण घणलोगे भागे हिदे जगपदरस्स असंखेज्जदिमागुवलंभादो। इसका कारण यह है कि तृतीय समयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके तीसरे समयमें वर्तमान सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवके जघन्य योगके होनेपर आठों ही कर्मोका जघन्य क्षेत्र पाया जाता है। इसीलिये जघन्य पदमें अल्पबहुत्व नहीं है, यह उक्त कथनका अभिप्राय है। उत्कृष्ट पदमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन कमीकी वेदनायें क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट चारों ही समान व स्तोक हैं ॥ २५ ॥ शंका-इन वेदनाओंके समानता कैसे है ? समाधान - इसका कारण यह है कि उनका स्वामी एक है। साधिक साढ़े सात राजुओं द्वारा संख्यात प्रतरांगुलोंको गुणित करने पर धातिया कर्मोंका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है । यह आगे कहे जानेवाले क्षेत्रसे स्तोक है, यह सूत्रका अभिप्राय है। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इनकी वेदनायें क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट चारों ही समान व पूर्वकी वेदनाओंसे असंख्यातगुणी हैं ॥ २६॥ यहां गुणकार जगप्रतरका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, घातिकर्मीका जो उस्कृष्ट क्षेत्र संख्यात प्रतरांगुलोसे गुणित जगश्रेणिके बराबर है उसका घनलोकमें भाग देनेपर जगप्रतरका असंख्यातवां भाग पाया जाता है। १ तापतौ ' महणनोगेहि ' इति पाठः । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ५, २९.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे अप्पाबहुगे जहण्णुक्कस्सपदेण अट्टण्णं पि कम्माणं वेदणाओ खेत्तदो जहणियाओ तुल्लाओ थोवाओ ॥ २७॥ सुगममेदं । णाणावरणीय-दसंणाणावरणीय-मोहणीय - अंतराइयवेयणाओ खेत्तदो उक्कस्सियाओ चत्तारि वि तुल्लाओ असंखज्जगुणाओ॥२८॥ एत्थ गुणगारो जगसेडीए असंखेज्जदिभागो। कुदो ? अट्ठण्णं कम्माणं जहण्णक्खेत्तेण अंगुलस्स असंखेज्जदिमागेण घादिकम्मुक्कस्सखेत्ते भागे हिदे' वि अंगुलस्स असंखेज्जदिमागेण जगसेडीए खंडिदाए तत्थ एगखंडुवलंभादो । वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवेयणाओ खेत्तदो उक्कस्सियाओ चत्तारि वि तुल्लाओ असंखेज्जगुणाओ ॥ २९ ॥ __एत्थ गुणगारो सुगमो, पुव्वं परविदत्तादो। एदमप्पाबहुगसुत्तं सव्वजीवसमासाओ अस्सिदूण ण परविदं ति कट्ट संपहि सव्वंजीवसमासाओ अस्सिदूण णाणावरणादिकम्माणं जहण्णुक्कस्सखेतपरूवणट्ठमप्पाबहुगदंडयं भण्णदि जघन्योत्कृष्ट पदसे आठों ही कर्मोकी क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य वेदनायें तुल्य व स्तोक हैं ॥२७॥ यह सूत्र सुगम है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मकी वेदनायें क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट चारों ही तुल्य व पूर्वोक्त वेदनाओंसे असंख्यागुणी हैं ॥ २८॥ ___ यहां गुणकार जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, आठो काँका जो जघन्य क्षेत्र अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है उसका घातिक के उत्कृष्ट क्षेत्रमें भाग देनेपर भी अंगुलके असंख्यातवें भागसे जगणिको खण्डित करनेपर उसमें से एक खण्ड पाया जाता है। __ वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्मकी वेदनायें क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट चारों ही तुल्य व पूर्वोक्त वेदनाओंसे असंख्यातगुणी हैं ॥ २९ ॥ यहां गुणकार सुगम है, क्योंकि, उसकी पहिले प्ररूपणा की जा चुकी है। यह अल्पबहुत्वसूत्र चूंकि सब जीवसमासोंका आश्रय करके नहीं कहा गया है, अत एव अब सब जीवसमासोंका आश्रय करके शानावरणीय आदि कर्मोके जघन्य घ उत्कृष्ट क्षेत्रकी प्ररूपणा करने के लिये अल्पबहुत्वदण्डक कहा जाता है। १ प्रतिषु हिदेसु' इति पाठः। २ प्रतिषु · सव्वा' इति पाठः । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, ३०० एतो सबजीवेसु ओगाहणमहादंडओ कायव्वो भवदि ॥३०॥ सुगममेदं । सव्वत्थोवा सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा ॥३१॥ एगमुस्सेहघणंगुलं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण भागे हिदे एदिस्से जहण्णोगाहणाए पमाणं होदि। सुहुमवाउक्काइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ३२॥ एत्थ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। अपज्जत्ते त्ति उत्ते लद्धिअपज्जतस्स गहणं, णिव्वत्तिअपज्जत्तजहण्णोगाहणाए उवरि परूविज्जमाणत्तादो । सुहुमतेउकाइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ३३॥ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। एत्य लद्धिअपज्जत्तयस्सेव गहणं कायव्यं । सुहमआउक्काइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ३४॥ यहांसे आगे सब जीवसमासोंमें यह अवगाहनादण्डक करने योग्य है॥३०॥ यह सूत्र सुगम है। सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवकी जघन्य अवगाहना सबसे स्तोक है ॥ ३१ ॥ एक उत्सेधघनांगुलमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देने पर इस जघन्य अवगाहनाका प्रमाण होता है। सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना उससे असंख्यातगुणी है ॥३२॥ यहां गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है । ' अपर्याप्त ' कहनेपर उससे लब्ध्यपर्याप्तकका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, निवृत्त्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना आगे कही जानेवाली है। उससे सूक्ष्म तेजकायिक अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥३३॥ गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है । यहां लब्ध्यपर्याप्तकका ही ग्रहण करना चाहिये। उससे सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥ ३४ ॥ १ अ-काप्मृत्योः ' भणदि ' इति पाठः । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ३९. ] यणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे अप्पाबहुगं [ ५७ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एत्थ वि लद्धिअपज्जत्तयस्स गहणं कायव्वं । सुहुम पुढविकाइयलद्धिअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ३५ ॥ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागेो । बादरवाउक्काइय अपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ३६ ॥ एत्थ गुणगारे | पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बादरते उक्काइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ३७ ॥ गुणगारो पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागो । वादरआउक्काइयअपज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ३८ ॥ एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बादरपुढविकाइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ३९ ॥ गुणकार क्या है ? गुणदार जावजीका असंख्यातवां भाग है। यहां भी लब्ध्यपर्याप्ता ग्रहण करना चाहिये। सूक्ष्म पृथिवीकायिक लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना उससे असंख्यातगुणी है ॥ ३५ ॥ गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है । उससे बादर वायुकायिक अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥ ३६॥ यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । उससे बादर तेजकायिक अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥३७॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । उससे बादर जलकायिक अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥ ३८ ॥ यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । उससे बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥ ३९ ॥ छ. ११-८. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, १०. एत्थ वि गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बादरणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ४०॥ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । णिगोदपदिविदअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा ॥४१॥ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखज्जगुणा ॥ ४२॥ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बीइंदियअपज्जत्तयस्स जहणिया आगाहणा असंखज्जगुणा ॥४३॥ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । तीइंदियअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥४४॥ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। यहां भी गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उससे बादर निगोद जीव अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥४॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उससे निगोदप्रतिष्ठित अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥४१॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उससे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपयाप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥ ४२ ॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥४३॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना उससे असंख्यातगुणी है ॥४४॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ४८.] वैयणमहाहियारे वैयणलेत्तविहाणे अप्पाबहुग (५९ चउरिंदियअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥४५॥ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । पंचिंदियअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥४६॥ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदाओ पुव्वं परूविदसव्वजहण्णोगाहणाओ लद्धिअपज्जत्ताणं ति घेत्तव्बाओ। संपहि उवरि भण्णमाणाओ णिव्वत्तिपज्जत्ताणं णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं [च ] वेत्तव्वाओ । सुहमणिगोदजीवणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥४७॥ एत्थ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ तस्सेवे त्ति उत्ते णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स गहणं, अण्णेण सह पच्चासत्तीए अभावादो। केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । तस्स को पडिभागो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । केसिंचि आइरियाणमहिप्पारण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना उससे असंख्यातगुणी है ॥४५॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । पंचेन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना उससे असंख्यतागुणी है ।। ४६ ॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। ये पूर्व प्ररूपित सब जघन्य अवगाहनाये लब्ध्यपर्याप्तकोंकी ग्रहण करना चाहिये। अब आगे कही जानेवाली निर्वृत्तिपर्याप्तकोंकी और निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंकी समझना चाहिये। उससे सूक्ष्म निगोद जीव निवृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है।४७॥ यहां गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। उसके ही अपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ।। ४८॥ • उसके ही' ऐसा कहनेपर निर्वृत्त्यपर्याप्तकका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, और किसी दूसरेके साथ प्रत्यासत्ति नहीं है । विशेषका प्रमाण कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवे भाग प्रमाण है। उसका प्रतिभाग क्या है ? आवलीका असंख्यातवां भाग उसका प्रतिभाग है। किन्हीं आचार्योंके अभिप्रायसे वह पश्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। For Private & Personal use. Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, ५, १९. तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥४९॥ ___एत्थ वि तस्सेवे त्ति वयणेण णिव्वत्तीए गहणं । केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्तो । सुहुमवाउक्काइयपज्जत्तयस्त जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ५॥ एत्थ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। एत्थ पज्जत्ते त्ति उत्ते णिव्वत्तिपज्जचयस्स गहणमण्णस्सासंभवादो । तस्सेव अपजत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्तो । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ केसियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । सुहुमतेउक्काइयणिब्यत्तिपज्जत्यस जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ५३॥ उसके ही पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥ ४९ ।। यहांपर भी 'उसके ही' इस निर्देशसे निवृत्तिका ग्रहण किया गया है। विशेषका प्रमाण कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है। उससे सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥५०॥ यहां गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। यहां पर्याप्तक' ऐसा कहनेपर निर्वृत्तिपर्याप्तकका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, दूसरेकी सम्भावना नहीं है । उसीके अपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥५१॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उसीके पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥ ५२ ॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उससे सूक्ष्म तेजकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ५८.] येयणमहाहियारे वैयणखेत्तविहाणे अप्पाबहुगं (११ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ५५॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो । सुहमआउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ५६॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिमागो। तस्सेव णिव्वत्तिअपजत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ५७॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो। तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ५८ ॥ गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। उसके ही अपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥ ५४ ॥ विशेष कितना है ? वह अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उसके ही निवृत्तिपयर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥ ५५ ॥ विशेष कितना है ? वह आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उससे सूक्ष्म जलकायिक निवृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है॥५६॥ गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। उसके ही निवृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥ ५७॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उसके ही निवृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥ ५८॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९) छक्खंडागमै वैयणाखंड केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमत्तो। सुहुमपुढविकाइयणिवत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ५९॥ को गुणगारो १ आवलियाएं असंखेज्जदिभागो। तस्सेव णिवत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥६० ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो १ अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्तो। तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्तिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ६१ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । बादरवाउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ६२ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ६३॥ विशेष कितना है? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उससे सूक्ष्म पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥ ५९॥ गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है । उसके ही निवृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥६॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उसके ही निवृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥ ६१॥ विशेष कितना है ? यह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रणाण है। उससे पादर वायुकायिक निवृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥ २॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उसके ही निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥६॥ १ प्रतिधु 'पलिदोनमस्स' इति पाठः । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ६८.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे अप्पाबहुगं ५ केत्तियमेत्तो विसेसो १ अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्तो । तस्सेव णिवचिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ६४॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो। बादरतेउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥६५॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥६६॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेतो।। तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ६७ ॥ केत्तियमत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो। बादरआउक्काइयणिवत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ६८ ॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है । ६४॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उससे बादर तेजकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥ ६५॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । उसके ही निवृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥६६॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ।। ६७॥ विशेष कितना है । वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उससे बादर जलकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यात गुणी है ॥ ६८॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसे साहिया ॥ ६९ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ७० ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । [ ४, २, ५, ६९. बादरपुढविकाइयणिव्वत्चिपज्जत्तयस्स' जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ७१ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ।। ७२ ।। केत्तियमेत्तेण ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेण । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ७३ ॥ गुणकार कितना है ? वह पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । उसके ही निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥ ६९ ॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । उसके ही निर्वृत्तिपर्य|प्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ॥ ७० ॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । उससे बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यात - गुणी है ॥ ७१ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । उसके ही निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है ||७२|| कितने मात्र से वह अधिक है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्रसे अधिक है । उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना उससे विशेष अधिक है || ७३ ॥ १ प्रतिषु ' णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स ' इति पाठः । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ७८.] वेयणमहाहियारे धेयणखेत्तविहाणे अप्पाबहुगं (६५ केत्तियमेत्तेण ? अंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्तेण । बादरणिगोदणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा ॥ ७४॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ७५ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ७६ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । णिगोदपदिहिदपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ७७॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तस्सेव णिव्वत्तिअपजत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ७८ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । चितो मात्रसे वह अधिक है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्रसे अधिक है। उससे बाद निगोद निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ।।७४॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उसे उसके ही निवृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है ।। ७५ ॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उससे ही निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है ।। ७६ ॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यात भाग प्रमाण है। उससे निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥ ७७ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उससे उसके ही निवृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है ॥ ७८ ॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ५, ७९. तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया ॥ ७९ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो । बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरणिवत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥८॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। बेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा ॥ ८१ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जीदभागो। तेइंदियणिवत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा संखेज्जगुणा ॥ ८२॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया ! ___ चरिंदियणिवत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा संखेज्जगुणा ॥८३॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । ........................ उससे उसके ही निर्वृत्तिपयर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है ॥७९॥ विशेष कितना है ? वह अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। उससे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निवृत्तिपयर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥ ८०॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योषमका असंख्यातवां भाग है । उससे द्वीन्द्रिय निवृत्तिपयर्याप्तककी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है ॥ ८१ ।। गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उससे त्रीन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ८२ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपयर्याप्तककी जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ८३ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। , प्रतिषु ' असंखज्जगुणा ' इति पाठः । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ८८.] वेयणमहाहियोरे वैयणखेत्तविहाणे अप्पाबंदुर्ग (६७ पंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा संखेज्जगुणा ॥ ८४ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । तेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा ॥ ८५॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । चउरिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा ॥ ८६ ॥ [को गुणगारो ? संखेज्जा समया । ] बेइंदियणिवत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा ॥ ८७॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरणिवत्तिअपजत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा ॥ ८८ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । उससे पंचेन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ८४ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। उससे त्रीन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ८५ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ८६ ॥ [गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। ] उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उकृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ८७ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है । उससे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उकृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ८८ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] [ ४, २, ५, ८९. पंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखे ज्जगुणा ॥ ८९ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । तेइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखे ज्जगुणा ॥ ९० ॥ छक्खंडागमे वैयणाखंड को गुणगारो ? संखेज्जा समया । चउरिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा ॥ ९१ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । बेइंदियणिव्वत्तिपज्जन्यस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्ज गुणा ॥ ९२ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । बादरवणफदिकाइयपत्तेयसरीरणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स स्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा ॥ ९३ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । उससे पंचेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ८९ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है । उक्क उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ९० ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है । उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ९१ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है । उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ९२ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है । उससे बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ९३ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणमहाहियारे वैयणखेत्तविहाणे अप्पावर्ग [ ६९ पंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखे २, ५, ९७ ] ज्जगुणा ॥ ९४ ॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । संपधि पुत्र परुविदअप्पा बहुगम्मि गुणगारपमाणपत्रण उवरिमसुत्ताणि भणदिहुमादो सुमस्स ओगाहणगुणगाणे आवलियाए असंखेज्जदिभागो ।। ९५ ॥ हुमादो अण्णम्स सहमस्य ओगाहणा असंखेज्जगुणा त्ति जत्थ जत्थ भणिदं तत्थ तत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागो गुणगारो त्ति घेत्तव्वा । सुमादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागा ॥ ९६ ॥ सुहुमईदियओगाहणादो जत्थ बादरोगाहणमसंखेज्जगुणमिदि भणिदं तत्थ पलिदो - वमस्स असंखैज्जदिभागो गुणगारो होदि ति घतव्वं । बादरादो मुहुमस्स ओगाहणगुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभाग ॥ ९७ ॥ बाद गाहणादो जत्थ सुहुमईदियओगाहणा असंखेज्जगुणाति भणिदं तत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागो गुणगारो त्ति घेतव्वो । · उससे पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है ॥ ९४ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है । सूत्र कहते हैं अब पहिले कहे गये अल्पबहुत्व में गुणकारोंके प्रमाणको बतलानेके लिये आगेके एक सूक्ष्म जीवसे दूसरे सूक्ष्म जीवकी अवगाहनाका गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है ॥ ९५ ॥ एक सूक्ष्म जीवसे दूसरे सूक्ष्म जीवकी अवगाहना असंख्यातगुणी है, ऐसा जहां जहां कहा गया है वहां वहां आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार ग्रहण करना चाहिये । सूक्ष्मसे बादर जीवकी अवगाहना का गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है ॥ ९६ ॥ सूक्ष्म एकेन्द्रियकी अवगाहनासे जहां बादर जीवकी अवगाहना असंख्यातगुणी कही है, यहां पयोपमका असंख्यातवां भाग गुणकार होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । बादरसे सूक्ष्मका अवगाहनागुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है ॥ ९७ ॥ बादरकी अवगाहनासे जहां सूक्ष्म एकेन्द्रियकी अवगाहना असंख्यातगुणी कही है वहां आवलीका असंख्यातवां भाग गुणकार होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे यणाखंडं ४, २, ५, ९८. बादरादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ९८ ॥ एत्थ बादरा त्ति उत्ते जेण बादरणामकम्मोदइल्लाणं जीवाणं गहणं तेण बीइंदियादीपि गहणं होदि । बादर ओगाहणादो अण्णा बादरओगाहणा जत्थ असंखेज्जगुणा त्ति भणिदं तत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो त्ति घेत्तव्वो । बादरादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो संखेज्जा समया ॥९९॥ बीइंदियादिणिव्वत्तिअपज्जत्तएसु तेर्सि पज्जत्तएस च ओगाहणगुणगारो संखेज्जा समयात्तत्तव्वो । पुविल्लसत्तेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे गुणगारे पत्ते तप्पडिसेहट्ठेमिदं सुत्तमारद्धं, तेण ण दोष्णं पि सुत्ताणं विरोहो । एदे एत्थ गुणगारा होंति त्ति क नव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादा णव्वदे । ण च पमाणं पमाणंतरमवेक्खदे, अणवत्थापसंगादा । णाणावरणादीणमट्टण्णं पि कम्माणमोगाहणपरूवणङ्कं खेत्ताणियोगद्दारे परुविज्जमाणे जीवसमासाणमागाहणपरूवणा किमईमेत्थ परूविदा ? एत्थ परिहारो उच्चदे | एसो woj बादरस्ते बादरका अवगाहनागुणकार पत्येोपमका असंख्यातवां भाग है ॥ ९८ ॥ यहां सूत्रमें 'बादर से' ऐसा कहनेपर चूंकि बादर नामकर्मके उदय युक्त जीवोंका ग्रहण है, अतः उससे द्वीन्द्रियादिक जीवोंका भी ग्रहण होता है । बादरकी अवगाहना से जहां दूसरे बादर जीवकी अवगाहना असंख्यातगुणी कही है वहां पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार ग्रहण करना चाहिये, बादरसे दूसरे बादर जीवकी अवगाहनाका गुणकार संख्यात समय है ॥ ९९ ॥ द्वीन्द्रिय आदिक निर्वृत्त्य पर्याप्तकों और उनके पर्याप्तकों में अवगाहनाका गुणकार संख्यात समय है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। पूर्व सूत्रले पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र गुणकारके प्राप्त होनेपर उसका प्रतिषेध करनेके लिये यह सूत्र रचा गया है । इसीलिये उपर्युक्त दोनों सूत्रों में कोई विरोध नहीं है । शंका- ये वहां गुणकार होते हैं, ऐसा कैसे जाना जाता है ? समाधान – वह इसी सूत्र से जाना जाता है । कारण कि एक प्रमाण दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता है, क्योंकि, वैसा होनेपर अनवस्थाका प्रसंग आता है । शंका- ज्ञानावरणादिक आठों कर्मोंकी अवगाहना के प्ररूपणार्थ क्षेत्रानुयोगद्वारकी प्ररूपणा करते समय जीवसमासोंकी अवगाहनाकी प्ररूपणा यहां किसलिये की गई है ? समाधान - यहां इस शंकाका उत्तर कहते हैं- यह अवगाहना सम्बन्धी १ ताप्रती ' परूवणा [ कौर ] किमट्ठ-' इति पाठः । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ९९.] वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे अप्पाबहुगं [७१ ओगाहणप्पाबहुअदंडओ जीवसमास्राणं ण परविदो, अप्पाबहुअस्स असंबद्धप्पसंगादो। किंतु अट्ठण्णं पि कम्माणं जीवसमासेहिंतो अभेदेण लद्धजीवसमासववएसाणमोगाहणप्पाबहुअदंडओ एसो परविदो नि । किमट्ठमेसा अप्पाबहुगपरूवणा कदा ? समुग्घादेण विणा णाणावरणादीणमट्टणं पि कम्माणं सत्थाणोगाहणाणं जीवसमासभेदेण भिण्णाणं माहप्पपरूवणटुं कदा, णाणावरणादीणमजहण्ण-अणुक्कस्ससत्थाणखेत्तट्ठाणपरूवणटुं वा । एवमप्पाबहुगं सगतो. क्खित्तगुणगारहियारं समत्तं । एवं वेयणखेत्तविहाणे त्ति समत्तमणि योगदारं । 000 0.00 . ००००० o EDDRE - OCO OOO ००००० DIREATERIALLAVI .००००००००० iraram. mxHITE ००० MDOO 0000000000000000 00 ००० ००० एदाओ सोलस उवरिमाओ ओगाहणाओ तिसमयआहारय-तिसमयतब्भवत्यलाद्धिअपज्जत्तयाणं जहण्णाओ घेतव्वाओ। आदिप्पहुडि सत्तारस ओगाहणाओ पदेसुत्तरकमेण अल्पबहुत्चदण्डक जीवसमासोंका नहीं कहा गया है, क्योंकि, वैसा करनेसे उक्त अल्पबहुत्वके असंगत होने का प्रसंग आता है। किन्तु यह जीवसमासोंसे आभन्न होनेके कारण जीवसमास संज्ञाको प्राप्त हुए आठों कर्मोंकी ही अवगाहनाका अल्पबहुत्व. दण्डक कहा गया है। शंका- यह अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा किसलिये की गई है ? समाधान- जीवसमासके भेदसे भेदको प्राप्त हुए ज्ञानावरणादिक आठों कर्मोंकी सदघात रहित स्वस्थान अवगाहनाओंके माहात्म्यको बतलानेके लिये उक्त प्ररूपणा की गई है । अथवा, शानावरणादिक कर्मों के अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्वस्थान क्षेत्रस्थानोंकी प्ररूपणा करनेके लिये उपयुक्त प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार अपने भीतर गुणकार अधिकारको रखनेवाला अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार वेदनाक्षेत्रविधान यह अनुयोगद्धार समाप्त हुआ। ये उपरिम सोलह अवगाहनायें त्रिसमयवर्ती आहारक और त्रिसमयवर्ती तद्भवस्थ लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंकी जघन्य ग्रहण करना चाहिये। आदिसे लेकर सत्तरह .................... ताप्रती 'घेतवाओ० ' इति पाठः। अवरमपुण्णं पढम सोलं पुण पढम-बिदिय-तदियोली । पुण्णिदर-पुण्णियाणं जहण्णमुक्कस्समुक्करसं ॥ गो. जी. ९९. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ५, ९९. णिरंतरं वड्दावेदव्वाओ। पुणो जत्थ जिस्से ओगाहणा समप्पदि तक्काले ठविदोगाहणसलागासु रूवमवणेदव्वं, हेढिल्लोगाउणाहि सह हेट्ठा णिरंतरमागंतूग उपरि गमणाभावादो। पुणो जत्थ जत्थ जहण्णागाहणाओ पति तत्थ तत्थ पुवठ्ठविदसलागासु रूवं पक्खिविदव्वं, हेहिल्लागाहणवियप्पसलागासु एदिस्से णत्थि त्ति । सेस जाणिय वत्तवं । एदाओ एक्कारस उक्कस्सागाहणाओ उवरिमाओ णिव्वत्तिअपज्जत्ताणमुक्कस्साओ। एदाओ कस्स हवंति ? से काले पज्जत्तो होहदि त्ति द्विदस्स हॉति । लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणा किण्ण गहिदी ? ण, लद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणाझे णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणाए विसेमाहियभावेण विणा असंखेज्जगुणत्तुवलभादो । हेट्ठिमाओ सुहुमणिगोदाओ णिव्वत्तिपरंपरपज्जत्तीए पज्जत्तयदाणं घेत्तव्वाओ। ताओ कत्थ होति त्ति उत्ते पज्जतयदपढमसमए वट्टमाणस्स जहण्णउववाद-एयंताणुवड्विजोगेहि आगंतूण जहण्णपरिणामजोगे जहण्णोगाहणाए च वट्टमाणस्स एक्कारस वि होति । पुणो णिव्वत्ति अवगाहनाओंको प्रदेश अधिक क्रम निरन्तर बढ़ाना चाहिये। फिर जहां जिसकी अवगाहना समाप्त होती है उस कालमें स्थापित अवगाहनाशलाकाओं में से एक रूपको कम करना चाहिये, क्योंकि, अधस्तन अवगाहनाओं के साथ नीचे निरन्तर आकर ऊपर गमनका अभाव है। फिर जहां जहां जघन्य अवगाहनाये पड़ती हैं वहां वहां पूर्व स्थापित शलाकाओंमें एक रूपको मिलाना चाहिये, क्योंकि, अधस्तन अवगाहनाके विकल्पमत शलाकाओं में इसकी शलाका नहीं है। शेष जानकर कहना चाहिये। ये उपरिम ग्यारह उत्कृष्ट अवगाहनाय निवृत्त्य पर्याहकोंकी उत्कृष्ट है। शंका-ये किसके होती हैं ? समाधान----जो जीव अनन्तर कालमें पर्याप्त होनेवाला है उसके वे अवगाहनायें होती है। शंका-लब्ध्य पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाको क्यों नहीं ग्रहण किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, लमध्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवसाहनासे निवृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिकताके बिना असंख्यातगुणी पायी जाती है। सूक्ष्म निगोद से लेकर अधरतन [ ग्यारह जघन्य अवगाद नायें । निर्वृत्ति परम्परा पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए जीवों की ग्रहण करना चाहिये। शंका - वे अवगाहनायें कहांपर होती हैं ? समाधान- इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि जो पर्याप्त होनेके प्रथल समयमें वर्तमान है तथा जघन्य उपपादयोग और जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग से आकर जघन्य परिणामयोग व जघन्य अवगाहनामें रहनेवाला है उसके वे ग्यारह ही अवगाहनायें होती हैं। १ तापतो 'हेछिल्लोगाहणादि-सह इति पाठः। २ प्रतिषु 'एदिरसे णात्ति'; तापता 'एदिस्से ति' इति पाठः। ३ मप्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु 'हवदि', ताप्रती 'हबदि ( हाति)' इति पाठः । ४ ताप्रती ' लहिदा' इति पाठः। ५ ताप्रतो ‘णिगोदाओ (ण)' इति पाठः । ६ ताप्रती 'बट्टामणस्स' इति पाठः । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ५, ९९. ) वेयणमहाहियारे वेयणखेत्तविहाणे अप्पाबहुगं [७३ पज्जत्ताणं हेट्ठिमाओ एक्कारस उक्कस्सओगाहणाओ उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सओगाहणाए' वट्टमाणस्स परंपरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्स होति । एदाओ ओगाहणाओ अप्पप्पणो जहण्णादो उक्कस्साओ विसेसाहियाओ होति । सुहुमणिगोदलद्धिअपज्जत्तजहण्णोगाहणप्पहुडि सव्वजहण्णुक्कस्सोगाहणाओ जाव बादरवणप्फदिकाइयपत्तयसरीरपज्जसजहण्णोगाहणं पाति ताव अंगुलरस असंखेज्जदिभागमेतीयो। बीइंदियादिपज्जत्ताणं जहण्णागाहणाओ अंगुलस्स संखेज्जदिभागमेतीयों बीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा अणुंधरिम्हि होदि । तीदियपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा कुंथुम्हि होदि । चरिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णागाहणा काणमच्छियाए । पंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा सित्थमच्छम्मि होदि । तीइंदियपज्जत्तयस्स उक्करसोगाहणा तिण्णिगाउअप्पमाणा। सा कम्हि होदि ? गोम्हिम्हि । चरिंदियपज्जत्तयरस उक्कस्सोगाहणा चत्तारिगाउअप्पमाणा। सा कत्थ ? भमरम्मि । बीइंदियस्स पज्जत्तयरस उक्कस्सोगाहणा बारस जोयणाणि । सा कत्थ ? संखम्मि । एइदियउक्कस्सोगाणा संखेज्जाणि जोयणाणि । सा कत्थ ? जोयणसहस्सायाम निर्वृत्तिपर्याप्तकोंकी अधस्तन ग्यारह उत्कृष्ट अवगाहनायें उत्कृष्ट अबगाहनामें वर्तमान व परम्परा पर्याप्तिसे पर्याप्त हुए उत्कृष्ट योगवाले जीवके होती हैं । ये अवगाहनायें अपने अपने जघन्यसे उत्कृष्ट विशेष अधिक होती हैं। सूक्ष्म निगोद लब्ध्य पर्याप्तककी जघन्य अवगाहनासे लेकर सब जघन्य व उत्कृष्ट अवगाहनाये जब तकं बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवकी जघन्य अवगाहनाको प्राप्त होती हैं तब तक अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र रहती हैं। द्वीन्द्रियादिक पर्याप्त जीवोंकी जघन्य अवगाहनायें अंगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। द्वीन्द्रिय पर्याप्त की जघन्य अवगाहना अनुन्धरीके होती है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना कुंथुके होती है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तककी वगाहना कानमक्षिकाके होती है । पंचेन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य अवगाहना सिक्थ मत्स्यके होती है। श्रीन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना तीन गव्यूति प्रमाण है। वह किसके होती है ? वह गोम्हीके होती है । चतुरिन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना चार गटयूति प्रमाण है। वह कहांपर होती है ? वह भ्रमरके होती है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन प्रमाण है। वह कहांपर होती है ? वह शंखके होती है। एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात योजन प्रमाण है। वह कहां होती है ? वह एक हजार योजन आयाम और एक योजन विस्तार ताप्रती ' ओगाहणाओ' इति पाठः । २ अप्रतो' असंखेज्जदिभागमेतीयो' इति पाठः । ३ बि-ति-चपपुण्णजहण्णं अणुंधरी कुंथु-काणमच्छीसु । सिच्छयमच्छे विंदंगुलसंखं संखगुणिदकमा ॥ गो. जी. ९६. छ. ११-१०. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] छक्वंडागमे वेयणाखडं [ १, २, ५, ९९. जोमणविक्खंभपउमग्मि । पंचेंदियउक्कस्सोगाहणा संखेज्जाणि जोयणसहस्साणि । सा कत्थ ? पंचजोयणसदुस्सेह-तदद्धविक्खंभ-जोयणसहस्सायाममच्छम्मि' । एदेसिमपज्जत्ताणं तप्पडिभागो होदि ।) वाले पद्मके होती है। पंचेन्द्रियकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यात हजार योजन है। वह कहां होती है ? वह पांच सौ योजन प्रमाण उत्सेध, इससे आधे विस्तार और एक हजार योजन आयामसे युक्त मत्स्यके होती है। इनके अपर्याप्तोंकी अवगाहनायें उक्त प्रमाणके प्रतिभाग मात्र होती हैं। ............... , साहियसहस्समेकं वारं कोसूणमेकमेक्क च। जोयणसहस्सदीई पम्मे वियले महामन्छे ॥ गो. जी. ९५. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............. वेयणकालविहाणे वेयणकालविहाणे त्ति । तत्थ इमाणि तिणि अणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति ॥ १॥ ___एत्थ कालो सत्तविहो- णामकालो ट्ठवणकालो दव्वकालो सामाचारकालो अद्धाकालो पमाणकालो भावकालो चेदि । तत्थ णामकालो णाम कालसद्दो । ठवणकालो सो एसो त्ति बुद्धीए एगत्तं काऊण ठविददव्वं । दव्वकालो दुविहो- आगमदव्वकालो णोआगमदव्वकालो चेदि । कालपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमदव्वकालो । तत्थ णोआगमदव्वकालो तिविहो- जाणुगसरीरणोआगमदव्वकालो भवियणोआगमदव्वकालो जाणुगसरीरभवियतव्वदिरित्तणोआगमदव्वकालो चेदि । जाणुगसरीर-भवियणोआगमदव्वकाला सुगमा। तव्वदिरित्तणोआगमदव्वकालो दुविहो-- पहाणो अप्पहाणो चेदि । तत्थ पहाणदव्वकालो णाम लोगागासपदेसपमाणो सेसपंचदव्वपरिणमणहेदुभूदो रयणरासि व्व पदेसपचयविरहियो अमुत्तो अणाइणिहणो । उत्तं च ( कालो परिणामभयो परिणामे। दव्वकालसंभूदो । दोणं एस सहाओ कालो खणभंगुरो णियदो ॥ १॥) वेदनकालविधान अनुयोगद्वार प्रारम्भ होता है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं ॥१॥ यहां काल सात प्रकार है- नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल, सामाचारकाल, अद्धाकाल, प्रमाणकाल और भावकाल । उनमें 'काल' शब्द नामकाल कहा जाता है। वह यह है' इस प्रकार बुद्धिसे भभेद करके स्थापित द्रव्य स्थापनाकाल है। द्रव्यकाल दो प्रकार है-आगमद्रय्यकाल और नोआगमद्रव्यकाल । कालप्राभृतका जानकार उपयोग रहित जीव आगमद्रटयकाल है । नोआगमद्रव्यकाल तीन प्रकार है-शायकशरीर नोआगमद्रव्यकाल, भावी नोमागमद्रव्यकाल और शायकशरीर-भाविव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल । इनमें ज्ञायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्यकाल ये दोनों सुगम हैं । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल दो प्रकार है- प्रधान और अप्रधान । उनमें जो प्रदेशों की अपेक्षा लोकके बराबर है, शेष पांच द्रव्योंके परिवर्तनमें कारण है, रत्नराशिके समान प्रदेशप्रचयसे रहित है, अमूर्त व अनादिनिधन है; वह प्रधान द्रव्यकाल है । कहा भी हैसमयादि रूप व्यवहारकाल चूंकि जीव व पुद्गल के परिणमनसे जाना जाता व पुद्गलका परिणाम चंकि द्रव्यकालके होनेपर होता है, अत एव वह द्रव्यकालसे उत्पन्न कहा जाता है। यह उन दोनों अर्थात् व्यवहार और निश्चय कालका स्वभाव है। इनमें व्यवहारकाल क्षणक्षयी और निश्चयकाल अविनश्वर है ॥ १॥ १ अ-काप्रत्योः 'ठवण', तापतौ ' दुवण ( रयण ) ' इति पाठः । २ पंचा. १०० Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १. (ण य परिणमइ सयं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेसि । विविहपरिणामियाणं हवइ हु हेऊ सयं कालो' ॥ २ ॥ लोगागासपदेसे एक्कक्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयव्वा ॥ ३ ॥ कालो त्ति य क्वएसो सम्भावपरूवओ हवइ णिच्चो।। उप्पण्ण पद्धंसी अवरो दीहंतरहाई ॥ ४ ॥ ति।) अप्पहाणदव्वकालो तिविहो-- सच्चित्तो अच्चित्तो मिस्सओ चेदि । तत्थ सच्चित्तो-- जहा दंसकालो मसयकालो इच्चेवमादि, दंस-मसयाणं चेव उवयारेण कालत्तविहाणादो। अचित्तकालो- जहा धूलिकालो चिक्खल्लकालो उहकालो बरिसाकालो सीदकालो इच्चेवमादि । मिस्सकालो- जहा सदस-सीदकालो इच्चेवमादि । सामाचारकालो दुविहो- लोइओ लोउत्तरीयो चेदि । तत्थ लोउत्तरीओ सामाचारकालो- जहा वैदणकालो णियमकालो सज्झयकालो झाणकालो इच्चेवमादि । लोगियसामाचारकालोजहा कसणकालो लणणकालो ववणकालो इच्चेवमादि । आदावणकालो रुक्खमूलकालो बाहिरसयणकालो इच्चादीणं कालाणं लोगुत्तरीयसामाचारकाले अंतब्भावो कायव्यो, किरिया यह काल न स्वयं परिणमता है और न अन्य पदार्थको अन्य स्वरूपसे परिणमाता है। किन्तु स्वयं अनेक पर्यायों में परिणत होनेवाले पदार्थोके परिणमनमें वह उदासीन निमित्त मात्र होता है ॥ २॥ लोकाकाशके एक एक प्रदेशपर जो रत्नराशिके समान एक एक स्थित हैं उन्हें कालाणु जानना चाहिये ॥ ३॥ 'काल' यह नाम निश्चयकालके अस्तित्वको प्रगट करता है, जो द्रव्य स्वरूपसे नित्य है । दूसरा व्यवहार काल यद्यपि उत्पन्न होकर नष्ट होनेवाला है, तथापि वह [समयसन्तानकी अपेक्षा व्यवहार नयसे आवली व पल्य आदि स्वरूपसे ] दीर्घ काल तक स्थित रहनेवाला है ॥४॥ अप्रधान द्रव्यकाल तीन प्रकार है-सचित्त, अचित्त और मिश्र । उनमें शाकाल, मशककाल इत्यादि सचित्त काल हैं, क्योंकि. इनमें देश के ही उपचारसे कालका विधान किया गया है। धूलिकाल, कर्दमकाल, उष्णकाल, वर्षाकाल एवं शीतकाल इत्यादि सब अचित्तकाल हैं। सदंश शीतकाल इत्यादि मिश्रकाल है। सामाचारकाल दो प्रकार है- लौकिक और लोकोत्तरीय । उनमें वन्दनाकाल, नियमकाल, स्वाध्यायकाल व ध्यानकाल इत्यादि लोकत्तरीय सामाचारकाल हैं। कर्षणकाल, लुननकाल व वपन काल इत्यादि लौकिक सामाचारकाल हैं । आतापनकाल, वृक्षमूलकाल व बाह्यशयनकाल, इत्यादिक कालोका लोकत्तरीय सामाचारकाल मन्तीष करना चाहिये, क्योंकि, क्रियाकाल के प्रति कोई भेद नहीं है अर्थात १ गो. जी. ५६९. २ गो. जी. ५८८. ३ पंचा. १०१. ४ ताप्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु 'संशयकालो' इति पाठः । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, २.] वैयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अणियोगदारणि सो कालत्तं पडि विसेसाभावादो।। अद्धाकाले। तिविहो- अदीदो अणागओ वट्टमाणो चेदि । पमाणकालो पल्लोवमसागरोवम उस्सप्पिणी ओसप्पिणी-कप्पादिभेदेण बहुप्पयारो । भावकालो दुविहो- आगमदो जोआगमदो चेदि । तत्थ कालपाहुडजाणओ उवजुत्तो आगमभावकालो । णोआगमभावकालो ओदइयादिपंचणं भावाणं सगरूवं । एदेसु कालेसु पमाणकालेण पयदं । कालस्स विहाणं कालविहाणं, वेयणाए कालविहाणं वेयणाकालविहाणं । तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगदाराणि भवंति । कुदो ? संखा-गुणयार द्वाण-जीवसमुदाहार-ओज जुम्माणियोगद्दाराणमेत्थेव अंतब्भावदसणादा। ताणि काणि त्ति उत्ते उत्तरसुत्तमागय - पदमीमांसा-सामित्तमप्पाबहुए त्ति ॥२॥ तिसु अणियोगद्दारेसु पदमीमांसा चेव पढमं किमढे उच्चदे ? ण, पदेसु अणवगएसु पदसामित्त-पदप्पाबहुआणं परवणोवायाभावादो । तदणंतरं सामित्तपरूवणं किमट्ठ कीरदे ? ण, पमाणे अणवगए पदप्पाबहुगाणुववत्तीदो। तम्हा एसो चेव अणियोगद्दारक्कमो होदि, णिरवज्जत्तादो। क्रियाकाल की अपेक्षा इनमें कोई विशेषता नहीं है। अद्धाकाल तीन प्रकार है-अतीत, अनागत और वर्तमान । प्रमाणकाल पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी और कल्पादिके भेदसे बहुत प्रकार है। भावकाल दो प्रकार है- आगमभावकाल और नोआगमभावकाल । उनमें कालप्रामृतका जानकार उपयोग युक्त जीव आगमभावकाल है । नोआगमभावकाल औदयिक आदि पांच भावों स्वरूप है। इन कालों में प्रमाणकाल प्रकृत है । कालका जो विधान है वह काहविधान है, वेदनाका कालविधान वेदनाकालविधान कहा जाता है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार है, क्योंकि संख्या, गुणकार, स्थान, जीवसमुदाहार, ओज और युग्म, इन अनुयोगद्वारोंका उक्त तीनों अनुयोगद्वारों में अन्तर्भाव देखा जाता है। वे तीन अनुयोगद्वार कौनसे हैं, ऐसा पूछने पर उत्तर सूत्र प्राप्त होता है पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये वे तीन अनुयोगद्वार हैं ॥२॥ शंका-इन तीन अनुयोगद्वारोंमें पहिले पदमीमांसाका ही निर्देश किसलिये किया है ? ___ समाधान नहीं, क्योंकि, पदोंके अज्ञात होनेपर पदस्वामित्व और पदअल्पबहुत्वकी प्ररूपणाका कोई उपाय नहीं है। शंका-पदमीमांसाके पश्चात् स्वामित्वप्ररूपणा किसलिये की जाती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रमाणका ज्ञान न होने पर पदोंका अल्पबहुत्व बन नहीं सकता । इस कारण यही अनुयोगद्वारक्रम ठीक है, क्योंकि, उसमें कोई दोष नहीं है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८) छक्खंडागमे वेयणाखंड (१, २, ६, ३. पदमीमांसाए णाणावरणीयवेयणा कालदो किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा ? ॥३॥ एत्थ णाणावरणग्गहण सेसकम्मपडिसेहफलं । कालणिदेसो दव्व-खेत्त-भावपडिसेहफलो । एदं पुच्छासुत्तं जेण देसामासियं तेण अण्णाओ णव पुच्छाओ सूचेदि । णाणावरणीयवेयणा किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमडुवा किमोजा किं जुम्मा किमोमा किं विसिट्ठा किं णोम-णोविसिट्ठा त्ति । पुणो एदेणेव सुत्तेण अण्णाओ तेरस पदविसयपुच्छाओ सूचिदाओ । काओ त्ति पुच्छिदे उच्चदेउक्कस्सणाणावरणीयवेयणा किमणुक्करसा किं जहण्णा किमजहण्णा किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमडुवा किमोजा किं जुग्मा किमोमा किं विसिट्ठा किं णोम-णोविसिट्ठा त्ति उक्कस्सपदम्मि बारस पुच्छाओ । एवं सेसपदाणं पि पादेक्कं बारस पुच्छाओ वत्तव्वाओ। एत्थ सव्वपुच्छासमासो एगूणसत्तरिसदमेत्तो | १६९ । । तम्हा एदं देसामासियसुत्तं तेरससुत्तप्पयं । एदेर्सि सुत्ताणं परूवणा उत्तरदेसामासियसुत्तेण कीरदे उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा जहण्णा वा अजहण्णा वा ॥४॥ पदमीमांसा अधिकारमें ज्ञानावरणीय कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है और क्या अजघन्य है ? ॥३॥ सूत्रमें ज्ञानावरण पदका ग्रहण शेष कर्मोंका प्रतिषेध करने के लिये किया है। कालका निर्देश द्रव्य, क्षेत्र व भावका प्रतिषेध करनेवाला है । यह पृच्छासूत्र चूंकि देशामर्शक है, अतः वह सूत्रोक्त चार पृच्छाओंके अतिरिक्त नौ दूसरी पृच्छाओंको भी सूचित करता है । ज्ञानावरणीयवेदना क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, क्या अजघन्य है, क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अध्रुव है, क्या ओज है, क्या युग्म है, क्या ओम है, क्या विशिष्ट है, और क्या नोम-नोविशिष्ट है? इसके अतिरिक्त इसी सूत्रके द्वारा दूसरी तेरह पदविषयक पृच्छायें सूचित की गई हैं। वे कौनसी हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं-उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, क्या अजघन्य है, क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है, क्या अधव है, क्या मोज है, क्या युग्म है, क्या ओम है, क्या विशिष्ट है, और क्या नोमनोविशिष्ट है। ये बारह पृच्छायें उत्कृष्ट पदके विषयमें हैं। इसी प्रकार शेष पदोंमेंसे भी प्रत्येक पदके विषयमें बारह पृच्छाओंको कहना चाहिये। यहां सब पृच्छाओंका योग एक सौ उनत्तर (१६९) मात्र है। इस कारण यह देशामर्शक सूत्र तेरह सूत्रों स्वरूप है । इन सूत्रोंकी प्ररूपणा अगले देशामर्शक सूत्रके द्वारा की जाती है। उक्त ज्ञानावरणीयवेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट भी है, अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी है और अजघन्य भी है ॥ ४ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, १.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे पदमीमांसा [७९ एदं पि देसामासियसुतं । तेणेत्थ सेसणवपदाणि वत्तवाणि। देसामासियत्तादो चैव सेसतेरस सुत्ताणमेत्थ अंतब्भावो वत्तव्वा । एत्थ ताव पढमसुत्तपरूवणा कीरदे । तं जहाणाणावरणीयवेयणा कालदो सिया उक्कस्सा सिया अणुक्कस्सा सिया जहण्णा सिया अजहण्णा । सिया सादिया, पज्जवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे णाणावरणीयसव्वहिदीण सादित्तुवलंभादो । सिया अणादिया, दवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे अणादित्तदंसणादो । सिया धुवा, दवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे णाणावरणीयकालवेयणाए विणासाणुवलंभादो। सिया अदुवा, पज्जवट्ठियणयप्पणाए अद्धृवत्तदंसणादो । सिया ओजा, कत्थ वि कालविसेसे कलि-तेजोजसंखाविसेसाणमुवलंभादो । सिया जुम्मा, कत्थ वि कालविसेसे कद-बादरजुम्माणं संखाविससाणमुवलंभादो । सिया ओमा, कत्थ वि कालविसेसे परिहाणिदसणादो। सिया विसिट्ठा, कत्थ वि वड्डिदसणादो । सिया जोमणोविसिट्ठा, कत्थ वि बंधवसेण कालस्स अवट्ठाणदंसणादो J१३ । संपहि बिदियसुत्तस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा- उक्कस्सणाणावरणीयवेयणा नहण्णा अणुक्कस्सा च ण होदि, पउिवक्खत्तादो। सिया अजहण्णा, जहण्णादो उवरिमासेस यह भी देशामर्शक सूत्र है । इसलिये यहां शेष नौ पदोंको और कहना चाहिये। देशामर्शक होनेसे ही शेष तेरह सूत्रोंका इसमें अन्तर्भाध बतलाना चाहिये। उनमें यहां पहिले प्रथम सूत्रकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- ज्ञानावरणीयघेदना कालकी अपेक्षा कथंचित् उत्कृष्ट, कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य और कथंचित् अजघन्य है । वह कथंचित् सादि भी है, क्योंकि, पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर झोनावरणीयकी सभी स्थितियां सादि पायी जाती हैं। कथंचित् वह अनादि भी है, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करमेपर शानावरणीयकी वेदनामें अनादिता देखी जाती है। कथंचित् वह ध्रुव है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर ज्ञानावरणीयकी कालवेदनाका विनाश नहीं पाया जाता है । कथंचित् वह अध्रुव है, क्योंकि, पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर उसकी अस्थिरता देखी जाती है । कथंचित् वह ओज है, क्योंकि, किसी कालविशेषमें कलिओज और तेजोज संख्याविशेष पाये जाते हैं । कथंचित् वह युग्म है, क्योंकि, किसी कालविशेषमें कृतयुग्म और बादरयुग्म संख्याविशेष पाये जाते है । कथंचित् वह ओम है, क्योंकि, किसी कालविशेष में हानि देखी जाती है। कथंचित यह विशिष्ट है. क्योंकि. किसी कालविशेष में वृद्धि देखी जाती है। कथंचित वह नोमनोविशिष्ठ है, क्योंकि, कहींपर बन्धके वशसे कालका अवस्थान देखा जाता है । [इस प्रकार ज्ञानावरणीयकालवेदना तेरह (१३) पद स्वरूप है । अब द्वितीय सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयबेदना जघन्य और अनुत्कृष्ट नहीं होती, क्योंकि, ये उससे विरुद्ध हैं। कथंचित् वह अजघन्य है, क्योंकि, जघन्यसे ऊपरके समस्त कालविकल्पोंमें अवस्थित अजघन्य Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ४. कालवियप्पावहिदे अजहण्णे उक्कस्सस्स वि संभवादो । सिया सादिया, अणुक्कस्सकालादो उक्कस्सकालुप्पत्तीए । धुवपदं णत्थि, उक्कस्सहिदीए सव्वकालमवट्ठाणाभावादो। दन्वट्टियणए अवलंबिदे' वि ण धुवपदमस्थि, चदुसु वि गदीसु कयाई उक्कस्सपदस्स संभवादो। सिया अदुवा, उक्कस्सपदस्स सव्वकालमवट्ठाणाभावादो। सिया कदजुम्मा, उक्करसकालम्मि बादरजुम्म-कलि-तेजोजसंखाविसेसाणमभावादो। सिया णोम-णोमविसिट्ठा, वड्डिदे हाइदे च उक्कस्सत्तविरोहादो । एवमुक्कस्सणाणावरणीयवेयणा पंचपदप्पिया |५|| अणुक्करसणाणावरणीयवेयणा सिया जहण्णा, उक्करसं मोत्तूण हेट्ठिमसेसवियप्पे अणुक्कस्से जहण्णस्स वि संभवादो । सिया अजहण्णा, अणुक्कस्सस्स अजहण्णाविणाभावित्तादो । सिया सादिया, उक्कस्सादो अणुक्कस्सुप्पत्तीए अणुक्कस्सादो वि अणुक्कस्सविसेसुप्पत्तिदसणादो च । सिया अणादिया, दव्यट्टियणए अवलंबिदे अणुक्कस्सपदस्स बंधाभावादो । सिया धुवा, दव्वट्टियणए अवलंबिदे अणुक्कस्सपदस्स विणासाभावादो। सिया अधुवा, पज्जवट्ठियणए अवलंबिदे अणुषकस्सपदस्स धुवत्ताभावादो। सिया ओजा, कत्थ वि अणुक्कस्सपदविसेसे दुविहविसमसंखुवलंभादो । सिया जुम्मा, अणुक्कस्स .......................................... पद में उस्कृष्ट पद भी सम्भव है । कश्चंचित् वह सादि है, क्योंकि, अमुत्कृष्ट कालसे उत्कृष्ट काल उत्पन्न होता है । ध्रुव पद नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट स्थितिका सब कालमें अवस्थान नहीं रहता। द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करने पर भी ध्रुव पद सम्भव नहीं है, क्योंकि, चारों ही गतियोमें उत्कृष्ट पद कदाचित् ही सम्भव होता है । कथं. चित् वह अध्रुव है, क्योंकि, उत्कृष्ट पदका सब कालमै अवस्थान नहीं रहता । कथंचित् वह कृतयुग्म है, क्योंकि, उत्कृष्ट कालमें बादयुग्म, कलिओज और तेजोज संख्याविशेषोंका अभाव है। कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, वृद्धि व हानिके होनेपर उत्कृष्टपनेका विरोध है । इस प्रकार उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना पांच (५) पद रूप है। अनुत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् नघन्य है, क्योंकि, उत्कृष्टको छोड़कर अधस्तन समस्त विकल्पों रूप अनुत्कृष्ट पदमें जघन्य पद भी सम्भव है । कथंचित् वह अजघन्य है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट पद अजघन्य पदका अविनाभावी है। कथंचित् वह सादि है, क्योंकि, उत्कृष्ट पदसे अनुत्कृष्ट पद उत्पन्न होता तथा अनुत्कृष्टसे भी अनुत्कृष्टविशेषकी उत्पत्ति देखी जाती है। कथंचित् यह अनादि है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर अनुत्कृष्ट पदका बन्ध नहीं होता । कथंचित् वह ध्रुव है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर अनुत्कृष्ट पदका विनाश नहीं होता । कथंचित् वह अध्रुव है, क्योंकि, पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर अनुत्कृष्ट पद ध्रुव नहीं है। कथंचित् वह ओज है, क्योंकि, किसी अनुत्कृष्ट पदविशेषमें दोनों प्रकारकी विषम संख्यायें देखी जाती हैं। कथांचित् वह युग्म है, क्योंकि, किसी अनुत्कृष्ट पदविशेषमें दोनों प्रकारकी १ प्रतिषु ' अवलंबिज्जदे' इति पाठः। २ प्रतिषु ' अशुक्कस्स ' इति पाठः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ४. ] वयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे पदमीमांसा पदविसेसे दुविहसमसंखदंसणा दो । सिया ओमा, कत्थ वि हाणीदो समुप्पण्णअणुक्कस्सपदुवलंभादो । सिया विसिट्ठा, कत्थ वि वड्डीदो अणुक्कस्मपदुप्पत्तीए । सिया णोम - गोविसिट्ठा, अणुक्क सजहणम्मि अणुक्कस्सपदविसेसे वा अप्पिदे वड्डि-हाणीणमभावादो | एवं णाणावरणाणुक्कसवेणा एक्कारसपदप्पिया | ११ || एवं तदियसुत्तपरूवणा कदा | संपहि चउत्थसुत्तपरूवणा कीरदे । तं जहा - जहणणाणावरणीयवेयणा सिया अणुक्कस्सा, अणुक्कस्सजहण्णस्स ओघजहण्णेण एगत्तदंसणादो । सिया सादिया, अजहण्णादो जहण्णपदुप्पत्तीए । सिया अणादिया त्ति णत्थि, सुहुमसांपराइयचरिमसमयबंधम्मिं चरिमसमयखीणकसाय संतम्मिय दव्वट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे वि अणादित्ताणुवभादो | सिया अद्भुवा । सिया कलिओजा, खीणकसायचरिमसमयडिदिग्गहणादो | सिया णोम- गोविसिड्डा । एवं जहण्णकालवेयणा पंचपयारा सरूवेण छप्पयारा वा १५ || एवं च उत्थसुत्तपरूवणा कदा | [ ८१ संपहि पंचम सुत्तपरूवणा कीरदे । तं जहा -- अजहण्णा णाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा, अजहण्णुक्कस्तस्य ओघुक्कस्साद पुधत्ताणुवलंभादो । सिया अणुक्कस्सा, तद सम संख्यायें देखी जाती हैं । कथंचित् वह ओम है, क्योंकि, कहींपर हानिसे उत्पन्न हुआ अनुत्कृष्ट पद पाया जाता है । कथंचित् वह विशिष्ट है, क्योंकि, कहीं पर वृद्धिसे अनुत्कृष्ट पद उत्पन्न होता है । कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट है, क्योंकि, अनुत्कृष्टभूत जघन्य पदकी अथवा अन्य अनुत्कृष्ट पदविशेषकी विवक्षा करनेपर वृद्धि और हानिका अभाव रहता है । इस प्रकार ज्ञानावरणकी अनुत्कृष्टवेदना ग्यारह (११) पद स्वरूप है । इस प्रकार तीसरे सूत्रकी प्ररूपणा की गई है । अब चतुर्थ सूत्रकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- जघन्य ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् अनुत्कृष्ट है, क्योंकि, अनुत्कृष्ट जघन्यकी ओघजघन्यसे एकता देखी जाती है । कथंचित् वह सादि है, क्योंकि, अजघन्यसे जघन्य पद उत्पन्न होता है । कथंचित् अनादि यह पद नहीं है, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक के अन्तिम समय सम्बन्धी बन्ध और क्षीणकषायके अन्तिम समय सम्बन्धी सत्त्वमें द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर भी अनादिपना नहीं पाया जाता । कथंचित् वह अध्रुव है । कथंचित् वह कलिओज है, क्योंकि, क्षीणकषायके अन्तिम समय सम्बन्धी स्थितिका ग्रहण किया गया है । कथंचित् वह नोम-नोविशिष्ट है। इस प्रकार जघन्य कालवेदना पांच ( ५ ) प्रकार भथवा अपने साथ छह प्रकार भी है । इस प्रकार चतुर्थ सूत्रकी प्ररूपणा की गई है । अब पांचवें सूत्रकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- अजघन्य ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, क्योंकि, अजघन्य उत्कृष्ट ओघ उत्कृष्ट से पृथक् नहीं पाया जाता है । कथंचित् वह अनुत्कृष्ट है, क्योंकि, वह उसका १ अ-काप्रत्योः ' चरिमसमय समयबंधम्मि ' इति पाठः । छ. ११-११. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १. विणाभावित्तादो । सिया सादिया, पदंतरपल्लट्टणेण विणा अजहण्णपदविससाणमवठ्ठाणाभावादो। सिया अणादिया, दवदियणए अवलंदिदे बंधाभावादो। सिया धुवा, व्वट्ठियणए अवलंबिंद अजहण्यापदस्स विणासाभावादो। सिया अधुवा, पज्जवट्ठियणए अवलंबिदे धुवत्ताभावादो । सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा । सुगमं । सिया गोम-गोविसिट्टा, गिरुद्धपदविसेसनादा। एवमजहण्णा एक्कारसभंगा 1२३। एसो पंचमसुत्तत्थो। सादियणाणावरणीयवेयणा रिया उक्करसा, सिया अणुक्करसा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया अधुवा । धुवा ण हदि, सादियरस उणादिय-धुवत्तविरोहादो। सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्टा, सिया णोमणोविसिट्ठा । एवं सादियवेदणाए दसभंगा ! १० । एसो छट्ठसुत्तत्थो । अणादियणाणावरणीयवेयणा रिमा उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया । कधमणादियवेयणाए सादियत्तं ? ण, यणासामण्णावेक्खाए अणादियम्मि उक्कस्लादिपदविक्खाए सादियत्त पडि विरोहाभावादो । सिया धुवा, अविनाभावी है। कथंचित् वह सादि है, क्योंकि, दूसरे पदोंके पलटनेके विना अजघन्य पदविशेष रहते नहीं है । कीचत् वह अनादि है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर इस पद का बन्ध नहीं होता। कथंचित् वह ध्रुव है, क्योंकि, द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर अजघन्य पदका विनाश नहीं होता । कथंचित् वह अध्रुव है, क्योंकि, पर्य:यार्थिकः नयका अवलम्बन करनेपर उसके ध्रुवपना नहीं पाया जाता । कथंचित् वह ओज है. कथंचित् युग्म है, कथंचित् ओम है, और कथंचित् वह विशिष्ट है । यह सब सुगम है । कथंचित् वह नोम नोविशिष्ट है, क्योंकि, पदविशेषकी विवक्षा है । इस प्रकार अजघन्य वेदनाके ग्यारह (११) भंग होते हैं । यह पांचवे सूत्रका अर्थ है । सादि ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उत्कृष्ट है, कथंचित् अनुत्कृष्ट है, कथंचित् जघन्य है, कथंचित् अजघन्य है, और कनित् अध्रुव है। वह ध्रुव नहीं है, क्योंकि, सादि पदका अनादि और ध्रुव पदके साथ विरोध है। वह कथंचित् ओज है, कथंचित् युग्म है, कथंचित् ओम है, कथंचित् विशिष्ट है, और कथंचित् नोम-नोविशिष्ट है। इस प्रकार सादिवेदनाके दस (१०) भंग होते हैं । यह छठे सूत्रका अर्थ है। अनादि ज्ञानावरणीयवेदना कथंधित उत्कृष्ट, कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य, कथंचित् अजघन्य और कथंचित् सादि है। शंका-अनादि वेदना सादि कैसे हो सकती है ? समाधान नहीं, क्योंकि, वेदनासामान्यकी अपेक्षा उसके अनादि होने पर भी उत्कृष्ट आदि पदोंकी अपेक्षा उसके मादि होने में कोई विरोध नहीं है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, ४.j वेयणमहाहियारे वैयणकालविहाणे पदमीमांसा [८३ वेयणासामण्णस्स विणासाभावादो । सिया अदुवा, पदविसेसस्स विणासदंसणादो । अणादियत्तम्मि सामण्णविवक्खाए समुप्पणमम्मि कथं पदविसेससंभवो ? , संगतोखित्तअसेसविसेसम्मि सामण्णम्मि अप्पिदे तदविरोहादो । सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोमणोविसिट्ठा । एवमणादिय पदरस बारस भंगा | १२। एसो सत्तमसुत्तत्थो। धुवणाणावरणीवत्रणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्करसा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अगादिया, सिया अधुवा, सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्टा, सिय। गोम-णोविसिट्ठा । एवं धुवपदस्स बारस भंगा | १२ । एसा अट्ठमसुत्तत्था। अधुवणाणावरणीयवयणा सिया उपकस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया ओजा, सिया जुम्मा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोम- णोविसिट्ठा । एवमधुवपदरस दस मंगा! ५०|| एसो णवमसुत्तत्था । ओजणाणावरणीयवयणा उक्कस्सा ण होदि, उक्कस्सहिदीए कदजुम्मे अवठ्ठाणादो। सिया अणुक्करसा, सिया जहणा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया। सिया अणादिया, सामण्णविवक्खादो । सिया धुवा, सिया अक्षुता, विसेसविवक्खाए । सिया ओमा, सिया कथंचित् वह ध्रुव है, क्योंकि, वेदनासामान्यका कभी विनाश नहीं होता। कथंचित् वह अध्रुव है, क्योंकि, पदविशेषका विनाश देखा जाता है। शंका- सामान्य विवक्षासे अनादिताके स्वीकार करने पर उसमें पदविशेषकी सम्भवना कैसे हो सकती है ? . समाधान-- नहीं, क्योंकि, अपने भीतर समस्त विशेषों को रखने वाले सामान्यकी विवक्षा करनेपर उसमें कोई विरोध नहीं है। वह कथंचित् ओज, कथंचित् गुग्म, कथंचित् ओम, कथंचित् विशिष्ट और कथंचित् नोम-नोविशिए है । इस प्रकार अनादि पद के बारह (१२) भंग होते हैं। यह सातवें सूत्रका अर्थ है। ध्रुव ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् उत्कृष्ट, कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य, कथंचित् अजघन्य, व.थंचित् सादि, कथंचित् अनादि, कथंचित् अध्रुव, कथंचित् ओज, कथंचित् गुग्म, कथंचित् ओम, कथंचित् विशिष्ट और कथंचित् नोम-नोविशिष्ट है । इस प्रकार ध्रुव पदके बारह भंग होते हैं । यह आठवें सूत्रका अर्थ है। ____ अध्रुव ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् उलष्ट, कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य, कथंचित् अजघन्य, कथंचित् सादि, कथावत् ओज, कथंचित् युग्म, करं चत् ओम, कथंचित् विशिष्ट और कथंचित् नोम-नोविशिष्ट है। इस प्रकार अध्रुव पदके दस (१०) भंग होते हैं । यह नौ सूत्रका अर्थ है। ओज ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्प नही होती है, क्योंकि, उत्कृष्ट स्थितिका अवस्थान कृतयुग्म में है। वह कथंचित् नुत्कृष्ट, कथंचित् जघन्य, कथंचित् अजघन्य, व कथंचित् सादि है। सामान्यकी विवक्षासे वह कथंचित् अनादि है। वह कथंचित् ध्रुव है । वह कथंचित् अध्रुव है, क्योंकि, विशेषकी विवक्षा है। वह कथंचित ओम, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] छक्खंडागमे वेणाखंड [ ४, २, ६, ४. विसिट्ठा, सिया णोम-गोविसिद्धा । एवमोजपदस्स दस भंगा | १० || एसो दसम सुत्तत्थो । जुम्मणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सा, सिया अणुक्कस्सा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अणादिया, सिया धुवा, सिया अद्धुवा, सिया ओमा, सिया विसिट्ठा, सिया णोम-णोविसिट्ठा | एवं जुम्मपदस्स दस भंगा | १० | | एसो एक्कारसमसुत्तत्थो । ओमणाणावरणीयवेयणा सिया अणुक्कस्सा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अणादिया, सिया धुवा, सिया अद्धुवा, सिया ओजा, सिया जुम्मा । एवमोमपदस्स अट्ठ भंगा | ८ || एसो बारसमसुत्तत्थो । विसिट्ठणाणावरणीयवेयणा सिया अणुक्कस्सा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अणादिया, सिया धुवा, सिया अधुवा, सिया ओजा, सिया जुम्मा | एवं विसिट्ठपदस्स अट्ठभंगा | ८ || एसो तेरसमसुत्तत्थो । णोम-णोविसिट्ठणाणावरणीयवेयणा सिया उक्कस्सिया, सिया अणुक्कस्सिया, सिया जहण्णा, सिया अजहण्णा, सिया सादिया, सिया अणादिया, सिया धुवा, सिया अद्धुवा, सिया ओजा, सिया जुम्मा | एवं दस भंगा | १० || एसो चोद्दसमसुत्तत्थो । एदेसिं भंगाणमंकविण्णासो एसो - | १३/५/११ | ५ | ११ | १० | १२ | १२| १० | १० | १० |८|८|१०|| कथंचित् विशिष्ट और कथंचित् नोम-नोविशिष्ट है । इस प्रकार ओज पदके दस (१०) भंग होते हैं । यह दसवें सूत्रका अर्थ है । युग्म ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् उत्कृष्ट, कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् अजघन्य, कथंचित् सादि, कथंचित् अनादि, कथंचित् ध्रुव, कथंचित् अध्रुव, कथंचित् ओम, कथंचित् विशिष्ट और कथंचित् नोम-नोविशिष्ट है । इस प्रकार युग्म पदके दस (१०) भंग होते हैं । यह ग्यारहवें सूत्रका अर्थ है । ओम ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् अनुत्कृष्ट, कथंचित् अजघन्य, कथंचित् सादि, कथंचित् अनादि, कथंचित् ध्रुव, कथंचित् अध्रुव, कथंचित् ओज और कथंचित् युग्म है। इस प्रकार ओम पदके आठ (८) भंग होते हैं । यह बारहवें सूत्रका अर्थ है | विशिष्ट ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् अनुत्कृष्ट कथंचित् अजघन्य, कथंचित् सादि, कथंचित् अनादि, कथंचित् ध्रुव, कथंचित् अध्रुव, कथंचित् ओज और कथंचित् युग्म है। इस प्रकार विशिष्ट पदके आठ (८) भंग होते हैं । यह तेरहवें सूत्रका अर्थ है । नोम-नोविशिष्ट ज्ञानावरणीय वेदना कथंचित् उत्कृण, कथंचित् अनुकृष्ट, कथंचित् जघन्य, कथंचित् अजघम्य, कथंचित् सादि, कथंचित् अनादि, कथंचित् ध्रुव, कथंचित् अध्रुव, कथंचित् ओज और कथंचित् युग्म है । इस प्रकार उसके दस (१० ) भंग होते हैं । यह चौदहवें सूत्रका अर्थ है । इन अंगों का विन्यास यह है- १३+५+ ११ + ५ + ११ + १० + १२ + १२ + १०+१०+१०+८+८+ १० = १३५ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ६.1 वेयणमहाहियारे वैयणकालविहाणे पदमीमांसा एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥५॥ जहा णाणावरणीयस्स पदभीमांसा कदा तहा सत्तण्णं कम्माण कायव्वा, विसेसा. भावादो । एवमंतोकयओजाणियोगद्दाग पदमीमांसा ति समत्तमणियोगद्दारं । सामित्तं दुविहं जहण्णपदे उक्कस्सपदे ॥ ६ ॥ तत्थ जहष्णं चउव्विहं- गाम कृवणा-दव्व-भावजहणं चेदि । णामजहण्णं हवणाजहण्णं च सुगमं । दवजहणं दुविहं --- आगमदव्वजहणं णोआगमदवजहण्णं चेदि । तत्थ जण्णपाहुडजाणओ अणुव जुतो आगमदव्वजहण्णं । आगमदव्वजहष्णं तिविहं जाणुगसरीर-भविय तवदिरित्तगोआगमदवजहण्णभेएण । जाणुगसरीरं भविय गदं। तब्बदिरित्तणोआगमदबजहण्णं दुविहं-- ओवजहण्णमादेसजहण्णं चेदि । तत्थ ओघजहण्णं चउविहं -- दवदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि । तत्थ दव्व जहण्णमेगो परमाणू । खेत्तजहण्णमेगो आगासपदेसो । कालजहणमेगो समओ । भावजण्णं परमाणुम्हि एगो णिद्धत्तगुणो । आदेसजहणं पिदव्व खेत काल-भावेहि चरविहं । तत्थ दव्वदो आदेस. जहणं उच्चदे । तं जहा- तिपदेसिगक्खधं दट्टण दुपदेसियक्खंधो आदेसदो दव्य. इसी प्रकार शेष सातों कोंके उत्कृष्ट सादि पदोंकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥५॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणकी पदमीमांसा की गई है उसी प्रकार शेष सात की पदमीमांसा करना चाहिये, क्योकि, उसमें कोई विशेपता नहीं है। इस प्रकार ओमानुयोगद्वारगर्भित पदमीमांसा नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। स्वामित्व दो प्रकार है-जघन्य पद में और उत्कृष्ट पदमें ॥ ६ ॥ उनसे अपन्य पद चार प्रकार है-नामजघन्य, स्थापनाजघन्य, द्रव्यजन्य और भावजघन्य। इनमें नामजघन्य और स्थापनाजघन्य सुगम हैं। द्रव्यजघन्य दो प्रकार है- आगमन्द्र-गाजघन्य और नोआगमद्रव्यजधन्य। उनमें जघन्य प्राभृतका जानकार उपयोग रहित जीव आगमद्रव्यजघन्य है । नोआगमद्रव्यजघन्य तीन प्रकार है- शायवशारीर नोआगमद्रव्यजघन्य, भावी नोआगमद्रव्यजघन्य और तद्व्यतिरिक्त नोआगमगव्य धन्य । इनमें बाराकशरीर और भावी नोआगमद्रव्यजघन्य विदित है। तदव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यजघन्य दो प्रकार है ओजघन्य और आदेशजघन्य । उनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे ओघजघन्य चार प्रकार है । इनमेंसे एक परमाणुको द्रव्यजघन्य कहा जाता है। एक आकाशप्रदेश क्षेत्रजघन्य है । कालजघन्य एक समय है । परमाणुमें रहनेवाला एक स्निग्धत्व गुण भावजघन्य है। आदेशजघन्य भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार प्रकार है। इनमें द्रव्यसे आदेशजघन्य की प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-तीन प्रदेश Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६) छक्खंडागमे वेयणाखंड जहण्णं । एवं सेसेसु वि णेयव्वं । तिपदेसोगाढदव्वं द ठूण दुपदसोगाढदव्वं खेत्तदो आदेसजहणं । एवं सेसेसु वि णेयव्वं । तिसमयपरिणदं दठूण दुसमयपरिणदं दव्वमादेसदो कालजहण्णं । एवं सेसेसु वि णेयव्वं । तिगुणपरिणदं दव्वं दठूग दुगुणपरिण ८व्वं भावदो आदेसजहणं । भावजण्णं दुविहं-- आगमभावजहष्ण गोआरममावजहण्णं चेदि । तत्थ जहण्णपाहुडजाणगो उवजुत्तो आगमभावजहणं । सुहुमणिगादलद्विअपज्जत्तयस्स जं सबजहणं णाणं तं णोआगमभावजहण्णं । एत्थ आघजह्मणकालेण पयदं, सव्वजहण्णट्ठिदीए अहियारादो। उक्कस्सं चउबिहं णाम हवणा-दब-भाव उक्करसभेषण । तत्थ णाम वणुक्क स्साणि सुगमाणि । दव्वुक्कस्सं दुविहमागमदवुक्करसं णोआगमदब्बुक्कसं चेदि। तत्थ उक्करसपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमदखुवकम्स । णोआगमदव्वुक्कस्सं तिविहं जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तणोआगमदब्बुक्कस्सभेएण । जाणुगसरीर-भवियणोआगमदबुक्कस्साणि सुगमाणि । तव्वदिरित्तणोआगमदव्बुक्कस्सं दुविहं -- आघुक्कस्समादेसुक्कस्स चेदि । तत्थ आधुक्कस्सं चउविहं - दव्वदो खत्तदो कालदो भावदो चेदि । तत्थ दव्वदो उक्करं महाखंधो। खेत्तदो उक्कस्समागासं । कालदो उक्कस्सं सव्वकालो । भावदो उक्कस्सं .......................................... वाले स्कन्धकी अपेक्षा दो प्रदेशवाला स्कन्ध आदेशद्रव्यजघन्य है। इसी प्रकार शेष प्रदेशों में भी ले जाना चाहिये। तीन प्रदेशोंमें अवगाहन करनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा दो प्रदेशों में अवगाहन करनेवाला द्रव्य क्षेत्रसे आदेशजघन्य है। इसी प्रकार शेष प्रदेशों में भी ले जाना चाहिये। तीन समयोंमें परिणत द्रव्य की अपेक्षा दो समयों में परिणत द्रव्य आदेशसे कालजघन्य है। इसी प्रकार शेष समयोंमें भी ले जाना चाहिये। तीन गुणोंमें परिणत द्रव्यकी अपेक्षा दो गुणोंमें परिणत द्रव्य भावसे आदेश जघन्य है । भावजघन्य दो प्रकार है- आगमभावजघन्य और नोआ मभावजघन्य । उनमें जघन्य प्राभृतका जानकार उपयोग युक्त जी आगराभव घन्य है । स्मृक्ष्म निगोट लब्ध्यपर्याप्तकका जो सबसे जघन्य ज्ञान है वह नो गम्भावजघन्य है। यहां ओघ जघन्यकाल प्रकृत है, क्योंकि, यहां सर्वजघन्य स्थितिका अधिकार है : नाम, स्थापना, द्रव्य और भाबके भेद से उत्कृष्ट चार प्रकार है। उनमें नापउत्कृष्ट और स्थापनाउत्कृष्ट सुगम हैं। द्रव्य उत्कृष्ट दो प्रकार है-आगभद्रक और नोआगमद्रव्य उत्कृष्ट । उनमें उत्कृष्ट प्राभुतका जानकार उपयोग रहित जत्र आगमद्रय उत्कृष्ट है । नोआगमद्रव्य उत्कृष्ट तीन प्रकार है- ज्ञायकशरीर, भावी तव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यउत्कृष्ट । इनमें ज्ञायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्य उत्कृष्ट सुगम हैं। तदव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य उत्कृष्ट दो प्रकार है-ओघ उत्कृष्ट और आदेशउत्कृष्ट । उनमें ओघउत्कृष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार प्रकार है। उनमें द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट महा स्कन्ध है। क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट आकाश है। कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट सर्व काल है । भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट सर्वोत्कृष्ट वर्ण, गन्ध, रस भौर स्पर्शसे युक्त द्रव्य है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ७. ] यणमहाहियारे वेयणकालविहाणे पदमीमांसा ८७ आगम सव्वुक्करसवण्ण-गंध-रस- फासदव्वं । आदेसुक्करसं चउच्विहं - दव्वदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि । तत्थ दव्वदो एगपरमाणु दट्ठूण दुपदेसिओ खंधो आदेसुक्कस्सं । दुपदेसिय खं दट्ठूण तिपदेसियक्खंधो वि आदेसुक्कस्सं । एवं सेसेसु वि यव्वं । खेत्तद। एयक्खेत्तं दट्ठूण दोखेत्तपसा आदेसदो उवकस्सखेत्तं । एवं सेसेसु वि यव्वं । कालदो एगसमयं दट्ठूण दोसमय आदेसुक्कस्सं । एवं सेसेसु वि यव्वं । भावदो एगगुणजुत्तं दट्ठूण दुगुणजुत्तं दव्वमाद सुक्करसं । एवं सेसेसु वि यव्वं । भावुक्कस्सं दुहि णोआगमभावुक्कस्सएण । तत्थ उक्कस्सपाहुडजागओ उवजुत्तो आगमभावुक्कस्सं । णोआगमभावुक्कस्सं केवलणाणं । एत्थ ओघकालुक्करसण अहियारो । एत्थ कालदो ओघुक्कस्सं सव्वकालो नि भणिदं, तस्सेत्थ गहणं ण कायव्वं; कम्मद्विदीए तदसंभवादो । जहण्णपदे एगं सामित्तं अगमुक्कस्सपदे, एवं सामित्तं दुविदं चैव होदि; अण्णस्सासंभवादा | सामित्ते उकस्सपदे णाणावरणीयवेयणा कालदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥ ७ ॥ उत्तरपदसि जहण्णादपडिसेहफलो | णाणावरणणिद्देसो सेसकम्मपडिसेहफलो । आदेशउत्कृष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार प्रकार है। उनमें एक परमाणु की अपेक्षा दो प्रदेशवाला स्कन्ध द्रव्यकी अपेक्षा आदेशउत्कृष्ट है । दो प्रदेशवाले स्वन्धकी अपेक्षा तीन प्रदेशवाला स्कन्ध भी द्रव्यसे आदेशउत्कृष्ट है । इसी प्रकार शेष प्रदेशोंक विषयमें ले जाना चाहिये। एक प्रदेश रूप क्षेत्रकी अपेक्षा दो क्षेत्र प्रदेश क्षेत्र से आदेशउत्कृष्ट हैं। इसी प्रकार शेष क्षेत्र प्रदेशों में भी ले जाना चाहिये । एक समयकी अपेक्षा दो समय परिणत द्रव्य कालसे आदेशउत्कृष्ट है । इसी प्रकार शेष समय में भी ले जाना चाहिये। एक गुण शुक्त द्रव्यकी अपेक्षा दो गुण युक्त द्रव्य भाव से आदेशउत्कृष्ट है । इसी प्रकार शेष गुणों में भी ले जाना चाहिये । भावत्कृष्ट आगमभावउत्कृष्ट और नोआगमभाव उत्कृष्टके भेदसे दो प्रकार है । उनमें उत्कृष्ट प्राका जानकार उपयोग युक्त जीव आगमभावउत्कृष्ट है । नोआगमभावउत्कृष्ट केवलज्ञान है । यहां मोघउत्कृष्ट कालका अधिकार है। यहां कालकी अपेक्षा ओघउत्कृष्ट सब काल कहा गया है, उसका यहां ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, कर्मस्थिति में उसकी सम्भावना नहीं है । एक स्वामित्व जघन्य पदमें और दूसरा एक उत्कृष्ट पदमें, इस प्रकार स्वामित्व दो प्रकार ही है; क्योंकि, इनके अतिरिक्त और दूसरे स्वामित्वकी सम्भावना नहीं है । स्वामित्व उत्कृष्ट पदमें ज्ञानावरणीयवेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥ ७ ॥ सूत्र उत्कृष्ट पदका निर्देश जघन्य पदके प्रतिषेधके लिये किया गया है । ज्ञानावरण पदका निर्देश शेष कमांके प्रतिषधके लिये है । कालका निर्देश क्षेत्र आदिका Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, ८. कालणिदेसो खेत्तादिपडिसेहफलो । कस्से त्ति किं देवस्स किं णेरइयस्स किं मणुस्सस्स किं तिरिक्खस्से त्ति पुच्छा । अण्णदरस्स पंचिंदियस्स सष्णिस्स मिच्छाइट्टिस्स सव्वाहि पज्जत्ती हि पज्जत्तयदस्स कम्मभूमियस्स अकम्मभूमि यस्स वा कम्मभूमिपडिभागस्स वा संखेज्जवासाउअस्स वा असंखेज्जवासाउअस्स वा देवस्स वा मणुस्सस्स वा तिरिक्खस्स वा रइयस्स वा इत्थवेदस्स वा पुरिमवेदस्स वा णउंसयवेदस्स वा जलचरस्स वा थलचरस्स वा खगचरस्स वा सागार-जागार-सुदोवजोगजुत्तस्स उक्कस्सियाए द्विदीए उक्कस्सट्टिदिसंकिलसे वट्टमाणस्स, अधवा ईसिमज्झिमपरिणामस्स तस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो उक्कस्सा ॥८॥ अण्णदरस्से त्ति णिद्देसो ओगाह्णादीणं पडिसेहाभावपदुपायणफलो | पंचिंदियस्से ति णिसो विगलिंदियपडिसेफलो ? णाणावरणीयस्स उक्कस्सिय द्विदिं पंचिंदिया चेव बंधात, णो विगलिंदिया इदि जं वृत्तं होदि । ते च पंचिंदिया दुविहा सण्गिणो अस प्रतिषेध करनेवाला है । ' किसके होती है' इससे वह क्या देवके होती है, क्या नारकी होती है, क्या मनुष्यके होती है, और क्या तिर्यचके होती है, इस प्रकार पृच्छा की गई है । अन्यतर पंचेन्द्रिय जीवके - जो संज्ञी है, मिथ्यादृष्टि है, सब पर्याप्तियों से पर्याप्त है; कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज अथवा कर्मभूमिप्रतिभागोत्पन्न है; संख्यातवर्षायुष्क अथवा असंख्यातवर्षायुष्क है; देव, मनुष्य, तिर्यंच अथवा नारकी है; स्त्रीवेद, पुरुषवेद अथवा नपुंसकवेदमें से किसी भी वेदसे संयुक्त है; जलचर, थलचर अथवा नभचर है; साकार उपयोगवाला है, जागृत है, श्रुतोपयोग से युक्त है, उत्कृष्ट स्थिति के बन्ध योग्य उत्कृष्ट स्थिति-संक्लेशमें वर्तमान है, अथवा कुछ मध्यम संक्लेश परिणामसे युक्त है, उसके ज्ञानावरणीय कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ ८ ॥ सूत्र में अन्यतर पदका निर्देश अवगाहना आदिकों के प्रतिषेधके अभावको सूचित करता है । पंचेन्द्रिय पदका निर्देश विकलेन्द्रियका प्रतिषेध करता है । इससे यह फलित होता है कि ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिको पंचेन्द्रिय जीव ही बांधते हैं, विकलेन्द्रिय नहीं बांधते । वे पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं - संज्ञी और असंक्षी Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, ८.] वेयणमहाहियारे वैयणकालविहाणे सामित्त [८९ ण्णिणो चेदि । तत्थ असणिणो उक्कस्सियं हिदि ण बंधंति त्ति जाणावणटुं सण्णिस्से त्ति णिद्दिढें । ते च सण्णिपंचिंदिया गुणट्ठाणभेएण चोद्दसविहा । तत्थ सासणादओ उक्कस्सियं हिदि ण बंधति त्ति जाणवण8 मिच्छाइट्ठिरसे त्ति णिद्दिष्टं । ते च मिच्छाइट्ठिणो पज्जत्तयदा अपज्जत्तयदा चेदि दुविहा । तत्थ अपज्जत्तयदा उक्कस्सियं द्विदि ण बंधति त्ति जाणावणहूँ सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदस्से त्ति भणिदं । पंचिंदियपज्जत्तमिच्छाइट्ठिणो कम्मभूमा अकम्मभूमा चेदि दुविहा। तत्थ अकम्मभूमा उक्कस्सहिदि ण बंधंति, पण्णारसकम्मभूमीसु उप्पण्णा चेव उक्कस्सट्टिीद बंधति त्ति जाणावणटुं कम्मभूमियस्स वा त्ति भणिदं । भोगभूमीसु उप्पण्णाणं व देव-णेरइयाणं सयंपहणगेंदपव्वदस्स बाहिरभागप्पहुडि जाव सयंभूरमणसमुद्दो त्ति एत्थ कम्मभूमिपडिभागम्मि उप्पणतिरिक्खाणं च उक्कस्सटिदिबंधपडिसेहे पत्ते तण्णिराकरण8 अकम्मभूमिस्स वा कम्मभूमिपडिभागस्स वा ति भणिदं । अकम्मभूमिस्स वा ति उत्ते देवाणेरइया घेत्तव्या । कम्मभूमिपडिभागस्स वा त्ति उत्ते सयपहणगिंदपव्वदस्स बाहिरे भागे समुप्पण्णाणं गहणं । संखेज्जवासाउअस्स वा त्ति उत्ते अड्डाइज्जदीव-समुदुप्पण्णस्स कम्मभूमिपडिभागुप्पण्णस्स च गहणं । असंखेज्जवासाउअस्स वा ति उत्ते देव-णेरइयाणं गहणं, ण समयाहियपुवकोडिप्पहुडिउवरिमआउअतिरिवख-मणुस्साणं गहणं, पुवसुत्तेण तेसिं विहिदपडिसेहत्तादो । देवउनमें असंही पंचेन्द्रिय उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, इस बातके ज्ञापनार्थ संज्ञी पदका निर्देश किया है। वे संशी पंचेन्द्रिय गुणस्थानोंके भेदसे चौदह प्रकार हैं। उनमें सासादनसम्यग्दृष्टि. आदिक उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, इस बातके ज्ञापनार्थ मिथ्यादृष्टि पदका निर्देश किया है। वे मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे दो प्रकार हैं। उनमें अपर्याप्तक उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, इस बातके शापनार्थ 'सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ' ऐसा कहा है । पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि कर्मभूभिज और अकर्मभूभिज इस तरह दो प्रकारके हैं। उनमें अकर्मभूमिज उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, किन्तु पन्द्रह कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए जीव ही उत्कृष्ट स्थितिको बांधते हैं; इस बातके ज्ञापनार्थ 'कर्मभूमिज' पदका निर्देश किया है। भोगभूमियों में उत्पन्न हुए जीवोंके समान देव-नारकियोंके तथा स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्य भागसे लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र तक इस कर्मभूमिप्रतिभागमें उत्पन्न हुए तिर्यंचोंके भी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धका प्रतिषेध प्राप्त होनेपर उसका निराकरण करनेके लिये 'अकर्मभूमिजके अथवा कर्मभूमिप्रतिभागोत्पन्न जीवके' ऐसा कहा है । अकर्मभूमिज पदसे देव-नारकियोंका ग्रहण करना चाहिये । कर्मभूमिप्रतिभाग पदका निर्देश करनेपर स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्य भागमें उत्पन्न हुए जीवोंका ग्रहण किया गया है। 'संख्यातवर्षायुष्क' कहनेपर अढ़ाई द्वीप-समुद्रोंमें उत्पन्न हुए तथा कर्मभूमिप्रतिभागमें उत्पन्न हुए जीवका ग्रहण करना चाहिये । 'असंख्यातवर्षायुष्क' से देव-नारकियोंका ग्रहण किया गया है । इस पदसे एक समय अधिक पूर्वकोटि आदि उपरिम आयुविकल्पोंसे संयुक्त तिर्यंचों व मनुष्योंका ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, पूर्व सूत्रसे उनका छ. ११-१२. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ८. मेरइएसु संखेज्जवासाउअत्तमिदि भणिदे सच्चं ण ते असंखेज्जवासाउआ, किंतु संखेज्जवासाउआ चेव, समयाहियंपुवकोडिप्पहुडिउवीरमआउअवियप्पाणं असंखेज्जवासाउअत्तन्भुवगमादो। कधं समयाहियपुव्वकोडीए संखेज्जवासाए असंखेज्जवासत्तं ? ण, रायरुक्खो व रूढिवलेण परिचत्तसगट्ठस्स असंखेज्जवस्ससहस्स आउअविसेसम्मि वट्टमाणस्स गहणादो। ___ चउग्गइसण्णिपंचिंदियपज्जत्तमिच्छाइट्ठीणं उक्कस्सद्विदिबंधपडिसेहो णत्थि त्ति जाणावणटुं देवस्स वा मणुस्सस्स वा तिरिक्खस्स वा णेरइयस्स वा त्ति उत्तं । तिसु वि वेदेसु उक्कस्सहिदिबंधपडिसेहो णत्थि त्ति जाणावणमित्थिवेदस्म वा पुरिसवेदस्स वा णउसयवेदस्स वा त्ति भणिदं । चरणविसेसाभावपदुप्पायणटुं जलचरस्स वा थलचरस्स वा खगचरस्स वा त्ति भणिदं । तत्व मच्छ-कच्छवादओ जलचरा, सीहै-वय-वग्घादओ थलचरा, गद्ध-ढेंक-सेणादओ खगचरा । दसणोवजोगजुत्ता उक्कस्सहिदि ण बंधति, णाणोवजोगजुत्ता चेव बंधति त्ति जाणावणटुं सागारणिदेसो कदो। सुत्तो उक्कस्सहिदि ण बंधदि, जग्गंतो प्रतिषेध किया जा चुका है । शंका -देव व नारकी तो संख्यातवर्षायुष्क ही होते हैं, फिर यहां उनका ग्रहण असंख्यातवर्षायुष्क पदसे कैसे सम्भव है ? .. समाधान- इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि सचमुचमें वे असंख्यातवर्षायुष्क नहीं है, किन्तु संख्यातवर्षायुष्क ही हैं; परन्तु यहां एक समय अधिक पूर्वकोटिको आदि लेकर आगेके आयुविकल्पोंको असंख्यातवर्षायुके भीतर स्वीकार किया गया है। शंका - एक समय अधिक पूर्वकोटिके संख्यातवर्षरूपता होते हुए भी असंख्यातवर्षरूपता कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, षयोंकि, राजवृक्ष (वृक्ष विशेष) के समान 'असंख्यातवर्ष' शब्द रूढि वश अपने अर्थको छोड़कर आयुविशेषमें रहनेवाला यहां ग्रहण किया गया है। - चारों गतियोंके संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंके उत्कृष्ट स्थितिके बन्धका प्रतिषेध नहीं है, इस बातके ज्ञापनार्थ देवके, मनुष्यके, तिर्यंचके अथवा नारकीके, ऐसा कहा है। तीनों ही वेदोंमें उत्कृष्ट स्थितिके बन्धका प्रतिषेध नहीं है, इस बातके ज्ञापनार्थ 'स्त्रीवेदीके, पुरुषवेदीके अथवा नपुंसकवेदीके ' ऐसा कहा है। चरण अर्थात् गमनविशेषका अभाव बतलानेके लिये 'जलचरके, थलचरके अथवा नभचरके' ऐसा कहा है। उनमें मत्स्य और कच्छप आदि जीव जलचर; सिंह वक और वाघ आदि थलचर तथा गृद्ध, ढेंक और श्येन आदि नभचर जीव हैं। दर्शनोपयोगसे सहित जीव उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, किन्तु ज्ञानोपयोग युक्त जीव ही उसे बांधते हैं। इस बातके जतलानेके लिये 'साकार' पदका निर्देश किया गया है। सोया हुआ जीव उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधता है, किन्तु जागृत जीव ही १ ताप्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु 'समाहिय' इति पाठः। प्रतिषु '- सदस्स', ताप्रती 'सद (६)स्स' इति पाठः। ३ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्योः 'जलचररा सीह-'; आप्रतौ 'जलचररासि सीह-' इति पाठः। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, ९.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्तं [९१ चेव बंधदि ति जाणावणटुं जागारग्गहणं कदं । सुदोवजोगजुत्तो चेव उक्करसहिदि बंधदि, ण मदिउवजोगजुत्तो त्ति जाणावण8 सुदोवजोगजुत्तस्से त्ति भणिदं । उक्कस्सियाए ट्ठिदीए बंधपाओग्गसंकिलेसट्टाणाणि असंखज्जलोगमेत्ताणि अस्थि । तत्थ चरिमसंकिलेसट्टाणेण उक्कस्सद्विदिं बंधदि त्ति जाणावण8 उक्कस्सहिदीए उक्कस्सद्विदिसंकिलेसे' वट्टमाणस्से त्ति भणिदं । उक्कस्सटिदिबंधपाओग्गसेससंकिलसहाणेहि उक्कस्सद्विदिबंधस्स पडिसेहे पत्ते तेहि वि बंधदि त्ति जाणावणटुं ईसिमज्झिमपरिणामस्से त्ति उत्तं । अधवा, उक्कस्सटिदिबंधपाओग्गअसंखेज्जलोगमेत्तसंकिलेसट्ठाणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तखंडाणि कादूण तत्थ चरिमखंडस्स उक्करसहिदिसंकिलेसो णाम । तत्थ वट्टमाणस्स उक्कस्सटिदिबंधो होदि । सेसदुचरिमादिखंडेहि उक्कस्सटिदिबंधपडिसेहे पत्ते तेहि वि उक्कस्सद्विदिबंधो होदि त्ति जाणावणट्ठमीसिमज्झिमपरिणामस्से त्ति उत्तं । एवंविहेण जीवेण णाणावरणीयस्स तीसंसागरोवमकोडाकोडिद्विदिबंधे पबद्धे तस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो उक्कस्सा । तवदिरित्तमणुक्कस्सा ॥९॥ उसे बांधता है; इस बातके ज्ञापनार्थ ' जागृत ' पदका ग्रहण किया है। श्रुतोपयोग युक्त जीव ही उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है, न कि मतिउपयोग युक्त जीव; इस बातके ज्ञापनार्थ 'श्रुतोपयोग युक्त जीवके ' ऐसा कहा है। उत्कृष्ट स्थिति के बन्ध योग्य संक्लेशस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं। उनमेंसे अन्तिम संक्लेशस्थानके द्वारा उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है, इस बातके शापनार्थ ' उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध योग्य उत्कृष्ट स्थितिसंक्लशमें वर्तमान' ऐसा कहा है । अब इससे उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध योग्य शेष संक्लेशस्थानोंके द्वारा उत्कृष्ट स्थितिके बन्धका निषेध प्राप्त होने पर उनसे भी उक्त स्थितिको बांधता है, इस बातको जतलानेके लिये 'कुछ मध्यम परिणामोंसे युक्त जीवके' ऐसा कहा गया है । अथवा, उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध योग्य असंख्यात लोक प्रमाण संक्लेशस्थानोंके पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र खण्ड करके उनमें अन्तिम खण्डका नाम उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश है । इस अन्तिम खण्डमें रहनेवाले जीवके उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है। अब इससे शेष द्विचरम भादिक खण्डोंके द्वारा उत्कृष्ट स्थितिके बन्धका प्रतिषेध प्राप्त होने पर उनसे भी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है, इस बातके शापनार्थ 'कुछ मध्यम परिणामोंसे युक्त जीवके' ऐसा कहा है । उपर्युक्त विशेषणोंसे विशिष्ट जीवके द्वारा ज्ञानावरणीयके तीस कोड़ाकोहि सागरोपम प्रमाण स्थितिबन्धके बांधनेपर उसके ज्ञानावरणीय की वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है। उससे भिन्न अनुत्कृष्ट वेदना होती है ॥९॥ १ प्रातिषु ' उनकस्सए डिदिसंकिलेसे ' इति पाठः। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ] छक्खंडागमे वैयणाखंड ( ४, २, ६, ९. तदो वदिरित्तं तव्वदिरित्तं, उक्कस्सट्ठिदिबंधवदिरित्ता' अणुक्करसट्ठिदिवेयणा होंदि त्ति उत्तं होदि । सा च अयप्पयारा त्ति तिस्से सामिणो वि अणेयविहा होंति । तेर्सि परूवणं कस्सामा । तं जहा - तिण्णिवाससहरसमाबाधं काढूण तीससागरोवमकोडा कोडिद्विदीए पबद्ध ए उक्करसट्ठिदी होदि । पुणे। अण्णेण जीवेण समऊणती संसागरोवमकोडाकोडी बद्धासु पढममणुक्कस्सद्वाणं होदि । एत्थ उक्कस्सट्ठिदिपमाणं संदिट्ठीए चत्तालीसरूवाहियद्वसदमेत्तं | २४० || अणुक्क सुक्कस्सट्ठिदीए गुणचालीसरूवा हिय दुसदमेत्ता | २३९ | | तदो अण्णेण जीवेण दुसमऊणुक्कसहिदीए पबद्धाए बिदियमणुक्कस्साणं होदि । तस्स पमाणमेदं / २३८ | | एदेण कमेण आबाधाकंद एणूण उक्कस्सट्ठिदीप पबद्धाए अण्णमणुक्कस्सद्वाणं होदि । एत्थ आबाधाकंदयपमाणं तीसरुवाणि | ३० | | एदम्मि उक्कस्सट्ठिदिम्मि सोहिदे तदित्थट्ठिदिबंध द्वाणमेत्तियं होदि | २१० | | संपहि उक्कस्साबाहा समऊणा होदि । कुदो ? आवाहाचरिमसमए पढमणिसेय - णिवादादो । संदिट्ठीए उक्कस्साबाधापमाणमट्ठ ! ८ || पुणो समयाहियआबाधा कंद एणूणउक्कसहिदीए पबद्धाए सो अण्णो अणुक्कस्सद्वाणाबियप्पो होदि | २०९ | | एंद्रेण कमेण दोआबाधा कंद एहि ऊणुक्कस्सट्ठिदीए पबद्धाए सो अण्णा अणुक्कस्सट्ठिदिवियप्पो | १८० || उससे व्यतिरिक्त अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे भिन्न अनुत्कृष्ट स्थितिवेदना होती है, यह सूत्र का अर्थ है । वह चूंकि अनेक प्रकारकी है, अतः उसके स्वामी भी अनेक प्रकारके हैं। उनकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-तीन हजार वर्ष आबाधा करके तीस कोड़ा कोड़ि सागरोपम मात्र स्थितिके बांधनेपर उत्कृष्ट स्थिति होती है । फिर अन्य जीवके द्वारा एक समय कम तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण स्थिति के बांधने पर प्रथम अनुत्कृष्ट स्थान होता है । यहांपर उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण संदृष्टिमें दो सौ चालीस (२४०) अंक है । अनुत्कृष्ट उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण दो सौ उनतालीस (२३९) अंक है। उससे अन्य जीवके द्वारा दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिके बांधनेपर द्वितीय अनुत्कृष्ट स्थान होता है । उसका प्रमाण यह है-- २३८ । इस क्रमसे आबाधाकाण्डकसे हीन उत्कृष्ट स्थितिके बांधनेपर अन्य अनुत्कृष्ट स्थान होता है । यहां आबाधाकाण्डकका प्रमाण तीस अंक (३०) है । इसको उत्कृष्ट स्थितिमेंसे घटा देनेपर वहांका स्थितिबन्धस्थान इतना होता है- २४०- - ३० = ११० ॥ अब उत्कृष्ट आबाधा एक समय कम हो जाती है, क्योंकि, आबाधाके अन्तिम समयमै प्रथम निषेक निर्जीर्ण हो चुका है। संदृष्टिमें उत्कृष्ट आबाधाका प्रमाण आठ ( ८ ) है । पश्चात् एक समय अधिक आबाधाकाण्डकसे हीन उत्कृष्ट स्थितिके बांधनेपर वह अन्य अनुत्कृष्ट स्थानविकल्प होता है - २४० - ( ३० + १) २०९ | इस क्रमसे दो आबाधाकाण्डकोंसे हीन उत्कृष्ट स्थितिके बांधनेपर वह अन्य अनुत्कृष्ट स्थितिविकल्प होता है — २४० - ६० = १८० । इस प्रकार इसी क्रमसे एक समय कम दो = १ प्रतिषु ' बंधवदिरित्तो ' इति पाठः । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, ५, ६, ९.] वेषणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त एवमेदेण कमेण समऊण-बिसमऊणादिकमेण णिरंतरट्ठाणाणि उप्पादेदव्याणि जाव समऊणाबाहकंदयब्भहियधुवहिदि त्ति । तिस्से पमाणं सट्ठी । ६० । एदम्हादो समऊण-बिसमऊणादिकमेण बंधाविय ओदारदव्वं जाव सव्वविसुद्धसण्णिपंचिंदियधुवहिदि ति । पुणो धुवट्टिदिं बंधमाणस्स अण्णो अपुणरुत्तहिदिवियप्पो होदि । एत्थ धुवद्विदिपमाणमेक्कत्तीस | ३१ । संपहि एदिस्से हेढा सण्णिपंचिंदिएसु हिदिबंधट्ठाणाणि लब्भंति । कुदो १ सय. विसुद्धेण सणिपंचिदियपज्जत्तेण बद्धजहण्णहिदीए जहण्णहिदिसंतसमाणाए धुवट्ठिदि त्ति गहणादो । तदो पंचिंदिएसु द्विदिबंधट्ठाणाणि एत्तियाणि चेव लब्भंति । ___संपहि एदिस्से हेट्ठा बंधं मोत्तूण द्विदिसतं घादिय एइंदिसु द्विदिसंतहाणपरूवणं कस्सामो । एत्थ संदिट्टी००० ०००१०००१०००१०००१८००१०००१०००१०००१००० ००० ००१०००१०००१०००१००८१०००१०००१०००१००० ०१०००१०००१०००१०००१०००१८००१८००१००० १०००१०००१०००१०००१०००१०००१०००१००० ०००१०००१०००१०००१०००१०००१०००१००० धुवहिदि त्ति एक्कत्तीस | ३१|, एगढिदिखंडे त्ति संदिट्ठीए चत्तारि | ४|, उक्कीरणकालो चत्तारि ४ । एवं तृविय हिदिट्ठाणुप्पत्तिं भणिस्सामो । तं जहा एगो तसजीवो समऊणुक्कीरणद्धाए अहियधुवहिदिसंतकम्मेण एइंदिएसु पविट्ठो। ००० ००० समय कम इत्यादि क्रमसे एक समय कम आबाधाकाण्डकसे अधिक ध्रुवस्थिति तक निरन्तर स्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये । उसका प्रमाण साठ (३०-१-२९,३.+२९-६०) है। इसमेंसे एक समय कम दो समय कम इत्यादि क्रमसे बन्ध कराकर सर्वविशुद्ध संझी पंचेन्द्रियकी ध्रुवस्थिति तक उतारना चाहिये । पश्चात् ध्रुवस्थितिको बांधनेवाले जीवका अन्य अपुनरुक्त स्थितिविकल्प होता है । यहां ध्रुवस्थितिका प्रमाण इकतीस (३१) है। ____ अब इसके नीचे स्थितिबन्धस्थान संशी पंचेन्द्रियों में पाये जाते हैं, क्योंकि, सर्वविशुद्ध संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके द्वारा बांधी गई जघन्य स्थितिसत्व समान जघन्य स्थितिको ध्रुवस्थिति रूपसे ग्रहण किया गया है। इसलिये पंचेन्द्रियों में स्थितिबन्धस्थान इतने ही पाये जाते हैं। ' अब इसके नीचे बन्धको छोड़कर स्थितिसत्त्वका घात करके एकेन्द्रियों में स्थितिसत्त्वस्थानोंकी प्ररूपणा करते हैं। यहां संदृष्टि (मूल में देखिये)। संरष्टिमें ध्रुवस्थितिका प्रमाण ३१, एक स्थितिकाण्डकका प्रमाण ४, और उत्कीरणकालका प्रमाण ४ है । इस प्रकार स्थापित करके स्थितिस्थानोंकी उत्पत्तिको कहते हैं । यथा एक प्रस जीव एक समय कम उत्कीरणकालसे अधिक ध्रुवस्थितिसत्त्वसे Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ छक्खंडागमे वेयणाखंड पुणो बिदिओ जीवो समऊणुक्कीरणद्धाए अहियसमयाहियधुवट्ठिदीए सह एइंदिएसु उववण्णो। तदो अण्णो तदिओ जीवो समऊणुक्कीरणद्धाए अहियदुसमयाहियधुवहिदीए सह एइंदिएसु उववण्णो । पुणो चउत्थो जीवो समऊणुक्कीरणद्धाए अहियतिसमयाहियधुवहिदीए सह एइंदिएसु उववण्णो। पुणो अण्णो जीवो समऊणुक्कीरणद्धाए चदुसमयाहियधुवहिदीए च एइंदिएसु उववण्णो । एवं समऊणुक्कीरणद्धाए एगेगसमयाहियधुवट्ठिदीए च ताव उप्पादेदव्वं जाव समऊणुक्कीरणद्धाए एगसगलहिदिखंडएण च अब्भहियधुवहिदीए एइंदिएसु पविट्ठो त्ति। एवं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवा एगसमएण एइंदिएसु पवेसिदव्या। पुणो एदेसु रूवाहियद्विदिकंदयमेत्तजीवेसु हिदिघादं करेमाणेसु धुवद्विदीए हेट्ठा द्विदिसतठ्ठाणुप्पत्तीए भण्णमाणाए समऊणुक्कीरणद्धाए अहियधुवद्विदीए सह एइंदिएसु उप्पण्णेण पढमफालीए पादिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । एदं हिदिसंतवाणं पुणरुतं, धुवहिदीए उवार समुप्पत्तीदो। पुणो विदियफालिपदिदसमए चेव उक्कीरणद्धाए बिदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुतं चेव । एवं णेदव्वं जाव द्विदिखंडयचरिमफालिमपादिय उक्कीरणद्धाए चरिमसमयं धेरदूण विदो त्ति । पुणो एदमेवं चेव द्वविय समऊणुएकेन्द्रियों में प्रविष्ट हुआ । फिर दूसरा जीव एक समय कम उत्कीरणकालसे अधिक और एक समयसे अधिक ध्रुवस्थितिके साथ एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। उससे अन्य तीसरा जीव एक समय कम उत्कीरणकालसे अधिक और दो समयोंसे अधिक धवस्थितिके साथ एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। पुनः चतुर्थ जीव एक समय कम उत्कीरणकालसे अधिक और तीन समयोंसे अधिक ध्रवस्थितिके साथ पकेद्रियों में उत्पन्न हुआ। पुनः अन्य जीव एक समय कम उत्कीरणकाल और चार समय अधिक ध्रुवस्थितिके साथ एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ । इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकाल और एक एक समय अधिक ध्रुवस्थितिके साथ एक समय कम उत्कीरणकाल और एक सम्पूर्ण स्थितिकाण्डकसे अधिक ध्रुवस्थितिके साथ एकेन्द्रियों में प्रविष्ट होने तक उत्पन्न कराना चाहिये । इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र जीवोंको एक समयसे एकेन्द्रियोंमें प्रविष्ट कराना चाहिये। पुनः एक अधिक स्थितिकाण्डक मात्र इन जीवोंके द्वारा स्थितिघात करते रहनेपर ध्रुवस्थितिके नीचे स्थितिसत्त्वस्थानोंकी उत्पत्तिका कथन करते समय एक समय कम उत्कीरणकालसे अधिक ध्रवस्थितिके साथ एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुए जीवके द्वारा प्रथम फालिके पतित कराये जाने पर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है। यह स्थितिसत्त्वस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि, उसकी ध्रुवस्थितिके ऊपर उत्पत्ति है । पुनः द्वितीय फालिके पतित होनेके समयमें ही उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है। यह भी स्थान पुनरुक्त ही है । इस प्रकार स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिको पतित न कराकर उत्कीरणकालके अन्तिम समयको लेकर स्थित जीव तक ले जाना चाहिये। प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः। २ प्रतिषु ' एवमेवं ' इति पाठः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, ९ ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त [ ९५ क्कीरणद्धाए सगलेगट्ठिदिखंडएण च अहियधुवहिदीए एइदिएसु उप्पण्णजीवेण पढमफालीए पादिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । एदं हिदिसंतठ्ठाणं पुणरुत्तं होदि, धुवट्टिदीदो अहियत्तादो । बिदियफालिपदिदसमए चेव उक्कीरणद्धाए बिदियसमओ गलदि । एवं पि ट्ठाणं पुणरुत्तं चेव । तदियफालिपदिदसमए उक्कीरणद्धाए तदियसमओ गलदि । विदिसंतहाणं पुणरुतं होदि । एवं णेदव्वं जाव अंतीमुहुत्तमेतद्विदिउक्कीरणसमयाणं दुचरिमसमओ त्ति । पुणो द्विदिउक्कीरणकालचरिमसमए गलिदे पढमहिदिखंडयस्स चरिमफाली पददि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि, धुवहिदि पेक्खिदूण समऊणट्ठाणादो। पुणो समऊणुक्कीरणद्धाए समऊणहिदिखंडएण च अहियधुवहिदीए सह एइंदिएसु उप्पण्णजीवेण पढमफालीए पादिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । एदं द्वाणं पुणरुत्तं होदि । विदियफालीए सह उवकीरणद्धाए बिदियसमए गलिदे वि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । तदियफालीए सह उक्कीरणद्धाए तदियसमए गलिदे वि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं णेदव्वं जाव समऊणुक्कीरणद्धामेत्तफालीओ पदिदाओ त्ति । पुणो द्विदिकंडयचरिमफालीए पदिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाण होदि । कुदो ? द्विदिकंदयचरिमफालीए पदिदाए सेसहिदिसंत समऊणधुव फिर इसको इसी प्रकार ही स्थापित करके एक समय कम उत्कीरणकाल और सम्पूर्ण एक स्थितिकाडकसे अधिक ध्रुवस्थितिके साथ एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुए जीवके द्वारा प्रथम फालिको पतित कराने पर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है। यह स्थितिसत्त्वस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि, वह ध्रुवस्थितिसे अधिक है। द्वितीय फालिके पतित होने के समयमें ही उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है। यह भी स्थान पुनरुक्त ही है । तृतीय फालि के पतित होनेके समयमें उत्कीरणकालका तृतीय समय गलता है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिके उत्कीरणकाल के समयों में द्विचरम समय तक ले जाना चाहिये । पश्चात् स्थिति उत्कीरणकालके अन्तिम समयके गलनेपर प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालि पतित हो चुकती है। यह अपुनरुक्त स्थान है, क्योंकि, ध्रुवस्थितिकी अपेक्षा यह स्थान एक समय कम है। पुनः एक समय कम उत्कीरणकाल से और एक समय कम स्थितिकाण्डकसे अधिक ध्रुवस्थितिके साथ उत्पन्न हुए जीवके द्वारा प्रथम फालि के पतित करानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है। यह स्थान पनरुक्त है। द्वितीय फालिके साथ उत्कीरणकाल के द्वितीय समयके गलनेपर भी पुनरुक्त स्थान होता है। तृतीय फालिके साथ उत्कीरणकालके तृतीय समयके गलनेपर भी पुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकाल मात्र फालियोंके पतित होने तक ले जाना चाहिये। तत्पश्चात् स्थितिकाण्डक.की अन्तिम फालिके पतित होनेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है । यह अपुनरुक्त स्थान है, क्योंकि, स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतित होनेपर शेष स्थितिसत्त्व एक समय कम ध्रुवस्थिति प्रमाण होकर फिर Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५० . छक्खंडागमे वेयणाखंडं [१, २, ६, ९. द्विदिमेत्तं होदूण पुणो उक्कीरणद्धाए चरिमसमए गलिदे उवगयदुसमऊणधुवटिदित्तादो । पुणो तदियजीवेण समऊणुक्कीरणद्धाए दुरूऊणट्ठिदिकंदएण च अब्भहियधुवट्ठिीदसंतकम्मिएण पढमट्ठिदिकंदयस्स पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । एसो अणुक्कस्सद्विदिवियप्पो पुणरत्तो होदि । पुणो तणेव बिदियफालीए अवणिदाए हिदिखंडयउक्कीरणद्धाए बिदियसमओ गलदि । [ एदं ] द्विदिवाणं पुणरुतं होदि । तेणेव जीवेण पुणो तस्सेव द्विदिखंडयस्स तदियफालीए अवणिदाए उवकीरणद्धाए तदियसमओ गलदि । एवमेदेण कमेण समऊणुक्कीरणद्धामेत्तसमएसु गलिदेसु त्तेत्तियमेत्ताओ चेव फालीओ पदंति पुणरुत्तट्ठाणाणि च उप्पज्जति । पुणो एदेणेव जीवेण पढमट्ठिदिखंडयस्स चरिमुक्कीरणसमएण सह चरिमफालीए अवणिदाए अपुणरुत्तट्ठाणं हेदि। कुदो ? सेसहिदिसंतकम्मस्स त्तिरूवूणधुवहिदिपमाणत्तदंसणादो। पुणो चउत्थजीवेण समऊणुक्कीरणद्धाए तिरूऊणट्ठिदिखंडएण अहियधुवद्विदिसंतकम्मिएण पढमट्ठिदिखंडयस्स पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि, पुणरुत्तद्विदिट्ठाणमुप्पज्जदि । पुणो तेणेव तरस बिदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए तदियसमओ गलदि । एदं पि हाणं पुणरुत्तमेव । एवं समऊणुक्कीरणद्धामेत्तपुणरुत्त --....................................... उत्कीरणकालके अन्तिम समय के गल जानेपर दो समय कम ध्रुवस्थिति पायी जाती है। पुनः एक समय कम उत्कीरणकाल और दो रूप कम स्थितिकाण्डकसे अधिक ध्रुवस्थितिसत्त्व संयुक्त तृतीय जीवके द्वारा प्रथम स्थितिकाण्डक सम्बन्धी प्रथम फालिके अलग करनेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है । यह अनुत्कृष्ट स्थितिविकल्प पुनरुक्त है । पश्चात् उसी जीवके द्वारा द्वितीय फालिके अलग करनेपर स्थितिकाण्डकउत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है। यह स्थितिस्थान पुनरुक्त है । उक्त जीवके द्वारा फिरसे उसी स्थितिकाण्डककी तीसरी फालिके अलग किये जाने पर उत्कीरणकालका तीसरा समय गलता है। इस प्रकार इस क्रमसे एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण समयोंके गल जाने पर उतनी ही फालियां पतित होती हैं और पुनरुक्त स्थान उत्पन्न होते हैं। पश्चात् इसी जीवके द्वारा प्रथम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयके साथ अन्तिम फालि के अलग किये जाने पर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि, शेष स्थितिसत्त्व तीन रूपोंसे हीन धुवस्थिति प्रमाण देखा जाता है। पुनः चतुर्थ जीवके द्वारा एक समय कम उत्कीरणकाल से और तीन समय कम स्थितिकाण्डकसे अधिक ध्रुवस्थितिसत्त्वर्मिक होकर प्रथम स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है और पुनरुक्त स्थितिस्थान उत्पन्न होता है । पश्चात् उसी जीवके द्वारा उक्त स्थितिकाण्डककी द्वितीय फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका तृतीय समय गलता है। यह भी स्थान पुनरुक्त ही है । इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण पुनरुक्त Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ९. ] वेण महाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्तं [ ९७ उप्पण्णे पुणो पढमट्ठिदिकंदयरस चरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । ताचे अपुणरुत्तट्ठाणमुप्पज्जदि । कुदो ? घादिदसेसट्ठिदिसंतकम्मस्स चदुरूवूणधुव ट्ठिदिपमाणत्तुवलंभादो । एवमेदेण कमेण ट्ठिदिखंडयमेत्त अपुर्णरुत्तट्ठाणाणि उप्पादिय पुणो उक्कीरणदाए चरिमसमएण सह चरिमफालिं घेरेदूण द्विदजीवेण चरिमफालीए अव - निदाए अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कुदो ? घादिदसेसट्ठिदिसंतकम्मस्स रूवाहियडिदिखंडएणूणधुवट्टिदिपमाणत्तदंसणादो | एवं कदे रूवाहियाइदिखंडयमेत्ताणि चैव अपुणरुत्तट्ठाणाणि लद्धाणि हवंति । घादिदसेस सव्वजहण्णट्ठिदिसंतकम्मं पेक्खिदूण पढमट्ठिदिखंडयं घादिय विदसे सुक्क सद्विदिसंतकम्मं द्विदिकंदयमेत्तेण अहियं होदि । पुणो एवं ट्ठिदिसंतकम्मझणाणं बिदियट्ठिदिकंदयमस्सिदूण अपुणरुत्तट्ठाणुपत्ति वत्तइस्सामा । तं जहा - एगेगसमउत्तरकमेण द्विदितं धरेदूण द्विदरूवाहियकंदयमेत्तजीवेसु सव्वजहण्णडिदिसंतकम्मिएण बिदियट्ठिदिखंडयस्स पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । ताधे अपुणरुत्तट्ठाणं उप्पज्जदि, पुव्विल्लट्ठिदिसंतकम्मादो एदस्स द्विदिसंतकम्मस्स समऊत्तदंसणा दो । पुणो एदेणेव बिदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्वार बिदियसमओ गलदि । एदं पि अपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं समऊणुक्कीरणद्धामेत्तफालीओ पादिय सम स्थानोंके उत्पन्न होनेपर पुनः प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है । तब अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि, उस समय घातनेसे शेष रहा स्थितिसन्तकर्म चार रूपोंसे कम ध्रुवस्थिति प्रमाण पाया जाता है । इस प्रकार इस क्रमसे स्थितिकाण्डक प्रमाण अपुनरुक्त स्थानोंको उत्पन्न कराके पश्चात् उत्कीरणकालके अन्तिम समयके साथ अन्तिम फालिको लेकर स्थित जीवके द्वारा अन्तिम फालिके अलग किये जानेपर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि, घातनेसे शेष रहा स्थितिसन्तकर्म एक अधिक स्थितिकाण्डक से हीन ध्रुवस्थिति प्रमाण देखा जाता है । ऐसा करनेपर एक अधिक स्थितिकाण्डकके बराबर ही अपुनरुक्त स्थान प्राप्त होते हैं । घातनेसे शेष रहे समस्त जघन्य स्थितिसत्कर्मकी अपेक्षा प्रथम स्थितिकाण्डकका घात करके स्थापित किया हुआ शेष उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म स्थितिकाण्डक मात्र से अधिक होता है । अब इस प्रकार से स्थितिसत्कर्मस्थानोंके द्वितीय स्थितिकाण्डकका आश्रय करके अ पुनरुक्त स्थानों की उत्पत्तिको कहते हैं। यथा- एक एक समयकी अधिकता के क्रमसे स्थितिसत्वको लेकर स्थित एक अधिक स्थितिकाण्डक मात्र जीवों में से सर्वजघन्यस्थिति सत्कर्मिक जीवके द्वारा द्वितीय स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है । उस समय अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि, पूर्वके स्थितिसत्कर्मकी अपेक्षा यह स्थितिसत्कर्म एक समय कम देखा जाता है । फिर इसी जीवके द्वारा द्वितीय फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है । यह भी अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकाल १ ताप्रतावतः प्राक् ' एवं समऊणुक्कीरणद्ध मित्तट्ठाणं होदि ' इत्यधिकः पाठः । छ. ११-१३ Jain Education: International Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ६, ९. ऊणुक्कीरणद्धामेत्ताणि चेव अपुणरुत्तट्ठाणाणि उप्पादेदव्वाणि । पुणो उक्कीरणद्धाए चरिमसमएण बिदियट्टिदिखंडयचरिमफालि धेरेदूण हिदं जीवमेवं चेव ढविय पुणो एदेसु जीवेसु सव्वुक्कस्सहिदिसंतकम्मिएण बिदियट्टिदिखंडयस्स पढमफालीए अवणिदाए पढमसमओ गलदि । एदं ठाणं पुणरुत्तं होदि । बिदिय फालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए बिदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तमेव । एवं समऊणुक्कीरणद्धामेत्तफालीओ जाव पदंति ताव पुणरुत्ताणि चव ट्ठाणाणि उप्पज्जति । पुणो एदेणेव बिदियट्ठिदिखंडयस्स चरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए. चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कुदो १ पुव्वं ठविदूणागदहिदिसंतकम्मं पेक्खिदूण एदस्स ट्ठिदिसंतकम्मस्स समऊणत्तदसणादो । पुणो एदम्हादो बिदियजीवेण बिदियट्ठिदिखंडयस्स पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । एदं पुणरुत्तट्ठाणं होदि । बिदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए बिदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तमेव । एवं समऊणुक्कीरणद्धामेत्तफालीसु पदमाणियासु पुणरुत्ताणि चेव द्वाणाणि उप्पति । पुणो एदेणेव बिदियहिदिखंडयस्स चरिमफालीए पादिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एवं प्रमाण फालियोंको अलग करके एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण ही अपुनरुक्त स्थानोंकों उत्पन्न कराना चाहिये । पश्चात् उत्कीरणकालके अन्तिम समयमें द्वितीय स्थितिकाण्ड ककी अन्तिम फालिको लेकर स्थित जीवको इसी प्रकार स्थापित करके फिर इन जीवों में से सर्वोत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मिक जीवके द्वारा द्वितीय स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके अलग किये जाने पर प्रथम समय गलता है। यह स्थान पुनरुक्त है। द्वितीय फालिके अलग किये जाने पर उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है। यह भी स्थान पुनरुषत ही है। इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण फालियां जब तक अलग होती हैं तब तक पुनरुक्त ही स्थान उत्पन्न होते हैं। फिर इसी जीवके द्वारा द्वितीय स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है । यह अपुनरुक्त स्थान है, क्योंकि, पहिले स्थापित करके आये हुए स्थितिसत्कर्मकी अपेक्षा यह स्थितिसत्कर्म एक समय कम देखा जाता है। तत्पश्चात् इस जीवकी अपेक्षा द्वितीय जीवके द्वारा द्वितीय स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है। यह पुनरुक्त स्थान होता है। द्वितीय फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है। यह भी स्थान पुनरुक्त ही है। इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण फालियोंके अलग होने तक पुनरुक्त ही स्थान उत्पन्न होते हैं । पश्चात् इसी जीवके द्वारा द्वितीय स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके अलग किये जाने पर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है। इस प्रकार अन्तिम समयके १ प्रतिषु पढमाणियासु' इति पाठः। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, ९. ] वैयणमहाहियारे वेयण कालविद्दाणे सामित [ ९९ [ चरिमसमए ] गलिदे एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि, चरिमफालीए पादिदाए पुग्विल्लजीवट्ठिदिसंतेण सेसट्ठिदिसंतं समाणं' होदूण पुणो उक्कीरणद्धाए चरिमसमए गलिदे तत्तो समऊणं होदिति । एदमत्थपदं उवरि सव्वत्थ वत्तव्वं । पुणो तत्तो तदियजीवेण बिदियट्ठिदिखंडयस्स पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । गलिदे पुणरुतट्ठाणं होदि । बिदियफालीए अवणिदाए उक्की - रणद्धा बिदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो तदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए तदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं समऊणुक्की - द्धमित्तफालीओ जाव पदंति ताव पुणरुत्तट्टाणाणि चैव उप्पज्जेति । पुणो एदेणेव चरमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कुदो ? चरिमफालीए पदिदाए पुव्विल्लडिदिसंतकम्मेण सरिसत्तं पत्तस्स सेसट्ठिदिसंतकम्मस्से उक्कीरणद्धाए चरिमसमयगलणेण समऊणत्तंदसणादो | पुणो तत्तो चउत्थजीवेण बिदियट्ठिदिकंदयस्स पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । बिदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए [ बिदियसमओ गलदि । पुणो तदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए ] तदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । गलने पर यह अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि, अन्तिम फालिके अलग होनेपर पूर्वोक्त जीवके स्थितिसरवसे शेष स्थितिसत्त्व समान हो करके पश्चात् उत्कीरणकालके अन्तिम समयके गलनेपर उससे एक समय कम हो जाता है । यह अर्थपद आगे सब जगह कहना चाहिये । तत्पश्चात् उससे तीसरे जीवके द्वारा द्वितीय स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है । उसके गलनेपर पुनरुक्त स्थान होता है । द्वितीय फालिके नष्ट होनेपर उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है । यह भी पुनरुक्क स्थान है । फिर तृतीय फालिके नष्ट होनेपर उत्कीरणकालका तृतीय समय गलता है । यह भी पुनरुक्त स्थान है। इस प्रकार जब तक एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण फालियां पतित होती हैं तब तक पुनरुक्त स्थान ही उत्पन्न होते हैं । पश्चात् इसी जीवके द्वारा अन्तिम फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है । यह अपुनरुक्त स्थान है, क्योंकि, अन्तिम फालिके पतित होने पर पहिले जीवके स्थितिसत्कर्मसे समानताको प्राप्त हुआ शेष स्थितिसत्कर्म उत्कीरणकालके अन्तिम समयके गलनेसे एक समय कम देखा जाता है । पुनः उसले चतुर्थ जीवके द्वारा द्वितीय स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है । द्वितीय फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका [ द्वितीय समय गलता है । पश्चात् तृतीय फालिके विघटित १ प्रतिषु 'सेसट्ठिीदसंतसमाणं ' इति पाठः । २ प्रति 'सरिसर्च पि तस्सेसद्विदि संत कम्मस्स ताप्रतौ 'सरिसर्च पञ्चसविदिसंतकम्मस्स ' इति पाठः । ● Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.1 . छक्खंडागमे वैयणाखंड [१, २, ६, . एवं समऊणुक्कीरणद्धामेत्तफालीओ जाव पदंति ताव पुणरुत्ताणि चेव द्वाणाणि उप्पज्जति । पुणो चरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तहाणं होदि । कुदो ? चरिमफालीए अवणिदाए पुव्विल्लट्ठिदिसंतकम्मेण सरिसत्तमुवगयस्स सेसहिदिसंतकम्मस्स उक्कीरणद्धाचरिमसमयगलणेण समऊणत्तदंसणादो । एवमेदेण कमेण हिदिकंदयमेत्ताणि समऊणुक्कीरणद्धाए अहियाणि अपुणरुत्तहिदिसत हाणाणि उप्पाइय पुणो पच्छा पुचिल्लट्ठविदजीवादो अपुणरुत्तट्ठाणुप्पत्ती वत्तव्वा । तं जहा - तेण पुव्वणिरुद्धजीवेण चरिमफालीए अवणिदाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कुदो ? चरिमफालीए पदिदाए पुन्विल्लडिदिसंतकम्मेण सरिसत्तमुवगयस्स हिदिसंतकम्मस्स अधद्विदिगलणेण समऊणत्तदसणादो । एवं बिदियपरिवाडी गदा । संपहि तदियपरिवाडिं वत्तइस्सामा । तं जहा- एदेसु स्वाहियद्विदिकंदयमेत्तजीवेसु सवजहण्णहिदिसंतकम्मिएण तदियट्टिदिकंदयस्स पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि, अधढिदिगलणेण पुव्विल्लट्ठिदिं पडुच्च समऊणत्तदसणादो । चरिमफालिं मोत्तूण सेसफालीहिंतो णापुणरुत्तट्ठाणं' उप्पज्जदि, किये जाने पर उत्कीरणकालका ] तृतीय समय गलता है। यह भी पुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण फालियां जब तक पतित हो हैं तब तक पुनरुक्त स्थान ही उत्पन्न होते हैं । पश्चात् अन्तिम फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है। यह अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि, अन्तिम फालिके विघटित होनेपर पूर्व स्थितिसत्कर्मसे समानताको प्राप्त हुआ शेष स्थितिसत्कर्म उत्कीरणकाल सम्बन्धी अन्तिम समयके गलनेसे एक समय कम देखा जाता है। इस प्रकार इस क्रमसे स्थितिकाण्डक प्रमाण व एक समय कम उत्कीरणकालसे अधिक अपुनरुक्त स्थितिसत्त्वस्थानोंको उत्पन्न कराकर फिर पश्चात् पहिले स्थापित जीवकी अपेक्षा अपुनरुक्त स्थानोंकी उत्पत्ति कही जाती है। यथाउक्त विवक्षित पूर्व जीवके द्वारा अन्तिम फालिके विघटित किये जाने पर अन्तिम समय गलता है। यह अपुनरुक्त स्थान है, क्योंकि, अन्तिम फालिके विघटित होनेपर पहिलेके स्थितिसत्कर्मसे समानताको प्राप्त हुआ स्थितिसत्कर्म अधःस्थितिके गलनेसे एक समय देखा जाता है । इस प्रकार द्वितीय परिपाटी समाप्त हुई। अब ततीय परिपाटीको कहते हैं। यथा-इन एक अधिक स्थितिकाण्डक प्रमाण जीवोंमेंसे सर्वजघन्यस्थितिसत्कर्मिक जीवके द्वारा तृतीय स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है। यह भपुनरुक्त स्थान है, क्योंकि, अधःस्थितिक गलनेसे पूर्वोक्त स्थितिकी अपेक्षा यह स्थिति एक समय कम देखी जाती है । अन्तिम फालिको छोड़ शेष फालियोंसे अपुनरुक्त १ कापतौ सेसफालीहितो एगं पुणस्तद्वाणं', तापतौ ' सेसफालीहितो ण पुणरतवाणं ' इति पाठः । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ९. ] वैयणमहाहियारे वैयणकाल विहाणे सामित ( १०१ तत्थ द्विदीणमायामस्स घादाभावादो । पुणो तेणेव बिदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धा बिदियसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । तदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धा तदियसमओ गलदि । एदं अपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं समऊणुक्कीरणद्धामेत्ताणि चैव द्वाणाणि अपुणरुताणि उप्पादेदव्वाणि । पुणो उक्कीरणद्धा चरिमसमएण ट्ठिदिकंदयचरिमफालिं तधा चैव दृविय पुणो देसु अप्पिदजीवसु सव्वुक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मियजीवेण तदियट्ठिदिकंदयपढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । एदं पुणरुतट्ठाणं होदि । बिदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए बिदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तट्ठाणं । तदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए तदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं समऊणुक्कीरणद्धामेत्ताणि पुणरुत्तट्ठाणाणि गच्छति । पुणो तदियट्ठिदिखंडयस्स चरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कुदो ? चरमफालीए अवणिदाए सेसट्ठिदिसंतकम्मस्स पुव्विल्लडिदिसतकम्मेण सरिसत्तं पत्तस्स अघट्ठिदिगलणेणे समऊण त्तदंसणादो । पुणो म्हादो बिदियजीवेण तदियडिदिखंडयस्स पढमफालीए अवणिदाए उक्की - स्थान नहीं उत्पन्न होता, क्योंकि, उनमें स्थितियोंके आयामका घात सम्भव नहीं है । पश्चात् उसी जीवके द्वारा द्वितीय फालिके अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है यह अपुनरुक्त स्थान है । तृतीय फालिके अलग होनपर उत्कीरणकालका तृतीय समय गलता है । यह अपुनरुक्त स्थान है । इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण ही अपुनरुक्त स्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये । अब उत्कीरणकालके अन्तिम समयमें स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिको उसी प्रकार स्थापित करके फिर इन विवक्षित जीवों में से सर्वोत्कृष्टस्थितिसत्कर्मिक जीवके द्वारा तृतीय स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है । यह पुनरुक्त स्थान है । द्वितीय फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है । यह भी पुनरुक्त स्थान है । तृतीय फालिके विघटित होनेपर उत्कीरणकालका तृतीय समय गलता है । यह भी पुनरुक्त स्थान है । इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकालके बराबर पुनरुक्त स्थान जाते हैं। पश्चात् तृतीय स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके विघटित होने पर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है । यह अपुनरुक्त स्थान है, क्योंकि, अन्तिम फालिके विघटित होनेपर शेष स्थितिसत्कर्म पूर्वके स्थितिसत्कर्मसे समानताको प्राप्त स्थितिसत्कर्म अधःस्थितिके गलने से एक समय कम देखा जाता है । तत्पश्चात् इससे दूसरे जीवके द्वारा तृतीय स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके ९ प्रतिषु ' अवट्टिदिगलणेण ' इति पाठः । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२१ छक्खागमे यणाखंड ४, २, ६, ९. रणद्धोए [ पढमसमओ गलदि । एदं पुणरुत्तट्ठाणं होदि । बिदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धा ] बिदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । तदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए तदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं समऊणुक्कीरणद्धामेत्तेसु पुणरुत्तट्ठाणेसु । पुणो एदेणेव तदियट्ठिदिखंडयस्स चरिमफालीए अवनिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो तदियजीवेण तदियट्ठिदिखंडयस्स पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । एदं पुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो बिदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धा बिदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । एदेणेव तदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए तदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तं होदि । एवं समऊणुक्कीरणद्धामत्सु पुणरुत्तट्ठाणेसु गदेसु तदो तदियकंदयचरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कारणं सुगमं । पुणो च उत्थजीवेण तदियट्ठिदिखंडयस्स पढमफालीए [ अवणिदाए ] पढमसमओ गलदि । एदं पुणरुत्तट्ठाणं होदि । बिदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए बिदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । तदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए तदियसमओ गलदि । एदं अलग किये जानेपर उत्कीरणकालका [ प्रथम समय गलता है । यह पुनरुक्त स्थान है । द्वितीय फालिके विघटित होनेपर उत्कीरणकालका ] द्वितीय समय गलता है । यह भी पुनरुक्त स्थान है । तृतीय फालिके अलग होनेपर उत्कीरणकालका तृतीय समय 'गलता है । यह भी पुनरुक स्थान है । यही क्रम एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण पुनरुक्त स्थानोंमें चालू रहता है । पश्चात् इसी जीवके द्वारा तृतीय स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है । यह अपुनरुक्त स्थान हैं । पुनः तृतीय जीवके द्वारा तृतीय स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है । यह पुनरुक्त स्थान है । पश्चात् द्वितीय फालिके विघटित होनेपर उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है । यह भी पुनरुक्त स्थान है। इसी जीवके द्वारा तृतीय फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका तृतीय समय गलता है । यह भी पुनरुक्त स्थान है । इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण पुनरुक स्थानोंके वीतने पर फिर तृतीय स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके विघटित होनेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है । यह अपुनरुक्त स्थान है । इसका कारण सुगम है । प्रथम तत्पश्चात् चतुर्थ जीवके द्वारा तृतीय स्थितिकाण्डककी फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है । यह पुनरुक्त स्थान है । द्वितीय फालिके विघटित होनेपर उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है। यह भी पुनरुक स्थान है। तृतीय फालिके Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, ९.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्तं [१०३ पि' पुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं ताव पुणरुत्तट्ठाणाणि उप्पज्जंति जाव समऊणुक्कीरणद्धामेत्तफालीओ पदिदाओ त्ति । पुणो चरिमफालीए [अवणिदाए] उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कारणं सुगम । एवं जाणिदूण रूवूणुक्कीरणद्धाए अहियहिदिखंडमेत्तट्ठाणाणि [णेदव्वाणि] । पुणो अंतिमजीवेण पुवं ठविणागदचरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणत्तट्ठाणं होदि । एवं तदियपरिवाडी पलविदा । एवं धुवट्ठिदीदो समुप्पज्जमाणपलिदोवमस्स असंखेज्जादभागमेत्तद्विदिखंडयाणि अस्सिदूण पिरंतरहाणपरूवणा कादव्वा । संपहि संपुण्णुक्कीरणद्धाए एगठिदिखंडएण च अहियएइंदियट्ठिदिबंधमेत्तहिदिसंतकम्मिएण पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए एगो समओ गलदि । एदमपुणरुत्त. ट्ठाणं होदि । विदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए बिदियसमओ गलदि । एदं पि अपुणरुत्तट्ठाणं होदि । तदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए तदियसमओ गलदि । एदं पि अपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं रूवणुक्कीरणद्धामेत्तेसु अपुणरुत्तट्ठाणेसु समुप्पण्णेसु । एदमेवं चेव दृषिय पुणो एदेसु णिरुद्धजीवेसु सव्वुक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मिएण अप्पिदविदिखंडयस्स पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । एदं पुणरुत्तविघटित होनेपर उत्कीरणकालका तृतीय समय गलता है । यह भी पुनरुक्त स्थान है। इस प्रकार तब तक पुनरुक्त स्थान उत्पन्न होते हैं जब तक एक समयः कम उत्कीरणकाल प्रमाण फालियां विघटित नहीं हो जाती। पश्चात् अन्तिम फालिके [विघटित होनेपर ] उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है । यह अपुनरुक्त स्थान है। इसका कारण सुगम है। इस प्रकार जानकर एक कम उत्कीरणकालसे अधिक स्थितिकाण्डक प्रमाण स्थानों [ले जाना चाहिये। तत्पश्चात अन्तिम जीवके द्वारा पूर्वमें स्थापित करके आयी हुई अन्तिम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है । यह अपुनरुक्त स्थान है। इस प्रकार तृतीय परिपाटीकी प्ररूपणा की है। इस प्रकार ध्रुवस्थितिसे उत्पन्न होनेवाले पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिकाण्डकोंका आश्रय करके निरन्तर स्थानोंकी प्ररूपणा करना चाहिये। __अब सम्पूर्ण उत्कीरणकालसे और एक स्थितिकाण्डकसे अधिक एकेन्द्रिय स्थितिबन्धके बराबर स्थितिसत्कर्म युक्त जीवके द्वारा प्रथम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका एक समय गलता है। यह अपुनरुक्त स्थान है। द्वितीय फालिके विघटित किये जाने पर उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है। यह भी अपुनरुक्त स्थान है। तृतीय फालिके विघटित होनेपर उत्कीरणकालंका तुतीय समय गलता है । यह भी अपुनरुक्त स्थान है। यही क्रम एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण अपुनरुक्त स्थानोंके उत्पन्न होने तक चालू रहता है। अब इसे यों ही स्थापित करके पश्चात् इन विवक्षित जीवोंमसे सर्वोत्कृष्टस्थितिसत्कर्मिक जीवके द्वारा विवक्षित स्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय १ प्रतिषु 'हि' इति पाठः । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४) छक्खंडागमे वेयणाखंड [ १, २, ६, ९. ट्ठाणं होदि । एदेणेव बिदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए बिदियसमओ गलदि । एदं पि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । तदियफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए तदियसमओ गलदि। एदं पि पुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं समऊणुक्कीरणद्धामेत्तेसु पुणरुत्तट्ठाणेसु गदेसु । पुणो अप्पिदहिदिखंडयस्स चरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि, चरिमफालीए गदाए पुव्विल्लअपुणरुत्तहिदिसतेण समाणत्तमुवगयस्स विदिसंतस्स अघट्ठिदिगलणेण तत्तो समऊणत्तदंसणादो। पुणो बिदियजीवेण पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । विदियफालीए अवणिदाए तिस्से विदियसमओ गलदि । तदियफालीए अवणिदाए तदियसमओ गलदि । एवं समऊणुक्कीरणद्धामेत्तेसु पुणरुत्तट्ठाणेसु गदेसु चरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कारणं पुत्वं व वत्तव्य । पुणो तदियजीवेणं पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि । बिदियफालीए अवणिदाए तिस्से विदियसमओ गलदि । तदियफालीए अवणिदाए तिस्से तदियसमओ गलदि । एवं दुसमयूणउक्कीरणद्धामेत्तेसु पुणरुत्तट्ठाणेसु गदेसु पुणो एदेणेव गलता है । यह पुनरुक्त स्थान है। इसी जीवके द्वारा द्वितीय फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका द्वितीय समय गलता है । यह भी पुनरुक्त स्थान है। तृतीय फालिके विघटित होनेपर उत्कीरणकालका तृतीय समय गलता है। यह भी पुनरुक्त स्थान है। यही क्रम एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण पुनरुक्त स्थानोंके वीतने तक चालू रहता है। फिर विवक्षित स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके विघटित होनेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है। यह अपुनरुक्त स्थान है, क्योंकि, अन्तिम फालिके वीतनेपर पूर्वके अपुनरुक्त स्थितिसत्त्वसे समानताको प्राप्त हुआ यह स्थितिसत्व अधःस्थितिके गलनेसे उसकी अपेक्षा एक समय कम देखा जाता है। तत्पश्चात् द्वितीय जीवके द्वारा प्रथम फालिके विघटित किये जाने पर उत्कीरण. कालका प्रथम समय गलता है। द्वितीय फालिके विघटित होनेपर उसका द्वितीय समय गलता है। तृतीय फालिके विघटित होनेपर उसका तृतीय समय गलता है। इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण पुनरुक्त स्थानोंके वीतनेपर जब अन्तिम फालि विघटित की जाती है तब उत्कीरणकाल का अन्तिम समय गलता है। यह अपुनरुक्त स्थान है। इसके कारणका कथन पहिलेके ही समान करना चाहिये। पुनः तृतीय जीवके द्वारा प्रथम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है। द्वितीय फालिके विघटित किये जानेपर उसका द्वितीय समय गलता है। तृतीय फालिके विघटित किये जाने पर उसका ततीय समय गलता है। इस प्रकार दो समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण पुनरुक्त स्थानोंके वीतनेपर फिर १ प्रतिषु · तदिय फालीए अवणिदाए जीवेण' इति पाठः । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, ९.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्तं चरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्वाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि। कारणं सुगमं । पुणो चउत्थजीवेण पढमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए पढमसमओ गलदि। एदं पुणरुत्तट्ठाणं होदि । विदियाए फालीए अवणिदाए तिस्से बिदियसमओ गलदि । तदियाए अवणिदाए तिस्से तदियसमओ गलदि । एदेणेव कमेण रूवूणुक्कीरणद्धामेत्तेसु पुणरुत्तट्ठाणेसु उप्पण्णेसु पुण पच्छा एदेणेव चरिमफालीए पादिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । कारणं सुगमं । एवं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तजीवे अस्सिद्ण रूवूणुक्कीरणद्धाए अहियकंदयमेत्तअपुणरुत्तट्ठाणाणि उप्पाइय पुणा पुविल्लंतिमट्ठविदजीवमस्सिदूण अपुणरुत्तट्ठाणुप्पत्तिं वत्तइस्सामो । तं जहा- अंतिमजीवेण अप्पिदहिदिखंडयस्स चरिमफालीए अवणिदाए उक्कीरणद्धाए चरिमसमओ गलदि जं सेसमेइंदियउक्कस्सहिदिसंतकम्म होदि । एदमपुणरुत्तट्ठाणं, पुव्वमणुप्पण्णत्तादो । एत्थ एइंदियट्टिदी णाम संदिट्ठीए दो इसी जीवके द्वारा अन्तिम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है । यह अपुनरुक्त स्थान है । इसका कारण सुगम है । पुनः चतुर्थ जीवके द्वारा प्रथम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका प्रथम समय गलता है । यह पुनरुक्त स्थान है। द्वितीय फालिके विघटित होनेपर उसका द्वितीय समय गलता है। तृतीय फालिके विघटित होनेपर उसका तृतीय समय गलता है। इसी क्रमसे एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण पुनरुक्त स्थानोंके उत्पन्न हो जानेपर फिर पीछे इसी जीवके द्वारा अन्तिम फालिके विघटित किये जानेपर उत्कीरणकालका अन्तिम समय गलता है। यह अपुनरुक्त स्थान है। इसका कारण सुगम है। इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण जीवोंके आश्रयसे एक कम उत्कीरणकालसे अधिक स्थितिकाण्डक प्रमाण अपुनरुक्त स्थानोंको उत्पन्न कराके फिर पूर्वमें स्थापित अन्तिम जीवका आश्रय करके अपुनरुक्त स्थानोंकी उत्पत्तिका कथन करते हैं। यथा- अन्तिम जीवके द्वारा विवक्षित स्थितिकाण्डककी अन्तिम . फालिके विघटित किये जाने पर उत्कीरणकाल का अन्तिम समय गलता है जो कि एकेन्द्रियको उत्कृष्ट स्थितिमें शेष होता है। यह अपुनरुक्त स्थान है, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति पूर्वमें नहीं हुई है । यहां संदृष्टि में (मूलमें देखिये ) एकेन्द्रियस्थितिके लिये दो १ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः । छ.११-१४ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ६, ९. विंद, अद्धेण पुण| | सागरे।वमस्स तिणि सत्तभागा । पुणो एदम्हादो द्विदिसंतादो एइंदिय- | २०. \ बंधमस्सिदूण अणुक्कस्सट्ठिदिवियप्पा उप्पादेदव्वा । तं जहा- पादरे- ०००० । इंदियपज्जत्तरण समऊणुक्कस्सहिदीए पबद्धाए अण्णमपुणरुतहाणं होदि ।' ०००० । दुसमऊणाए पबद्धाए अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । तिसमऊणाए पबद्धाए अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं चदु-पंचसमऊणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव पादेइंदियपज्जत्तएण सव्वविसुद्धण बद्धजहण्णसंतसमाणहिदि त्ति । संपहि एइदिएसु लद्धसव्वट्ठाणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि चेव । कुदो ? तत्थ वीचारहाणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि चव होते त्ति गुरूव. देसादो । पुणो एदिस्से हिदीए हेट्ठा खवगसेढिमस्सिदण अण्णाणि अंतोमुहुत्तट्ठाणाणि लभंति । तं जहा- एगो जीवो खवगसेडिं चडिय अणियट्टिखवगो जादो । तदो अणियट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु असष्णिट्ठिदिबंधेण सरिसं संतकम्म कुणदि । पुणो अंतोमुहुत्तं गंतूण चदुरिंदियविदिबंधेण सरिसं संतकम्मं कुणदि । पुणो अंतोमुहुत्तं गंतूण तेइंदियहिदिबंधेण सरिसं संतकम्मं कुणदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण बेइंदियट्ठिदिबंधेण सरिसं द्विदिसंतकम्मं कुणदि। तदो अंतोमुहुत्तं गतूण एइंदियट्ठिदि बिन्दु हैं, जो कालकी अपेक्षा सागरोपमके तीन बटे सात भाग (8) के सूचक हैं। इस स्थितिसत्त्वसे एकेन्द्रियके स्थितिबंधका आश्रय करके अनुत्कृष्ट स्थिति- , विकल्पोंको उत्पन्न कराना चाहिये । यथा- बादर एकेन्द्रिय जीवके द्वारा एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिके बांधनेपर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिके बांधनेपर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। तीन समय कम उत्कृष्ट स्थितिके बांधनेपर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । ... इस प्रकार चार-पांच आदि समयोंकी हीनताके क्रमसे सर्वविशुद्ध बादर एकेन्द्रिय ..... पर्याप्तक जीवके द्वारा बांधी गई जघन्य स्थितिके सत्व समान स्थितिके होने तक उतारना चाहिये। - अब एकेन्द्रियों में प्राप्त सब स्थान पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र ही हैं, क्योकि " उनमें वीचारस्थान पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं" ऐसा गुरुका उपदेश है। इस स्थितिके नीचे क्षपकश्रेणिका आश्रय करके अन्य अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थान प्राप्त होते हैं । यथा - एक जय सपकश्रेणिपर आरूढ़ होकर अनिवृत्तिकरण क्षपक हुमा । पश्चात् अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यात बहुभ गोंके वीतनेपर वह अंसशी जीवके स्थितिबन्धके समान स्थितिसत्त्वको करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल विताकर पतरिन्द्रयके स्थितिबन्धके समान स्थितिसत्त्वको करता है। पश्चात अन्तर्महुर्त काल विताकर वह त्रीन्द्रिय जीवके स्थितिबन्धके समान स्थितिसत्त्वको करता है । पश्चात् अन्तर्मुहुर्त काल जाकर वह द्वीन्द्रिय जीवके स्थितिबन्धके समान स्थितिसत्त्वको करता है। तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्तके वीतनेपर एकेन्द्रिय जीवके स्थितिबन्धके समान स्थिति Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ३, ९. 1. वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त बंधेण सरिसं ट्ठिदिसंतकम्म कुणदि । एवमेदाणि खवगसेडिम्हि भणिदूणागदसव्वहिदिसंतकम्मट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि चेव, एइंदियजहण्णबंध पेक्खिदूण एदासिं हिदीण बहुत्तुवलंमादो । पुणो एइंदियट्टिदिसंतकम्मम्मि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेतहिदिखेडयमागाएदि । तं जाव पददि ताव अंतोमुहुत्तट्ठाणाणि अधढिदिगलणेण लभंति । ताणि पुणरुत्ताणि, एइंदिसु लहाणेसु पवेसादो । पुणो आगाइदकंदयस्स चरिमफालीए पदिदाए एइंदियवीचारहाणेहिंतो असंखेज्जगुणमोसरिदूण अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो बिदियसमए अण्णं टिदिखंडयमागाएदि । तस्स विदिखंडयस्स उक्कीरणकालम्मि एगसमए गलिदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । बिदियसमए गलिदे बिदियमपुणरुत्तट्टाणं होदि । तदिंय. समए गलिदे तदियमपुणरुत्तणिरंतरट्ठाणं होदि । एवं णिरंतरट्ठाणाणि .ताव लब्भंति जावे उक्कीरणकालदुचरिमसमओ त्ति । पुणो चरिमफाली पददि । तीए पदिदाए पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमतरियूण अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो अण्णं द्विदिकंदयमागाएदि । तस्स हिदिकंदयस्स उक्कीरणकालम्मि एगसमए गलिदे अण्णमपुणरुत्तणिरंतरहाणं होदि । बिदियसमए गलिदे अण्णमपुणरुत्तणिरंतरट्ठाणं होदि । एवं समऊणुक्कीरणद्धामेत्ताणि अपुणरुत्तणिरंतरट्ठाणाणि लब्भंति । पुणो उक्कीरणकालचरिमसमए गलिदे चरिमफालिसत्वको करता है। इस प्रकार क्षपकथेणिमें कहकर आये हुए ये सभी स्थितिसत्त्वस्थान पुनरुक्त ही हैं, क्योंकि, एकेन्द्रिय जीवके जघन्य बन्धकी अपेक्षा ये स्थितियां बहुत पायी जाती हैं। - पुनः एकेन्द्रियके स्थितिसस्वमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भाग मात्र स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता है। वह जब तक विघटित होता है तब तक अधःस्थिति के गलनेसे अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थान प्राप्त होते हैं। वे पुनरुक्त हैं, क्योंकि, वे एकेन्द्रियों में प्राप्त स्थानोंके अन्तर्गत हैं। पश्चात् ग्रहण किये गये स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके विघटित होनेपर एकेन्द्रिय सम्बन्धी वीचारस्थानोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणा हटकर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। तत्पश्चात् द्वितीय समयमें दूसरे स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता है। उस स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकालमेंसे एक समयके गलनेपर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। द्वितीय समयके गलने पर द्वितीय अपुनरुक्त स्थान होता है। तृतीय समयके गलनेपर तृतीय अपुनरुक्त निरन्तर स्थान होता है। इस प्रकार उत्कीरणकाल के द्विचरम समय तक निरन्तर स्थान पाये जाते हैं। फिर अन्तिम फालि विघटित होती है। उसके विघटित हो जानेपर पल्योपमके संख्यातवें भाग मात्र अन्तर करके अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। तत्पश्चात अन्य स्थितिकाण्डकको प्रहण करता है। उस स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकालमेंसे एक समयके गलनेपर अन्य अपुनरुक्त निरन्तर स्थान होता है । द्वितीय समयके गलनेपर अन्य अपुनरक्त निरन्तर स्थान होता है । इस प्रकार एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण मपुनरुक्त निरन्तर स्थान पाये जाते हैं। पश्चात् उत्कीरणकालके अन्तिम समय का-ताप्रत्योः 'असंखेज्जदि Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ छक्खंडागमै वैयणाखंड मेत्तट्ठाणाणि अंतरिदूण अपुणरुत्तहाणं उप्पज्जदि । एवं णिरंतर-सांतरकमेण हाणाणि ताव लन्मंति जाव खीणकसायकालस्स संखेज्जा भागा गदा ति । तदो खीणकसायचीरमद्विदिखंडयस्स चरिमफालीए पदिदाए खीणकसायकालस्स संखेज्जदिभागमेत्तणि उदयक्खएण णिरंतरअपुणरुत्तट्ठाणाणि लब्भंति जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति । एत्थ खवगसेडिम्हि लद्धणिरंतरहाणाणि अंतोमुहुत्तमेत्ताणि, रूवूणुक्कीरणद्धं संखेज्जसहस्सरूवेहि गुणिदे खवगसेडिसमुप्पण्णसव्वणिरंतरहाणुप्पत्तीदो। सांतरहाणाणि पुण संखेज्जाणि चेव, खवगसेडीसु संखेज्जाणं चेव द्विदिखंडयाणं पदणोवलंभादो । संखेज्जपलिदोवममत्तट्टाणाणि ण लद्धाणि । एदेसु अलट्ठाणेसु कम्महिदिम्हि सोहिदेसु जं सेसं तेत्तियमेत्ता अणुक्कस्सट्टाणवियप्पा । एदेसि होणाणं सामिणो जे जीवा तेसिं छहि अणियोगद्दारेहि परूषणं कस्सामो। तं जहा- एत्थ ताव तसजीवे अस्सिदूग भण्णमाणे जहण्णए ढाणे अस्थि जीवा। एवं णेयध्वं जावुक्कस्सट्टाणे त्ति । एवं परूवणा गदा । ___ओघजहणंहाणे जहण्णेण एगो, उक्कस्सेण अठ्ठत्तरसदजीवा । एवं खवगसेडीए लद्धसवठ्ठाणेसु जीवपमाणं वत्तव्वं । सण्णिपंचिंदियमिच्छाइट्ठिजहण्णहिदीए जीवा पदरस्स गलनेपर अन्तिम फालि प्रमाण स्थानोंका अन्तर करके अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार निरन्तर और सान्तर क्रमसे स्थान तब तक पाये जाते है जब तक क्षीणकषाय गुणस्थानके कालका संख्यात बहुभाग वीतता है। पश्चात् क्षीणकषाय जीवके अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके विघटित होनेपर क्षीणकषायके अन्तिम समय तक क्षीणकषायकालके संख्यातवें भाग मात्र उदयक्षयसे निरन्तर अधुनरुक्त स्थान पाये जाते हैं। यहां क्षपकश्रेणिमें प्राप्त निरन्तर स्थान भन्तर्मुहूर्त प्रमाण होते हैं, क्योंकि, एक कम उत्कीरणकालको संख्यात हजार रूपोंसे गुणित करनेपर क्षपकश्रेणिमें उत्पन्न समस्त निरन्तर स्थान प्राप्त होते हैं। परन्तु सान्तर स्थान संख्यात ही हैं, क्योंकि, क्षपकश्रेणिमें संख्यात ही स्थितिकाण्डकोंका विघटन पाया जाता है। संख्यात पल्योपम प्रमाण स्थान यहां नहीं पाये जाते । यहां न प्राप्त होनेवाले इन स्थानोंको कर्मस्थितिमेंसे कम कर देनेपर जो शेष रहता है उतना अनुत्कृष्ट स्थानके विकल्पोंका प्रमाण होता है। जो जीव इन स्थानोंके स्वामी हैं उनकी छह अनुयोगद्वारोंके द्वारा प्ररूपणा करते हैं । यथा - यहां पहिले त्रस जीवेंका आश्रय करके प्ररूपणा करनेपर जघन्य स्थानमें जीव हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थान तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई। ओघ जघन्य स्थानमें जघन्यसे एक और उत्कर्षसे एक सौ आठ जीव पाये जाते है। इस प्रकार क्षपकश्रेणिमें प्राप्त सभी स्थानोंमें जीवोंका प्रमाण कहना चाहिये । संक्षी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिकी जघन्य स्थितिमें जीव प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, ५, ६, ९.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त असंखेज्जदिमागमेत्ता। विदियाए वि हिदीए पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता। एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सहिदि त्ति । सेडिपरूवणा दुविहा- अणतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधाए सादस्स चउट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा जीवा असादस्म बिट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा च जीवा णाणावरणीयस्स सग-सगजहणियाए हिदीए थोवा। विदियाए हिदीए विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण १ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेतेण । तदियाए द्विदीए जीवा विसेसाहिया । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव जवमझं । तेण परं विसेसहीणा। एवं विसेसहीणा विसेसहीणा जाव सागरोवमसदपुधतं । सादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा असादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्म जहणियाए हिदीए थोवा । बिदियाए हिदीए जीवा विसेसाहिया । तदियाए हिदीए जीवा विसेसाहिया । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं विसेसहीणा । एवं विसेसहीणा. विसेसहीणा जाव सादस्स असादस्स [य] उक्कस्सिया हिदि ति । एवमणंतरावणिधा समत्ता । परंपरोवणिधाए सादस्स चउट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा जीवा असादस्स विट्ठाणबंधा द्वितीय स्थितिमें भी वे प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये । ___श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार है- अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । उनमें भनन्तरोपनियाकी अपेक्षा सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक जीव तथा असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी अपनी अपनी जघन्य स्थितिमें स्तोक हैं । द्वितीय स्थितिमें उनसे विशेष अधिक हैं। कितने प्रमाणसे अधिक हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे वे एक खण्डसे अधिक हैं। उनसे तृतीय स्थितिमें जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार वे यवमध्य तक विशेष अधिक विशेष अधिक होते गये हैं। उसके आगे वे विशेष हीन हैं। इस प्रकार सागरोपमशतपृथक्त्व तक वे विशेष हीन विशेष हीन हैं । सातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक और असातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव झानावरणीयकी जघन्य स्थितिमें स्तोक हैं। द्वितीय स्थितिमें उनसे विशेष अधिक जीव हैं। तुतीय स्थितिमें उनसे विशेष अधिक जीव हैं। इस प्रकार सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण स्थिति तक वे उत्तरोत्तर विशेष अधिक विशेष अधिक हैं। इससे आगेकी वे उत्तरोतर विशेष हीन हैं। इस प्रकार साता व असाता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति तक वे विशेष हीन विशेष हीन हैं। इस प्रकार अनन्तरोपनिया समाप्त हुई। परम्परोपनिधाकी अपेक्षा सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक तथा असाताघेदनीयके द्विस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक जीव भानावरणीयकी Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११.) छक्खंडागमे वेयणाखंड तिहाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स जहणियाए विदीए जीवेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणबड्दिा जाव जवमझं । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदि. भाग गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव सागरोवमसदपुधत्तं । सादस्स षिट्ठाणबंधा जीवा असादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स जहणियाए हिदीए जीवेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणवड्डिदा । एवं दुगुणवड्विदा दुगुणवविदा जाव सागरोवमसदपुधत्तं । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागं गंतूण दुगुणहीणा । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव सादस्स असादस्म य उक्कस्सिया हिदि ति । एयजीवदुगुणवाड हाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । णाणाजीवदुगुणवडि. हागिहाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स · असंखेज्जदिभागो । णाणाजीवदुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि । एयजीवदुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । एवं परंपरावणिधा समत्ता । जहण्णढाणजीवपमाणेण सव्वजीवा केवचिरेण कालेण अवहिरिजंति ? असंखेज्जगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जति । बिदियट्ठाणजीवपमाणण सव्वजीवा असंखेज्जगुणहाणिमेत्तेण कालेण अवहिरिज्जंति । एवं णेदव्वं जाव जवमझे ति । जवमज्झ. जीवपमाणेण सव्वजीवा केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जंति ? किंचूणतिण्णिगुणहाणिट्ठाणं अधन्य स्थिति के जीवोंकी अपेक्षा उससे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर यवमध्य तक दुगुणी वृद्धिको प्राप्त हैं। उसके आगे पल्योपम के असंख्यातवें भाग जाकर वे बुगुणी हानिको प्राप्त हैं । इस प्रकार सागरोपमशतपृथक्त्व तक वे दुगुणे हीन दुगुणे हीम हैं। सातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव और असातावेदनीयके चतु:स्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थिति सम्बन्धी जीवोंकी अपेक्षा उनसे पस्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सागरोपमशतपृथक्त्व सक वे दुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते गये हैं। इससे आगे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर वे दुगुणी हानिको प्राप्त हैं। इस प्रकार साता. व असाता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति तक वे दुगुणे-दुगुणे हीन हैं। एकजीवदुगुणवृद्धिं-हानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात वर्गमूल प्रमाण है। नानाजीवदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। नानाजीवदुगुणवृद्धि हानिस्थानान्तर स्तोक हैं। एकजीवदुगुणवृद्धि हानि. स्थानानान्तर उनसे असंख्यातगुणा है। इस प्रकार परम्परोपनिधा समाप्त हुई। जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवोंके प्रमाणसे समस्त जीव कितने कालसे अपहत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे असंख्यात-गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहत होते हैं। द्वितीय स्थान सम्बन्धी जीवोंके प्रमाणसे वे समस्त जीव असंख्यात गुणहानि मात्र कालसे अपहृत होते हैं । इस प्रकार यवमध्य तक ले जाना चाहिये । यवमध्यके जावोंके प्रमाणसे सब जीव कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? कुछ कम १ प्रतिषु ' दुगुणवविदाए' इति पाठः। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, ९.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्तं [११६ तरेण कालेण अवहिरिज्जति । एवं जवमज्झादो उवीरं पि जाणिदूण वत्तन्वं । एवमवहारपरूवणा गदा। जहण्णए हाणे जीवा सव्वट्ठाणजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो । एवं सव्वट्ठाणजीवाणं जाणिदूण भागाभागपरूवणा कायव्वा । सव्वत्थोवा जवमज्झाणं उक्कस्सए ढाणे जीवा । जहण्णए ढाणे जीवा असंखेज्जगुणा । गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। जवमज्झजीवा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? जवमज्झादो हेट्ठिमअण्णाण्णभत्थरासी। जबमज्झादो हेहिमजहण्णट्ठाणजीवेहितो उवरिमसव्वजीवा असंखेज्जगुणा। को गुणगारो ? किंचूणदिवड्ड [गुणहाणीओ] गुणगारो । जवमज्झादो हेट्ठिमजीवा विसेसाहिया । जवमज्झादो उवरिमजीवा विसेसाहिया । सव्वजीवा विसेसाहिया । एवमप्पाबहुगपरूवणा गदा।। ___ एवमेइंदिय-विगलिंदियाणं पि परूवेदव्वं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तएइंदियवीचारहाणेसु तस्सेत्र संखेज्जदिमागमेत्तविगलिंदियवीचारहाणेसु च । णवरि सादासादाणं बिट्ठाणजवमझं चेव, तत्थ तिट्ठाण-च उट्ठाणाणुभागाणं बंधाभावादो। किंतु सण्णिचिंदियगुणहाणिसला गाहिंतो तत्थतणगुणहाणिसलागाओ असंखेज्जगुणहीणाओ संखेज्जगुणहीणाओ .......................................... तीन गुणहानिस्थानान्तरकालसे वे अपहृत होते हैं। इसी प्रकार यवमध्यके आगे भी जानकर कहना चाहिये। इस प्रकार अवहारप्ररूपणा समाप्त हुई। जघन्य स्थानमें स्थित जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं। वे उनके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इस प्रकार सब स्थानोंके जीवोंको जानकर भागा, भागकी प्ररूपणा करना चाहिये। . यवमध्योंके उत्कृष्ट स्थानमें जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे जघन्य स्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार पल्योपमका असंख्याता भाग है। उनसे यवमध्यके जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? यवमध्यसे नाचेकी अन्योन्याभ्यस्त राशिं गुणकार है । यवमध्यसे नीचे के जघन्य स्थान सम्बन्धी जीवोंकी अपेक्षा ऊपरके सब जीव असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार कुछ कम डेढ़ गुणहानियां हैं। यवमध्यसे नीचेके जीव उनसे विशेष अधिक हैं। उनसे यवमध्यके उपरिम जीव विशेष अधिक हैं। उनसे सब जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार अल्पबहुत्वप्ररूपणा सम इसी प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र एकेन्द्रियके वीचारस्थानों में और उसके ही संख्यातवें भाग प्रमाण विकलेन्द्रियके वीचारस्थानों में एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय जीवोंकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि साता व असाता वेदनीयके द्विस्थानसम्बन्धी यवमध्य ही है, क्योंकि, वहां त्रिस्थान और चतु:स्थान अनुभागोंका बन्ध नहीं होता। किन्तु संक्षी पंचेन्द्रियकी गुणहानिशलाकाओंसे वहांकी गुणहानिशलाकायें असंख्यातगुणी हीन Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे यणाखंड [१, २, ६, १०. च । पमाणं पुण एइंदिया अणंता । सण्णिपंचिदियधुवट्टिदीदो हेट्ठिमाणं असण्णिपंचिंदियउक्कस्सहिदीदो उवरिमाणं संतट्ठाणाणं जीवसमुदाहारो कार्यु ण सक्किज्जदे, उवदेसाभावादो। एवं छण्णं कम्माणं ॥१०॥ जहा णाणावरणीयस्स उक्कस्साणुक्कस्ससामित्तं परविदं तहा सेसछकम्माणं परूवेदव्वं । णवरि मोहणीयस्स उक्कस्सहिदी सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्ता । अणुक्कस्ससामित्ते भण्णमाणे सण्णिपंचिदियमिच्छाइटिप्पहुडि जाव चरिमसमयसुहुमसांपराइयो ताव सामिणो त्ति वत्तव्वं । णामा-गोदाणं उक्कस्सहिदी वीसंसागरोवमकोडाकोडिमेत्ता । एदेसिमणुक्कस्सविदिसामित्ते भण्णमाणे सणिपंचिंदियमिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव चरिमसमयअजोगि त्ति वत्तव्वं । एवं वेयणीयस्स वि परूवणा कायव्वा । णवरि उक्कस्सहिदी तीसं सागरोवमकोडाकोडिमेत्ता । सामित्तेण उक्कस्सपदे आउअवेयणा कालदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥ ११ ॥ सुगमं । व संख्यातगुणी हीन हैं। प्रमाण- एकेन्द्रिय जीव अनन्त है । संशी पंचेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिसे नीचेके और असंही पंचेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थितिसे ऊपरके सत्त्वस्थानोंका जीवसमुदाहार करने के लिये शक्य नहीं है, क्योंकि, उसका उपदेश प्राप्त नहीं है। ज्ञानावरणीयके समान ही शेष छह कोंके उत्कृष्ट स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥१०॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मके उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्वामित्वकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार शेष छह कर्मोकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्वामित्व. का कथन करते समय संशी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिसे लेकर अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिक तक स्वामी हैं, ऐसा कहना चाहिये। नाम व गोत्र कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण है। इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके स्वामित्वका कथन करते समय संक्षी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिसे लेकर अन्तिम समयवर्ती भयोगकवली तक स्वामी हैं ऐसा कहना चाहिये। इसी प्रकार वेदनीय कर्मकी भी प्ररूपणा कहना चाहिये। विशेष इतना है कि उसकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण है। स्वामित्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट पदमें आयुकर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥ ११ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ आ-ताप्रयोः 'छणं कम्माणं' इति पाठः Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १२.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्तं अण्णदरस्त मणुस्सस्स षा पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स वा सण्णिस्स सम्माइट्ठिस्स वा [मिच्छाइट्ठिस्स वा] सव्वाहि पज्जचीहि पज्जत्तयदस्स कम्मभूमियस्स वा कम्मभूमिपडिभागस्स या संखेज्जवासाउअस्स इथिवेदस्त वा पुरिसवेदस्स वा णउसयवेदस्स वा जलचरस्स वा थलचरस्स वा सागार-जागार-तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स वा [तप्पाओग्गविसुद्धस्स वा] उक्कस्सियाए आबाधाए जस्स तं देव-णिरयाउअं पढमसमए बंधंतस्स आउअवेयणा कालदो उक्कस्सा ॥ १२ ॥ ओगाहण-कुल-जादि-वण्ण-विण्णास-संठाणादिभेदेहि विसेसाभावपरूवणट्ठमण्णदरस्से त्ति भणिदं । देवाणमुक्कस्साउअस्स मणुसा चेव बंधया, णेरइयाणं उक्कस्साउअस्स मणुस्सा सण्णिपंचिंदियतिरिक्खा वा बंधया ति जाणावण8 मणुस्सस्स वा पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स वा सण्णिस्स्से त्ति भणिदं । देवाणं उक्कस्साउअं सम्मादिट्ठिणो चेव बंधंति, णेरइयाणं उक्कस्साउअं मिच्छाइट्ठिणो चेव बंधति त्ति जाणावणटुं सम्मादिहिस्स वा मिच्छादिहिस्स वा त्ति णिद्दिष्टुं । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदा चेव णेरइयाणं उक्कस्साउअं जो कोई मनुष्य या पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञी है, सम्यग्दृष्टि [अथवा मिथ्यादृष्टि ] है, सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त है, कर्मभूमि या कर्मभूमिप्रतिभागमें उत्पन्न हुआ है, संख्यात वर्षकी आयुवाला है; स्त्रीवेद, पुरुषवेद् या नपुंसकवेदसे संयुक्त है; जलचर अथवा थलचर है, साकार उपयोगसे सहित है, जागरुक है, तत्प्रायोग्य संक्लेश [अथवा विशुद्धि] से संयुक्त है, तथा जो उत्कृष्ट आबाधाके साथ देव व नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुको बांधनेवाला है, उसके बांधनके प्रथम समयमें आयु कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥१२॥ अवगाहना, कुल, जाति, वर्ण, विन्यास और संस्थान आदिके भेदोंसे निर्मित विशेषताका अभाव बतलानेके लिये सूत्रमें 'अण्णदरस्त' यह कहा है। देवोंकी उत्कृष्ट आयुके बन्धक मनुष्य ही होते हैं तथा नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुके बन्धक मनुष्य अथवा संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंच होते हैं, यह जतलानेके लिये "मणुस्सस्स वा पंचिंदियतिरिक्खजोणियरस वा सणिस्त" ऐसा कहा है। देवोंकी उत्कृष्ट आयुको सम्यग्दृष्टि ही बांधते हैं तथा नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुको मिथ्यादृष्टि ही बांधते हैं, यह प्रगट करने के लिये "सम्मादिटिस्स वा मिच्छादिहिस्स वा" ऐसा निर्देश किया गया है। जो छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो चुके हैं वे ही नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुको बांधते . . . प्रतिविण्णाण ' इति पाठः । ..११-१५. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [, २, ५, १२. घंति ति: जाणावणहूँ सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदस्से ति भणिदं । देवाण उक्कस्साउवे पण्णारसकम्मभूमीसु चेव वज्झइ, गैरइयाणं उक्कस्साउअं पण्णारसकम्मभूमीसु कम्मभूमिपडिभागेसु च वज्झदि त्ति जाणावणहूँ कम्मभूमियस्स वा कम्मभूमिपडिमागस्स वा त्ति परविदं । देव-णेरइयाणं उक्कस्साउअमसंखेज्जवासाउवतिरिक्खमणुस्सा ण बंधति, संखेज्जवासाउवा चेव बंधति त्ति जाणावणटुं संखेज्जवासाउअस्से ति परूविदं । देव-णेरइयाणं उक्कस्साउअबंधस्स तीहि वेदेहि विरोहो पत्थि त्ति जाणावणटुं इत्थिवदस्स वा पुरिसवेदस्स वा णवंसयवेदस्स वा त्ति भणिदं । . एत्थ भाववेदस्स गहणमण्णहा दवित्थिवेदेण वि णेरइयाणमुक्कस्साउअस्स बंधप्पसंगादो । ण च तेण सह तस्स बंधो, आ पंचमी ति सीहा इत्थीओ जंति' छट्टिपुढवि ति. एदेण सुत्तेण सह विरोहादो । ण च देवाणं उक्कस्साउअं दवित्थिवेदेण सह वज्झइ, णियमा णिग्गंथलिंगेणे ति सुत्तेण सह विरोहादो ण च दव्वित्थीण णिग्गंथत्तमत्थि, चेलादिपरिच्चाएण विणा तासिं भावणिग्गंथत्ताभावादो। ण च दवित्थि है, यह जतलानेके लिये “ सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदस्त" यह कहा है। देवोंकी उत्कृष्ट आयु पन्द्रह कर्मभूमियों में ही बंधती है तथा नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु पन्द्रह कर्मभूमियों और कर्मभूमिप्रतिभागोंमें भी बांधी जाती है, यह बतलानाके लिये "कम्मभूमियस्स कम्मभूमिपडिभागस्स वा " ऐसा कहा है। देवा व नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुको असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच या मनुष्य नहीं बांधते हैं, किन्तु संख्यातवर्षायुष्क ही बांधते हैं, यह जतलानेके लिये 'संखेज्जवासाउअस्स' ऐसा निर्देश किया है। देवों व नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुके बन्धका तीनों वेदोंके साथ विरोध नहीं है, यह जतलानके लिये “इत्थिवेदस्स वा पुरिसवेदस्स वा णqसयवेदस्स वा" ऐसा कहा है। यहां भाववेदका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, द्रव्यवेदका ग्रहण करनेपर द्रव्य स्त्रीवेदके साथ भी नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुके बन्धका प्रसंग आता है । परन्तु उसके साथ नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुका बन्ध होता नहीं है, क्योंकि "पांचवीं पृथिवी तक सिंह और छठी पृथिवी तक स्त्रियां जाती हैं" इस सूत्रके साथ विरोध आता है। देवोंकी भी उत्कृष्ट आयु द्रव्य स्त्रीवेदके साथ नहीं बंधती, क्योंकि, अन्यथा "अच्युत कल्पसे ऊपर] नियमतः निर्ग्रन्थ लिंगसे ही उत्पन्न होते हैं" इस सूत्रके साथ विरोध होता है । और द्रव्य स्त्रियोंके निर्ग्रन्थता सम्भव नहीं है, क्योंकि, वस्त्रादिपरित्यागके विना उनके भाव निर्ग्रन्थताका अभाव है। द्रव्य स्त्रीवेदी व नपुंसकवेदी वस्त्रादिकका त्याग करके निर्ग्रन्थ लिंग धारण ......................... २ मूलाचार १२.११३. १ अ-आ-काप्रतिषु 'आ पंचमा ति सीहा इत्थीओ जाति छट्ठी' इति पाठः। . मूलाचार १२-१३४., ति.प.८,५५९-६१. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, ५, ६, १२.) वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त ।११५ णवंसयवेदाणं चेलादिचागो अस्थि, छेदसुत्तेण सह विराहादी) देवाणं उक्कस्साउअस्स मणुस्सा संजदा थलचारिणो बंधया, गैरइयाणं उक्कस्साउअस्स थलचारिमणुसमिच्छाइट्ठिणो जल-थलचारिसण्णिपंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइट्टिको वा बंधया त्ति जाणावणटुं जलचरस्स वा थलचरस्स वा त्ति भणिद। खगचारिणो देव-णेरइयाणं उक्कस्साउअं किण्ण बंधति ? ण, पक्खीणं सत्तमपुढविणेरइएसु अणुत्तरविमाणवासियदेवेसु वा उप्पज्जणं पडि सत्तीए अभावादो । ण विज्जाहराणं खगचरत्तमत्थि, विज्जाए विणा सहावदो चेव गगणगमणसमत्थेसु खगयरत्तप्पसिद्धीदो । दसणावजोगे वटुंताणं उक्कस्साउअबंधो ण होदि, किंतु णाणोवजोगे वटुंताणं एवे त्ति जाणावणटुं सागारणिद्देसो कदो। सुत्ताणमाउअस्स उक्कस्सबंधो ण होदि त्ति जाणावण8 जागारणिद्देसो कदो । जहा सेसकम्माणं उक्कस्सद्विदीओ उक्कस्ससंकिलेसेण वझंति, तहा आउअस्स उक्कस्सहिदी उक्कस्सविसोहीए उक्कस्ससंकिलेसेण वा ण वज्झदि त्ति जाणावणटुं तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स वा तप्पाओग्गविसुद्धस्स वा त्ति भणिदं । कर सकते हैं, ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर छदसूत्रके साथ विरोध होता है। देवोंकी उत्कृष्ट आयुके बन्धक स्थलचारी संयत मनुष्य, तथा नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुके बन्धक स्थलचारी मिथ्यादृष्टि मनुष्य एवं जलचारी व स्थलचारी संझी पंचेद्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि हैं, इसके शापनार्थ "जलचरस्स वा थलचरस्स वा" ऐसा कहा है। शंका- आकाशचारी जीव देव व नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुको क्यों नहीं बांधते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, पक्षियोंके सप्तम पृथिवीके नारकियों अथवा अनुत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न होनेकी सामर्थ्य नहीं है । यदि कहा जाय कि विद्याधर भी तो आकाशचारी हैं, वे वहां उत्पन्न हो सकते हैं। तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, विद्याकी सहायताके विना जो स्वभावसे ही आकाशगमनमें समर्थ हैं उनमें ही खगचरत्वकी प्रसिद्धि है। __ दर्शनोपयोगमें वर्तमान जीवोंके उत्कृष्ट आयुका बन्ध नहीं होता, किन्तु ज्ञानोपयोगमें वर्तमान जीवोंके ही उसका वन्ध होता है, यह जतलाने के लिये 'साकार'. पदका निर्देश किया है। सोये हुए जीवोंके उत्कृष्ट आयुका बन्ध नहीं होता, यह बतलानेके लिये जागार' पदका प्रयोग किया है। जिस प्रकार शेष कर्मों की उत्कृष्ट स्थितियां उत्कृष्ट संक्लेशसे बंधती हैं वैसे आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट विशुद्धि अथवा उत्कृष्ट संक्लेशसे नहीं बंधती, यह जलानेके लिये “ तप्पाओग्गसंकिलटुल्स था तप्पाओग्गविसुद्धस्स वा" ऐसा कहा है। उत्कृष्ट आवाधाके बिना उकर चिति Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६१ छक्खडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १३. उक्करसाबाधाए विणा उक्कस्सट्ठिदी ण होदि त्ति जाणावणङ्कं उक्कस्सियाए आबाहाए इदि भणिदं । बिदियादिसमएस आबाहा उक्कस्सिया ण होदित्ति पुव्वकोडित्तिभागमामाहं काऊण देव णेरइयाणं उक्कस्सा उअं बंधमाणपढमसमर चेव उक्कस्साउअवेयणा होद्रि त्ति भणिदं । तव्वदिरित्तमणुक कस्सा ॥ १३ ॥ - तदो उक्कसादो वदिरित्तं तव्वदिरित्तं, सा अणुक्कस्सा | एसा अणुक्कस्सकालवेयणा असंखेज्जवियप्पा | तेण तिस्से सामित्तं पि असंखेज्जवियप्पं । तं जहा • पुव्वकोडित्तिभागमाबाई काऊ तेत्तीस सागरोत्रमाउअं जेण बद्धं सो उक्कस्सकालसामी । जेण समऊणं पबद्धं सो अणुक्कसकलसामी । जेण [ दुसमऊणं पबद्धं सो वि अणुक्कस्सकालसामी । जेण ] तिसमऊणं पबद्धं सो वि अणुक्कस्सकालसामी । एवमसंखेज्जभागहाणी होदूण ताव गच्छदि जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जेण उक्कस्साउडिदिं खंडिदूण तत्थ एगखंड परिहीणो त्ति । पुणो उक्कस्साउअं उक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदूण तत्थ एगखंडपरिहीणे असंखज्जभागहाणीए परिसमत्ती संखेज्जभागहाणीए आदी च होदि । एवं संखज्जभागहाणी होदूण ताव गच्छदि जाव उक्कस्सा उअस्स अद्धं समऊणं परिहीणं ति । नहीं होती है, यह ज्ञापन करानेके लिये ' उक्कस्सियाए आबाहाए ' ऐसा कहा है । चूंकि द्वितीयादिक समयोंमें आबाधा उत्कृष्ट होती नहीं है, अतः पूर्वकोटिके तृतीय भागको आबाधा करके देवों व नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुको बांधनेवाले जीवके बन्धके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट आयुवेदना होती है, ऐसा कहा है । उससे भिन्न अनुत्कृष्ट वेदना होती है ॥ १३ ॥ उससे अर्थात् उत्कृष्टसे विपरीत आयु कर्म की वेदना कालकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना होती है । यह अनुत्कृष्ट कालवेदना असंख्यात भेद स्वरूप है । इसीलिये उसके स्वामी भी असंख्य प्रकार हैं। यथा- पूर्वकोटिके तृतीय भागको आबाधा करके तेतीस लागारोपम प्रमाण आयुको जिसने बांधा है वह कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट वेदनाका स्वामी है । जिसने एक समय कम उत्कृष्ट आयुको बांधा है वह अनुत्कृष्ट कालवेदनाका स्वामी है। जिसने [ दो समय कम उत्कृष्ट आयुको बांधा है वह भी अनुत्कृष्ट कालवेदनाका स्वामी है । जिसने ] तीन समय कम उत्कृष्ट आयुको बांधा है वह भी अनुत्कृष्ट कालवेदनाका स्वामी है। इस प्रकार असंख्यात भागहानि होकर तब तक जाती है जब तक जघन्य परीतासंख्यातसे उत्कृष्ट आयुस्थितिको खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण हानि नहीं हो जाती । पश्चात् उत्कृष्ट आयुको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण हानिके हो जानेपर असंख्या सभागहानिकी समाप्ति और संख्यात भागहानिका प्रारम्भ होता है । इस प्रकार संख्यातभागहानि होकर तब तक जाती है जब तक उत्कृष्ट आयुका एक समय कम अर्ध भाग हीन नहीं हो जाता । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, १३.] वैयणमहाहियारे वैयणकालविहाणे सामित्त ११. पुणो उक्कस्साबाई काऊण उक्कस्साउअस्स अद्धे पबद्धे संखज्जगुणहाणी होदि। पुणो समऊणे अद्धे पत्रद्धे वि संखेज्जगुणहाणी चेव । एवं संखज्जगुणहाणी ताव गच्छदि जाव उक्कस्साउअं जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडेदूण तत्थ एगखंडं रूवाहियं सेसं ति । एत्तो प्पहुडि असंखज्जगुणहाणी चेव होदूण गच्छदि । एवं ताव णेदव्वं जाव पुवकोडितिभागमाषाहं काऊण देवेसु दसवस्ससहस्साउअं बंधिदूण हिदो त्ति । पुणो एदेण आउएण समाणमणुस्साउअं घेतूण समऊण-दुसमऊणादिकमेण अधद्विदिगलणेण णेदव्वं जाव भवसिद्धियचरिमसमंओ त्ति । एवं कदे पुवकोडित्तिभागणभहियसमऊणतेतीससागरोवममेत्तट्ठाणवियप्पा सामित्तवियप्पा च लद्धा होति । ___ संपहि एत्थ जीवसमुदाहारो छहि अणियोगदोरहि उच्चदे । तं जहा - उक्कस्सए ट्ठाणे जीवा अस्थि । तदणंतरहेट्ठिमट्ठाणे वि जीवा अस्थि । एवं णेदव्वं जाव अणुक्कस्सजहण्णट्ठाणे त्ति । ___ आउअस्स उक्कस्सए द्वाणे जीवा असंखेज्जा, रइयउक्कस्साउअं बंधमाणजीवाणमसंखेज्जाणमुवलभादो । एवं सव्वत्थ णेदव्वं । णवरि एइंदियपाओग्गट्ठाणेसु एक्केकेसु जीवा अणंता । तत्तो हेडिमेसु खवगसेडीए चेव लब्भमाणेसु संखेज्जा । पुनः उत्कृष्ट आवाधाको करके उत्कृष्ट आयुके अर्ध भागको बांधनेपर संख्यातगुणहानि होती है। पश्चात् एक समय कम अर्ध भागके बांधने पर भी संख्यातगुणहानि ही होती है । इस प्रकार संख्यातगुणहानि तब तक जाती है जब तक कि उत्कृष्ट आयुको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करनेपर उसमें से एक अधिक एक खण्ड शेष रहता है । अब यहांसे असंख्यातगुणहानि ही होकर जाती है। इस प्रकार तब तक ले जाना चाहिये जब तक पूर्वकोटिके तृतीय भागको आबाधा करके देवोंमें दस हजार वर्ष पमाण आयुको बांधकर स्थित नहीं होता। पश्चात् इस आयुके समान मनुष्यायुको ग्रहणकर एक समय कम दो समय कम इत्यादि क्रमसे अधःस्थितिके गलनेसे भवसिद्धिकके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । ऐसा करनेपर पूर्वकोटिके तृतीय भागसे अधिक व एक समय कम तेतील सागरोपम प्रमाण स्थानविकल्प और स्वामित्वविकल्प प्राप्त होते हैं। अब यहां छह अनुयोगद्वारोंके द्वारा जीवसमुदाहारको कहते हैं। यथाउत्कृष्ट स्थानमें जीव हैं । उससे अनन्तर नीचे के स्थानमें भी जीव हैं। इस प्रकार अनुत्कृष्ट- जघन्य स्थान तक ले जाना चाहिये। आयुके उत्कृष्ट स्थानमें असंख्यात जीव हैं, क्योंकि, नारकियोंकी उत्कर आयुको बांधनेवाले असंख्यात जीव पाये जाते हैं। इसी प्रकार सब स्थानों में जानना चाहिये। विशेषता इतनी है कि एकेन्द्रियके योग्य स्थानों में से एक एक स्थानमें भनन्त जीव है। उससे नीचके क्षपकोणिमें ही पाये जानेवाले स्थानों में खंच्यात जीव। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खडागमे बेयणाखंड सेडी ण सक्कदे णेदुं, विसिवएसाभावादो । उक्कस्सद्वाणजीवपमाणेण सव्वट्ठाणजीवा केवडिएण कालेण अवहिरिज्जति १ अणतेण कालेण । एवं तसकाइयपाओग्गसव्वद्वाणजीवाणं वत्तव्वं । एइंदियपाओग्गट्ठाण - जीवपमाणेण सव्वजीवा केवचिरेण कालेन अवहिरिज्जंति ? अंतो मुहुत्तेण । एवं सव्वत्थ दव्वं । ((2) उक्कस्सए द्वाणे जीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अनंतिमभागो । एवं तसपाओग्गसवाणे वत्तव्वं । वणप्फदिकाइयपाओग्गेसु ट्ठाणेसु सव्वट्ठाणजीवाणमसंखेज्जदिभागो । एवं सव्वत्थ वणप्फदिपाओग्गट्ठाणेसु वत्तव्वं । सव्वत्थावा जहण्णए द्वाणे जीवा । उक्कस्सए द्वाणे जीवा असंखेज्जगुणा । अजहण - अणुक्कस्सए द्वाणेसु जीवा अनंतगुणा । अणुक्कस्सए द्वाणे जीवा विसेसाहिया । अजहण सुट्ठाणे जीवा विसेसाहिया । सव्वेसु द्वाणेसु जीवा विसेसाहिया । एवमुक्कस्ससामित्तं समत्तं । ४, २, ६, १४. सामित्तण जहण्णपदे णाणावरणीयवेदणा कालदो जहणिया कस्स ! ॥ १४ ॥ श्रेणिप्ररूपणा करना शक्य नहीं है, क्योंकि, उसके सम्बन्ध में विशिष्ट उपदेशका अभाव है । उत्कृष्ट स्थान सम्बन्धी जीवोंके प्रमाणसे सब स्थानोंके जीव कितने कालके द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे अनन्त कालके द्वारा अपहृत होते हैं । इसी प्रकार त्रसकायिक प्रायोग्य सब स्थानोंके जीवोंकी प्ररूपणा करना चाहिये । एकेन्द्रिय प्रायोग्य स्थानों सम्बन्धी जीवोंके प्रमाणसे सब जीव कितने काल द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा अपहृत होते हैं । इसी प्रकार सर्वत्र ले जाना चाहिये । उत्कृष्ट स्थानमें जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? वे उनके अनन्त भाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार त्रस प्रायोग्य सब स्थानों में कहना चाहिये । वनस्पतिकायिक प्रायोग्य स्थान में सब स्थानोंके जीवोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार सर्वत्र वनस्पतिकायिक प्रायोग्य स्थानोंमें कहना चाहिये । जघन्य स्थान में सबसे स्तोक जीव हैं । उत्कृष्ट स्थानमें उनसे असंख्यातगुणे जीव हैं । अजघन्य- अनुत्कृष्ट स्थानोंमें जीव उनसे अनन्तगुणे है । अनुत्कृष्ट स्थानमें जीव उनसे विशेष अधिक हैं । अजघन्य स्थानों में जीव उनसे विशेष अधिक हैं । सब स्थानों में जीव उनसे विशेष अधिक हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ । स्वामित्वसे जघन्य पदमें ज्ञानावरणीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ १४ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, १५.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त [ ११९ जहण्णपदे इदि पुव्वुत्तअहियारसंभालणटुं णिदिट्ट । सेसकम्मपडिसेहट्ठो णाणावरणीयणिद्देसो । कालणिद्देसो खेत्तादिपडिसेहफलो । पुवाणुपुश्विकम' मोत्तूण पच्छाणुपुव्वीए जहण्णसामित्तपरूवणं किमहूँ कीरदे ? ण, तीहि वि आणुपुव्वीहि परूविदे दोसो पत्थि ति जाणावणटुं तहापरूवणाद।। अधवा, जहण्णट्ठाणादो उक्कस्सट्ठाणं संगहिदाससट्ठाणवियप्पत्तादो पहाणमिदि जाणावणटुं पुवमुक्कस्सट्ठाणपरूवणा कदा । सेसं सुगमं ? ___ अण्णदरस्स चरिमसमयछदुमत्थस्स तस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो जहण्णा ॥ १५॥ ओगाहणादिभेदेहि जहण्णकालविरोहाभावपरूवणट्ठमण्णदरस्से त्ति भणिदं । छदुमं णाम आवरणं, तम्हि चिट्ठदि त्ति छदुमत्थो, तस्स छदुमत्थस्से त्ति णिद्देसेण केवलिपडिसेहो कदो। चरिमसमयछदुमत्थस्से ति णिद्देसो दुचरिमादिछदुमत्थपडिसेहफलो। खीणकसायदुचरिमसमए किण्ण जहण्णसामित्तं दिज्जदे ? ण, तत्थ णाणावरणीयस्स दुसमइयहिदि __ 'जघन्य पदमें ' यह निर्देश पूर्वोक्त अधिकारका स्मरण करानेके लिये कहा है। शेष कर्मों का प्रतिषेध करनेके लिये 'ज्ञानावरणीय' पदका निर्देश किया है। कालके निर्देशका प्रयोजन क्षेत्रादिकोंका प्रतिषेध करना है। शंका - पूर्वानुपूर्वीक्रमको छोड़कर पश्चादानुपूर्वीसे जघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा किसलिये की जा रही है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, तीनों ही आनुपूर्वियोंसे प्ररूपणा करनेपर कोई दोष नहीं होता, यह जतलाने के लिये यहां पश्चादानुपूर्वीक्रमसे प्ररूपणा की गई है। अथवा जघन्य स्थानकी अपेक्षा समस्त स्थानभेदोंका संग्रहकर्ता होनेसे उत्कृष्ट स्थान प्रधान है, यह ज्ञात करानेके लिये पहिले उत्कृष्ट स्थानकी प्ररूपणा की गई है। शेष कथन सुगम है। जो कोई भी जीव छमस्थ अवस्थाके अन्तिम समयमें वर्तमान है उसके कालकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय कर्मकी जघन्य वेदना होती है ॥ १५॥ ___ अवगाहनादिक भेदोंसे जघन्य कालवेदनाके होनेमें कोई विरोध नहीं है, यह बतलाने के लिये सूत्रमें 'अन्यतर' पदका उपादान किया गया है। छद्म शब्दका अर्थ आवरण है, उसमें जो स्थित है वह छद्मस्थ कहा जाता है। उक्त छद्मस्थका निर्देश करनेसे केवलीका प्रतिषेध किया गया है। 'अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ' इस निर्देशका फल द्विचरम-त्रिचरम आदि समयों में वर्तमान छद्मस्थोंका प्रतिषेध करना है। शंका-क्षीणकषाय गुणस्थानके द्विचरम समयमें जघन्य वेदनाका स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ? १ प्रतिषु 'कम्मं ' इति पाठः। २ प्रतिषु 'ओगाहणभेदेहि ' इति पाठः । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ६, १५. दसणादो । एवं तिचरिमादिछदुमत्थेसु वि जहण्णसामित्ताभावो जाणिदूण वत्तव्यो । तम्हा खीणकसायचरिमसमए एगसमइयट्ठिदिणाणावरणकम्मक्खंधे जहण्णसामित्तं होदि त्ति घेत्तव्वं । तवदिरित्तमजहण्णा ॥ १६ ॥ __ एदम्हादो जं वदिरितं तमजहण्णा कालवेयणा होदि । तं च अणेयवियप्पं । तेण तब्मेदपरूवणादुवारेण तेसिं द्वाणाणं सामित्तपरूवणं कस्सामो । तं जहा- एगो खवगो कम्माणि परिवाडीए खविय चरिमसमयखीणकसाई जादो। तस्स खाणकसायस्स चरिमसमए एगा हिदी एगसमयकालपमाणा अच्छिदा। तस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो जहण्णा । एसो जहण्णकालसामी। पुणो अण्णेगो जीवो पुवविधाणेणागतूण दुचरिमसमयखीणकसाई जादो । सो अजहण्णकालसामी । एदं बिदियट्ठाण । पुणो अण्णो जीवो तिचरिमसमयखीणकसाई जादो । एसो वि अजहण्णकालसामी । तं तदियं हाणं । एवं चउत्थादिकमेण ओदारेदव्वं जाव खीणकसायद्धाए संखेज्जदिभागो त्ति । एदे णिरंतरहाण. सामिणो होति । समाधान-नहीं, क्योंकि, वहां ज्ञानावरणीयकी दो समय प्रमाण स्थिति देखी जाती है। इसी प्रकार त्रिचरम आदि छद्मस्थोंमें भी जघन्य घेदनाके स्वामित्वका अभाव जानकर कहना चाहिये। इसीलिये क्षीणकषायके अन्तिम समयमें शानावरण कर्मस्कन्धकी एक समयवाली स्थिति युक्त जीव जघन्य वेदनाका स्वामी होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। जघन्य वेदनासे भिन्न अजघन्य वेदना होती है ॥१६॥ इस जघन्य वेदनासे जो भिन्न है वह कालकी अपेक्षा अजघन्य वेदना है। वह अनेक भेद रूप है । इसलिये उसके भेदोंकी प्ररूपणा करते हुए उन स्थानोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा करते हैं । यथा- कोई एक क्षपक परिपाटीसे काँका क्षपण करके क्षीणकषायके अन्तिम समयवर्ती हुआ। उक्त जीवके क्षीणकषाय होनेके अन्तिम समयमें एक समय काल प्रमाण एक स्थिति रहती है। उसके ज्ञानावरणीयकी घेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है। यह जघन्य कालवेदनाका स्वामी है । पुनः एक दूसरा जीव पूर्व विधिसे आ करके क्षीणकषायके द्विचरम समयवर्ती हुआ। वह अजघन्य क लवेदनाका स्वामी है । यह द्वितीय स्थान है। पुनः एक और जीव क्षीणकषायके त्रिचरम समयवर्ती हुआ । यह भी अजघन्य कालवेदनाका स्वामी है। वह तीसरा स्थान है। इसी प्रकार चतुर्थ पंचम आदिके क्रमसे क्षीण कषायकाल के संख्यातवें भाग तक उतारना चाहिये । ये सब निरन्तर स्थानोंके स्वामी होते हैं। १ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, १६.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त । १२१ पुणो अण्णो जीवो पुव्वविहाणेणागंतूण पुव्वणिरुद्धट्ठिदीए तदणंतरहेहिमखीणकसाई जादो । एदं सांतरमपुणरुत्तवाणं, पुव्विल्लट्ठाणं पेक्खिदूण अंतोमुहुत्तमेत्तहिदीहि अंतरिदणुप्पण्णत्तादो। तं कधं णव्वदे ? एत्थ चरिमद्विदिखंडयचरिमफालीए उवलंभादो, उवरिमहिदिम्मि तदणुवलंभादो । एत्तो प्पहुडि हेट्ठा समऊणुक्कीरणद्धामेत्तीणरंतरहाणेसु समुप्पण्णेसु सई सांतरट्ठाणमुप्पज्जदि। कुदो १ अप्पिद-अप्पिंदविदिखंडयस्स चरिमफालिमेत्तमंतरिदूणुप्पत्तीदो । एवमोदारेदव्वं जाव अणियट्टिअद्धाए संखेज्जदिभागो त्ति । तत्थतणअणियट्टिडिदिसंतादो बादरेइंदियपज्जत्तयस्स णाणावरणजहण्णहिदिसंतं विसेसाहियं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ।। पुणो एदमणियट्टिहिदिसंतं मोत्तूण बादरेइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णढिदिसतं घेत्तूण समउत्तरं वड्ढिदूण पबद्धे णिरंतरमण्णमपुणरुत्तट्ठाणं उप्पज्जदि । पुणो एवं काए वड्डीए वडिदे ति उत्ते असंखेज्जभागवड्डीए । एदस्स वड्ढिदसमयस्स आगमणटुं को भागहारो। बादरेइंदियधुवहिदी । कुदो ? बादरेइंदियधुवटिदीए बादरेइंदियधुवहिदिमवहरिय लद्धमेग __ पश्चात् दूसरा एक जीव पूर्व विधिसे आकर पूर्वकी विवक्षित स्थितिसे तदनन्तर अधस्तन क्षीणकषायी हुआ । यह सान्तर अपुनरुक्त स्थान है, क्योंकि, पूर्वके स्थानकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितियोंके अन्तरसे यह स्थान उत्पन्न हुआ है। शंका-वह कैसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि, यहां अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालि पायी जाती है, परन्तु ऊपरकी स्थितिमें वह नहीं पायी जाती। । यहांसे प्रारम्भ होकर नीचे एक समय कम उत्कीरणकालके बराबर निरन्तर स्थानोंके उत्पन्न होनेपर एक वार सान्तर स्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि, विवक्षित विवक्षित स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालि प्रमाण अन्तर करके वह उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार अनिवृत्तिकरणकालके संख्यातवें भाग तक उतारना चाहिये । वहाके अनिवृत्तिकरणके स्थितिसत्त्वसे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवके शानावरणका जघन्य स्थितिसत्व पल्योपमके असंख्यातवें भागसे विशेष अधिक है। पुनः इस अनिवृत्तिकरण के स्थितिसत्त्वको छोड़कर और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य स्थितिसत्त्वको ग्रहण करके एक एक समय बढ़कर बांधनेपर दूसरा निरन्तर अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है। शंका-यह कौनसी वृद्धि द्वारा वृद्धिंगत हुआ है ? समाधान- वह असंख्यातभागवृद्धिके द्वारा वृद्धिंगत हुआ है। शंका-इस बढ़े हुए समयके निकालनेके लिये भागहार क्या है ? समाधान -इसके लिये भागहार बादर एकेन्द्रियको ध्रुवस्थिति है, क्योंकि, बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिका बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिमें भाग देनेपर जो एक .......... १ आप्रतो' अप्पिद-अणप्पिद' इति पाठः । छ..१-१६. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२) छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ६, १६. समयं तम्मि चेव धुवद्विदि पडिरासिय पक्खित्ते वट्टमाणवड्डिठाणुप्पत्तीदो' । दुसमउत्सरं वडिदण बंधमाणस्स वि असंखेज्जभागवड्डिट्ठाणं चेव । कुदो ? पुन्विल्लभागहारस्स दुमागेण धुवहिदीए ओवट्टिदाए दोण्णं समयाणमागमणदंसणादो । तिसमय उत्तरं वविद्ण पंधमाणस्स वि असंखेज्जभागवड्डी चेव, धुवहिदीए तिभागेण धुवहिदिमोवट्टिदे तिणं वहिदसमयाणमागमणदंसणादो। चदुसमयउत्तरं वड्ढिदूण बंधमाणस्स असंखेज्जदिभागबड़ी चेव, धुवहिदीए चदुभागेण धुवहिदीए ओवट्टिदाए वड्विदचदुरूवाणमागमणदसणादो। एवं बादरेइंदियधुवद्विदीए उवरि बादरेइंदियधुवहिदीए जत्तियाओ पलिदोवमसलागाओ अस्थि, तत्तियमेत्तेसु ममएसु वड्विदेसु वि असंखेज्जभागवड्डी चव होदि, पलिदोवमेण धुवहिदीए ओवट्टिदाए वड्डिदधुवद्विदिपलिदोवमसलागमेत्तसमयाणमागमणदंसणादो । पुणो एगसमयं वड्विदूण बंधमाणस्स वि असंग्वेज्जभागवड्डी चेव, किंचूणपलिदोवमेण धुवट्ठिदीए भागे हिदाए रूवाहियपलिदोवमसलागमेत्तसमयाणमागमणदंसणादो। धुवहिदिपलिदोवमसला. गासु दुगुणमेत्तासु वड्डिदासु वि असंखेज्जभागवड्डी चेव होदि, पलिदोवमदुभागेण धुवहिदीए ओवट्टिदाए दुगुणधुवद्विदिपलिदोवमसलागाणमागमणुवलंभादों । एवं पलिदोवमगुणसमय लब्ध होता है उसे ध्रुवस्थितिको प्रतिराशि करके मिला देनेपर वर्तमान वृद्धिका स्थान उत्पन्न होता हे। उत्तरोत्तर दो-दो समय बढ़कर बांधनेवाले जीवके भी असंख्यातभागवृद्धिस्थान ही होता है, क्योंकि, पूर्व भागहारके द्वितीय भागका ध्रुवस्थितिमें भाग देनेपर दो समय आते देखे जाते हैं। उत्तरोत्तर तीन-तीन समय बढ़कर बांधनेवाले. के भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि, ध्रुवस्थितिके तृतीय भागका धुवस्थितिमें भाग देनेपर वृद्धिंगत तीन समयोंकी प्राप्ति देखी जाती है। चार-चार समय उत्तरोत्तर बढ़कर बांधनेवालेके असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि, ध्रवस्थितिके चतुर्थ भागका ध्रुवस्थितिमें भाग देनेपर वृद्धिप्राप्त चार रूपोंकी उपलब्धि देखी जाती है। इस प्रकार बादर एकेन्द्रियकी धुवस्थितिके ऊपर बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिमें जितनी पल्योपमशलाकायें हैं उतने मात्र समयोंकी वृद्धि हो चुकनेपर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि, पल्योपमका ध्रुवस्थितिमें भाग देनेपर ध्रुवस्थितिकी पल्योपमशलाकाओं प्रमाण वृद्धिंगत समयोंकी उपलब्धि देखी जाती है । तत्पश्चात् एक समयकी वृद्धि होकर बांधनेवालके भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि, कुछ कम पल्योपमका धुवस्थितिमें भाग देनपर एक अधिक पल्यापमशलाकाओ प्रमाण समयोकी उपलब्धि देखा ध्रुवस्थितिमें जितनी पल्योपमशलाकायें हैं उनसे दूनी वृद्धिके होनेपर भी असं. ख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि, पल्योपमके अर्ध भागका ध्रुवस्थितिमें भाग देनेपर दूनी ध्रुवस्थितिकी पल्योपमशलाकायें प्राप्त होती हैं। इस प्रकार पल्योपमकी , तापतौ वड्डमाणवडिहाणुप्पत्तीदो' इति पाठः । २ अ-काप्रत्योः - मागमुवलंभादो' इति पाठः। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२३ ५, २, ६, १६.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्तं गारसलागमेत्तपढमवग्गमूलाणि वड्डिदूण बंधमाणस्स वि असंखेज्जभागवड्डिट्ठाणं व होदि । कुदो १ पलिदोवमवग्गमूलेण धुवट्ठिदीए ओवट्टिदाए धुवट्ठिदिपलिदोवमसलागमेत्तपलिदोवमपढमवग्गमूलाणमागमुवलंभादो । एवं बादरधुवद्विदीए भागहारो पलिदोवमबिदियवग्गमूलं होदूण, पुणो कमेण हाइदूण तदियवग्गमूलं होदूण, पुणो आवलियं होदूर्ण जाव जहण्णपरित्तासंखेज्ज पत्तो त्ति ताव वड्ढावेदव्यो । एवं वड्डिदे वि असंखेज्जभागवडी चेव । कुदो १ जहण्णपरित्तासंखेज्जेण बादरेइंदियधुवहिदीए ओवट्टिदाए वडिरूवाणमुवलंभादो। बादरेइंदियवीचारट्ठाणाणि पेक्खिदूण एदे वडिदसमया असंखेज्जगुणा होति, पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागत्तादो, आवलियाए असंखेज्जदिभागेण पलिदोवमे भागे हिंदे बादरेइंदियवीचारहाणाणं पमाणुप्पत्तीदो, बादरेइंदियउक्कस्सहिदीए उवरि समउत्तरादिकमेण बंधो ण लब्भदि त्ति। संपहि द्विदिघादमस्सिदूण उवरिमट्ठाणाणमुप्पत्ती परूवेदव्वा । तं जहाबादरेइंदियउक्कस्सहिदीदो समउत्तरं घादिदूण इविदे असंखेज्जभागवडी होदि । उवरिमहिदिं पुणो घादिदूण बादरेइंदियउक्कस्सद्विदिबंधादो दुसमउत्तरं कादण विदे तमण्णमपुणरुत्तमसंखेज्जभागवड्डिट्ठाणं होदि । तिसमउत्तरं कादूण दृविदे अण्णमपुणरुत्त गुणकारभूत शलाकाओं प्रमाण पल्योपम-प्रथमवर्गमूलोकी वृद्धि होकर बांधनेवालेके भी असंख्यातभागवृद्धि का ही स्थान होता है, क्योंकि, पल्योपमके वर्गमूलका ध्रुवस्थितिमें भाग देनेपर ध्रुवस्थितिकी पल्योपमशलाकाओं प्रमाण पल्योपम-प्रथम वर्गमूलोंकी उपलब्धि पायी जाती है । इस प्रकार बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिका भागहार पल्योपमका द्वितीय वर्गमूल होकर, फिर क्रमसे हीन होकर तृतीय वर्गमूल होकर, फिर आवली होकर, जब तक जघन्य परीतासंख्यात प्राप्त नहीं होता तब तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार भागहारके बढ़ने पर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होती है, क्योंकि, जघन्य परीतासंख्यातका बादर एकेन्द्रियकी धुवस्थितिमें भाग देने पर वृद्धिप्राप्त अंक उपलब्ध होते हैं। ये वृद्धिंगत समय बादर एकेन्द्रियके वीचारस्थानोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे पल्योपमके संख्यातचे भाग प्रमाण हैं, आवलीके असंख्यातवें भागका पल्योपममें भाग देनेपर बादर एकेन्द्रियके वीचारस्थानोंका प्रमाण उत्पन्न होता है तथा बादर एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थितिके ऊपर एक समयादिककी अधिकताके क्रमसे बन्ध नहीं पाया जाता। अब स्थितिघातका आश्रय करके उपरिम स्थानोंकी उत्पत्तिकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-बादर एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थिति से एक-एक समय घात करके स्थापित करनेपर असंख्यातभागवृद्धि होती है। पश्चात् उपरिम स्थितिको फिरसे घातकर बादर एकेन्द्रियके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे दो दो समय अधिक करके स्थापित करने पर बह दूसरा अपुनरुक्त असंण्यातभागवृद्धिका स्थान होता है। तीन-तीन समय अधिक करके स्थापित करनेपर अन्य भपुनरुक स्थान होता है। इस Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ छक्खंडागमे वैयणाखंड ४, २, ६, १६. हाणं होदि । एवं णेदव्वं जाव बादरेइंदियधुवहिदि जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडेदूण एगखंडमेत्तेण वड्डिदूणच्छिदहिदित्ति । पुणो एदस्सुवरि द्विदिघादेण समउत्तरं वडिदे वि असंखज्जभागवड्डी होदि । एदस्स्स छेदभागहारो। तं जहा- जहण्णपरित्तासंखेज विरलेदूण पादरेइंदियधुवहिदि समखंडं कादूण दिण्णे विरलणरूवं पडि जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडिदेगखंडमागच्छदि । पुणो एदं समयाहियमिच्छामो त्ति एत्थ एगरूवधरिदं हेट्ठा विरलिय तं चेव समखंडं कादण दिण्णे एगरूवस्स वड्डिपमाणं पावदि । पुणो एदं उवरि दादूण समकरणं करिय रूवाहियहेट्टिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमावट्टिय लद्धमेगरूवस्स असंखेजदिभागमुवरिमविरलणाए Cअच्छेदनस्य राशेः रूपं छेदं वदन्ति गणितज्ञाः । ___ अंशाभावे नाशं छेदस्याहुस्तदन्वेव ॥५॥) ........... प्रकार बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करके एक खण्ड मात्रसे वृद्धिंगत होकर स्थितिके स्थित होने तक ले जाना चाहिये । पश्चात् इसके ऊपर स्थितिघातसे उत्तरोत्तर एक एक समय बढ़नेपर भी असंख्यातभागवृद्धि होती है। इसके छेदभागहारको कहते हैं। यथा- जघन्य परीतीसंख्यातका विरलन करके ऊपर बादर एकेन्द्रियकी ध्वस्थितिको समखण्ड करके देने पर एक एक विरलन अंकके प्रति जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित करने पर एक खण्ड प्राप्त होता है। फिर चूंकि इसे एक समय अधिक चाहते हैं, अतः एक अंकके प्रति प्राप्त राशिका नीचे विरलन करके ऊपर उसको ही समखण्ड करके देने पर एक रूपका वृद्धिप्रमाण प्राप्त होता है। फिर इसको ऊपर देकर समकरण करके एक अधिक नीचेके विरलन प्रमाण स्थान जाकर उसको ही समखण्ड करके देनेपर एक रूपका वृद्धिप्रमाण प्राप्त होता है। इसको ऊपर देकर समकरण करके एक अधिक नीचेकी विरलन राशिके बराबर स्थान जाकर यदि एक रूपकी हानि प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनके बराबर स्थान जाकर कितनी हानि प्राप्त होगी, इस प्रकार फल राशिसे गुणित इच्छा राशिमें प्रमाण राशिका भाग देनेपर जो एक रूपका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है उसको ऊपरकी विरलन राशिमैसे जब राशिमें कोई छेद नहीं होता तब गणितज्ञ उसका छेद एक मान लेते हैं (जैसे ३३)। और जब अंशका अभाव हो जाता है तब छेदोका भी नाश समझना चाहिये (* -* = *30) ॥५॥ .................................... २ अ-काप्रत्योः ‘हिदहिदि ' इति पाठः । । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६. वेयणमहाहियारे वैयणकालविहाणे सामित्त । १२५ एदेण लक्खणेण सरिसछेदं कादूण सोहिदे सुद्धसेसमुक्कस्ससंखेज्जमेगरूवस्स असंखेज्जा भागा च भागहारो होदि । एदेण बादरधुवहिदीए ओवट्टिदाए इच्छिदट्ठाणस्स वड्डिसमया आगच्छंति । पुणो हिदिघादेण दुसमउत्तरं द्विदिं धरेदूण द्विदस्स वि असंखेज्जभागवड्डीए अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एत्थ वि छेदभागहारो चेव । तिसमउत्तरं धरेदण ट्ठिदस्स असंखेज्जभागवड्डीए अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं ताव छेदभागहारो होदण गच्छदि जाव बादरेइंदियधुवहिदिं जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडेदृण तत्थ एगखंडस्सुवरि तं चेव उक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदूण तत्थ एगखंडं रूऊणं वड्डिदं त्ति । पुणो संपुण्णं वडिदे समभागहारो होदि । कुदो ? उक्कस्ससंखेज्जेण रूवाहिएण जहण्णपरित्तासंखेज्जे भागे हिदे उवरिमविरलणाए अवणेदुमेगरूबुवलंभादो । एत्थ संखेज्जभागवड्डीए आदी असंखेज्जभागवड्डीए परिसमत्ती च जादा । पुणो एदम्सुवरि अण्णो जीवो द्विदिघादं करेमाणो समउत्तरद्विदि धरेदूण विदो। एत्थ वि संखेज्जभागवड्डी चेव । एदिस्से वड्डीए छेदभागहारो होदि । तं जहा- उवरिमेगरूवधरिदं हेट्ठा विरलेदूण तं चैव समखंडं कादूण दिण्णे एक्कक्कस्स रुवस्स एगेगो समओ पावदि । पुणो एदं उवरिमरूवधरिदेसु पक्खिविय समकरणे कीरमाणे परिहीण इस नियमके अनुसार समखण्ड करके घटा देनेपर अवशिष्ट उत्कृष्ट संख्यात व एक रूपका असंख्यात बहुभाग भागहार होता है । इसका बादर एकेन्द्रियकी धुवस्थितिमें भाग देनेपर अभीष्ट स्थान के वृद्धिंगत समय प्राप्त होते हैं। फिर स्थितिघातसे उत्तरोत्तर दो समयोंकी अधिकताको प्राप्त स्थितिको ग्रहणकर स्थित हुए जीवके भी असंख्यातभागवृद्धिका अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । यहां भी छेदभागहार ही होता है। तीन तीनं समय अधिक स्थितिको ग्रहणकर स्थित जीवके असंख्यात भाग वृद्धिका अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार तब तक छेदभागहार होकर जाता है जब तक कि बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित कर उससे एक खण्डके ऊपर उसको ही उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमेंसे एक अंक कम एक खण्डकी वृद्धि नहीं हो जाती । तत्पश्चात् पूरे खण्ड प्रमाण वृद्धि हो जाने पर समभागहार होता है, क्योंकि, जघन्य परीतासंख्यातमें एक अधिक उत्कृष्ट संख्यातका भाग दंनपर ऊपरकी विरलन राशिमसे कम करनेके लिये एक रूप उपलब्ध होता है । अब यहां संख्यातभागवद्धिका प्रारम्भ और असंख्यातभागवृद्धिकी समाप्ति हो जाती है। इसके ऊपर अन्य जीव स्थितिघातको करता हुआ एक-एक समय अधिक स्थितिको लेकर स्थित हुआ। यहां भी संख्यातभागवृद्धि ही होती है। इस वृद्धिका छेदभागहार होता है । यथा- ऊपरके एक एक अंकके ऊपर स्थित राशिका नांचे विरलन करके ऊपर उसको ही समखण्ड करके देनेपर हर एक अंकके प्रति एक एक समय प्राप्त होता है। फिर इसको ऊपरके अंकोंपर स्थित राशियों में मिलाकर Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६) छक्खंडागमे वैयणाखंड ( १, २, ६, १६. रूवाणं पमाणं उच्चदे- रूवाहियहेट्टिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लन्मदि तो उवरिमविरलणम्मि किं लभामा त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स असंखेज्जदिमागो आगच्छदि । एदमुक्कस्ससंखेज्जम्मि सोहिदे एगरूवस्स असंखेज्जा भागा रूवूणुक्कस्ससंखेज्जं च भागहारो होदि । पुणो दुसमउत्तरं वडिदे संखेज्जभागवडिट्ठाणं होदि । एदस्स वि छेदभागहारो । तिसमउत्तरं वड्डिदे वि संखेज्जभागवडी चेव । एवं ताव छेदभागहारो होदृण गच्छदि जाव बादरेइंदियधुवहिदि उक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदूण पुणो तत्थेगखंडं रूवूणुक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदृण तत्थेगखंडं रूवूणं वडिदं ति । संपुणं वडिदे समभागहारो होदि । तं च कधं १ रूवणुक्कस्ससंखेज्जं विरलेदूण उवरिमेगरूवधरिदं समखंडं कादूण दिण्णे वड्डिपमाणं होदि । एदमुवरिमरूवधरिदेसु दादण समकरणे कीरमाणे स्वाहियहेट्टिमविरलगमेत्तद्धाणं गंतूण एगरूवपरिहाणी होदि त्ति रूवाहियहेट्टिमविरलणाए उवरिमविरलणाए ओवट्टिदाए एगरूवमागच्छदि । तम्मि उवरिमविरलणाए सोहिदे रूवूणुक्कस्ससंखेज्जं भागहारो होदि । पुणो एदेण समकरण करते हुए हीन रूपोके प्रमाणको कहते हैं- एक अधिक नीचेकी विरलन राशि प्रमाण अध्वान जाकर यदि एक रूपकी हानि पायी जाती है तो ऊपरकी विरलन शिमें वह कितनी प्राप्त होगी, इस प्रकार फलगुणित इच्छा राशिमें प्रमाण राशिका भाग देनेपर एक रूपका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है। इसको उत्कृष्ट संख्यातमेंसे कम करनेपर शेष एक रूपका असंख्यात बहुभाग और एक कम उत्कृष्ट संख्यात भागहार होता है। आगे दो-दो समय बढ़नेपर संख्यातभागवृद्धिका स्थान होता है। इसका भी छेदभागहार है । तीन-तीन समय बढ़ने पर भी संख्यातभागवृद्धि ही होती है। इस प्रकार तय तक छेदभागहार होकर जाता है जब तक कि बादर एकेन्द्रियकी धुवस्थितिको उत्कृष्ट संख्यातसे स्खण्डित करके फिर उसमेंले एक खण्डको एक कम उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करनेपर उसमें से एक कम एक खण्ड प्रमाण वृद्धि नहीं हो जाती। सम्पूर्ण खण्ड प्रमाण वृद्धि हो घुकनेपर समभागहार होता है। शंका- वह कैसे? समाधान- एक कम उत्कृष्ट संख्यातका विरलन कर उपरिम विरलनके एक रूपपर रखी हुई राशिको समखण्ड करके देनेपर वृद्धिका प्रमाण होता है। इसको उपरिम रूपोपर रखी हुई राशियोंके ऊपर देकर समकरण करते हुए एक अधिक नीषेकी विरलनराशि प्रमाण अध्वान जाकर चूंकि एक अंककी हानि होती है, मतः एक अधिक नीचेकी विरलन राशिका ऊपरकी विरलन राशिमें भाग देनेपर एक अंक आता है। उसको उपरिम विरलन राशिमेंसे कम करनेपर एक कम इसका संख्यात भागहार होता है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेण महाहियारे वेयणकाल विहाणे सामित्तं [ १२७ ४, २, ६, १६. ] बादरधुवदीए ओट्टिदाए संखेज्जभागवड्डिसमया लब्भंति । एवं छेद भागहार-समभागहारहि ट्ठिदिघादमस्सिदूण णदव्वं जाव धुर्वट्ठिदिभागहारो दारुवपमाणो पत्तो त्ति । पुणो अण्णो जीवो द्विदिघादं करेमाणो समउत्तराए द्विदीए आगदो । तमण्णं संखेज्जभागवड्ढिट्ठाणं |दि । पुणो एदस्स छेदभागहारो । तं जहा - उवरिमए गरूवधरिदं विरलेदूण- तं चैव समखंडं काढूण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स एगेग समयपमार्ण पावदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदं घेत्तूण उवरिमएगरूवधरिदम्मि दादूण समकरणे कीरमाणे रुवाहियहेट्ठिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण एगरूवपरिहाणी होदि त्ति रूवाहियहट्ठिमविरलणाए उवरिमविरलणाए ओट्टिदाए एगरूवस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि । एदं सरिसछेदं कारण दारूवे सोहिदे एगरूवस्त असंखेज्जा भागा सगलमेगरूवं च भागहारो होदि । पुणो एदेण बादरधुवट्ठिदिमोवट्टिय लद्धमेत्ते वड्डाविदे अण्णमपुणरुतं संखज्जभागवड्डिाणं होदि । पुणो दुसमउत्तरं वडिदे वि संखेज्जभागवडिट्ठाणं होदि । एदस्स वि छेदभागहारो होदि । एदेण कमेण छेदभागद्दारो ताव गच्छदि जाव बादरघुवट्ठिदि दोहि रूवेहि खंडेदूण पुणो तत्थ एगखंड रूऊणं दोहि रूवेहि अवहिरिय फिर इसका बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थिति में भाग देनेपर संख्यातभागवृद्धिके समय प्राप्त होते हैं। इस प्रकार छेदभागहार और समभागहारके द्वारा स्थितिघातका आश्रय करके ध्रुवस्थितिभागहारके दो अंक प्रमाण प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । पुनः दूसरा जीच स्थितिघातको करता हुआ उत्तरोत्तर एक-एक समय अधिक स्थिति के साथ आया । वह संख्यात भागवृद्धिका अन्य स्थान होता है। अब इसके छेदभागहारको कहते हैं। यथा- ऊपरके एक अंकके प्रति प्राप्त राशिका विरलन करके उसे ही समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति एक एक समय प्रमाण प्राप्त होता है । फिर इसमेंसे एक अंकके ऊपर रखी हुई राशिको ग्रहण कर उसे उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त राशिमें देकर समकरण करते हुए एक अधिक अधस्तन विरलन प्रमाण स्थान जाकर चूंकि एक रूपकी हानि होती है, अतः एक अधिक अधस्तन विरलनका उपरिम विरलनमें भाग देनेपर एक रूपका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है । इसको समानखण्ड करके दो रूपोंमेंसे घटा देनेपर एक रूपका असंख्यात बहुभाग और एक पूर्ण रूप भागहार होता है । फिर इससे बादर ध्रुवस्थितिको अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उतना बढ़ानेपर संख्यातभागवृद्धिका अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । पुनः दो दो समय अधिक बढ़नेपर भी संख्यात भागवृद्धिका स्थान होता है। इसका भी छेदभागहार होता है। इस क्रमसे छेदभागहार तब तक जाता है जब तक बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिको दो रूपोंसे खण्डित करके उसमेंसे एक खण्डको एक कम करके पुनः दो रूपोंसे खण्डित करनेपर Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १६. लद्धरूवूणमेत्तं वडिदं त्ति । संपुण्णे वडिदे समभागहारो होदि । तं जहा - एगरूवं विरलेदूण उवरिमेरूवधरिदं दादूण समकरणं करिय रूवाहियहेडिमविरलणाए उवरिमविरलणाए ओवट्टिदाए एगरूवमागच्छदि । तम्मि दोसु रूवेसु सोहिदे एगरूवं भागहारो होदि । एदेणोवट्टिदबादरधुवट्ठिदीए बादरधुवट्ठिदीऐ उवरि' पक्खित्ताए संखेज्जगुणवड्डीए आदी होदि, दोंरूवेहि बादरघुवट्ठिदीए गुणिदाए उप्पण्णत्तादो । एदस्सुवरि समउत्तरं वडिदे छेदगुणगारो होदि । दोष्णं रूवाणं उवरि एगरूववड्डिनिमित्तपक्खेवो उच्चदे । तं जहा - धुवट्ठिदी वढमाणाए जदि एगरूवगुणगारो लब्भदि तो एगसमयस्स किं लभाभो ति वी गरु वट्टिदे पक्खेवपमाणं होदि । एत्थ धुवट्ठिदित्ति संदिट्ठीए चत्तारि | ४ | रुवाणि । एदस्स गुणगारो एत्तिओ होदि | | | पुणो एदेण चादरधुवट्ठिदीए गुणिदाए रूवाहियदु गुणवड्ढिड्डाणं होदि |९|| पुणो दुसमउत्तर वडिदे वि छेदगुणगारो होदि । एत्थ पुत्रं व तेरासियकमेण च्छेदगुणगारो साइयव्वो । तस्स पमाणमेदं |२|| एदेण बादरधुवट्ठिदीए गुणिदाए दुसमउत्तरदुद्गुणवडी जो प्राप्त हो उसमें से एक कम करनेपर प्राप्त राशि प्रमाण वृद्धि नहीं हो जाती । पूर्ण लब्ध प्रमाण वृद्धि के होनेपर समभागहार होता है । यथा— एक रूपका विरलन करके ऊपर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको देकर समकरण करके एक अधिक अधस्तन विरलनका उपरिम विरलन में भाग देनेपर एक रूप प्राप्त होता है । उसको दो रूपोंमेंसे कम कर देनेपर एक रूप भागद्दार होता है। इससे अपवर्तित बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिको उसकी ध्रुवस्थितिके ऊपर प्रक्षिप्त करनेपर संख्यातगुणवृद्धिका प्रारम्भ होता है, क्योंकि, वह बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिको दो अंकोंसे गुणित करनेपर उत्पन्न हुई है । इसके ऊपर उत्तरोत्तर एक एक समयकी वृद्धि होनेपर छेदगुणकार होता है । अब दो रूपों के ऊपर वृद्धिके निमित्तभूत प्रक्षेपको कहते हैं । यथा- ध्रुवस्थिति प्रमाण वृद्धिके होनेपर यदि एक रूप गुणकार प्राप्त हे ता है तो एक समयकी वृद्धिमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार ध्रुवस्थितिसे एक रूपको अपवर्तित करनेपर प्रक्षेपका प्रमाण होता है । यहां संदृष्टिमें ध्रुवस्थितिके लिये ४ अंक है । इसका गुणकार इतना ( 3 ) है | इससे बादर ध्रुवस्थितिको गुणित करनेपर एक अधिक दूनी वृद्धिका स्थान होता है8×3 = ९ =४ x २ + १ । दो समय अधिक वृद्धिके होनेपर भी छेदगुणकार होता है। यहां पहिलेके समान ही त्रैराशिक क्रमसे छेदगुणकारको सिद्ध करना चाहिये । उसका प्रमाण यह है- ई। इससे बादर ध्रुवस्थितिको गुणित करनेपर दो समय अधिक १ अप्रतौ ' बादर अद्ध्रुवट्ठिदीए ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' उवरिम ' इति पाठः । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त [ १२९ होदि । १० । एदेण कमेण छेदगुणगारो होदूण ताव गच्छदि जाव अण्णगरूवूणधुवट्ठिदिमेतं वड्डिदे त्ति । पुणो संपुण्णधुवहिदीए वड्डिदाए तिगुणवड्डी होदि, बादरधुवहिदिमेत्तसमयाणं जदि एगा गुणगारसलागा लब्भदि तो बादरधुवहिदीए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवहिदाए एगगुणगारसलागुवलंभादो । पुणो एवं सलागं दोसु रुवेसु पक्खिविय बादरधुट्टिदीए गुणिदाए तिगुणवड्डिहाणं होदि । तस्स पमाणमेदं । १२ । पुणो एदस्सुवरि समउत्तर वड्डिदे छेदगुणगारो होदि । तं जहा-धुवहिदिमेत्तसमयाणं जदि एगरूवं गुणगारो लन्भदि तो एगसमयस्स किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि । एदम्मि तिसु रूवेसु पक्खित्ते एत्तियं होदि |१३|| एदेण बादरधुवद्विदीए गुणिदाए समयाहियतिगुणवड्डिट्ठाणं होदि | १३| | पुणो दुसमउत्तरं वड्डिदे छेदगुणगारो होदि । एत्थ गुणगोर उप्पाइज्जमाणे पुविल्लमंसं दुगुणिय तिसु रूवेसु पक्खवो कायव्वो । १।२। तिसमयउत्तरं वड्डिदे छेदगुणगारो होदि । एत्थ पुव्वु दुगुणी वृद्धि होती है.-४४५ = १० = ४४२+२। इस क्रमले छेदगुणकार होकर तब तक जाता है जब तक कि अन्य एक अंकसे कम ध्रुवस्थिति प्रमाण वृद्धि नहीं हो जाती। पश्चात् सम्पूर्ण ध्रुवस्थिति प्रमाण वृद्धिके हो जानेपर तिगुणी वृद्धि होती है। कारण यह है कि बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थिति प्रमाण समयोंके यदि एक गुणकारशलाका पायी जाती है तो बादर ध्रुवस्थिति में कितनी गुणकारशलाकायें प्राप्त होगी, इस प्रकार फलगुणित इच्छामें प्रमाण राशिका भागं देनेपर एक गुणकारशलाका पायी जाती है। इस शलाकाको दो रूपोंमें मिलाकर उससे बादर ध्रुवस्थितिको गुणित करनेपर तिगुनी वृद्धि होती है। उसका प्रमाण यह है- (२+१)४४ = १२ । इसके ऊपर एक समय अधिक बढ़नेपर छेदगुणकार होता है । यथा-ध्रुवस्थिति प्रमाण समयोंका यदि एक अंक गुणकार प्राप्त होता है तो एक समयका कितना गुणकार प्राप्त होगा, इस प्रकार फलगुणित इच्छामें प्रमाण राशिका भाग देनेपर एक रूपका असंख्यातवां भाग आता है- है। इसको तीन रूपोंमें मिलानेपर इतना होता है- ३ + । इसके द्वारा बादर ध्रुवस्थितिको गुणित करनेपर एक समय अधिक तिगुणी वृद्धिका स्थान होता है-४x७ १३ -४४३ + १ पश्चात् दो समय अधिक वृद्धिके होनेपर छेदगुणकार होता है। यहां गुणकारको उत्पन्न कराते समय पूर्वके अंशको दुगुणित कर उसे तीन रूपोंमें मिलाना चाहिये। x २। तीन समय अधिक बढ़नेपर छेदगुणकार होता है। यहां पूर्वके अंशको तीनसे गुणित १ प्रतिषू 'अण्णेगं' इति पाठः । छ. ११-१७. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१,२६, १६. तसो तिगुणेदवो । १।३। एदं गुणगारो होदूण ताव गच्छदि जाव पुविल्लंसो रूवूणधुवद्विदीए गुणेदूण तिसु रूवेसु पक्खित्तो त्ति । पुणो एत्थ वि पुव्विल्लंसं पुण्णधुवहिदीए गुणिय तिसु रुवेसु पक्खित्ते चत्तरिगुणगाररूवाणि होति । तेहि धुवहिदीए गुणिदाए चदुगुणवड्डी होदि । १६ । एवं छेद-समगुणगारकमेण बंध-संते अस्सिदूण णेदवं जाव सण्णिपंचिंदियधुवहिदि ति । तिस्से पमाणं संदिट्ठीए अट्ठावीस । २८ । पुणो एदिस्से उवरि समउत्तरं पबद्धे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एदस्स गुणगारपमाणमेदं|७|| एदेण धुवट्टिदीए गुणिदाए सण्णिपंचिंदियस्स समयाहियधुवट्ठिदिट्ठाणं होदि | २९ । एवं छेद-समगुणगारसरूवेण णेदव्वं जाव बादरधुवहिदीए उक्कस्सगुणगारसलागाओ रूवूणाओ पविट्ठाओ त्ति । एदमण्णमपुणरुत्तहाणं होदि । २२८ । पुणो एदिस्से उवरि समउत्तरं वढिदूण बद्धे' अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एदस्स छेदगुणगारो । तं जहा- बादरधुवहिदिमेत्तसमएसु वड्डिदेसु जदि एगा गुणगारसलागा लन्भदि तो एगसमए वड्डिदे किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छमावट्टिय लद्धे करना चाहिये ! x ३। इस प्रकार छेदगुणकार होकर तब तक जाता है जब तक कि पूर्वका अंश एक कम ध्रुवस्थितिसे गुणित होकर तीन रूपोंमें प्रक्षिप्त नहीं हो जाता। फिर यहां भी पूर्वके अंशको पूर्ण ध्रुवस्थितिसे गुणित कर तीन रूपोंमें मिला देनेपर गुणकार चार अंक होते हैं। उससे ध्रुवस्थितिको गुणित करनेपर चौगुणी वृद्धि होती है-४४४ = १६। इस प्रकार छेदगुणकार और समगुणकारके क्रमसे बन्ध व सत्त्वका आश्रय करके संशी पंचेन्द्रिय जीवकी ध्रुवस्थिति तक ले जाना चाहिये । उसका प्रमाण संदृष्टिमें अट्ठाईस २८ है। फिर इसके ऊपर एक समयकी वृद्धि होनेपर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। उसके गुणकारका प्रमाण यह है-७१। इससे धुवस्थितिको गुणित करनेपर संशी पंचेन्द्रिय जीवकी एक समयसे अधिक धुवस्थितिका स्थान होता है - x २९ = २९ । इस प्रकार छेदगुणकार और समगुणकार स्वरूपसे बादर धुवस्थितिमें एक कम उत्कृष्ट गुणकारशलाकाओंके प्रविष्ट होने तक ले जाना चाहिये । यह अन्य अपुनरुक्तस्थान होता है २२८ । इसके ऊपर एक समय अधिक बढ़ करके बन्ध होनेपर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। इसका छेदगुणकार होता है । यथा- बादर ध्रुवस्थिति प्रमाण समयोंके बढ़नेपर यदि एक गुणकारशलाका प्राप्त होती है तो एक समयके बढ़नेपर कितनी गुणकारशलाकाएं प्राप्त होगी, इस प्रकार फलगुणित इच्छामें प्रमाण राशिका भाग १ प्रतिषु ' लढे ', मप्रतौ ' बंधे ' इति पाठः। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, १६.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त पुविल्लरूवेसु पक्खित्तेसु गुणगारो होदि त्ति || पुणो एदेण बादरधुवद्विदीए गुणिदाए संपहियट्ठाणं होदि [२२९ । दुसमउत्तरं वडिदूण बद्धे अण्णमपुणरुत्तहाणं होदि । एत्थ पुव्वुत्तंसं दुगुणिय सगलरूवेसु पक्खेवो कायव्वो।१।२। एदम्मि पुन्विल्लरूवेसु पक्खित्ते एत्तियं होदि ५७।। एदेण बादरधुवहिदीए गुणिदाए दुसमउत्तरहाणं होदि |२३० । तिसमउत्तरं पंधिदूणागदस्स अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं हीदि । पुव्वत्तसं तिगुणिय | १३|| पुव्वुत्तगुणगाररूवेहि सह मेलाविदे एत्तियं होदि १७ । पुणो एदेण बादरधुवहिदीए गुणिदाए इच्छिदवड्डिहाणं होदि २३१)। एवं छेदगुणगारो होदूण ताव गच्छदि जाव पुव्वुत्तंसस्स रूवूणबादरधुवट्टिदी गुणगारो जादो त्ति । पुणो समउत्तरं वड्डिदूण पबद्ध समगुणगारो होदि । तस्स पमाणमट्ठवंचास [५८|| पुणो एदेण बादरधुवहिदीए गुणिदाए चरिमसंखेज्जगुणवड्विट्ठाणं होदि । तं च एदं |२३२ [ । एवं णाणावरणीयस्स तीहि वडीहि अजहण्णपरूपणा बादरधुवट्ठिदिमस्सिदूण कदा । जहण्णढिदिमस्सिदूण पुण देनेपर जो लब्ध हो उसे पूर्व रूपोंमें मिलानेपर गुणकार होता है-५७१ । इससे बादर ध्रुवस्थितिको गुणित करने पर साम्प्रतिक स्थान होता है-२१.x} = २२९ । पश्चात् दो समय अधिक बढ़कर बन्ध होने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। यहां पूर्वोक्त अंशको दुगुणित करके समस्त रूपों में मिलाना चाहिये--२ = । इसको पूर्व रूपोंमें मिलानेपर इतना होता है- ५७ + 1 = ५७३ । इससे बादर ध्रुवस्थितिको गुणित करनेपर दो समय अधिक वृद्धिका स्थान होता है३५ x = २३० । तीन समय अधिक बढ़कर आये हुए जीवके अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। पूर्वोक्त अंशको तिगुणा करके (४३) पूर्वोक्त गुणकार रूपोंके साथ मिलानेपर इतना होता है-५७ है। इससे बादर ध्रुवस्थितिको गुणित करने पर इच्छित वृद्धिस्थान होता है-२३' x = २३१ । इस प्रकार पूर्वोक्त अंशका गुणकार एक कम ध्रुवस्थितिके होने तक छेदगुणकार होकर जाता है। पश्चात् एक समय भधिक बढ़कर बन्ध होने पर समगुणकार होता है। उसका प्रमाण अट्ठावन ५८ है। इससे बादर धुवस्थितिको गुणित करनेपर संख्यात गुणवृद्धिका अन्तिम स्थान होता है। वह यह है- ५८४४ - २३२ । इस प्रकार बादर एकेन्द्रिय जीवकी ध्रुधस्थितिका माधय करके तीन वृद्धियोंके द्वारा मानापरणीयकी अजघन्य स्थितिके स्वामित्वकी प्ररूपणा की है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२) छक्खंडागमे वैयणाखंड (४, २, ६, १७. संखेज्जगुणवड्डि-असंखज्जगुणवड्डि त्ति दो चेव वड्डीओ होति, ओघजहण्णट्ठिदिं पेक्खिदूण ओघुक्कस्सहिदीए असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । एवं संखेज्जपलिदोवमेहि ऊण त्तीससागरोवम-' कोडाकोडिमेत्तअजहण्णट्ठाणवियप्पा णाणावरणीयस्स परूविदा । एत्थ जीवसमुदाहारपरूपणा जहा अणुक्कस्सट्ठाणेसु परूविदा तहा परूवेदव्वा । एवं दसणावरणीय-अंतराइयाणं ॥ १७ ॥ जहा णाणावरणीयस्स जहण्णाजहण्णढिदिसामित्तपरूवणा कदा तहा दंसणावरणीय-अंतराइयाणं पि कायव्वा, विसेसाभावादो। सामित्वेण जहण्णपदे वेयणीयवेयणा कालदो जहणिया कस्स ? ॥ १८ ॥ सुगममेदं । अण्णदरस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स तस्स वेयणीयवेयणा कालदो जहण्णा ॥ १९ ॥ परन्तु जघन्य स्थितिका आश्रय करके संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि ये दो ही वृद्धियां होती हैं, क्योंकि, ओघजघन्य स्थितिकी अपेक्षा ओघउत्कृष्ट स्थिति असंख्यातगुणी पायी जाती है। इस प्रकार संख्यात पल्योपमोसे हीन तीस कोड़ाकोडि सागरोपम मात्र ज्ञानावरणीयके अजघन्य स्थानभेदोंकी प्ररूपणा की है। यहां जीवसमुदाहारकी प्ररूपणा जैसे अनुत्कृष्ट स्थानोंमें की गई है वैसे ही करनी चाहिये। इसी प्रकार दर्शनावरणीय एवं अन्तराय कौकी जघन्य व अजघन्य स्थितिके स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ १७ ॥ जैसे शानावरणीय कर्मकी जघन्य व अजघन्य स्थितिके स्वामित्वकी प्ररूपणा की है वैसे ही दर्शनावरणीय और अन्तराय की भी करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। स्वामित्वसे जघन्य पदमें वेदनीय कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? । १८ ॥ यह सूत्र सुगम है। जो कोई जीव भव्यसिद्धिककालके अन्तिम समयमें स्थित है उसके वेदनीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ १९ ॥ १ अ-आ-काप्रतिषु ' - सागरोवमाणि' इति पाठः । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २०.] वेयणमहाहियारे वेषणकालविहाणे सामित्त [१३३ ओगाहण-संठाणादीहि विसेसो णत्थि त्ति अण्णदरस्से त्ति उत्तं । भवसिद्धिओ णाम अजोगिभडारओ। तस्स चरिमसमए एगा ट्ठिदी एगसमयकाला होदि त्ति भवसिद्धियचरिमसमए जहण्णसामित्तं उत्तं । दुचरिमादिसमएसु जहण्णसामित्तं किण्ण भण्णदे ? ण, तत्थ वेयणीयस्स एगसमयहिदीए अणुवलंभादो । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥२०॥. तदो जहण्णादो वदिरितं तव्वदिरितं, सा अजहण्णा द्विदिवेयणा होदि । एत्थ जहा णाणावरणीयस्स अजहण्णट्ठाणपरूवणा कदा तहा कायव्वा । णवरि अजोगिचरिमसमयादो ताव णिरंतरट्ठाणपरूवणा कायव्वा जाव अजोगिपढमसमओ त्ति । पुणो सजोगिचरिमसमए द्विदस्स सांतरमजहण्णट्ठाण होदि । कुदो १ तत्थ चरिमफालीए अंतोमुहुत्तमत्तीए दसणादो । पुणो हेट्टा रूवूणुक्कीरणद्धामेत्तणिरंतरहाणेसु उप्पण्णसु सइं सांतरट्ठाणमुप्पज्जदि, तत्थंतोमुहुत्तट्ठाणंतरदसणादो । एवं णेदव्वं जाव लोगपूरणं करिय ह्रिदसजोगिकेवलि त्ति । तदो पदरगदकेवलिम्हि अण्णमपुणरुत्तसांतरट्ठाणं । कुदो ? लोगपूरणगदकेवलिट्ठिदिसंतादा पदरगदकेवलिट्ठिदिसंतस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । तदो कवाडगद अवगाहना व संस्थान आदिकोंसे कोई विशेषता नहीं होती, यह जतलाने के लिये सूत्र में 'अन्यतर' पदका प्रयोग किया है। भव्यसिद्धिकसे अयोगकेवली भट्टारक विवक्षित हैं । उनके अन्तिम समय में चूंकि एक समय कालवाली एक स्थिति होती है, अतः भव्यसिद्धिकके अन्तिम समयमें जघन्य स्वामित्व बतलाया गया है। शंका- अयोगकेवलीके द्विचरमादिक समयोंमें जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं बतलाया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उक्त समयोंमें वेदनीयकी एक समयवाली स्थिति नहीं पायी जाती। उससे भिन्न अजघन्य स्थितिवेदना होती है ॥२०॥ उससे अर्थात् जघन्य स्थितिवदनासे जो भिन्न वेदना है वह अजघन्य स्थितिघेदना है। यहां जैसे ज्ञानावरणीयके अजघन्य स्थानोंकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही वेदनीयके भी करना चाहिये । विशेष इतना है कि अयोगकेवलीके अन्तिम समयसे लेकर अयोगकेवलोके प्रथम समय तक निरातर स्थानोंकी प्ररूपणा करना चाहिये। फिर सयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें स्थित जीवके सान्तर अजघन्य स्थान होता है, क्योंकि, वहां अन्तिम फालि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण देखी जाती है। पुनः नीचे एक कम उत्कीरणकाल प्रमाण निरन्तर स्थानोके उत्पन्न होनेपर एक वार सान्तर स्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि, वहाँ अन्तर्मुहूर्त स्थानान्तर देखा जाता है। इस प्रकार लोकपूरण समुद्घातको करके स्थित सयोगकेवली तक ले जाना चाहिये । पश्चात् प्रतरसमुद्घातगत केवलीमें अन्य अपुनरुक्त साम्तर स्थान होता है, क्योंकि, लोकपूरण समुद्घातगत केवलीके स्थितिसत्त्वसे प्रतरसमुद्घातगत केवलीका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा पाया जाता है। पश्चात् कपाटसमुद्घातगत Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ छक्खंडागमे वैयणाखंड (१, २, ६, २१. केवलिम्हि अण्णं सांतरमपुणरुत्तट्ठाणं, पदरगदकेवलिडिदिसंतादो कवाडगदकेवलिहिदिसंतस्स असंखेज्जगुणतुवलंभादो। तदो दंडगदकेवलिम्हि सांतरमण्णमपुणहत्तट्ठाणं, कवाडगदकेवलिडिदिसंतादो दंडगदकेवलिहिदिसंतस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो। दंडाहिमुहकेवलिम्हि अण्णं सांतरमपुणरुत्तट्ठाणं, दंडगदकेवलिडिदिसंतादो एदम्हि असंखेज्जगुणहिदिसंतदंसणादो। एत्तो प्पहुडि हेट्ठा णिरंतरहाणाणि ताव उप्पज्जति जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति । कुदो ? एत्यंतरे द्विदिकंदयाभावादो। एत्तो हेट्ठा णिरंतर-सांतरकमेण गाणावरणीयविहाणेण अजहण्णहाणपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो। एवं आउअ-णामागोदाणं ॥ २१ ॥ जहा वेयणीयस्स जहण्णाजहण्णसामित्तपरूवणा कदा तहा एदेसि पि जहण्णाजहण्णसामित्तं वत्तव्व, विसेसाभावादो । णवरि आउअस्स अजहण्णसामित्तपरूवणम्मि जो विसेसो तं वत्तइस्सामो । तं जहा- भवसिद्धियदुचरिमसमए एगमजहण्णट्ठाणं । पुणो तिचरिमसमए बिदियमजहण्णहाणं । पुणो चदुचरिमसमए तदियमजहण्णट्ठाणं । एत्थ ............. केवलीमें अन्य सान्तर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि, प्रतरगत केवलीके स्थितिसत्त्वसे कपाटगत केवलीका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा पाया जाता है। पश्चात् दण्डसमुद्घात. गत केवल में अन्य सान्तर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि, कपाटसमुद्घातगत केवलीके स्थितिसत्त्वसे दण्डसमुद्घातगत केवलीका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा पाया जाता है । दण्डसमुद्घातके अभिमुख हुए केवलीमें अन्य सान्तर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि, दण्डसमुद्घातगत केवलीके स्थितिसत्त्वसे उसके अभिमुख हुए केवलीमें असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व देखा जाता है। यहांसे लेकर नीचे क्षीणकषायके अन्तिम समय तक निरन्तर स्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, इस बीचमें स्थितिकाण्डकका अभाव है। इसके नीचे निरन्तर और सान्तर क्रमसे शानावरणीयके विधानके अनुसार अजघन्य स्थानोंकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उनमें कोई विशेषता नहीं है। इसी प्रकार आयु, नाम और गोत्र कर्मोंके जघन्य एवं अजघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा है ॥ २१ ॥ जैसे घेदनीय कर्मके जघन्य व अघजन्य स्वामित्त्वकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही इन तीनों कमौके जघन्य व अजघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। विशेष इतना है कि आयु कर्मके अजघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणामें जो कुछ विशेषता है उसे कहते हैं। यथा- भव्यसिद्धिक रहनेके द्विचरम समयमें एक भषजन्य स्थान होता है। पश्चात् त्रिचरम समयमें द्वितीय अजघन्य स्थान होता है। चतुधरम समयमें तृतीय भजघन्य स्थान होता है। यहां दुगुणी वृद्धि Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, २२.] यणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त [१३५ दुगुणवड्डी होदि । एत्तो प्पहुडि संखेज्जगुणवड्डी होदूण ताव गच्छदि जाव उपकस्ससंखेज्जगुणगारसरूवेण दोण्णं समयाणं पविट्ठ ति । पुणो एदस्सुवरि एगसमए वड्डिदे संखेज्जगुणवड्डी चेव, अद्धरूवेणब्भहियउक्कस्ससंखेज्जमेत्तगुणगारुवलंभादो । पुणो तदणंतरहेट्टिमसमयम्मि असंखेज्जगुणवड्डी होदि, तत्थ दोण समयाणं जहण्णपरित्तासंखेज्जगुणगारुवलंभादो। एत्तो प्पहुडि असंखेज्जगुणवड्डीए ताव ओदारेदव्वं जाव समयाहियछम्मासो त्ति । पुणो एदेणाउएण सरिसं आउअबधेण विणा हिदसवट्ठसिद्धिदेवाउभं तेत्तीससागरोवमाणि समयाहियछम्मासूणाणि गालिय द्विदं होदि । पुव्विल्लं मोत्तूण इमं घेतूण समउत्तरादिकमेण णिरंतरं वड्डाविय णेयव्वं जाव सव्वट्ठसिद्धिसमुप्पण्णदेवपढमसमओ त्ति । पुणो तेत्तीसाउअं बंधिय चरिमसमयमणुस्सो होदूण ट्ठिदसंजदम्मि अण्णमपुणरुत्तहाणं । मणुसदुचरिमसमयट्टिदसंजदम्मि अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं । एवमसंखेज्जगुणवढीए ताव ओदारेदव्वं जाव पुबकोडितिभागपढमसमयहिदसंजदो त्ति । एत्थ जीवसमुदाहारो जाणिय वत्तव्वो। सामित्तेण जहण्णपदे मोहणीयवेयणा कालदो जहणिया कस्स ? ॥ २२॥ होती है। यहांसे संख्यातगुणवृद्धि प्रारम्भ होकर तब तक जाती है जब तक कि उस्कृष्ट संख्यात गुणकार स्वरूपसे दो समय प्रविष्ट नहीं हो जाते। पश्चात् इसके ऊपर एक समयकी वृद्धि होनेपर संख्यातगुणवृद्धि ही रहती है, क्योंकि, वहां अर्ध रूपसे अधिक उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण गुणकार पाया जाता है। तत्पश्चात् उससे अनन्तर अधस्तन समयमें असंख्यातगु वृद्धि होती है, क्योंकि, वहां दो समयोंका जघन्य परीतासंख्यात गुणकार पाया जाता है। इसके आगे एक समय अधिक छह मास स्थिति तक असंख्यातगुणवृद्धिके द्वारा उतारना चाहिये । पश्चात् आयुबन्धसे रहित होकर स्थित सर्वार्थसिद्धिस्थ देवकी एक समय अधिक छह मासोंसे कम तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुको गलाकर स्थित हुए जीवकी आयु इस आयुके सदृश होती है। पूर्वोक्त जीवको छोड़कर और इसे ग्रहण करके एक एक समयकी अधिकताके क्रमसे निरन्तर बढ़ाकर सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न हुप देवकी उत्पत्तिके प्रथम समय तक ले जाना चाहिये । पुनः तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुको बांधकर मनुष्य भवके अन्तिम समयमें स्थित संयतके अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। मनुष्य भवके द्विचरम समयमें स्थित संयतके अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार पूर्वकोटित्रिभागके प्रथम समयमें स्थित संयत तक असंख्यातगुणवृद्धिके द्वारा उतारना चाहिये। यहां जीवसमुदाहारको जानकर कहना चाहिये। स्वामित्वसे जघन्य पदमें मोहनीय कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य कसके होती है ? ॥२२॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] छक्खंडागमे यणाखंड [४, २, ४, २३. सुगममेदं । अण्णदरस्स खवगस्स चरिमसमयसकसाइयस्स मोहणीयवेयणा कालदो जहण्णा ॥ २३॥ उवसामगपडिसेहफलो खवगस्से त्ति णिद्देसो । खीणकसायादिपडिसेहफलो सकसाइयस्से त्ति णिद्देसो । दुचरिमादिसकसाइयपैडिसेहट्टं चरिमसमएण सकसाई विसेसिदो । चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स मोहणीयवेयणा कालदो जहणिया होदि ति उत्तं होदि। तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥२४॥ एदस्सत्थो णाणावरणअजहण्णसुत्तस्सेव परवेदव्वा । एवं सामित्तं सगंतोक्खित्तट्ठाण-संखा-जीवसमुदाहाराणिओगद्दारं समत्तं । अप्पाबहुए त्ति। तत्थ इमाणि तिण्णि अणिओगदाराणिजहण्णपदे उक्स्स पदे जहण्णुक्कस्सपदे ॥ २५ ॥ तिण्णि चेव अणिओगद्दाराणि एत्थ होति त्ति कधं णव्वदे १ जहण्णुक्कस्सपदेसु एग-दुसजोगेण तिण्णि भंगे मोत्तण एत्ते। अहियभंगुप्पत्तीए अणुवलंभादो। यह सूत्र सुगम है ? जो कोई क्षपक सकषाय अवस्थाके अन्तिम समयमें स्थित है उसके मोहनीय कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ २३ ॥ सूत्रमें क्षपक पदके निर्देशका प्रयोजन उपशामकका प्रतिषेध करना है। सकषाय पदके निर्देशका फल क्षीणकषाय आदिकोंका प्रतिषेध करना है। द्विचरम सकषायी आदिकोंका प्रतिषेध करनेके लिये सकषायीको 'चरम समय' विशेषणसे विशेषित किया गया है। अभिप्राय यह कि सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें स्थित जीवके मोहनीयकी वेदना काल की अपेक्षा जघन्य होती है। उससे भिन्न अजघन्य वेदना होती है ॥ २४ ॥ इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके अजघन्य स्वामित्वकी प्ररूपणा करनेवाले सूत्रके समान करना चाहिये । इस प्रकार स्थान, संख्या एवं जीवसमुदाहारसे गर्भित स्वामित्व अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। अब अल्पबहुत्व अनुयोगद्धारका अधिकार है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैंजघन्य पदमें, उत्कृष्ट पदमें और जघन्य-उत्कृष्ट पदमें ॥ २५॥ शंका-इस अधिकारमें तीन ही अनुयोगद्वार हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- चूंकि जघन्य व उत्कृष्ट पदमें एक व दोके संयोगसे होनेवाले तीन भंगोंकी छोड़कर इनसे अधिक भंगोंकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती है, अतः इसीसे जाना जाता है कि उसमें तीन ही अनुयोगद्वार हैं। १ अ-आ-काप्रीतषु सकसाय ' इति पाठः । २ ताप्रतौ ' चरिमसहुम' इति पाठः । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २ ६, २८.] यणमहाहियारे वैयणकालविहाणे सामित्तं [१३७ जहण्णपदेण अट्टण्णं पि कम्माणं वेयणाओ कालदो जहण्णियाओ तुल्लाओ ॥२६॥ कुदो ? एगाए द्विदीए एगसमयकालाए अट्टणं पि कम्माणं जहण्णकालवेयणाए गहणादो । परमाणुभेदेण कालभेदो एत्थ किण्ण गहिदो ? ण, कालं मोत्तूण एत्थ पदेसाणं विवक्खाभावादो । समयभावेण एगत्तमावण्णसमयविसेसम्मि परमाणुपवेसादो वा । जेणेदाओ अह वि कालवेयणाओ तुल्लाओ तेण जहण्णपदप्पाबहुअं णस्थि त्ति भावत्थो।। उक्कस्सपदेण सव्वत्थोवा आउअवेयणा कालदो उक्कस्सिया ॥२७॥ पुष्वकोडिविभ गाहियतेत्तीससागरोवमपमाणत्तादो । णामा-गोदेवयणाआ कालदो उक्कस्सियाओ दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ॥ २८ ॥ कुदो १ वीससागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तादो। गुणगारो संखेज्जा समया । एग जघन्य पदकी अपेक्षा आठों ही कर्मोकी कालसे जघन्य वेदनायें तुल्य हैं ॥ २६॥ कारण यह कि आठों ही कर्मोंकी एक एक समय कालवाली एक स्थितिको जघन्य कालवेदना ग्रहण किया गया है। शंका - परमाणुभेदसे यहां कालके भेदको क्यों नहीं ग्रहण किया गया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि कालको छोड़कर यहां प्रदेशोंकी विवक्षा नहीं की गई है। अथवा, समय स्वरूपसे अभेदको प्राप्त हुए समयविशेषमें परमाणुओंका प्रवेश होनेसे कालभेदको ग्रहण नहीं किया गया। चंकि ये आठों ही कालवेदनाये परस्पर समान है, अतः जघन्य अल्पबहत्व नहीं है। यह भावार्थ है। उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा कालसे उत्कृष्ट आयु कर्मकी वेदना सबसे स्तोक है ॥ २७॥ कारण यह कि वह पूर्वकोटिके तृतीय भागसे अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण है। उससे नाम व गोत्र कर्मकी कालसे उत्कृष्ट वेदनायें दोनों ही तुल्य व संख्यातगुणी हैं ॥ २८ ॥ __कारण यह कि वे बीस कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण हैं । गुणकार यहां संख्यात छ. ११-१८. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] छपखंडागमे यणाखंड [ ४, २, ६, २९. रूवरस असंखेज्जदिभागन्भद्दियतेत्ती ससागरे वमपलिदोव मसलागाहि वीससागरोवमकोडा कोडि - पलिदोवमसलागासु खंडिदासु तत्थ एगभागो गुणगारो होदि ति उत्तं होदि । णाणावरणीय दंसणावरणीय --- वेयणीय. अंतराइयवेयणाओ कालदो उक्कस्सियाओ चत्तारि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ ॥२९॥ कुदो ? वीससागरोवमको डाकोडीहिंतो तीससागरे वमको डाकोडीणं दुभागाहियत्तदंसणादो | मोहणीयस्स वेयणा कालदो उक्कस्सिया संखेज्जगुणा ॥ ३० ॥ कुदो ? तीससागरोवमकोडाकोडीहिंतो सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं सत्तिभागदोरूवगारवलंभादो | एवं उक्कस्सवेयणा समत्ता । १ जणु कस्सपदे अण्णं पि कम्माणं वेयणाओ कालदो जहण्णियाओ तुल्लाओ थोवाओ ॥ ३१ ॥ कुदो ? एगसमयत्तादो | समय है । अभिप्राय यह कि एक रूपके असंख्यातवें भागसे अधिक तेतीस सागरोपमकी पल्यो पमशलाकाओं का बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपमोंकी पल्योपमशलाकाओं में भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध होता है वह यहां गुणकार है । उनसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मकी कालसे उत्कृष्ट वेदनायें चारों ही तुल्य व विशेष अधिक हैं ॥ २९ ॥ कारण कि बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपमोंसे तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम द्वितीय भाग ( ३ ) से अधिक देखे जाते हैं । उनसे मोहनीय कर्मकी कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट वेदना संख्यातगुणी है ॥ ३० ॥ कारण कि तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपमोंसे सत्तर कोड़ाकोड़ि सागरोपमोंका एक तृतीय भाग सहित दो अंक गुणकार देखा जाता है। इस प्रकार उत्कृष्ट वेदना समाप्त हुई । जघन्य - उत्कृष्ट पदमें कालकी अपेक्षा आठों ही कर्मोंकी जघन्य वेदनायें परस्पर तुल्य व स्तोक हैं ॥ ३१ ॥ कारण कि उनका कालप्रमाण एक समय है । १ प्रतिषु ' अण्णेसिं' इति पाठः । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, ५, ६, ३५.) वैयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त आउअवेयणा कालदो उक्कस्सिया असंखेज्जगुणा ॥ ३२॥ कुद। १ एगसमयं पेक्खिदूण पुव्वकोडितिभागाहियतेतीससागरावमेसु असंखेज्जगुणतुवलंभादो। णामा-गोदवेयणाओ कालदो उक्कस्सियाओ दो वि तुल्लाओ असंखेज्जगुणाओ ॥ ३३॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । कारणं पुवं व वत्तत्वं । णाणावरणीय---दसणावरणीय--वेयणीय ---अंतराइयवेयणाओ कालदो उक्कस्सियाओ चत्तारि वितुल्लाओ विसेसाहियाओ ॥३४॥ कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । मोहणीयवेयणा कालदो उक्कस्सिया संखज्जगुणा ॥३५॥ को गुणगारो ? संखेज्जा समया । कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । एवमप्पाबहुगाणियोगद्दार' संगतोक्खित्तगुणगाराहियारं समत्तं । उनसे आयु कर्मकी कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट वेदना असंख्यातगुणी है ॥ ३२॥ कारण कि एक समयकी अपेक्षा पूर्वकोटिके तृतीय भागसे अधिक तेतीस सागरोपम असंख्यातगुण पाये जाते हैं। उससे कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट नाम व गोत्र कर्मकी वेदनायें दोनों ही तुल्य व असंख्यातगुणी हैं ॥ ३३॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। इसका कारण पहिलेके ही समान बतलाना चाहिये। उनसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मकी कालकी अपेक्षा उस्कृष्ट वेदनायें चारों ही तुल्य व विशेष अधिक हैं ३४॥ इसका कारण पहिलेके ही समान कहना चाहिये । इनसे मोहनीय कर्मकी कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट वेदना संख्यातगुणी है ॥ ३५ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय है। इसका कारण पहिले के ही समान बतलाना चाहिये। इस प्रकार गुणकाराधिकारगर्भित अल्पबहुत्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ। १ अ-आ-काप्रतिषु ' योगदाराणि ' इति पाठः । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खडागमै धैयणाखंड १, ३, ६, १६. (चूलिया) - एत्तो मूलपयडिट्ठिदिबंधे पुत्वं गमणिज्जे तत्थ इमाणि चत्तारि अणियोगदाराणि- ट्ठिदिबंधष्ठाणपरूवणा णिसेयपरूवणा आबाधाकंदयपरूवणा अप्पाबहुए त्ति ॥ ३६ ॥ पदमीमांसा सात्तिप्पाबहुए ति तीहि अणियोगद्दारेहि कालविहाणं परूविदं । तं च समत्तं, तिण्णेव अणियोगद्दाराणि कालविहाणे सुत्तस्सादीए होंति ति परविदत्तादो । अह ण समत्ते, कालविहाणे तिणि चेव अणियोगद्दाराणि होति त्ति भणिदसुत्तस्स अणत्थयत्तं पसज्जेज्ज । ण च सुत्तमणत्थयं होदि, विरोहादो । तदो कालविहाणं समतं चेव । एवं समते उवरिमसुत्तारंभो अणत्थओ त्ति १ एत्थ परिहारो उच्चदे- तीहि अणियोगद्दारेहि कालविहाणं परूविय समत्तं चेव । किंतु तस्स समत्तस्स वेयणाकालविहाणस्स उवरिगंथेण चूलिया उच्चदे । (चूलिया णाम किं ? कालविहाणेण सूचिदत्थाणं विवरणं चूलिया जाए अत्थपरूवणाए कदाए पुवपरूविदत्थम्भि सिस्साणं णिच्छओ उप्पज्जदि सा चूलियाँ ति भणिदं होदि ) तम्हा उवरिमगंथावयारो संबद्धो त्ति घेत्तव्यो। आगे मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध पूर्वमें ज्ञातव्य है । उसमें ये चार अनुयोगद्वार हैंस्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ॥ ३६॥ शंका-पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, इन तीन अनुयोगद्वारों के द्वारा कालविधानकी प्ररूपणा की जा चुकी है, वह समाप्त भी हो चुकी; क्योंकि, कालविधान में सूत्रके प्रारम्भ में तीन ही अनुयोगद्वार होते हैं ' ऐसा कहा गया है । फिर भी यदि उसको समाप्त न माना जाय तो फिर “कालविधानमें तीन ही अनुयोगद्वार है" इस प्रकार वहां कहे गये सूत्रके अनर्थक होनेका प्रसंग आवेगा। किन्तु सूत्र अनर्थक होता नहीं है, क्योंकि, इसमें विरोध होता है। इस कारण कालविधानको समाप्त ही मानना चाहिये । इस प्रकार उसके समाप्त हो जाने पर आगे सूत्रका प्रारम्भ करना अनर्थक है ? समाधान-इस शंकाका परिहार करते हैं। तीन अनुयोगद्वारोंके द्वारा उसकी प्ररूपणा हो चुकनेपर वह समाप्त ही हो गया है। किन्तु आगेके ग्रन्थसे समाप्ति. को प्राप्त हुए उक्त कालविधानकी चूलिका कही जाती है। शंका- चूलिका किसे कहते हैं ? समाधान-कालविधानके द्वारा सूचित अर्थोका विशेष वर्णन करना चूलिका कहलाती है। जिस अर्थप्ररूपणाके किये जानेपर पूर्वमें वर्णित पदार्थके विषयमें शिष्योंको निश्चय उत्पन्न हो उसे चूलिका कहते हैं, यह अभिप्राय है। अत एव अग्रिम प्रन्थका अवतार सम्बद्ध ही है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ., ५, ६, १६.] यणमहाहियार वेयणकालविहाणे सामित्त (१५१ मूलपयडिहिदिबंधे त्ति गिद्देसेण उत्तरपयडिविदिबंधवुदासो कदो। उत्तरपयडिद्विदिबंधवुदासो किमढ़े कदो ? ण, मूलपयडिविदिबंधावगमादो तदवगमो होदि ति तव्वुदासकरणादो । पुव्वसही कारणवाचओ किरियाविसेसणभावेण घेत्तव्यो । ण च पुन्वसद्दो कारणत्थभावेण अप्पीसद्धो, मदिपुव्वं सुदमिच्चेत्थ कारणे वट्टमाणपुव्वसहवलंभादो। तीहि अणियोगद्दारेहि पुव्वं परूविदत्थविसययोहस्स पुवं कारणं होदण गमणिज्जे मूलपयडिविदिबंधे इमाणि अणियोगद्दाराणि होति त्ति भणिदं होदि । अथवा, मूलपयडिविदिबंधो कालविहाणे पुव्वं पढममेव गमणिज्जो', हिदिअद्धाच्छेदादिसु अणवगदेसु सामितादिअणिओगद्दाराणमवगमोवायाभावादो । तत्थ इमाणि अणियोगद्दाराणि होति ति भणिदं होदि। ___ अणुक्कस्स अजहण्णाटिदिट्ठाणाणि पुव्वं परूविदाणि । तेसैं ठाणेसु कम्हि कम्हि जीवसमासे तत्थ केत्तियाणि बंधट्ठाणाणि केत्तियाणि वा संतढाणाणि कस्स जीवसमासस्स बंधट्ठाणेहिंतो कस्स वा बंधट्टाणाणि समाणि अहियाणि ऊणाणि ति पुच्छिदे तस्स णिच्छयुप्पायणहूँ हिदिबंधट्ठाणपरूवणा आगदा । बज्झमाणकम्मपदेसविण्णासो किं पढमसमयप्पहुडि 'मूलप्रकृतिबन्धस्थान' इस निर्देशसे उत्तर प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका निषेध किया गया है। शंका-उत्तर प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका प्रतिषेध किसलिये किया जाता है ? समाधान -नहीं, चूंकि मूलप्रकृति-स्थितिबन्धके ज्ञात हो जानेपर उसका ज्ञान हो जाता है, अतः उसका प्रतिषेध किया गया है। ___ यहां पूर्व शब्दको क्रियाविशेषण वरूपसे कारण अर्थका वाचक ग्रहण करना चाहिये । पूर्व शब्द कारण अर्थका वाचक अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, "मतिपूर्व श्रुतम्" इस सूत्र में कारण अर्थमें वर्तमान पूर्व शब्द देखा जाता है। तीन अनुयोगद्वारोंसे पूर्व में प्ररूपित अर्थविषयक बोधका पूर्व अर्थात् कारण होनेसे अवगमनीय मूलप्रकृति-स्थितिबन्धमें ये अनुयोगद्वार होते हैं, यह उसका अभिप्राय है । अथवा, मूलप्रकृति-स्थितिबन्ध कालविधानमें पूर्वमें अर्थात् पहिले ही ज्ञातव्य है, क्योंकि, स्थितिअर्धच्छेदादिकोंके अज्ञात होनेपर स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंके जाननेका कोई उपाय नहीं रहता। उसमें ये अनुयोगद्वार हैं, यह उक्त कथनका निष्कर्ष है। ___ अनुत्कृष्ट-अजघन्यस्थितिस्थान पूर्वमें कहे जा चुके हैं। उन स्थानोंमसे किस किस जीवसमासमें वहां कितने बन्ध स्थान हैं व कितने सत्त्वस्थान, किस जीवसमासके बन्धस्थानोंसे किसके बन्धस्थान समान, अधिक अथवा कम हैं। ऐसा पूछनेपर उसका निश्चय उत्पन्न करानेके लिये स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा प्राप्त हुई है। १ अ-आ-काप्रत्योः 'पुर्व सदो' इति पाठः। २ प्रति विसयजादस्स' इति पाठः। ३ अ-आ-काप्रतिषु 'गणिज्जा': तापतोगमणि' इति पाठ। प्रतिषु ' तिम्' इति पाठः। ५ अ-आ-काप्रतिषु उहाणाणि ' इति पाठः। ६ अप्रती 'गिन्छसप्पायणटुं '; आरती 'पिच्छयउप्पायगढुंपति पाठः। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वैयणाखंड [१, ३, ६, ३७. आहो अण्णहा होदि त्ति पुच्छिदे एवं होदि त्ति आबाधपमाणपरूवणहूं णिसिंचमाणकम्मपदेसाणं गिसेगक्कमपरूवणटुं च णिसेयपरूवणा आगदा । एगमावा, कादूण किमेक्कं चेव हिदिबंधट्ठाणं बंधदि, आहो अण्णहा बंधदि त्ति पुच्छिदे एक्काए आबाधाए एत्तियाणि ट्टिदिबंधट्ठाणाणि बंधदि, अवराणि ण बंधदि त्ति जाणावणट्टमाबाधाकंदयपरूवणा आगदा । आवाधाण आबाधकंदयाणं च थोवबहुत्तजाणावणट्ठमप्पाबहुगपरूवणा अगदा। एवमेत्थ चत्तारि चेव अणियोगद्दाराणि होति अण्णेसिमत्त्येवं अंतब्भावादो। द्विदिबंधढाणपरूवणदाए सव्वत्थोवा सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाणाणि ॥ ३७॥ एदमप्पाबहुअसुत्तं देसामासियं, सूइदहिदिट्टाणपरूवणा पम णाणिओगद्दारत्तादो। ण च अस्थित्त-पमाणेहि अणवगयाणं द्विदिबंधट्टाणाणमप्पाबहुगं संभवदि, विरोहादो । तम्हा हिदिबंधट्ठाणपरूवणदाए परूवणा-पमाणप्पाबहुगं चेदि तिणि अणियोगद्दाराणि । तत्थ परूवणदाए अस्थि चौदसणं जीवसमासाणं पुघ पुध द्विदिवंधट्ठःणाणि । एत्थ द्विदिबंधट्ठाणाणि त्ति उत्ते केसिं गहणं १ (बध्यत इति बन्धः । स्थितिरेव बन्धः स्थितिबन्धः। बध्यमान कर्मप्रदेशीका विन्यास क्या प्रथम सप्रयसे लेकर होता है, अथवा अन्य प्रकारसे होता है, ऐसा पूछने पर वह इस प्रकारसे होता है, इस प्रकार आबाधाप्रमाणकी प्ररूपण के लिये तथा निसिंचमान कर्मप्रदेशोंके निषेकक्रमकी प्ररूपणाके लिये निषेकप्ररूपणा प्राप्त हुई है। एक आवाधाको करके क्या एक ही स्थितिबन्धस्थान बंधता है अथवा अन्य प्रकारसे बंधता है, ऐसा पूछने पर एक आबाधामें इतने स्थितिबन्धस्थानोंको बांधता है, इतर स्थानोंको नहीं बांधता है; यह ज्ञात कराने के लिये आवाधाकाण्डका रूपणा प्राप्त हुई है। आवाधाओं और आवाधाकाण्डकोंके अल्पबहुत्वको बतलाने के लिये अल्पब हुत्व ग्रूपणा प्राप्त हुई है। इस प्रकार इसमें चार ही अनुयोगद्वार हैं, क्योंकि, अन्य अनुयोगद्वारोंका इन्हीमें अन्तर्भाव हो जाता है। स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणाकी अपेक्षा सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं ॥ ३७॥ - यह अल्पबहुत्वसूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, वह स्थितिस्थानोंके प्ररूपणानुयोगदार और प्रमाणानुयोगद्वारका सूचक है। इन अनुयोगद्धारोंकी आवश्यकता यहां इसलिये है कि इनके विना अस्तित्व और प्रमाणसे अज्ञात स्थितिस्थानोंका अल्पबहुत्व सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, वैसा होने में विरोध है। इस कारण स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणामें प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पवहुत्व ये तीन अनुयोगद्वार हैं। उनमेंसे प्ररूपणाकी मपेक्षा चौदह जीवसमालोके पृथक् पृथक् स्थितिबन्धस्थान है। . शंका- यहां स्थितिबन्धस्थान ऐसा कहने पर किनका ग्रहण किया गया है ? , अ-आ-काप्रतिषु ' अण्णेसमुत्थेव ' इति पाठः । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ३७.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्तं स्थितिबंधस्स स्थानमवस्थाविशेष इति यावत् । एदेसि हिदिबंधविसेसाणं गहणं । जहण्णहिदिमुक्कस्सहिदीए सोहिय एगरूवे पक्खित्ते हिदिवंधट्ठाणाणि होति, तेसिं गहणमिदि उत्तं होदि । परूवणा गदा । सव्वएइंदियाणं ट्ठिदिबंधवाणाणि पलिदोवमस्स असंखज्जदिभागो । कुदो ? अप्पप्पणो जहण्णाबाहाए समऊणाए अप्पप्पणो समऊणजहण्णहिदीए ओवट्टिदाए एगमावाधाकंदयमागच्छदि । पुणो एदमावलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तआवाधाट्ठाणेहि गुणिय एगरूवे अवणिदे एइंदिएसु हिदिबंधट्ठाणविसेसो उप्पज्जदि, तत्थ एगरूवे पक्खित्ते टिदिबंधट्ठाणुप्पत्तीदो।विगलिंदिएसु द्विदिबंधट्ठाणाणं पमाणं पलिदोवमरस संखज्जीदभागो । कुदो ? सग-सगउक्कस्साबाहाए सग-सगउक्कस्सहिदीए ओवट्टिदाए एगमाबाहकंदयमागच्छदि । पुणो एदमाबाहहाणेहि आवलियाए संखेज्जदिभागमत्तेहि गुणिदे पलिदोवमरस संखज्जदिभागढिदिवंधट्ठाणुप्पत्तिदसणादा। सण्णिपंचिंदिय अपज्जत्तयस्स विदिबंधट्ठाणाणि अंतोकोडाकोडिसागरोवममेत्ताणि । कुदो ? सगुक्कस्साबाहाए सगुक्करसहिदीए ओवट्टिदाए एगमाबाहाकंदयमा समाधान- जो बांधा जाता है वह बन्ध कहा जाता है। स्थिति ही बन्ध, स्थितिबन्ध इस प्रकार यहां कर्मधारय समास है। स्थितिबन्धका स्थान अर्थात् अवस्थाविशेष, इस प्रकार यहां तत्पुरुष समास है। इन स्थितिबन्धविशेषोंका ग्रहण किया गया है। अर्थात् जघन्य स्थितिको उत्कृष्ट स्थितिमेसे घटा देनेपर जो शेष रहे . उसमें एक अंकका प्रक्षेप करने पर स्थितिवन्धस्थान होते हैं, उनका यहां ग्रहण किया है, यह उक्त कथनका अभिप्राय है। प्ररूपणा समाप्त हुई। समस्त एकेन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धस्थान पल्यापमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, क्योंकि, एक समय कम अपनी अपनी आबाधाका अपनी अपनी एक समय कम जघन्य स्थिति में भाग देने पर एक आबाधाकाण्डकका प्रमाण आता है। फिर इसको आवलीके असंख्यातचे भाग प्रमाण आवाधास्थानोंसे गणित करके उसमेंसे एक अंकको घटा देने पर एकेन्द्रिय जीवों में स्थितिबन्धस्थानविशेष उत्पन्न होता है। उसमें एक अंक मिलाने पर स्थितिबन्धस्थान उत्पन्न होता है । विकलेन्द्रिय जीवों में बन्धस्थानोंका प्रमाण पत्योपमका संख्यातवां भाग है। इसका कारण यह है कि अपनी अपनी उत्कृष्ट आवाधाका अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देने पर एक आबाधाकाण्डक आता है। इसको आवलीके संख्यातवें भाग मात्र आबाधास्थानोंसे गुणित करनेपर पल्योपमके संख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिस्थानोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। संक्षी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान अन्तःकोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण हैं। इसका कारण यह है कि अपनी उत्कृष्ट आवाधाका अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देनेपर एक आबाधाकाण्डक आता है। फिर इसको जघन्य आवाधाकी अपेक्षा Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ छक्खंडागमे वेयणाखंड । [१, २, ५, २८. गच्छदि । पुणो एदम्हि संखेज्जावलियमेत्तआवाधाहाणेहि जहण्णाषाधादो संखेज्जगुणेहि गुणिदे संखेज्जसागरावममेत्तहिदिबंधट्ठाणुप्पत्तीदो। सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणाणि णाणावरणादीणं सग-सगसमऊणधुवहिदीए परिहीणसग सगुत्तरसग - सगमेत्ताणि । एवं पमाणपरूवणा गदा । संपहि बंधट्ठाणाणं अप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहा- सव्वत्थोवा सुहमेइंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणाणि, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपमाणत्तादो। बादरे इंदियअपज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥ ३८ ॥ कुदो १ सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स विदिबंधट्ठाणेहिंतो बादरेइंदियअपज्जएसु सुहुमेइंदियअपज्जत्तपढमचरिमद्विदिबंधट्ठाणादो हेट्ठा उवीरं च संखेज्जगुणवीचारहाणाणमुवलंभादो। सुहुमेइंदियपज्जत्यस्स ट्ठिदिबंधडाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥३९॥ . कुदो ? बादरेइंदियअपज्जत्तजहण्णुक्कस्सहिदीहितो हेट्ठा उवरिं च बादरेइदियअपज्जत्तहिदिबंधट्ठाणेहितो संखेज्जगुणद्विदिबंधट्ठाणाणं सुहमेइंदियपज्जत्तएसु उवलंभादो। संख्यातगुणे संख्यात आवली मात्र आवाधास्थानोंसे गुणित करनेपर संख्यात सागरोपम प्रमाण स्थितिबन्धस्थान उत्पन्न होते हैं। संक्षी पचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके ज्ञानावरणादिकोंके स्थितिबन्धस्थान अपनी अपनी एक समय कम ध्रुवस्थितिसे रहित अपने अपने क्रमसे अपनी अपनी स्थिति प्रमाण होते हैं । इस प्रकार प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। __ अब बन्धस्थानोंका अल्पबहुत्व कहा जाता है। यथा-सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। उनके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबंधस्थ न संख्यातगुणे हैं ॥ ३८ ॥ इसका कारण यह है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त कके स्थितिवन्धस्थानोंकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके प्रथम व चरम स्थितिबन्धस्थानसे नीचे व ऊपर संख्यातगणे वीचारस्थान पाये जाते हैं। उनसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबंधस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ ३९ ॥ इसका कारण यह कि बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिसे नीचे व ऊपर बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानोंसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में संख्यातगुणे स्थितिबन्धस्थान पाये जाते हैं। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ., , ६, ११.] वैयणमहाहियारे बैयणकालविहाणे सामित्त बादरेइंदियपज्जत्तयस्स हिदिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि॥४०॥ कारणं पुष्वं व वत्तव्वं । बाइंदियअपज्जत्तयटिदिबंधट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥४१॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स संखेज्जदिभागो। कुदो १ बीइंदिया अपज्जत्तयस्स वीचारहाणाणि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेत्ताणि । एइंदियाणं पुण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण पलिदोवमे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्ताणि । जेण एत्थ हेहिमरासिणा उवरिमरासीए ओवहिदाए आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स संखेज्जदिभागो आगच्छदि तेण सो गुणगारो होदि त्ति अवगम्मदे ।। __ तस्सेव पज्जत्तयस्स द्विदिवंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥४२॥ कुदो १ विसोहीए संकिलेसेण च हेट्ठोवरि-मज्झिमडिदिबंधट्ठाणेहितो संखेज्जगुणहिदिविसेसेसु वीचारदसणादो। तीइंदियअपज्जत्तयस्स ट्ठिदिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि॥४३॥ कारणं सुगमं । जहा सुहुमेइंदियअपज्जत्त-बादरेइंदियअपज्जत्ताणं' ट्ठिदिबंधट्ठाणे उनसे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥४०॥ इसका कारण पहिलेके ही समान कहना चाहिये। उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ४१ ॥ गुणकार क्या है ? वह आवलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग है, क्योंकि, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके वीचारस्थान पल्योपमके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। परन्तु एकेन्द्रियके वीचारस्थान पल्योपममें आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र हैं। चूंकि यहां नीचेकी राशिका ऊपरकी राशिमें भाग देने पर भावलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग आता है, अतः वह गुणकार होता है, ऐसा प्रतीत होता है। उनसे उसीके पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ ४२ ॥ इसका कारण यह है कि विशुद्धि और संक्लेशसे नीचे, ऊपर और मध्यके स्थितिस्थानोंसे संख्यातगुणे स्थितिविशेषों में वीचार देखा जाता है। उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुण हैं ॥४३॥ इसका कारण सुगम है। , अप्रतो महमेइंदियअपज्जत्ताणं' इति पाठः। छ..१-१९. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ छक्खंडागमे वेयणाखंड [५, २, ३, ४४. हितो सुहुमेइंदियपज्जत्ताणं डिदिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि, तधा सव्वविगलिंदियअपज्जत्तद्विदिबंधट्ठाणेहितो बाइंदियपज्जत्तद्विदिबंधट्टाणाणि किण्ण संखेज्जगुणाणि ? ण, भिण्णजादित्ताद। भिण्णहिदित्तादो च । तस्सेव पज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥४४॥ । सुगममेदं । चरिंदियअपज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि॥४५ मज्झिमद्विदिविसेसेहितो हेट्ठा उवरि च संखेज्जगुणाणं वीचारट्ठाणाणमत्थुवलंभादो । तस्सेव पज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥४६॥ एत्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । असण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स विदिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥४७॥ को गुणगा। ? संखेज्जा समया । तस्सेव पज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥४८॥ कारणं सुगमं । शंका-जैसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों तथा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके स्थितिबन्धस्थानोंसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकों के स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं, वैसे ही सब विकलेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके स्थितिबन्धस्थानोंसे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे क्यों नहीं हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि, उनकी जाति व स्थिति उनसे भिन्न है। उनसे उसके ही पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ ४२ ॥ यह सूत्र सुगम है। उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ ४५ ॥ क्योंकि, यहां मध्यम स्थितिविशेषोंसे नीचे व ऊपर संख्यातगुणे वीवारस्थान पाये जाते हैं। उनसे उसीके पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥४६॥ यहां कारण पहिलेके ही समान बतलाना चाहिये । उनसे असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥४७॥ गुणकार क्या है ? गुणकार यहां संख्यात समय है। उनसे उसीके पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ ४८॥ इसका कारण सुगम है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, ५०.) यणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्त [१५७ सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥४९॥ कुदो ? पलिदोवमस्स संखेज्जदिभाममेत्तअसण्णिपंचिंदियट्टिदिबंधट्ठाणेहि अंतोकोडाकोडिमेत्तसणिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणेसु भागे हिदेसु संखेज्जरूवोवलंभादो । तस्सेव पज्जत्तयस्स हिदिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥५०॥ कारणं सुगमं । संपहि जेणेसो अव्वोगाढअप्पाबहुगदंडओ देसामासिओ तेणेत्य अंतब्भूदं चउवियप्पमप्पाबहुगं भणिस्सामो । तं जहा - एत्थ अप्पाबहुगं दुविहं मूलपयडिअप्पाबहुगं अव्वोगाढअप्पाबहुगं चेदि । तत्थ अव्वोगाढअप्पाबहुगं दुविहं सत्थाण-परत्थाणभेदेण । तत्थ सत्थाणं वत्तइस्सामो। तं जहा- सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो । विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणों। उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । एवं सुहुमेइंदियपज्जत-बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं पि वत्तव्वं । बेइंदियअपज्जत्तयस्स सव्वत्थोवो द्विदिबंधट्ठाणविसेसो। द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। उनसे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ ४९ ॥ इसका कारण यह है कि पल्योपमके संख्यातवें भाग मात्र असंही पंचेन्द्रियके स्थितिबन्धस्थानोंका अन्तःकोडाकोड़ि मात्र संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानों में भाग देनेपर संख्यात रूप प्राप्त होते हैं। उनसे उसीके पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ ५० ॥ इसका कारण सुगम है। अब चूंकि यह अव्वोगाढअल्पबहुत्वदण्डक देशामर्शक है, अतः इसमें अन्तर्भूत चार प्रकारके अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार है- यहां अल्पबहुत्व मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व और अव्वोगाढअल्पबहुत्वके भेदसे दो प्रकार है। इनमें अव्योगाढअल्पबहुत्व स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकार है। उनमें स्वस्थानअल्पबहुत्वको कहते हैं। यथा- सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थान विशेष सबसे स्तोक है। उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष भाधिक हैं। उनसे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके भी कहना चाहिये । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष सबसे स्तोक है। उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ............. , आपतौ ' असंखेज्जगुणाणि ' इति पाठः। २ ताप्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु ' असंखेजगुणो' इति पाठ। : Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tej छक्खंडागमे वेयणाखंड [१,५५, ५०० एवं बेइंदियपज्जत्त-तेइंदिय-चउरिदिय-असण्णिपंचिंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं च वत्तव्वं । सणिपंचिंदियअपज्जतैयस्स सव्वत्थोवो जहण्णओ हिदिबंधो। विदिबंधट्ठाणविसेमो संखेज्जगुणो । विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधी विसेसाहिओ । एवं सण्णिपज्जत्तयस्स वि वत्तव्यं । एवं सत्थाणप्पाबहुगं समत्तं ।। परत्थाणप्पाबहुगं वत्तइस्साम।। तं जहा- सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स द्विदिषधट्ठाणविसेसो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । सुहु. मेइंदियपज्जत्तयस्स विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि विसेसाहियाणि एगरूवेण । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। विदिबंधाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बेइंदियअपज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेज्जगुणो। द्विदिबंधट्टाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्लेव पज्जतयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तेइंदियअपज्जत्तयस्स हिदि. बंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणवितेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । इसी प्रकार द्वीन्द्रिय पर्याप्त तथा श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंही पंचन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके भी कहना चाहिये । संक्षी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । उससे स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार संझी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके भी कहना चाहिये । इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। परस्थान अल्पबहुत्वको कहते हैं। यथा- सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थिति वेशेष सबसे स्तोक है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष भधिक हैं । उनसे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उनसे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक है। उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है । उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उसीके पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उसीके पर्याप्तका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा हैं। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे ताप्रती [अ] संखेज्जगुणो' इति पाठः । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, ५, ६, ५०.] श्रेयणमहाहियारे वैयणकालविहाणे सामित्त चरिंदियअपज्जतयस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधहापाणि एगरूषण विसे. साहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । असण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणपिसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियपज्जतयस्स जहप्रणओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । सुहुमे इंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स जहणणओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्तयस्म उक्कस्सओ विदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सहिदिबंधो विसेसाहिओ । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सहिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सहिदिबंधो विसेसाहिओ। बेइंदियाज्जत्तयस्स जहण्गढिदिबंधो संखेज्जगुणो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णहिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सहिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सटिदिबंधो विसेसाहिओ । तेइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णद्विदिवंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णहिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत विशेष अधिक हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उसीके पर्याप्तका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबम्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे असंही पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थान. विशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उसीके पर्याप्तका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उससे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उससे उसीके अपर्याप्तका उत्कृष्ट स्थितिपन्ध विशेष अधिक है। उसले बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितियाध विशेष अधिक है। उसले सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे बादर पकेन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उससे उसीके अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे उसीके अपर्याप्तकका उकृष्ट स्थितिबन्ध विशेष भधिक है। उससे उसीके पर्याप्तका उस्कृष्ठ स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे श्रीन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे उसीके अपर्याप्तका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे उसके अपर्याप्तका उका स्थितिबन्ध Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.० १ छक्खडागमे वैयणाखंड १४, २, ६, ५०. यस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । चउरिं दियपज्जतयस्स जहण्णडिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहणदिबंध विसेस हिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्मद्विदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ दबंध संखेज्जगुण । तस्सेव अपज्जत्तयस्स जणट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । सण्णिपंचिदियपज्जत्तयस्स जहण्णट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणो । तस्सेत्र अपज्जतयस्स जहण्णट्ठिदिबंधों संखेज्जगुणो । तस्सेव अपज्जतयस्स विदिबंध द्वाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूत्रेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाण विसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेस | हियाणि । उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ । एबमव्व गाढअप्पात्रहुगं समत्तं । मूलपयडिअप्पात्रहुंगं सत्थान - परत्थाणभेदेण दुविहं । तत्थ सत्याणपात्रहुगं वत्तइसाम । तं जहा- - सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स आउअस्स जहण्णओ द्विदिबंधो । ---- विशेष अधिक है। उससे उसीके पर्याप्तका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है 1 उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्तका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे उसीके अपर्याप्तका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे उसीके अपर्याप्तका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे उसीके पर्याप्तका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे उसीके पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे असंशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे उसीके अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उससे उसीके अपर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे उसीके पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है | उससे उसीके अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे उसीके अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । उससे उसीके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ! उससे उसीके पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । उससे उसके स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इस प्रकार अब्वोगाढ़ अल्पबहुत्र समाप्त हुआ । मूलप्रकृति अल्पबहुत्व स्वस्थान और परस्थान के भेद से दो प्रकार है । उनमें से स्वस्थान अस्पबहुत्वको कहते हैं । यथा-- सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकी आयुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्टोक है। उससे स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ३, ५०.] यणमहाहियारे धेयणकालविहाणे सामित्तं [१५१ द्विदिवंधट्ठाणविसेसो संखज्जगुणो । विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सव णामा-गोदाणं ट्ठिदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेज्जगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । ट्ठिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । णामा-गोदाणं जहण्णओ द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो । उक्कस्साहदिबंधो विससाहिओ। चदुण्णं कम्माणं जहण्णद्विदिबंधो विसेसाहिओ। उक्कस्सद्विदिबंधो विसेसाहिओ। मोहणीयस्स जहण्णओ द्विदिपंधो संखेज्जगुणो। उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ। एवं सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं च पत्तेयं पत्तेयं सत्थाणप्पाबहुगं वत्तव्वं । बेइंदियअपज्जत्तयस्स सव्वत्थोवो आउअस्स जहण्णओ हिदिबंधो। हिदि बंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। णामा-गोदाणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेज्जगुणो । विदिबंध. डाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुणं कम्माणं विदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । ............. उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे उसीके नाम व गोत्र कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे चार कर्मोंका स्थिति रन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। उसले स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उससे मोहनीपका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। उसले स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे नाम व गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। उससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ___इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक व अपर्याप्तकमैसे प्रत्येकके स्वस्थान अल्पबहुत्व कहना चाहिये। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके आयु कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । उससे स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । नाम व गोत्र कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है । उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उनसे चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । उससे स्थितिबन्धस्थान एक १ अप्रतौ ' एगमागोदाणं' इति पाठः । .. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५] छक्खंडागमे वैयणाखंड . [१, २, ३, ५.. हिदिबंधडाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधवाणविससो संखेज्ज. गुणो । हिदिवंधठ्ठामाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । णामा-गोदाणं' जहण्णओ हिदिवंधो संखेज्जगुणो। उक्कस्सओ हिदिबंधी विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स जहण्णओ हिदि. बंधो संखज्जगुणो। उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ।। __ एवं बेइंदियपज्जत्तयस्स तेइंदिय-चरिंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं असण्णिपंचिंदियअपज्जत्ताणं च सत्थाणप्पाबहुगं कायव्वं । असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स सव्वत्थोवो आउअस्स जहण्णओ द्विदिवंधो । हिदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेज्जगुणो। कारणं उवरि उच्चिहिदि । विदिबंधडाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहियो। णामा गोदाण हिदिबंधहाणविसेसो असंखेज्जगुणो। द्विदिबंधट्ठाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । णामागोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। उक्स्स ओ द्विदिबंधो विसेसाहियो। चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहियो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहियो । मोहणीयस्स जहण्णओ रूपले विशेष अधिक हैं। उससे मोहनीय कर्मका स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणा है। उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उससे नाम व गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे चार काँका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उससे मोहनीय का जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उससे उस्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। . इसी प्रकार द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय व चतरिन्द्रिय पर्याप्तक-अपर्याप्तक तथा असंही पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके भी स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये । असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके आयु कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। उससे स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। कारण आगे कहेंगे । उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। नाम व गोत्र कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीय कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। नाम व गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चार कर्मीका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीय कर्मका , अ-आपत्योः । उवरिमविहिदि ', कापतौ — उवरिमविहि ' इति पाठः । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्टाणपरूवणां [१५३ टिदिबंधो संखेज्जगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स सव्वत्थोवो आउअस्स जहण्णओ हिदिबंधो । हिदिबंधहाणविसेसो असंखेज्जगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स टिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधट्टाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। एवं सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स वि सत्थाणप्पाबहुगं वत्तव्वं । णवरि आउअस्स हिदिबंधहाणविसेसो संरवेजगुणो। हिदिबंधहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो असंखेज्जगुणो । उवरि पुव्वं व । एवं सत्याणप्पाबहुगं समत्तं । जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ___ संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके आयु कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। नाम व गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। नाम व गोत्र कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चार काँका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके भी स्वस्थानअल्पबहुत्व कहना चाहिये। विशेष इतना है कि आयु कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । नाम व गोत्र कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । आगे पूर्वके समान ही कहना चाहिये। इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। १ ताप्रतावतः प्राक् [ उक्क ट्ठिदिबंधो विसेसाहियाणि ] इत्यधिकः पाठः कोष्ठकस्थः समुपलभ्यते । छ. ११-२०. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] खंड खंड [ ४, २, ६, ५०. __ एत्तो अट्टणं कम्माणं चोहसजीवसमासेसु परत्थाणप्पाबहुगं वत्तइस्लामो । तं जहासव्वत्योवो' चोदसणं जीवसमासाणं आउअस्स जहण्णओ हिदिबंधो । बारसहं जीवसमासाणं आउअस हिदिबंधाणविसेसो संखेजगुणो । द्विदिबंधद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । असणिपंचिंदियपजत्तयस्स आउअस्स ट्ठिदिबंधट्ठाण - विसेसो असंखेज्जगुणो । कुदो ? असण्णिपंचिंदियपज्जत्तसु णिरय- देवाउआणमुक्कस्सेण पलिदो - वमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तट्ठिदिबंधुवलंभादो । हिदिबंधाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । सुहुमेईदियअपजत्तयस्स गामा-गोदाणं द्विदिबंधट्ठाण विसेसो असंखेजगुणो । द्विदिबंधद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुष्णं कम्माणं द्विदिबंध - ट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव मोहणीयस्स ट्ठिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरएइंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं ट्ठिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्टाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । ट्ठिदिबंध - द्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव मोहणीयस्य द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज गुणो । द्विदिबंधद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्त णामा-गोदाणं द्विदिबंध - अब यहांसे आगे चौदह जीवसमासोंमें आठ कर्मोंके परस्थान अल्पबहुत्वको कहते हैं । यथा - चौदह जीवसमासोंके आयु कर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । बारह जीवसमासोंके आयु कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । असंशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके आयुका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है, क्योंकि, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यातकों में नारकायु और देवायुका स्थितिबन्ध उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र पाया जाता है । उससे स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्र कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसी जीवके चार कमौका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपले विशेष अधिक हैं । उसीके चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्र कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा १ अ-काप्रत्योः सव्वत्थोवा ' इति पाठः । " Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १०. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधाणपरूवणा [ १५५ विस संखे गुणो । द्विदिबंधाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुष्णं कम्माणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । ट्ठदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव मोहणीयस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि। बादरएइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंध - द्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुष्णं कम्माणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव मोहणीयस्स विदिबंधद्वाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । [ 'बेइंदियअपज्जत्तयस्स गामा-गोदाणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । दिबंधाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । द्विदिबंधाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव मोहणीयस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । ] तस्सेव पज्जत्तयस्स णामागोदाणं द्विदिबंधाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण बिसेसाहियाणि । तस्सेव मोहणीयस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । ट्ठिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तेइंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्ज है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपले विशेष अधिक हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थान विशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके चार कर्मोका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । [ द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपले विशेष अधिक हैं । उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं ।] उसीके पर्याप्तक के नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्र १ कोष्ठकस्थोऽयं पाठ अ-आ-काप्रतिषु नोपलभ्यते, ताप्रतौ तूपलभ्यते स कोष्टकस्थ एव । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. गुणो । हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्टाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधट्ठाणाणि एगख्वेण विसेसाहियाणि । तस्सेव मोहणीयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं टिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधहाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव मोहणीयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुरिंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधट्ठाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्य णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधटाणविसेसो विसेसाहिओ । हिदिबंधहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव · मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । असण्णिपंचिंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधहाणाणि कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके चार काँका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष आधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगृणा है। स्र्थाि एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके चार कार्मीका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके चार कर्मोका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । असंही पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्र कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके चार कर्मोका Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणयहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणारूवणा [१५७ एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधट्ठाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । तस्सेव मोहणीयस्य हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधहाणाणि एंगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणं हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव मोहणीयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । सुहुमएइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरएइंदियअपज्जत्तयस्य णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरएइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमेइंदियपजत्तयस्य णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरएइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरएइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियअपजत्तयस्य चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्र कर्मका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके चार कर्मोका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । बादर पकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके उन दोनों कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कौका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार काँका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार काँका Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६,५०. विसेसाहिओ। तस्सेव उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियअपज्जत्तयस्य मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सुहुमेइंदियअपज्जयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमएइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। तस्सेव अपज्जत्तयस्स गामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बेइंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बेइंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसे जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके उनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके उनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके उनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके उसका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम घ गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मीका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणयहा हियारे वेयणकाल विहाणे ठिदिबंधट्टाणपरूवणा [ १५९ साहिओ । तेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । तेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ । तेइंदियपत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णो द्विदिबंधो विसेसाहिओ । तेइंदियअपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ दिबंधो विसेसाहिओ । तेइंदियपजत्तयस्स चदुष्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बेइंदियपत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । बेइंदियअपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ । बेइंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । चउरिंदियपजत्तयस्स णामागोदाणं जहण्णओ ट्ठदिबंधो विसेसाहिओ । चदुरिंदियअपज्जत्तयस्स णामा - गोदाणं जहणओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । चदुरिंदियपज्जत्तयस्य णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स आउअस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । द्विदिबंधद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । चदुरिंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ ट्ठट्टिबंधो विसेसाहिओ । विशेष अधिक है । त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके उनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके उनका उत्कष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है | श्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । द्वीन्द्रिय पर्याप्तक के मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक के मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसके ही अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चतुरिन्द्रिय पर्याप्तककके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त आयुका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक के are sir जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो. विसेसाहिओ। चदुरिंदियअपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्य उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । चदुरिंदियपज्जत्तयस्य मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्य मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चउरिंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उनकस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामागोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो बिसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । असण्णिपचिंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पजत्तयस्स जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्त कके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके चार काँका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कौका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके १ अ-आ-काप्रतिषु ' पज्ज' इति पाठः । २ काप्रती 'अपज्ज.' इति पाठः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [१६१ चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। असण्णिपंचिंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो। तस्सेव अपजत्तयस्से मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो -विसेसाहिओ। तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। समिपंचिंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो। तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ ट्रिदिबंधो संखेजगुणो। तस्सेव अपज्जत्तयस्स गामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणं हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधहाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो। हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणं हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधहाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधचार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके पर्याप्तकके चार काँका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य संख्यातगुणा है। उसीके अपर्याप्तकके चार कमौका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष. अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष १ प्रतिषु 'पज्जत्तयस्स' इति पाठः। छ.११-२१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] छक्खंडागमे वेयणाखंड . . [४, २, ६, ५०. हाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कसओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो। डिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। संपहि एदेण सुत्तेण सइदचउन्विहमप्पाबहुगं परूविदं । बध्यत इति बन्धः, स्थितिश्चासौ बन्धश्च स्थितिबन्धः, तस्स स्थान विशेषः स्थितिबन्धस्थानं आबाधस्थानमित्यर्थः । अथवा बन्धनं बन्धः, स्थितेर्बन्धः स्थितिबन्धः, सोऽस्मिन् तिष्ठतीति स्थितिबन्धस्थानम् तदो आबाधाहाणपवणाए वि हिदिबंधहाणपख्वणसण्णा होदि त्ति कटु आबाधाहाणपवणं परूवणा-पमाणप्पाबहुएहि कस्सामो । तं जहा–चोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थि आबाहाहाणाणि । आबाहाहाणं णाम किं ? जहण्णाबाहमुक्कस्साबाहादो सोहिय सुद्धसेसेम्मैि एगरूवे पक्खित्ते आबाहाहाणं । एसत्यो सव्वत्थ परूवेदव्यो । परूवणा गदा । चदुण्णमेइंदियजीवसमासाणमाबाधाहाणपमार्णमावलियाए असंखेज्जदिभागो । अट्टण्णं अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इस प्रकार इस सूत्रसे सूचित चार प्रकारके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की है। जो बांधा जाता है वह बन्ध कहलाता है। स्थितिश्चासौ बन्धश्च स्थितिबन्धः' इस कर्मधारय समासके अनुसार स्थितिको ही यहां बन्ध कहा गया है। उसके स्थान अर्थात् विशेषका नाम स्थितिबन्धस्थान है । अभिप्राय यह कि यहां स्थितिबन्धस्थानसे आबाधास्थानको लिया गया है। अथवा बन्धन क्रियाका नाम बन्ध है, 'स्थितिका बन्ध स्थितिबन्ध'इस प्रकार यहां तत्पुरुष समास है। वह स्थितिबन्ध जहां रहता है वह स्थितिबन्धस्थान कहा जाता है । इसीलिये आबाधास्थानप्ररूपणाकी भी स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा संशा है । अत एव प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारोंके द्वारा आवाधास्थानप्ररूपणाको करते हैं । यथा-चौदह जीवसमासोंके आषाधास्थान.हैं । शंका-आबाधास्थान किसे कहते हैं ? समाधान-उत्कृष्ट आबाधामेंसे जघन्य आवाधाको घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अंकको मिला देनेपर आवाधास्थान होता है। . इस अर्थकी प्ररूपणा सभी जगह करना चाहिये । प्ररूपणा समाप्त हुई। चार एकेन्द्रिय जीवसमासोंके आबाधास्थानोंका प्रमाण आवलीके असंख्यातवें १ अ-आ-काप्रतिषु आवाधं' इति पाठः। २ तापतौ 'परूवणा (पमाण) मप्पाबहुए त्ति कस्सामो' इति पाठः। ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु 'सुद्धवैसम्मि', ताप्रती 'सुद्धवै (से) सम्मि' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'समाण' इति पाठः। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [१६३ विगलिंदियाणमाबाधाहाणपमाणमावलियाए संखेज्जदिभागो। सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स आबाधाहाणपमाणं संखेजावलियाओ । तं च अंतोमुहुत्तं । तस्सेव पजत्तयस्स आबाधाहाणं संखेजाणि वाससहस्साणि । एवं पमाणं गदं । __ अप्पाबहुगं दुविहं अव्वोगाढप्पाबहुगं मूलपयडिअप्पाबहुगं चेदि । तत्थ अव्वोगाढअप्पाबहुअं पि दुविहं सत्थाणप्पाबहुअं परत्याणप्पाबहुअं चेदि । तत्थ सत्थाणप्पाबहुअं वत्तइस्सामो- सव्वत्योवो सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स आबाधाहाणविसेसो । आबाधाहाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । जहणिया आबाधा असंखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाधा विसेसाहिया । एवं सुहुमेइंदियपजत्त-बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं च वत्तव्वं । सवयोवो बेइंदियअपजत्तयस्स आबाधाहाणविसेसो । आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । जहणिया आबाधा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाधा विसेसाहिया । एवं बेइंदियपजत्ततेइंदिय-चउरिंदिय-असण्णिपंचिंदियपज्जत्तापजत्ताणे च सत्थाणप्पाबहुगं वत्तव्वं । सण्णिपंचिंदियअपजत्तयस्स सव्वत्थोवा जहणिया आबाहा । आबाहाट्ठाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । एवं भाग मात्र है। आठ विकलेन्द्रियोंके आवाधास्थानोंका प्रमाण वलीके संख्यातवें भाग है। संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके आवाधास्थानोंका प्रमाण संख्यात आवलियां है। वह अन्तर्मुहूर्तके बराबर है। उसीके पर्याप्तकके आवाधास्थान संख्यात हजार वर्ष प्रमाण हैं। इस प्रकार प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। ___अल्पबहुत्व दो प्रकार है-अव्वोगाढ़अल्पबहुत्व और मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व । इनमें अव्वोगाढअल्पबहुत्व भी दो प्रकार है-स्वस्थान अल्पबहुत्व और परस्थान अल्पबहुत्व । इनमें स्वस्थान अल्पबहुत्वको कहते हैं-सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका आषाधास्थानविशेष सबसे स्तोक हैं। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। जघन्य आबाधा असंख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक तथा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक जीवोंके भी कहना चाहिये । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकका आवाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है। . आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय पर्याप्त तथा त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, एवं असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तक व अपर्याप्तकके भी स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिये। संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है। आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इसी १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-प्रतिषु पंचिंदियअपज्जत्ताप्रज्जत्ताण', ताप्रती 'पंचिंदियअपज्जत्त.. पज्जत्ताण' इति पाठः। . Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] छक्वंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. [ एवं सण्णिपंचिंदिय-] पजत्तस्स वि वत्तव्वं । सत्थाणं गदं । परत्याणे सन्वत्थोवो सुहमेइंदियअपजत्तयस्स आबाधाहाणविसेसो। आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियअपजत्तयस्स आबाधाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाधाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । सुहुमेइंदियपजत्तस्स आबाधाहाणविसेसो संखेनगुणो । आबाधाहाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियपजत्तयस्स आबाधाद्वाणविसेसो संखेजगुणो । आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बेइंदियअपजत्तयस्स आबाधाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पबत्तयस्स आबाधाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तेइंदियअपजत्तयस्स आबाधाहाणविसेसो संखेजगुणो । आषाधाहाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । एवं चउरिदिय-असण्णिपंचिंदियपजत्तापजत्ताणं च णेदव्वं । तदो बादरएइंदियपजत्तयस्स जहणिया आबाधा संखेजगुणा । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिआ। बादरेइंदियअपजत्तयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिआ। सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स जहणिया आबाधा विसेसाहिआ। तस्सेव अपजत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिआ । बादरेइंदियअपजत्तयस्स उक्कस्सिया आबाधा विसेसाहिआ। प्रकार संक्षी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके भी कहना चाहिये । स्वस्थान अल्पबद्भुत्व समाप्त हुआ। परस्थानकी अपेक्षा सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका आषाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तकका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय और असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तक तथा अपर्याप्तकके भी ले जाना चाहिये। उससे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तककी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [१६५ सुहुमेइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिआ। बादरएइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिआ । बेइंदियपज्जत्तयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपजतयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिआ । तस्सेव अपजत्तयस्स उक्कसिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। तेइंदियपज्जत्तयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । एवं चरिंदियपजत्तापज्जत्ताणं पि णेदव्वं । तदो असण्णिपंचिंदियपजतयस्स जहणियां आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कसिया आबाहा विसेसाहिया । तदो सण्णिपंचिंदियपजत्तयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपजत्तयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपजत्तयस्स आबाधाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स आबाधाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । एवमव्वोगाढमप्पाबहुगं समत्तं । अपर्याप्तककी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है।दीन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उसीके अपर्याप्तककी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तककी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तककी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तककी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तककी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तककी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक व अपर्याप्तकके भी ले जाना चाहिये। इससे आगे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उसीके अपर्याप्तककी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तककी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तककी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। उससे संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उसीके अपर्याप्तककी जघन्य आषाधा संख्यातगुणी है । उसीके अपर्याप्तकका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। इस प्रकार अब्वोगाढअल्पबहुत्व समाप्त हुआ। १ अ-आ-काप्रतिषु ' उक्क०', तापतौ ' उक्क० (जह०)' इति पाठः । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५.. मूलपयडिअप्पाबहुगं दुविहं सत्थाणं परत्थाणं चेदि । तत्थ सत्थाणे पयदं-सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाधाहाणविसेसो । आबाहाहाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाधाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । आउअस्स जहणिया आबाहा असंखेजगुणा।आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया। उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। __ एवं सुहुमेइंदियपजत्त-बादरेइंदियअपजत्ताणं पि वत्तव्वं । बादरेइंदियपज्जत्तएसु सव्वत्योवो णामा-गोदाणमाबाधाहाणविसेसो । आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसा हियाणि। चदुण्णं कम्माणमाबाधाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाधाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाधाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । आउअस्स जहणिया आबाहा असंखेजगुणा । णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणं जहणिया मूलप्रकृति अल्पबहुत्व दो प्रकार है-स्वस्थान अल्पबहुत्व और परस्थान अल्पबहुत्व । उनमें यहां स्वस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है-सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम घ गोत्रका आवाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार काँका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहवीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । आयु कर्मकी जघन्य आवाधा असंख्यातगुणी है । आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चार कर्मोंकी जघन्य आबाबा विशेष अधिक है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीय कर्मकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके भी कहना चाहिये । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कमौका आवाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । आयुकी जघन्य आबाधा असंख्यातगुणी है। नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चार कमौकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उनकी उत्कृष्ट Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [१६७ आबाहा विसेसाहिआ । उक्कस्सिया आबाहा बिसेसाहिआ । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स आबाधाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बेइंदिअपजत्तयस्स सव्वत्योवो णामा-गोदाणमाबाधाहाणविसेसो । आबाधाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाधाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाधाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । आउअस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहाँ विसेसाहिया । उवकस्सिया आबाहा विसेसाहिया। मोहणीयस्य जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । एवं तेइंदिय-चउरिंदिय-असण्णिपंचिंदियअपजत्ताणं पि णेदव्वं । __ सव्वत्थोवो बेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणं आबाहाहाणविसेसो। आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाधाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाधाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाधा विशेष अधिक है । मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार काँका आवाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका आसधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। आयुकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । आबाधास्थान विशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। चार काँकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इसी प्रकार श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके भी ले जाना चाहिये। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका आवाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका आबाधास्थान १ ताप्रती 'कम्माणं आवाहा' इति पाठः। .. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] छक्खंडागभे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. आबाधाहाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । आउअस्स जहणिया आबाधा संखेजगुणा । णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणां । उक्कस्सिया आषाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आवाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । एवं तेइंदिय-चउरिंदिय-असण्णिपंचिंदियपजत्ताणं पिणेदव्वं ।। सव्वत्थोवा सणिपंचिंदियपजत्तयस्स आउअस्स जहणिया आबाहा । णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । णामा-गोदाणमाबाधाहाविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। चदुण्णं कम्माणमाराधाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाधाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाटणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स आबाहाट्ठाणविसेसो संखेज्रगुणो । आबाहाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। विशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । आयुकी जघन्य आंबाधा संख्यातगुणी है । नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके भी ले जाना चाहिये। संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके आयुकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है। नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। चार कर्मोंकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है । मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चार कर्मोंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। १. अ-आ-काप्रतिषु 'णामागोदाणं.........संखेज्जगुणा' इति पाठौ नास्ति, ताप्रतौ स्वस्ति सः। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा १६९ सण्णिपंचिंदियअपजत्तयस्स आउअस्स सव्वत्थोवा जहणिया आबाहा। आबाहाहाणंविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । णामा-गोदाणं जहण्णिया आबाहा संखेजगुणा । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । माहायस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । एवं सत्याणप्पाबहुगं समत्तं । परत्थाणे पयदं-सव्वत्योवो सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणबाहाहाणविसेसो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेनगुणो । आबाहाहाणाणि एगहवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियअपजत्तयस्स णामागोदाणमाबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके आयुकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है। आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं आबाधा विशेष अधिक है । नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। चार कर्मों की जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक हैं । चार कर्मोंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। अब परस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है- सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूसे विशेष अधिक हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार कर्मोंका आबाधास्थान १ ताप्रती 'जह• आबाहा। [आबाहा] ढाण-' इति पाठः। छ. ११-२२. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६,५० कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगब्वेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो असंखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आवाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाण विशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष असंख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार कौंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार काँका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यात Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [१७१ विसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । तेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगहवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आवाहाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । चउरिंदियअपजत्तयस्स णामागोदाणमाबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि। चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेनगुणो। आबाहाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । असण्णिपंचिंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। गुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। श्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम घ .. गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्माका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मीका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार काँका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। असंक्षी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष १ अ-आ-काप्रतिषु ' असण्णि-' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ६, ५० आबाहाहाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि' । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामागोदाणमाबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चदुण्णं. कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चोदसण्णं जीवसमासाणमाउअस्स जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । सत्तण्णं पि अपज्जत्तजीवसमासाणमाउअस्स आबाहाहाणविसेसो संखेज्जगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स आउअस्स आबाहाहाणविसेसो संखेज्जगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। बादरएइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया। बादरेइंदियअपजत्तयस्सं णामा-गोदाणं जहण्णिया आबाहा क्सेिसाहिया । सुहुमेइंदियअपजत्तयस्सै णामा-गोदाणं जहणियाँ आबाहा विसेसाहिया । तस्सेवं णामा-गोदाणअधिक हैं। चार कर्मोंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके नाम घ गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कमाका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चौदह जीवसमासोंके आयुकी जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है । सातों ही अपर्याप्तक जीवसमासोंके आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके आयुका आबांधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। १ अप्रतावतोऽग्रे 'मोहणी. आबाहाट्ठाणविसेसो संखे० गुणो' इत्यधिकं वाक्यं समुपलभ्यते । २ अ-आ-काप्रतिषु 'पज०' इति पाठः। ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु सहमे इंदियपज०' इति पाठः। ४ काप्रतो ‘णामा-गोदाणमुक्क. ' इति पाठः। ५ ताप्रती 'सुहुमेइंदियपज णामा गोदाणं जह० आबाहा विसे०।। बादरेइंदियपज. णामागोदाणं जह. आबाहा विसेसाहिया। सुहमेइंदिय. विसे०]। तत्सेव' इति पाठः। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंध द्वाणपरूवणा [ १७३ मुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपज्जत्तस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमे इंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपत्तयस्स गामागोदाक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपजत्तयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स चदुष्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपञ्जत्तयस्स चदुण्णं कमाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णिया आबाहा संखेज्जगुणा । सुहुमेइंदियपञ्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपजत्तस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आचाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उवकस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्य उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के उनकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके उनकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कमकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कमोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक | बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके उनकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कमौंकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कमोंकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कमकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यातकके मोहनीय की जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। बादरए केन्द्रिय अपर्याप्त मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक के मोहनी की उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्यातक के मोहनीयकी Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स नामागोदाणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्य चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्य चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपज्जत्तस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्से चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहियो । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्हं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उकस्सिया उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तके चार कर्माकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कौकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके चार कमौकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीक पर्याप्तकके चार कर्मों की उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्यप्तको मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय १ प्रतिषु 'पज०' इति पाठः। २ प्रतिषु नास्तीदं वाक्यम् , मप्रतौ स्वस्ति । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [१७५ आबाहा विसेसाहिया । चउरिंदियपज्जत्तयस्म णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स णामागोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। चउरिदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्य चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्य उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चउरिंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणियां आबाहा संखेज्जगुणा । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामागोदाणं जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोकी जघन्य आशधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। असंशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। असंक्षी Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६,५०. असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स णामी-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जणिया आबाहा संखेज्जगुणा । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाधाहाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाधाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आवाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स आबाहाद्वाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपज्जत्ताणमाउअस्स आबाहाहाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहापंचेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तककके मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है। चार कर्मोकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । चार कर्मोंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आ विशेष अधिक है । मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा बिशेष अधिक है । त्रीन्द्रिय पर्याप्तकों के आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। १ अ-काप्रत्योः 'सण्णिपंचिंदियणामा-', आप्रतौ 'सण्णिपंचि० णामा-', ताप्रती 'सण्णिपंचिंदिय [पज ] णामा' इति पाठः । । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [१७७ ट्ठाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चउरिंदियपज्जत्तयस्स आउअस्स आबाहट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बेइंदियपज्जत्तयस्स . आउअस्स आबाहट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं आबाहहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजतयस्स चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्त आबाहहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपज्जत्ताणमाउअस्स आबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सण्णि-असण्णिपज्जत्ताणमाउअस्स आबाहट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । ___ संपहि एदेण सुत्तेण परूविददो वि अप्पाबहुअदंडयाणि जुगवं वत्तइरसामो । तं पि उभयदो अप्पाबहुअं दुविहं- अव्वोगाढअप्पाबहुअं मूलपयडिअप्पाबहुअं चेदि । तत्थ अव्वोगाढप्पाबहुअं दुविहं-- सत्थाणं परत्थाणं चेदि । तत्थ सत्थाणे पयदं- सव्वत्थोवो उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । बदर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके आयुका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । संशी व असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके आयुका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष आधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। अब इस सूत्रसे प्ररूपित दोनों ही अल्पबहुत्वदण्डकोंको एक साथ कहते हैं । वह दोनों प्रकारका अल्पबहुत्व अन्वोगाढअल्पबहुत्व और मूलप्रकृतिअल्पबहुत्वके भेदसे दो प्रकार है । उनमें अव्वोगाढअल्पबहुत्व दो प्रकार हैस्व-स्थान अल्पबहुत्व और परस्थाने अल्पबहुत्व । उनमें स्वस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है-सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके छ. ११-२३ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स आबाहट्ठाणविसेसो । आबाहाहाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । जहणिया आबाहा असंखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । हिदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेजगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । जहण्णओ हिदिबंधो असंखेजगुणो। उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । एवं सुहुमेइंदियपज्जत्त-बादरेइंदियपजत्तापज्जत्ताणं च णेदव्वो। सव्वत्थोवो बेइंदियअपजत्तयस्स आबाहट्टाणविसेसो। आबाहाट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसा हिया। द्विदिबंधट्टाणविसेसो असंखेजगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । एवं बेइंदियपजत्त-तेइंदियचउरिंदिय-असण्णिपंचिंदियपज्जत्तापजत्ताणं च णेदव्वं । .. सव्वत्थोवा सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स जहणिया आबाहा । आबाहहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाट्ठाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । जहण्णओ हिदिबंधो असंखेजगुणो । हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । एवं सण्णिपजत्ताणं पिणेदव्वं । आवाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । जघन्य आबाधा असंख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान विशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तों और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तों व अपर्याप्तोंके भी ले जाना चाहिये। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके आवाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। जघन्य अबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय पर्याप्तकों तथा त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों व अपर्याप्तकोंके भी ले जाना चाहिये। संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है। आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके भी जानना चाहिये । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०. .] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाण परूवणा [ १७९ परत्थाणे पयदं—– सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स आबाहाङाणविसेसो । आबाहाद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स आवाहवाणविसेसो संखेजगुणो | आबाहाद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । सुहुमेइंदियपज्ञ्जत्तयस्स आबाहाविस संखेजगुण । आबाहाट्टणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियपजत्तयस्स आबाद्वाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बेइंदियअपज्जत्तयस्स आबाहट्ठाणविसेसो असंखेज्जगुणो । आबाहाद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स आबाहद्वाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । [ 'तीइंदियअपजत्तयस्स आवाहाद्वाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । ] तस्सेव पज्जत्तयस्स आबाहट्ठाण विसेसो संखेज्जगुणो । आबाहद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । चउरिंदियअपजत्तयस्स आवाहट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । आवाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पञ्जत्तयस्स आवाहट्ठाणविसेसो संखेrगुणो । बाहाद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । असण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स आबाहट्ठाण विसेसो संखेजगुणो । आबाहाद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स आबाहाट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । सुहुमेइंदियपत्तयस्स जहणिया अब परस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है - सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे दिशेष अधिक हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष असंख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसके पर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक का आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है | आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके पर्यातकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। असंशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । बादर १ कोष्ठवस्थोऽयं पाठ अ आ-का-ताप्रतिषु नोपलभ्यते, मप्रतितोऽत्र योजितः सः । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, ५०. आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपजत्तयस्स जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियअपत्तयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपजत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियपत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बेइंदियपजत्तयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपज - तयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पत्तयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । एवं ते इंदियचउरिंदियाणं दव्वं । असण्णिपंचिदियपजत्ताणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । सेसतिण्णं पदाणं बेइंदियभंगो । सष्णिपंचिदियपजत्तयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपत्यस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपजत्तयस्स आबाहट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । बाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पत्तयस्स आबाहद्वाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेईदियअपजत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेजगुणो । द्विदिबंधट्टाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियअपजत्तयस्स ट्ठिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधद्वाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । सुहुमेइंदिय एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक की जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तककी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी उकृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यातककी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । द्वीन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीके अपर्याप्तककी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तककी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तककी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके ले जाना चाहिये । आगे असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । आगे के शेष तीन पदोंका अल्पबहुत्व द्वीन्द्रिय जीवोंके समान है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीके अपर्याप्तककी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीके अपर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणयहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणारूवणा [१८१ पजत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियअपजत्तयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो । द्विदिबंधट्टाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । बेइंदियअपजत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेजगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । तेइंदियअपजत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो। द्विदिबंधट्टाणाणि एगस्वेण विसेसाहियाणि । चउरिंदियअपजत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो। हिदिबंधहाणाणि एगवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स हिदिबंधहाणविसेसो खेजगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगवाहियाणि । असण्णिपंचिंदियअपजत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । बादरेइंदियपजत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव उक्स्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपले विशेष अधिक हैं । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थि बन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । असंशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका - Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. विसेसाहिओ। सुहुमेइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बेइंदियपजत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पजत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तेइंदियपजत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चउरिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सेसतिण्णिपदाणं बेइंदियभंगो । असण्णिपंचिंदियपजत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । सेसतिपिंपदाणं बेइंदियभंगो । सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। तस्सेव अपजत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। तस्सेव अपज्जत्तयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधटाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पजत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। एवमव्वोगाढमप्पाबहुअं समत्तं । मूलपयडिअप्पाबहुअं दुविहं- सत्थाणं परत्थाणं चेदि । तत्थ सत्थाणे पयदं उत्कृष्ट स्थितियन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । शेष तीन पदोंकी प्ररूपणा द्वीन्द्रियके समान है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। शेष तीन पदोंकी प्ररूपणा द्वीन्द्रियके समान है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इस प्रकार अव्योगाढअल्पबहुत्व समाप्त हुआ। मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व दो प्रकार है- स्वस्थान अल्पबहुत्व और परस्थान अल्पबहुत्व । १ प्रतिषु 'सेस तिण्णि-' इति पाठः । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणयहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा . [ १८३ सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स गामा-गोदाणमाबाहट्ठाणविसेसो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । आउअस्स जहणिया आबाहा असंखेनगुणा । जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो। आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहाविसेसाहिया । णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। चदुण्णं कम्माणं जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। आउअस्स हिदिबंधवाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेजगुणो। हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधहाणाणि एगवाहियाणि । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो असंखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखज्जगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । एवं सुहुमेइंदियपज्जत्तइनमेंसे स्वस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है- सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है। आबाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं। चार कर्मोंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आवाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं । मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुगा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक है। आयुकी जघन्य आबाधा असंख्यातगुणी है। जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है । आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। माम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा. विशेष अधिक है। चार कौकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उनकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुका स्थितिवन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं । मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं। नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगणा है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चार कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इसी प्रकार १ ताप्रती एगरूक्णहियाणि ' इति पाठः । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] . छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ६, ५०. बादरेइंदियअपज्जत्ताणं च णेदव्वं । सव्वत्थोवो बादरेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहट्टाणविसेसो । आबाहट्ठाणाणि एगवाहियाणि । चक्षुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । आउअस्स जहणिया आवाहा संखेजगुणा । जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । णामा-गोदाणं जहण्णिया आबाहा असंखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहियां । चदुण्णं कम्माणं जणिया आबाहा विसेसाहिया । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। मोहणीयरस जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। आउअस्स आबाहाट्ठाणविसेसो संज्जगुणो । आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेजगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं टिदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगवाहियाणि । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो असंखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकों और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके भी जानना चाहिये । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष सबसे स्तोक हैं। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मों का आवाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं । मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं। आयुकी जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है । जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । नाम प गोत्रकी जघन्य आबाधा असंख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चार कर्मोकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उससे उन्हींकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रुपसे अधिक हैं। उत्कट आबाधा विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे . अधिक हैं । चार काँका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं । मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं । नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चार कौका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उत्कृष्ट Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेनगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सव्वत्थोवो बेइंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाट्ठाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । आउअस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । णामा-गोदाणं जहण्णिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया। उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगख्वाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेजगुणो । हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधहाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार काँका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं । मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं। आयुकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। नाम व गोत्रकी जवन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । चार कर्मों की जघन्य आबाधा विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं। चार कर्मोका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं। मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं । नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। छ. ११-२४. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. संखेजगुगो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । चदुग्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । एवं तेइंदिय-चउरिंदिय-असणिपंचिंदियअपजत्ताणं पिणेयव्वं । सवयोवो बेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । आउस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा। जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । णामा-गोदाणं जहग्गिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। चदुण्णं कम्माणं जहग्णिया आबाहा विसेसाहिया । उक्कस्सिया आवाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। हिदिबंधहाणविसेसो संखेजगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाणं ट्ठिदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेजगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधहाणविसेसो विससाहिओ । हिदिबंधट्ठाणा णि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधहाणविसेसो चार कमौका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार श्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और असंशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके भी जानना चाहिये। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है । आवाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं । चार कौंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आवाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं । मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं। आयुकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चार कर्माकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीय की जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आषाधा विशेष अधिक है। आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध धक हैं। नाम व गोत्रको स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक है । चार काँका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष १ अ-आ-लाप्रतिषु तेइंदिय-असण्णि', ताप्रतौ तेइंदिय [चउरिदिय ] असण्णि' इति पाठः । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [ १८७ संखेज्जगुणो । टिदिबंधट्टाणाणि एगवाहियाणि । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिवेधो संखेज्जगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स जहण्णओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। एवं तेइंदिय-चउरिंदियपजत्ताणं पि' णेयव्वं । सव्वत्थोवो असण्णिपंचिंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहट्ठाणविसेसो। आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाधाहाणाणि एगरूवाहियाणि । आउअस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा। जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाट्टाणाणि एगरूवाहियाणि। उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। हिदिबंधहाणविसेसो असंखेजगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। णामा-गोदाणं डिदिबंधहाणविसेसो असंखेजगुणो। द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधसंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं। नाम प गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक हैं। मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकोंके भी ले जाना चाहिये। ___असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है। आवाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं । चार कर्मों का आवाधास्थान विशेष विशेष अधिक है । भावाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं । मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संप्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं । आर की जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चार कमौकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान विशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान १ अ-का-ताप्रतिषु 'पि' इत्येत्पदं नोपलभ्यते । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. द्वाणविसेसो विसेसाहिओ। द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो। द्विदिबंधट्ठाणाणि एगख्वाहियाणि । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। [उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । ] मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सव्वत्थोवा सण्णिपंचिंदियअपजत्तयस्स आउअस्स जहणिया आवाहा । जहण्णओ द्विदिबंधो संखेजगुणो। आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । णामा-गोदाणं जहण्णिया आबाहा संखेजगुणा । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । णामा-गोदाणमाबाहट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स आबाहट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो एक रूपसे अधिक हैं । चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्शतगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चार कमौका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। [ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। ] मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके आयुकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है। जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। आबाधास्थानाविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगणी है। चार ककी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट अबाधा विशेष अधिक है। चार कर्मोंका आवाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । मोहनीयका आबाधास्थान विशेष संख्यातगुणा है। माबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [ १८९ असंखेजगुणो । चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। मोहणीयस्स जहण्णओ द्विदिबंधो संखेजगुणो । णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं डिदिबंधट्टाणविसेसो विसेसाहिओ । टिदिबंधट्ठाणाणि एगहवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स ट्ठिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधठ्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सव्वत्थोवा सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स आउअस्स जहणिया आबाहा । तस्सेव जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा। चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । णामा-गोदाणमाबाहट्ठाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगख्वाहियाणि। उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवेण विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । हिदिबंधहाणविसेसो असंखेजगुणो । हिदिबंधटाणाणि एगवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसा हिओ। णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो है। चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। नाम व गोत्रका थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबाधस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धंस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक हैं । मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके आयुकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है। उसीका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। चार काँकी जघन्य आबाधा.विशेष अधिक है । मोहनीपकी जघन्य आबाधा संख्याता. गुणी है । नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आ.बाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चार कर्माका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आवाधा विशेष है। स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उस्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. संखेजगुणो । चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । णामा-गोदाणं द्विदिबंधट्टाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधट्टाणविसेसो विससाहिओ । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । एवं सत्थाणप्पाबहुगं समत्तं । परत्याणे पयदं-सव्वत्थोवो सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणमात्राहट्ठाणविसेसो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । बादरेइंदियअपजत्तयस्स गामा-गोदाणमाबाहहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहट्ठाणाणि एगवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहहाणाणि एगख्वाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहहाणविसेसो संखेज्जगुणो। आबाहाहाणाणि एंगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहवाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । मोहणीयस्स संख्यातगुणा है । चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चार कौंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। __अब परस्थान अल्पबहुत्वका प्रकरण है- सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष सबसे स्तोक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मीका आवाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार कर्मोंका आबाधास्थान. विशेष विशेष अधिक है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक है । मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तककके नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका आवाधास्थानविशेष विशेष भधिक है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका. आवाधास्थानविशेष Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयगकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [१९१ आषाहाहाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । बादरएइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाहाणाणि एगख्वाहियाणि । बेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो असंखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदामाबाहट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। आबाहट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्हं कम्माणमाबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहट्ठाणाणि एगवाहियाणि । तेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणावसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहट्टाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहट्ठाणाणि एगवाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्ण कम्माणमाबाहट्ठाणविसेसो संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कमौका आवाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं। मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष असंख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं। चार कर्मोंका आवाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आयाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार कर्मोंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार काँका आवाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार कर्मोंका आबाधास्थान विशेष विशेष Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६,५०.. विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगख्वाहियाणि । मोहणीयस्स आषाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । चउरिंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगख्वाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । असग्णिपंचिंदियअपजत्तयस्स णामागोदाणमाबाहहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगख्वाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहट्ठाणाणि एगख्वाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहट्ठाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ। आबाहाट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । चोद्दसणं जीवसमासाणमाउअस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे अधिक हैं। मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार काँका आवाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आषाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका आशधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधा. स्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कौका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका आबाधास्थान संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तक के नाम व गोत्रका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार काँका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका भावाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चौदह जीवसमासोंके आयुकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। जघन्य स्थितिबन्ध Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्टाणपरूवणा (१९३ सत्तण्णमपजत्ताणमाउअस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सुहमेइंदियपज्जत्ताणमाउअस्स आबाहाहाण विसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। बादरेइंदियपजत्तयस्स गामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । सुहुमेइंदियपजत्तस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपजत्तयस्स [णामा-गोदाणं] जहणिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स गामागोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माण उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । संख्यातगुणा है। सात अपर्याप्तकोंके आयुका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उस्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके उनकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार क.मौकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। सक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार काँकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मोकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है। उसीके उनकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आबाधा बिशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंकी उस्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आवाधा छ. ११-२५ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. बादरेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । एवं सेसाणं छप्पदाणं पिणेदव्वं । बेइंदियपजत्तयस्स गामा-गोदाणं जहणिया आवाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कसिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बेइंदियपजत्तयस्य चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया। तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आवाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आवाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। बेइंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। इसी प्रकार शेष छह पदोंका भी अल्पवहुत्व जानना चाहिये। आगे द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उसीके अपर्याप्तकके नाम गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उस्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके चार कमौकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कौकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मों की जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कोकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोकी उत्कृष्ट भाबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकक Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [१९५ तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्य उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आषाहा विसेसाहिया । चउरिंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया. आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्य चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्स उवकस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चउरिंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्य जहणिया आबाहा विसेसाहिया। तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । असण्णिपंचिंदियपजत्तयस्स गामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपजत्तसस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव मोहनीयकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपयाँप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्थ आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कौंकी उस्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । असंशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, ५०. अपत्यस्स णामा - गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स णामागोदाणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुष्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुष्णं कम्माणं जहणियो आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पत्तयस्स चदुष्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया बाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सणिपंचिंदियपजत्तयस्स णामा - गोदाणं जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संजगुणा । तस्सेव अपज्जत्तयस्स गामा-गोदाणं जहण्णिया आबाहा संखेखगुणा । तस्सेव अपत्यस्स चदुष्णं कम्माणं जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा - गोदाणमाबाहवाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमाबाहद्वाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपयोतक के चार कमकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कमोंकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तक के मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीके अपर्याप्तक के मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तक के मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तक के मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीके अपर्याप्तक के नाम घ गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीके. अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूप से विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तक के चार कर्मोंका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक १ ताप्रतौ ' कम्माणं उक्क० ( जह० ) ' इति पाठः । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६,५०.] वेयणयहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणारूवणा [१९७ आबाहट्ठाणाणि एगवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपजत्ताणमाउअस्स आबाहहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। चउरिंदियपजत्ताणमाउअस्स आवाहट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स आउअस्स आबाहाहाणविसेसो संखेज्जगुणो। आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणविसेसो संखेज्जगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं करमाणमाबाहट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगवाहियाणि । उक्कसिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स आबाहाहाणविसेसो संखेजगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपजत्तयस्स आउअस्स आबाहाहाणविसेसो विसेसाहिओ । आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । पंचिंदियसण्णि-असण्णिपज्जत्ताणमाउअस्स आबाहहाणविसेसो संखेज्जगुणो। आबाहाहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सिया, आबाहा ma.. हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है । आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय प्रर्याप्तकके आयुका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंका आवाधास्थानविशेष विशेष अधिक है । आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका आबाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आवाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके आयुका आबाधास्थानविशेष विशेष अधिक है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । पंचेन्द्रिय संझी व असंझी पर्याप्तकोंके आयुका आवाधास्थानविशेष संख्यातगुणा है। आबाधास्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आषाधा विशेष अधिक है। बारह जीवसमासोंके आयुका Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] -छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. विसेसाहिया । बारसणं जीवसमासाणमाउअस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । असण्णिपंचिंदियपज्जत्ताणमाउअस्स हिदिबंधहाणविसेसो असंखेज्जगुणो । हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेज्जगुणो। हिदिबंधहाणाणि एगवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्टाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगख्वाहियाणि । बादरेइंदियअपज्जत्ताणं णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधाणाणि एगवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । सुहुमेइंदियपज्जत्ताणं णामा-गोदाणं हिदिबंधहाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं टिदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधट्ठाणाणि एगवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्टाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । बादरेइंदियपज्जत्ताणं णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधहाणाणि एगवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्ठाण- . . स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंक्षी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके आयुका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार काँका स्थितिवन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके नाम वगोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक है।चार कमौका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एकरूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका स्थितिवन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थान विशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कमौका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार कर्मोंका स्थिति Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणयहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा (१९९ विसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगवाहियाणि । बेइंदियअपज्जत्ताणं णामागोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो असंखेज्जगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुषणं कम्माणं हिदिबंधहाणविसेसो विसेसाहिओ । द्विदिबंधहाणाणि एगरूहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधहाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । तस्सेव पउजत्ताणं णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधहाणविसेसो विसेसाहिओ । हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । तेइंदियअपजत्ताणं णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । हिदिबंधटाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्ठाणूविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधट्ठाणाणि एगख्वाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो। हिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । तस्सेव पज्जत्ताणं णामा-गोदाणं हिदिबंधटाणविसेसो संखेजगुणो। हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्टाणविसेसो विसेसाहिओ। टिदिबंधट्ठाणाणि एगवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । ठिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । चउरिंदियअपज्जत्ताणं णामा-गोदाणं बन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोह. नीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष असंख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका स्थितिवन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूएसे विशेष अधिक हैं । चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्ध स्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। श्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार काँका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, ५०. हिदिबंधाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधद्वाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुष्णं कम्माणं द्विदिबंधट्ठाण विसेसो विसेसा हिओ । ठिदिबंधट्टाणाणि एगख्वाहियाणि । मोहणीय ठिदिबंधाणविसेसो संखेजगुणो । ठिदिबंधद्वाणाणि एगरूवाहियाणि । तस्सेव पत्ताणं णामा-गोदाणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । ठिदिबंधद्वाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुणं कम्माणं द्विदिबंधट्ठाण विसेसो विसेसाहिओ । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणी बंधाणविसेसो संखेजगुणो । ठिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । असणपंचेंदिअपजत्ताणं णामा - गोदाणं द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । ठिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । चदुष्णं कम्माणं ट्ठिदिबंधट्ठाणविसेसो विसेसाहिओ । ठिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । ठिदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । तस्सेव पत्ताणं णामा - गोदाणं द्विदिबंधट्टानविसेसो संखेज्जगुणो । ठिदिबंधागाणि एगरूवाहियाणि । चदुष्णं कम्माणं द्विदिबंधट्टाणविसेसो विसेसाहिओ । ठिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । मोहणीयस्स विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । ठिदिबंधाणाणि एगरूवाहियाणि । बादरएइंदियपजत्तयस्स णामा - गोदाणं जहण्णओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स णामा - गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो I विशेष अधिक हैं । चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार कमौका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुण है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। मोहनीय का स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं असंशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक के नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं 1 उसीके पर्याप्तक के नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थान विशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है | स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त कके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक के नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [२०१ विसेसाहिओ । बादरेइंदिपअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमेइंदिपअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियअपजत्तयस्स णामागोदाणमुक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बादरेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियअपज्जतयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहमेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । सेसाणि सत्त पदाणि विसेसाहियाणि णेदव्वाणि । बेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम पा गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उ 'अपर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार काँका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक के चार काँका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। शेष सात पद विशेष अधिक क्रमसे ले जाना चाहिये । द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके १ अप्रती विसेसाहियाणि तिणेदव्वाणि ' इति पाठः। छ. ११-२६ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] . छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५०. संखेजगुणो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ टिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पजत्तयरस चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । एवं सेसाणि तिण्णि पदाणि णेदव्वाणि । तेइंदियपजंत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । एवं सेसदोपदाणि विसेसाहियकमेण णेदव्वाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सओ टिदिबंधो विसेसाहिओ । बेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्करसओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चउरिंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार शेष तीन पदोंको ले जाना चाहिये। __ आगे श्रीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार शेष दो पदोंको भी विशेषाधिकके क्रमसे ले जाना चाहिये। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके आयुका स्थितिबन्ध १ वाक्यमिदं नोपलभ्यत अ-आ-काप्रतिषु । २ ताप्रती ' चदुण्णं क० उक्क० (जह०)' इति पाठः। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [२०३ सण्णिपंचिंदियपज्जत्ताणमाउअस्स हिदिबंधट्टाणविसेसो विसेसाहिओ । ठिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चउरिंदियपजत्ताणं चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपजत्ताणं चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्ताणं चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पजत्ताणं चउण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तेइंदियपजत्ताणं मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्ताणं मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्ताणं मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पजत्ताणं मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चउरिदियपज्जत्ताणं मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्ताणं मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपजत्ताणं मोहणीयस्स उक्कस्सओ टिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्ताणं मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। असण्णिपंचिंदियपजत्ताणं णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । तस्सेव अपजत्ताणं णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्ताणं णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्ताणं णामा-गोदाणमुक्कस्सओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । असण्णिपंचिंदियपज्जत्ताणं चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्ताणं चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ टिदिबंधो स्थानविशेष विशेष अधिक है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार काँका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार काँका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, ५०. विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्ताणं चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ | तस्सेव पज्जत्ताणं चदुष्णं कम्माणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । असणिपंचिंदियपज्जत्ताणं मोहणीयस्स जहण्णओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । तस्सेव अपज्जत्ताणं मोहणीयस्स जणओ ट्ठदिबंध विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्ताणं मोहणीयस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्ताणं मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सण्णिपंचिंदियपज्जत्ताणं णामा-गोदाणं जहण्णओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । तस्सेव पज्जत्ताणं चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्ताणं मोहणीयस्स जहण्णओ बंध संखेज्जगुणो । तस्सेव अपज्जत्ताणं णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । तस्सेव अपज्जत्ताणं चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्ताणं मोहणीयस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणो । तस्सेव अपज्जत्ताणं णामा-गोदाणं बंधाविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्ठाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्ताणं चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधट्टाणविसेसो विसेसाहिओ । बिंधाणाणि गवाहियाणि । उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्ताणं मोहणीयस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेज्जगुणो । द्विदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्ताणं णामा-गोदाणं द्विदिबंधद्वाणविसेसो विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कमका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कमका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तक के मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तक के मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके पर्याप्तक के चार कमका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक । उसीके पर्याप्तक के मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तक के नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकके चार कमका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तक के मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५१.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [२०५ संखेज्जगुणो । द्विदिबंधडाणाणि एगवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्ताणं चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधहाणविसेसो विसेसाहिओ। हिदिबंधट्टाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स हिदिबंधट्टाणविसेसो संखेज्जगुणो । हिदिबंधहाणाणि एगरूवाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सम्वत्थोवा सुहुमेइंदियअपजत्तयस्सं संकिलेसविसोहिट्ठाणाणि ॥५१।।) स्थितयो बध्यन्ते एभिरिति करणे घजुत्पत्तेः कर्मस्थितिबन्धकारणपरिणामानां स्थितिबन्ध इति व्यपदेशः । तेषां स्थानानि अवस्थाविशेषाः स्थितिबन्धस्थानानि । संपहि तेसि हिदिबंधकारणपरिणामाणं परूवणा कीरदे । किमहमेदेसिं परूवणा कीरदे ? कारणावगमदुवारेण कम्मट्टिदिकजावगमणटं । ण च कारणे अणवगए कज्जावगमो सम्मत्तं पडिवजदे, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो। एत्य परूवणा पमाणमप्पाबहुअमिदि तिण्णि अणियोगद्दाराणि भवंति । सुत्ते अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके नाम व गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है। स्थितिबन्धस्थान एक रूपसे विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान सबसे स्तोक हैं ॥५१॥ - जिनके द्वारा स्थितियां बंधती हैं ' इस विग्रह के अनुसार करण अर्थ में 'घञ्' प्रत्यय होनेसे स्थितिबन्धके कारणभूत परिणामोंको स्थितिबन्ध कहा गया है। उनकी अवस्थाविशेषोंका नाम स्थितिबन्धस्थान हैं । अब स्थितिवन्धके कारणभूत उन परिणामोंकी प्ररूपणा करते हैं। शंका-इनकी प्ररूपणा किसलिये की जाती है ? समाधान-कारणपरिक्षानपूर्वक कर्मस्थितिके रूप कार्यका परिज्ञान करानेके लिये उनकी प्ररूपणा की जा रही है। कारण कि जबतक कार्योत्पादक हेतुका परिक्षान : हो जाता, तब तक कार्यका परिज्ञान यथार्थताको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि, दूसरी जगह बैसा पाया नहीं जाता है। यहां प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व ये तीन अनुयोगद्वार हैं। १ अ-आ-काप्रतिषु ‘पजत्तयस्स' इति पाठः । २ अ-आ-काप्रतिषु 'घञ्युत्पत्ते' इति पाठः । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५१. अप्पाबहुआणियोगद्दारमेक्कमेव किमडे पर विदं ? ण एस दोसो, अप्पाबहुअपरूवणाए तेसिं दोण्हं पि अंतभावादो । कुदो ? अणवगयसंत-पमाणेसु परिणामेसु अप्पाबहुगाणुववत्तीदो। तत्थ ताव एगजीवसमासमस्सिदृण संकिलेस-विसोहिहाणाणं परवणा कीरदे । तं जहाजहणियाए हिदीए अत्थि संकिलेसट्टाणाणि । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सहिदि त्ति । एवं विसोहिट्ठाणाणं पि पख्वणा कायव्वा । णवरि उक्कस्सहिदिप्पहुडि पख्वेदव्वं । एवं परूवणा गदा। जहणियाए हिदीए संकिलेसट्टाणाणं पमाणमसंखेजा लोगा । बिदियाए हिदीए वि असंखेजा लोगा । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सिया हिदि त्ति । एवं विसोहिहाणाणं पि विवरीएण पमाणपरुवणा कायव्वा । एत्थ पमाणाणियोगद्दारेण सृचिदाणं सेडि-अवहार-भागाभागाणं परवणं कस्सामो । तत्थ सेडिपवणा दुविहा- अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधाए जहण्णहिदीए संकिलेसटाणेहिंतो बिदियाए टिदीए संकिलेसट्टाणाणि विसेसाहियाणि । को पडिमागो? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । बिदियटिदिसंकिलेसटाणेहिंतो तदियट्ठिदिसंकिलेसट्टाणाणि विसेसाहियाणि । एत्थ पडिभागो शंका-सूत्रमें एक मात्र अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारकी ही प्ररूपणा किसलिये की गई है ? समाधानयह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वे दोनों अल्पबहुत्व प्ररूपणाके अन्तर्गत हैं। कारण यह कि सत्त्व और प्रमाणके अज्ञात होनेपर उक्त परिणामों के विषयमें अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा सम्भव नहीं है। उनमें पहिले एक जीवसमासका आश्रय लेकर संक्लेश-विशुद्विस्थानोंकी प्ररूपण की जाती है । यथा-जघन्य स्थितिमें संक्लेशस्थान हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये । इसी प्रकार विशुद्धिस्थानोंकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि उनकी प्ररूपणा उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर करना चाहिये । प्ररूपणा समाप्त हुई। जघन्य स्थितिके संक्लेशस्थानोंका प्रमाण असंख्यात लोक है । द्वितीय स्थितिके भी संक्लेशस्थानोंका प्रमाण असंख्यात लोक ही है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये । इसी प्रकार विशुद्धिस्थानोंके भी प्रमाणकी प्ररूपणा विपरीत क्रमसे करना चाहिये। यहां प्रमाणानुयोगद्वारसे सूचित श्रेणि, अवहार और भागाभागकी प्ररूपणा करते हैं। उनमें श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। उनमें अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा-जघन्य स्थितिके संक्लेशस्थानोंसे द्वितीय स्थितिके संक्लेशस्थान विशेष अधिक हैं। प्रतिभाग क्या है ? प्रतिभाग पल्योपमका असंख्यातयां भाग है। द्वितीय स्थितिके संक्लेशस्थानोंकी अपेक्षा तृतीय स्थितिके संक्लेशस्थान विशेष Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५१.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [ २०७ पलिदोवमस्स असंखञ्जदिभागमेत्तो । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सटिदिसंकिलेसट्टाणाणि त्ति । एवमणंतरोवणिधा गदा। परंपरोवणिधाए जहण्णाटिदिसंकिलेसट्ठाणेहिंतो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तद्धाणं गंतृण दुगुणवड्डी होदि । पुणो वि एत्तियमद्धाणमुवरि गंतूण चदुग्गुणवडी होदि । एवं णेयव्वं जाव उक्कस्सहिदीए संकिलेसहाणाणि त्ति । एत्थ णाणागुणहाणिसलागाओ थोवाओ । एगगुणहाणिहाणंतरमसंखेजगुणं । एवं विसोहिट्ठाणाणं पि सेडिपख्वणं विवरीदकमेण कायव्वं, उक्कस्सहिदिपरिणामेहिंतो हेट्ठिम-हेट्ठिमहिदिपरिणामाणं विसेसाहियत्तुवलंभादो । एवं सेडिपरूवणा गदा।। अवहारो उच्चदे । तं जहा-सव्वसंकिलेसट्ठाणाणि जहण्णटिदिसंकिलेसपमाणेण अवहिरिजमाणे केवचिरेण कालेण अवहिरिजति ? असंखेज्जेण कालेण अवहिरिज्जति । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सियाए हिदीए संकिलेसटाणाणि त्ति । एवं विसोहिहाणाणं पि वत्तव्यं । अवहारो गदो।। ___ जहण्णियाए हिदीए संकिलेसटाणाणि सव्वसंकिलेसट्टाणाणं केवडिओ भागो ? असंखेजदिभागो । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सियाए हिदीए संकिलेसटाणा णि त्ति । एवं विसोहिहाणाणं' भागाभागपख्वणा कायव्वा । एवं भागाभागपवणा गदा । अधिक हैं । यहां प्रतिभाग पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके संक्लेशस्थानों तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। परम्परोपनिधासे जघाय स्थितिके संक्लेशस्थानोंकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र अध्धान जाकर दुगुणी वृद्धि होती है । फिर भी इतना मात्र अध्यान आगे जाकर चतुर्गुणी वृद्धि होती है । इस क्रमसे उत्कृष्ट स्थितिके संक्लेशस्थानों तक ले जाना चाहिये । यहां नाना गुणहानिशलाकायें स्तोक हैं। एक गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है। इसी प्रकार विशुद्धिस्थानोंकी भी श्रेणिप्ररूपणा विपरीत क्रमसे करना चाहिये, क्योंकि, उत्कृष्ट स्थितिके संक्लेशस्थानोंकी अपेक्षा नीचे नीचेकी स्थितियोंके परिणाम विशेष अधिक पाये जाते हैं । इस प्रकार श्रेणिप्ररूपणा समाप्त हुई। वहारकी प्ररूपणा करते हैं। यथा-समस्त संक्लेशस्थानोंको जघन्य स्थितिके संक्लेशस्थानोंके प्रमाणसे अपहृत करनेपर वे कितने कालके द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे असंख्यात कालके द्वारा अपहृत होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके संक्लेशस्थानोंतक ले जाना चाहिये। इसी प्रकार विशुद्धिस्थानोंके भी अवहारका कथन करना चाहिये । अवहारका कथन समाप्त हुआ। जघन्य स्थितिके संक्लेशस्थान सब संक्लेशस्थानोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? वे सब संक्लेशस्थानोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिके स्थानों तक ले जाना चाहिये । इसी प्रकार विशुद्धस्थानोंके भागाभागकी प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार भागाभागप्ररूपणा समाप्त हुई। १ अ-आ-काप्रतिषु 'विसोहिट्ठाणाणि ' इति पाठः। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] छ खंडागमे वेणाखंड [ ४, २, ६, ५१. संपहि अप्पाबहुअपरूवणाए सुतुद्दिट्ठाए विवरणं कस्सामो -- सव्वत्थोवा सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस - विसोहिद्वाणाणि । संपहि संकिलेसट्टाणाणं विसोहिद्वाणाणं च को भेदो ? परियत्तमाणियोणं साद - थिर - सुभ-सुभग- सुस्सर - आदेजादीणं सुभपयडीणं बंधकारणभूदकसायट्ठाणाणि विसोहिद्वाणाणि, असाद - अथिर - असुह - दुभग- [ दुस्सर - ] अणादेजादी परियत्तमाणियाणमसुहपयडीणं बंधकारणंकसाउदयट्टाणाणि कलेसाणा त्ति एसो तेसिं भेदो । वडमाणकसाओ संकिलेसो, हायमाणो विसोहि त्ति किण्ण पदे ? ण, संकिलेस - विसो हिट्ठाणाणं संखाए समाणत्तप्पसंगादो । कुदो ? जणुक्कसपरिणामाणं जहा मेण विसोहि-संकिलेसणियमदंसणा दो मज्झिमपरिणामाणं च संकिलेस-विसो हिपक्खवुत्तिदंसणादो ण च संकिलेस - विसोहिद्वाणाणं संखाए समाणत्तमत्थि, संकिलेसट्टाणेहिंतो विसोहिद्वाणाणि णिच्छण योवाणि त्ति पवाइज्ज माणगुरुवएसेण सह विरोहादो । उक्कस्सद्विदीए विसोहिद्वाणाणि थोवाणि जहण्णद्विदीए अब सूत्रोद्दिष्ट अल्पबहुत्वकी प्ररूपणाका विवरण करते हैं -सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्या तक के संक्लेश-विशुद्धिस्थान सबसे स्तोक हैं । शंका- यहां संक्लेशस्थानों और विशुद्धिस्थानोंमें क्या भेद है ? समाधान - साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय आदिक परिवर्तमान शुभ प्रकृतियों के बन्धके कारणभूत कषायस्थानोंको विशुद्धिस्थान कहते हैं और असाता, अस्थिर अशुभ, दुभंग, [ दुस्वर ] और अनादेय आदिक परिवर्तमान अशुभ प्रकृतियोंके बन्धके कारणभूत कषायोंके उदयस्थानोंको संक्लेशस्थान कहते हैं, यह उन दोनोंमें भेद है । शंका-बढ़ती हुई कषायको संक्लेश और हीन होती हुई कषायको विशुद्धि क्यों नहीं स्वीकार करते ? समाधान- नहीं, क्योंकि वैसा स्वीकार करनेपर संक्लेशस्थानों और विशुद्धिस्थानोंकी संख्या के समान होने का प्रसंग आता है । कारण यह कि जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोंके क्रमशः विशुद्धि और संक्लेशका नियम देखा जाता है, तथा मध्यम परिणामोंका संक्लेश अथवा विशुद्धि के पक्ष में अस्तित्व देखा जाता है । परन्तु संक्लेश और विशुद्धि स्थानों में संख्या की अपेक्षा समानता है नहीं, क्योंकि, 'संक्लेशस्थानोंकी अपेक्षा विशुद्धिस्थान नियमसे स्तोक हैं' इस परम्परा से प्राप्त गुरुके उपदेशसे विरोध आता है । अथवा, उत्कृष्ट स्थितिमें विशुद्धिस्थान थोड़े और जघन्य स्थितिमें बे बहुत १ अ आ-काप्रतिषु ' परियत्तवूणियाणि, ' ताप्रतौ ' परियत्तमाणियाणि ' इति पाठः । सायं थिराई उच्च सुर-मणु दो-दो पर्णिदि चउरसं । रिसह - पसत्यविहायगइ सोलस परियत्तसुभवग्गो ॥ पं. सं. १,८१ २ अ आ-काप्रतिषु 'परियन्त्तवृणियाण ' इति पाठ: । अस्साय थाबरदसं नरयदुगं विहगई य अपसत्था । पंचेदि - रिसभचउरंसगेयरा असुभघोलणिया । पं. सं. १,८२. ३ म प्रतिपाठोऽयम् । अ आ का प्रतिषु C एक्करस ' ताप्रतौ ' ए ( उ ) क्कस्स ' इति पाठः । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २, ६, ५१.] वेयणमहाहियारे वैयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा " [ २०९ बहुवाणि ति गुरुवसादो वा हायमाणकसाउदयद्वाणाणं विसोहिभावो णत्थि त्ति वदे | ( सम्मत्तप्पत्तीए सादद्वाणपरूवणं' कादूण पुणो संकिलेस - विसोहीणं परूवणं कुणमाणा वक्खाणाइरिया जाणावेंति जहा हायमाणकसा उदयद्वाणाणि चेव विसोहिस णिदाणि ति भणिदे होदु णाम तत्थ तथाभावो, दंसण-चरितमोहक्खवणोवसामणासु पुव्विलसमए उदयमागद-अणुभागफद्दएहिंतो अनंतगुणहीणफद्दयाणमुदएण जादैकसायउदयद्वाणस्स विसो - हित्तमवगमादोणच एस नियमो संसारावत्थाए अत्थि, तत्थ छव्विवड्डि-हाणीहि कसाउदयद्वाणार्णं उत्पत्तिदंसणादो । संसारावत्याए वि अंतोमुहुत्तमणंतगुणहीणकमेण अणुभागफद्दयाणं उदओ अस्थि त्ति वुत्ते होदु, तत्थ वि तथाभावं पडुच विसोहित्तन्भुवगमादो । ण च एत्थ अनंतगुणहीणफद्दयाणमुदएण उप्पण्णकसा उदयद्वाणं विसोहि त्ति घेप्पदे, एत्थ एवंविहविवक्खाभावादों । किंतु सादबंधपाओग्गकसा उदयद्वाणाणि विसोही, असादबंधपाओग्गकसा उदयद्वाणाणि संकिलेसो त्ति घेत्तव्वमण्णहा बिसोहिडाणाणमुक्कस्सट्ठिदीए होते हैं, इस गुरुके उपदेशसे जाना जाता है कि हानिको प्राप्त होनेवाली कषायके उदयस्थानोंके विशुद्धता सम्भव नहीं है । शंका-सम्यक्त्वोत्पत्ति में सातावेदनीयके अध्वानकी प्ररूपणा करके पश्चात् क्लेश व विशुद्धिकी प्ररूपणा करते हुए व्याख्यानाचार्य यह ज्ञापित करते हैं कि हानिको प्राप्त होनेवाले कषायके उदयस्थानोंकी ही विशुद्धि संज्ञा है ? समाधान - ऐसी आशंका होनेपर उत्तर देते हैं कि वहाँपर वैसा कहना ठीक है, क्योंकि, दर्शन और चारित्र मोहकी क्षपणा व उपशामना में पूर्व समय में उदयको प्राप्त हुए अनुभागस्पर्धकों की अपेक्षा अनन्तगुणे हीन अनुभागस्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न हुए कषायोदयस्थानके विशुद्धपना स्वीकार किया गया है । परन्तु यह नियम संसारावस्था में सम्भव नहीं है, क्योंकि, वहाँ छह प्रकारकी वृद्धि व हानियोंसे कषायोदयस्थानकी उत्पत्ति देखीजाती है । शंका-संसारावस्था में भी अन्तर्मुहूर्त काल तक अनन्तगुणे हीन क्रमसे अनुभागस्पर्धकों का उदय है ही ? समाधान — संसारावस्था में भी उनका उदय बना रहे, वहाँ भी उक्त स्वरूपका आश्रय करके विशुद्धता स्वीकार की गई है । परन्तु यहाँ अनन्तगुणे हीन स्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न कषायोदयस्थानको विशुद्धि नहीं ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि, यहाँ इस प्रकारकी विवक्षा नहीं है । किन्तु सातावेदनीयके बन्धयोग कषायोदय स्थानोंको विशुद्धि और असातावेदनीय के बन्धयोग्य कषायोदयस्थानोंको संक्लेश ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, इसके विना उत्कृष्ट स्थितिमें विशुद्धिस्थानोंकी स्तोकताका विरोध है । १ प्रतिषु ' सादद्वाणं परूवणं ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' जाव' इति पाठः । ३ अ आ का प्रतिषु ' तत्थाभावं ' इति पाठः । ४ ताप्रतौ ' एवं विधविवक्खाभावादो' इति पाठः । छ. ११-२७. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५२. थोवत्तविरोहादो ति । तदो संकिलेसट्ठाणाणि जहण्णट्ठिदिप्पहुडि विसेसाहियवड्डीए, उक्कस्सहिदिप्पहुडि विसोहिट्ठाणाणि विसेसाहियवड्डीए गच्छंति [त्ति ] विसोहिट्ठाणहितो संकिलेसट्टाणाणि विसेसाहियाणि त्ति सिद्धं । बादरेइंदियअपज्जयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ।। ५२ ॥ सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणेहितो बादरेइंदियअपजत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणाणि संखेजगुणाणि त्ति सुत्तेहि परूविदाणि । तदो सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेसविसोहिहाणेहितो बादरेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणेहि संखेजगुणेहि होदव्यं । तेण असंखेजगुणाणि त्ति सुत्तवयणं ण घडदे ? एत्थ परिहारो उच्चदे-जदि सबहिदीणं संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि सरिसाणि चेव होंति तो संखेजगुणत्तं जुज्जदे । ण च सवहिदिसंकिलेस-विसोहिहाणाणं सरिसत्तमस्थि, जहण्णुक्कस्सटिदिप्पहुडि संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणमसंखेज्जभागवड्डीए गमणुवलंभादो । तेण सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणेहितो बादरेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणमसंखेजगुणत्तं जुजदि त्ति घेत्तव्वं'। ___ अतएव संक्लेशस्थान जघन्य स्थितिसे लेकर उत्तरोत्तर विशेष अधिकके क्रमसे तथा विशुद्धिस्थान उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर विशेष अधिक क्रमसे जाते हैं, इसीलिये विशुद्धिस्थानोंकी अपेक्षा संक्लेशस्थान विशेष अधिक हैं, यह सिद्ध होता है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंसे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ५२ ॥ शंका-सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानोंकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुण हैं, ऐसा सूत्रों ( ३७-३८) में कहा जा चुका है । अतएव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धि स्थानोंकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशद्धिस्थान संख्यातगुणे होना चाहिये । इसीलिये 'असंखेज्जगुणाणि' यह सूत्रवचन घटित नहीं होता है ? . समाधान इस शंकाका परिहार कहते हैं-यदि सभी स्थितियोंके संक्लेशविशुद्धिस्थान सदृश ही होते, तो बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेशविशुद्धिस्थानोंको संख्यातगुणा कहना उचित था । परन्तु सब स्थितियोंके संक्लेशविशुद्धिस्थान सष्टश होते नहीं हैं, क्योंकि, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर क्रमशः संक्लेश और विशुद्धि स्थानोंका गमन असंख्यातभागवृद्धिके साथ पाया जाता है । अतएव सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश विशुद्धिस्थानोंसे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंको असंख्यातगुणा कहना उचित है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।। १ कथमेवं गम्यते सर्वत्राप्यसंख्येयगुणानि संक्लेशस्थानानीति चेदुच्यते इह सूक्ष्मस्यापर्याप्तस्य Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५२.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [२११ (संपहि जदि वि असंखेजगुणत्तं बुद्धिमंताणं सिस्साणं सुगमं तो वि मंदमेहाविसिस्साणमणुग्गहहमसंखेजगुणत्तसाहणं वत्तइस्सामो) तं जहा-सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणाणं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ताणं संदिट्ठीए रचणा कायव्वा । पुणो एदेसिं हिदिबंधट्टाणाणं दक्खिणदिसाए बादरेइंदियअपजत्तहिदिबंधट्ठाणाणं रचणा कायव्वा । तत्थ बादरेइंदियअपजत्तहिदिबंधहाणे सुहमेइंदियअपज्जत्तहिदिबंधट्टाणाणि मोत्तण सेसहेहिमहिदिबंधट्ठाणाणि सुहुमेइंदियअपज्जत्तहिदिबंधट्ठाणेहिंतो संखेजगुणाणि सुहुमेइंदियअपजत्तविसोहीदो बादरेइंदियअपजत्तविसोहीए अणंतगुणत्तुवलंभादो। उवरिमहिदिबंधट्ठाणाणि तत्तो संखेजगुणाणि, सुहुमेइंदियअपज्जत्तउवकस्ससंकिलेसादो बादरेइंदियअपज्जत्त-उक्कस्ससंकिलेसस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो । एवं च हिदहिदिबंधट्टाणेसु जहण्णद्विदिबंधट्ठाणमादि कादूण जावुक्कस्सहिदिबंधट्ठाणे त्ति ताव पादेक्कमसंखेजलोगमेत्तसंकिलेस-विसोहिहाणाणं . अब यद्यपि बुद्धिमान् शिष्योंके लिये असंख्यातगुणत्वका जानना सुगम है, तथापि मन्दबुद्धि शिष्योंके अनुग्रहार्थ असंख्यातगुणत्वका साधन कहा जाता है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिवन्ध स्थानोंकी संदृष्टिमें रचना करना चाहिये । पश्चात् इन स्थितिबन्धस्थानोंकी दक्षिण दिशामें बादर एकेन्द्रिय अपयौप्तकके स्थितिबन्ध स्थानोंकी रचना करना चाहिये। उनमें बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानोंमेंसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानोंको छोड़कर अवशिष्ट नीचेके स्थितिबन्धस्थान सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानोंसे संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकी विशुद्धिसे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकी विशुद्धि अनन्तगुणी पायी जाती है। उनसे ऊपरके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट संक्लेशसे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट संक्लेश अनन्तगुणा पाया जाता है । इस प्रकार अवस्थित स्थितिबन्धस्थानोंमें जघन्य स्थितिबन्धस्थानको आदि करके उत्कृष्ट स्थितिबन्धस्थान तक प्रत्येक स्थितिबन्धस्थानके जघन्यस्थितिबन्धारम्मे यानि संक्लेशस्थानानि तेभ्यः समयाधिकजघन्यस्थितिबन्धारम्भे संक्लेशस्थानानि विशेषाधिकानि । तेभ्योऽपि द्विसमयाधिकजघन्य-स्थितिबन्धारम्भेऽपि विशेषाधिकानि । एवं तावद्वान्यं यावत्तस्यैवोत्कृष्टा स्थितिः । तदुत्कृष्टस्थितिबन्धारम्भे च संक्लेशस्थानानि जघन्यस्थितिसत्कसंक्लेशस्थानापेक्षयाऽसंख्येयगुणानि लभ्यन्ते । यदैतदेवं तदा सुतरामपर्याप्तबादरस्य संक्लेशस्थानानि अपर्याप्तसूक्ष्मसत्कसक्लेशस्थानापेक्षयाऽसंख्येयगुणानि भवन्ति । तथाहि-अपर्याप्तसूक्ष्मसत्कस्थितिस्थानापेक्षया बादरापर्याप्तस्य स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि । स्थितिस्थानवृद्धौ च संक्लेशस्थानवृद्धिः। ततो यदा सूक्ष्मापर्याप्तस्यापि स्थितिस्थानेष्वतिस्तोकेषु जघन्यस्थितिस्थानसस्कसंक्लेशस्थानापेक्षया उत्कृष्ट स्थितिस्थाने संक्लेशस्थानान्यसंख्येयगुणानि भवन्ति, तदा बादरापर्याप्तस्थितिस्थानेषु सूक्ष्मापर्याप्तस्थितिस्थानापेक्षयाsसंख्येयगुणेषु सुतरां भवन्ति । क. प्र. (मलय.) १,६८-६९. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५२. आदीदो पहुडि कमेण विसेसाहियाणमसंखजणाणागुणवडिसलागसहियाणं दुगुणदुगुणपक्खेवपवेसवसेण अवट्ठिदगुणहाणिपमाणाणं पुध पुध णिव्वग्गणकंडयमेत्तखंडभावं गदाणं रचणा कायव्वा । तत्थ गुणहाणिपमाणमेत्ताणं संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणं बालजणबुद्धिवड्ढावणहमेसा संदिट्टी .३२७६८०० १६३८४०० । ८१९२०० ४०९६०० २०४८ १०२४ ० ० ० ० ० ० ० ० r ० ० Or Mr. rur Mr or ० ० ० ० ० ० ० ० एसा बादरेइंदियेअपजत्तसंदिट्ठी २५६०० ___ एसा सुहुमेइंदियअपजत्त१२८०० संदिट्ठी किमढे हेष्टिमगुणहाणिपरिणामेहितो अणंतरउवरिमगुणहाणिपरिणामा दुगुणा ? ण एस दोसो, जेण हेष्टिमगुणहाणिजहण्णहाणपरिणामहिंतो उवरिमाणंतरगुणहाणिजहण्णपरिणामा दुगुणा बिदियहाणपरिणामहिंतो उवरिमगुणहाणि-बिदियट्टाणपरिणामा दुगुणा, तदियहाणपरिणामेहितो [उवरिमगुणहाणि-] तदियहाणपरिणामा दुगुणा, एवं णेदव्वं जाव दोणं गुणहाणीणं चरिमहिदिबंधहाणे त्ति; तेण हेहिमगुणहाणिसव्वसंकिलेसविसोहिहाणेहिंतो अणंतरउवरिमगुणहाणिसंकिलेस-विसोहिहाणाणं दुगुणत्तं ण विरुज्झदे । ___ पढमगुणहाणिसव्वज्झवसाणपुंजादो तदियगुणहाणिसव्वज्झवसाणपुंजो चउग्गुणो होदि। एत्य वि कारणं पुव्वं व परवेदव्वं । चउत्थगुणहाणिसव्वज्झवसाणपुंजो अट्ठगुणो (८) । एत्थ वि कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । एवं गंतॄण जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीयो उवरि गंतॄण द्विदगुणहाणीए सवज्झवसाणपुंजो १६०० ० ० ४०० २०० ० असंख्यात लोक प्रमाण जो संक्लेशविशुद्धिस्थान आदिसे लेकर क्रमशः विशेष अधिक हैं, अमख्यात नानागुणवृद्धिशलाकाओंसे सहित हैं, दने दूने प्रक्षेपके प्रवेशवश अवस्थित गुणहानिके बराबर हैं, तथा पृथक् पृथक् निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण खण्ड भावको प्राप्त हैं; उनकी रचना करना चाहिये । उनमें गुणहानि प्रमाण मात्र संक्लेशविशुद्धिस्थानोंकी, बाल जनोंकी बुद्धिके बढ़ानेके हेतु यह संदृष्टि है (मूलमें देखिये )। शंका-अधस्तन गुणहानिके परिणामोंकी अपेक्षा उससे अव्यवहित आगेकी गुणहानिके परिणाम ने क्यों हैं ? १ काप्रती 'सुहुमेइंदिय' इति पाठः। २ काप्रती 'बादरेइंदिय ' इति पाठः। ३ मप्रतिपाठो. ऽयम् । अ-आ-का प्रतिषु 'पुव्वं परूवेदव्वं ' तापतौ 'पुव्वं [व] परवेदव्वं ' इति पाठः । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५२. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणारूवणा [२१३ जहण्णपरित्तासंखेजगुणो, पढमगुणहाणीए एगेगहिदिबंधटाणसंकिलेस-विसोहीहिंतो अप्पिदगुणहाणीए पढमादिहिदिबंधट्टाणसंकिलेस-विसोहिहाणाणं जहाकमेण जहण्णपरित्तासंखेजगुणमेत्तगुणगारुवलंभादो। एवमुवरिं पि जाणिदृण गुणगारो साहेयव्वो। एवं संदिडिं ठविय एदिस्से अवटुंभंबलेण सुहुमेइंदियअपजत्तसंकिलेस-विसोहिहाणेहिंतो बादरेइंदियअपजत्तसंकिलेसविसोहिट्ठाणाणमसंखेजगुणत्तं भण्णदे । तं जहा-बादरेइंदियअपज्जत्तणाणागुणहाणिसलागाओ जहण्णपरित्तासंखेज्जछेदणएहि ओवट्टिय लद्धं विरलेयूण णाणागुणहाणिसलागाओ समखंडं करिय दिण्णे एवं पडि जहण्णपरित्तासंखेजच्छेदणाओ पावेंति । एत्थ चरिमजहण्णपरित्तासंखेजच्छेदणयमेत्तगुणहाणीणं सव्वसंकिलेस-विसो समाधान-यह कोई, दोष नहीं है, क्योंकि, यतः अधस्तन गुणहानि सम्बन्धी जघन्य स्थानके परिणामोंसे आगेकी अव्यवहित गुणहानिके जघन्य परिणाम दूने हैं, अधस्तन गुणहानि सम्बन्धी द्वितीय स्थानके परिणामोंकी अपेक्षा आगेकी गुणहानिके द्वितीय स्थान सम्बन्धी परिणाम दूने हैं, अधस्तन गुणहानि सम्बन्धी तृतीय स्थानके परिणामोंसे अग्रिम गुणहानि सम्बन्धी तृतीय स्थानके परिणाम दूने हैं, इस प्रकार दो गुणहानियों के अन्तिम स्थितिबन्धस्थान तक ले जाना चाहिये। इसी कारण अधस्तन गुणहानि सम्बन्धी समस्त संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंकी अपेक्षा उससे अव्यवहित आगेकी गुणहानि सम्बन्धी संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंके दृने होनेमें कोई विरोध नहीं है। प्रथम गुणहानि सम्बन्धी समस्त अध्यवसानपुंजसे तृतीय गुणहानि सम्बन्धी समस्त अध्यवसानपुंज चौगुणा है । यहाँ भी पहिलेके ही समान कारण बतलाना चाहिये । उससे चतुर्थ गुणहानि सम्बन्धी समस्त अध्यवसानपुंज अठगुणा है । यहाँ भी पहिलेके ही समान कारण बतलाना चाहिये । इस प्रकार जाते हुए जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर गुणहानियाँ आगे जाकर स्थित गुणहानि सम्बन्धी समस्त अध्यवसानपुंज प्रथम गुणहानि सम्बन्धी समस्त अध्यवसानपुंजसे जघन्य-परीतासंख्यातगुणा है, क्योंकि, प्रथम गुणहानि सम्बन्धी एक एक स्थितिबन्धस्थानके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंसे विवक्षित गुणहानि सम्बन्धी प्रथमादिक स्थितिबन्धस्थानके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंका गुणकार क्रमशः जघन्य परीतासंख्यातगुणा मात्र पाया जाता है । इसी प्रकार आगे भी जानकर गुणकारका कथन करना चाहिये। इस प्रकार उपर्युक्त संदृष्टिको स्थापितकर उसके आश्रयसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके संश्लेश विशुद्धिस्थानोंका असंख्यातगुगत्व बतलाया जाता है ? यथा-बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकी नानागुणहानिशलाकाओं में जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंका भाग देकर जो प्राप्त हो उसका विरलन कर नानागुणहानिशलाकाओंको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति जघन्य-परीतासंख्यातके अर्धच्छेद प्राप्त होते हैं । यहाँ जघन्य-परीतासंख्दातके अन्तिम अर्धच्छेद प्रमाण गुणहानियोंका समस्त संक्लेश-विशुद्धिस्थानपुंज एक कम विरलन राशिसे गुणित जघन्य Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५२. हिट्ठाणपुंजो रूवूणविरलणगुणिदजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तहेटिमगुणहाणीणं सव्वझवसाणपुंजादो असंखेजगुणो, विसेसाहियउक्कस्ससंखेजगुणगारदसणादो । कधमेदं णव्वदे ? जुत्तीदो । तं जहा—पढमजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीणं सव्वज्झवसाणपुंजादो बिदियजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीणं सवटिदिबंधज्झवसाणहाणाणि जहण्णपरित्तासंखेजगुणाणि, हेट्ठिमपढमादिगुणहाणिअज्झवसाणपुंजादो उवरिमपढमादिगुणहाणिअज्झवसाणपुंजस्स पुध पुध जहण्णपरित्तासंखेजगुणत्तुवलंभादो। तदियजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीणं सव्वज्झवसाणपुंजो पढमजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीणं सव्वज्झवसाणपुंजादो जहण्णपरित्तासंखेजवग्गगुणो होदि, जहण्णपरित्तासंखेजछेदणए दुगुणिय विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थे कदे जहण्णपरित्तासंखेजवरगुप्पत्तीदो । बिदियजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीणं सव्वज्झवसाणपुंजादो जहण्णपरित्तासंखेज्जगुणो होदि, हेटिमट्ठिदिपरिणामेहिंतो उवरिमट्ठिदिपरिणामाणं पुध पुध जहण्णपरित्तासंखेजगुणत्तुवलंभादो । पुणो हेटिमदोखंडगुणहाणीणं सन्वझवसाणेहिंतो. तदियखंडगुण परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर अधस्तन गुणहानियोंके समस्त अध्यवसानपुंजसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, यहाँ गुणकार उत्कृष्ट संख्यातसे विशेष अधिक देखा जाता है। - शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-वह युक्तिसे जाना जाता है । यथा-जघन्य पीतासंख्यातके प्रथम अर्घच्छेदके बराबर गुणहानियोंके समस्त अध्यवसानपुंजकी अपेक्षा जघन्य परीतासंख्यातके द्वितीय अर्धच्छेदके बराबर गुणहानियोंके समस्त स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान जघन्यपरीतासंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, अधस्तन प्रथमादिक गुणहानियोंके अध्यवसान पुंजकी अपेक्षा आगेकी प्रथमादिक गुणहानियोंका अध्यवसानपुंज पृथक् पृथक् जघन्य-परीतासंख्यातगुणा पाया जाता है । जघन्य परीता-संख्यातके तृतीय अर्घच्छेदके बराबर गुणहानियों का समस्त अध्यवसानपुंज जघन्य परीतासंख्यातके प्रथम अर्घच्छेदके बराबर गुणहानियोंके समस्त अध्यवसानपुंजकी अपेक्षा जघन्य परीतासंख्यातके वर्गका जो प्रमाण हो उससे गुणित है, क्योंकि, जघन्य परीतासंख्यातके अर्द्धच्छेदोंको दुगुणित करने पर जो प्राप्त हो उसका विरलन करके दूनाकर परस्पर गुणित करनेपर जघन्य परीतासंख्यातका वर्ग उत्पन्न होता है । जघन्य परोतासंख्यातके द्वितीय अर्घच्छेदके बराबर गुणहानियोंके समस्त अध्यवसानपुंजकी अपेक्षा [ जघन्य परीतासंख्यातके तृतीय अर्धच्छेद मात्र गुणहानियोंका समस्त अध्यवसानपुंज ] जघन्य-परीतासंख्यातगुणा है, क्योंकि, अधस्तन स्थितियोंके परिणामोंसे उपरिम स्थितियोंके परिणाम पृथक् पृथक् जघन्य-परीतासंख्यातगुणे पाये जाते हैं । पुनः अधरतन दो खण्ड सम्बन्धी गुणहानियोंके समस्त अध्यवसान Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५२.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्टाणपरूवणा [२१५ हाणीणं सव्वझवसाणपुंजो असंखेजगुणो होदि, ख्वाहियजहण्णपरित्तासंखेज्जेण जहण्णपरित्तासंखेजयस्स वग्गे भागे हिदे ख्वाहियजहण्णपरित्तासंखेन्जेण एगरूवं खंडिय तत्थ एगखंडेणब्भहियउक्कस्ससंखेजमेत्तरूवुवलंभादो । पुणो पढमखंडसव्वगुणहाणिसव्वज्झवसाणपुंजादो चउत्थखंडसव्वज्झवसाणपुंजो जहण्णपरित्तासंखेजघणगुणो होदि, तिणिजहण्णपरित्तासंखेजछेदणए विरलिय विगं. करिय अण्णोण्णभत्थे कदे तिप्पदुप्पणपरित्तासंखेज्जुवलंभादो । बिदियखंडज्झवसाणेहिंतो जहण्णपरित्तासंखेजवग्गगुणो होदि, दुगुणिदजहण्णपरित्तासंखेजछेदणए विरलिय विगं करिय अण्णोभत्थे कदे जहण्णपरित्तासंखेजवरगुप्पत्तीदो । तदियखंडझवसाणेहिंतो जहण्णपरित्तासंखेज्जगुणो, एगजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीयो उवरि चडिदूण अवठ्ठाणादो । हेट्ठिमतिण्णिखंडसव्वगुणहाणिसव्वज्झवसाणपुंजादो उवरिमचउत्थखण्डज्झवसाणपुंजो असंखेजगुणो होदि, जहण्णपरित्तासंखेज्जवग्गेण रूवाहियजहण्णपरित्तासंखजब्भहिएण जहण्णपरित्तासंखेजघणे भागे हिंदे एदेण भागहारेण एगरूवं खंडिय तत्थ एगखंडेणब्भहियउक्कस्ससंखेजमेत्तरूवुवलंभादो। स्थानोंसे तृतीय खण्ड सम्बन्धी गुणहानियों का समस्त अध्यवसानपुंज असंख्यातगुणा है, क्योंकि, एक अधिक जघन्य परोतासंख्यातका जघन्य परीतासंख्यातके वर्गमें भाग देनेपर एक अधिक जघन्य परीतासंख्यातसे एक अंकको खण्डित करनेपर प्राप्त हुए एक भागसे अधिक उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण अंक पाये जाते हैं। प्रथम खण्ड सम्बन्धी सब गुणहानियोंके समस्त अध्यवसानपुंजसे चतुर्थ खण्ड सम्बन्धी समस्त अध्यवसानपुंज जघन्य परीतासंख्यातका घन करनेपर जो प्राप्त हो उतना गुणा है, क्योंकि, तीन जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंका विरलन करके दुगुणा कर परस्पर गुणा करनेपर तीन वार उत्पन्न परीतासंख्यात अर्थात् उसका घन पाया जाता है। द्वितीय खण्डकी सब गुणहानियोंके परिणामोंकी अपेक्षा चतुर्थ खण्डका सब परिणामपुंज जघन्य परीतासंख्यातका वर्ग करनेपर जो प्राप्त हो उससे गुणित है, क्योंकि, दो जघन्य परीता. संख्यातके दुगुणे अर्धच्छेदोंका विरलन करके द्विगुणित कर परस्पर गुणा करनेपर जघन्य परीतासंख्यातका वर्ग उत्पन्न होता है। तृतीय खण्डके परिणामोंकी अपेक्षा चतुर्थ खण्डका सब परिणामपुंज जघन्य परीतासंख्यातगुणा है, क्योंकि, एक जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर गुणहानियाँ ऊपर जाकर उसका अवस्थान है । अधस्तन तीन खण्ड सम्बन्धी समस्त गुणहानियोंके सब परिणामपुंजकी अपेक्षा आगेका चतुर्थ खण्ड सम्बन्धी परिणामपुंज असंख्यातगुणा है, क्योंकि, एक अधिक जघन्य परीतासंख्यातसे अधिक जघन्य परीतासंख्यातके वर्गका जघन्य परीतासंख्यातके घनमें भाग देनेपर इस भागहारसे एक अंकको खण्डित करनेपर लब्ध हुए एक खण्डसे अधिक उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण अंक पाये जाते हैं। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५२. एदं पि कथं णव्वदे? जहण्णपरित्तासंखेजयस्स वग्गं विरलिय तग्घणं समखंडं करिऊण दिण्णे ख्वं पडि जहण्णपरित्तासंखेनं पावदि, तत्थ एगेगवे गहिदे जहण्णपरित्तासंखेजवग्गमेत्तवोवलद्धी होदि, ताणि स्वाणि पासे विरलिदजहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स समखंड कादृण दिण्णेसु रूवं पडि जहण्णपरित्तासंखेजं पावदि, पुणो तत्थ स्वधरिदं पडि एगेगरूवे गहिदे जहण्णपरित्तासंखेज उप्पज्जदि, पुणो तत्थ एगरूवमवणिय पासे विरलिदएगरुवस्स दिण्णे उक्कस्ससंखेनं पावदि, पुणो अवणिदएगरूवं एदीए विरलणाए खंडेदृण तत्थ एगेगखंडे रूवं पडि दिण्णे एगरूवस्स असंखेज्जदिभागेणब्भहियउक्कस्ससंखेज्जगुणगारो होदि, तेण णव्वदे। संपहि पढमखंडझवसाणहितो पंचमखंडज्झवसाणा जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स वग्गवग्गेण गुणिदमेत्ता होंति, चत्तारिजहण्णपरित्तासंखेज्जछेदणाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थे कदे चदुण्णं जहण्णपरित्तासंखेजाणमण्णोण्णभत्थरासिसमुप्पत्तीदो । एवं सेसखंडाणं पि पुव्वं व गुणगारो साहेयब्बो । संपहि चदुक्खंडसव्वज्झवासणेहिंतो शंका-यह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान-जघन्य परीतासंख्यातके वर्गका विरलन कर उसके घनको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति जघन्य परीतासंख्यात पाया जाता है । उन विरलित अंकोंमेंसे एक एक अंकके प्रति प्राप्त राशियोंमेंसे एक एक अंकको ग्रहण करने पर जघन्य परीतासंख्यातके वर्ग प्रमाण अंक पाये जाते हैं। उन अंकोंको पासमें विरलित जघन्य परीतासंख्यातके प्रति समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति जघन्य परीतासंख्यात पाया जाता है । फिर उनमेंसे एक एक अंकके ऊपर रखी हुई प्रत्येक राशिमेंसे एक एक रूपके ग्रहण करनेपर जघन्य परीतासंख्यात उत्पन्न होता है । पुनः उनमेंसे एक अंकको कम कर पासमें विरलित एक रूपके प्रति देनेपर उत्कृष्ट संख्यात प्राप्त होता है। पश्चात् कम किये गये एक अंकको इस विरलन राशिसे खण्डित कर उनमेंसे एक एक खण्डको प्रत्येक अंकके प्रति देनेपर एक रूपके असंख्यातवें भागसे अधिक उत्कृष्ट संख्यात गुणकार होता है । इसीसे वह जाना जाता है। प्रथम खण्डके परिणामोंकी अपेक्षा पंचम खण्डके परिणाम जघन्य परीतासंख्यातके वर्गका वर्ग करनेपर जो प्राप्त हो उतने गुणे हैं, क्योंकि, चार जघन्य परीतासंख्यातोंके अर्धच्छेदोंको विरलित कर द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेपर चार जघन्य परीतासंख्यातोंकी अन्योन्याम्यस्त राशि उत्पन्न होती है। इसी प्रकार शेष खण्डोंके भी गुणकारका कथन पहिलेके ही समान करना चाहिये। १ अ-आ-का प्रतिषु 'फरियअण' इति पाठः। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ २, ६, ५२.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [२१७ पंचमखंडसव्वज्झवसाणढाणाणि असंखेजगुणाणि, जहण्णपरित्तासंखेजघणेण रूवाहियजहण्णपरितासंखेजसहिदजहण्णपरित्तासंखेजवग्गभहिएण जहण्णपरित्तासंखेजयस्स वग्गवग्गे भागे हिदे एगरूवस्स असंखेजदिभागेणब्भहियउक्कस्ससंखेजमेत्तरूवुवलंभादो। एत्थ वि कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । एवमुवरिमसव्वखंडेसु एगरुवस्स असंखेजदिभागेणब्भहियउक्कस्ससंखेजमेत्तो गुणगारो वत्तव्यो। कुदो ? पुग्विल्लपरूवणाए उवरिमत्थपरूवणं पडि बीजीभूदत्तादो। उवरिमगुणगारो अण्णहा किण्ण जायदे ? ण, गुणहाणिअज्झवसाणहाणाणं दुगुणत्तण्णहाणुववत्तीदो । तेण हेट्ठिमसव्वखण्डज्झवसाणेहिंतो बादरेइंदियअपज्जत्तयस्य चरिमखंडज्झवसाणट्ठाणाणि णिच्छएण असंखेजगुणाणि होति त्ति सद्दहेयव्वं । उक्कस्ससंखेज्जादो सादिरेयस्स जहण्णपरित्तासंखेजादो किंचूणस्य एदस्य गुणगारस्स कधमसंखेज्जत्तं जुञ्जदे ? ण, उक्कस्ससंखेजमदिक्कंतस्य तदविरोहादो । दुगुणजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीहि एगेगखंडपमाणं कादूण वा असंखेजगुणत्तं साधेदव्वं । बादरेइंदियअपजत्तयहिदिबंधट्ठणाणामसंखेजभागाणं संकिलेस-विसोहिहाणेहिंतो जदि उवरिमअसंखेजदिभागस्स संकिलेस-विसोहि चार खण्डोंके समस्त परिणामों की अपेक्षा पांचवें 'खण्डके सब परिणाम असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि एक अधिक जघन्य परीतासंख्यातसे सहित जघन्य परीतासंख्यातका जो वर्ग है उससे अधिक जघन्य परीतासंख्यातके घनका जघन्य परीतासंख्यातके वर्गके वर्गमें भाग देनेपर एक अंकके असंख्यातवें भागके साथ उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण अंक प्राप्त होते हैं । यहाँपर भी पहिले के ही समान कारण बतलाना चाहिये । इसी प्रकार आगेके सब खण्डोंमें एक अंकके असंख्यातवें भागसे अधिक उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण गुणकार जानना चाहिये, क्योंकि, आगेकी अर्थ-प्ररूपणाके प्रति पहिलेकी प्ररूपणा बीजभूत है। शंका-आगेका गुणकार अन्य प्रकार क्यों नहीं होता है ? समाधान नही, क्योंकि इसके बिना गुणहानियों के अध्यवसानस्थान दुगुणे बन नहीं सकते। इसीलिये अधस्तन सब खण्डोंके अध्यवसानस्थानोंकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके अन्तिम खण्ड सम्बन्धी अध्यघसानस्थान निश्चयसे असंख्यातगुणे हैं, ऐसा श्रद्धान करना चाहिये। शंका–उत्कृष्ट संख्यातसे साधिक और जघन्य परीतासंख्यातसे कुछ कम इस गुणकारको ' असंख्यात' कहना कैसे उचित है ? समाधान नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संख्यातका अतिक्रमण कर जो कोई भी संख्या हो उसे ' असंख्यात' कहने में कोई विरोध नहीं । अथवा, दूने जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंके बराबर गणहानियोंके द्वारा एक एक खण्ड प्रमाण करके असंख्यातगुणत्वको सिद्ध करना चाहिये । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त सम्बन्धी स्थितिबन्धस्थानोंके असंख्यात - छ.११-२८ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १२. द्वाणि असंखेजगुणाणि होति तो सुहुमेइंदियअपजत्तट्ठिदिबंधट्ठाणेसु बादरेइंदियअपजत्त-द्विदिबंधाणाणं संखेजदिभागेसु जाणि संकिलेस - विसोहिद्वाणाणि तेहिंतो बादरेईदियअपज्जत्तयस्स सव्वसंकिलेस - विसोहिद्वाणाणि णिच्छएण असंखेज्जगुणाणि होंति त्ति साहेदव्वं । अधवा अण्णेणे पयारेण गुणगारो उच्चदे । तं जहा - सुहुमेइंदियअपज्जत्तजहण्णद्विदिबंधट्ठाणादो हेट्ठिमबादरेइंदियअपजत्तट्ठिदिबंधट्ठाणगयसंकिलेस - विसो हिट्ठाणाणं णाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोष्णन्भत्ये कदे जो रासी उप्पज्जदि तेण पढमगुणहाणि - दवे [ १०० ] गुणिदे सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स पढमगुणहाणिदव्वं होदि । पुणो एदम्मिं सुहुमेइंदियअपत्तयस्स णाणागुणहाणिसलागाओ [ २ ] विरलिय विगं करिय अण्णोष्णब्भत्थं कादृण रूवमवणिय सेसेण गुणिदे सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस - विसोहिट्ठाणाणि होंति । पुणो एदमिचेव पढमगुणहाणिदव्वे [ १०० ] बादरेइंदियअपजत्तयस्स णाणागुणहासलागाओ [ १६ ] विरलिय विगं करिय अण्णोष्णज्भत्थं कादूण रूवमवणिय [ ६५५३५ ] सेसेण गुणिदे बादरेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस - विसोहीए द्वाणाणि होति । पुणो देसु सुहुमेईदियअपत्तयस्स संकिलेस - विसोहिडाणेहि भागे हिदेसु पलिदोवमस्स बहुभाग मात्र स्थानोंके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंकी अपेक्षा यदि ऊपर के असंख्यातवें भाग मात्र स्थानोंके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे होते हैं, तो बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिबंधस्थानोंके संख्यातवें भागमात्र सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके स्थितिबन्धस्थानोंमें जो संक्लेश-विशुद्धिस्थान हैं उनकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके समस्त संक्लेशविशुद्धिस्थान निश्चयसे असंख्यातगुणे होते हैं, ऐसा सिद्ध करना चाहिये । अथवा अन्य प्रकारले गुणकारका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है - सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त के जघन्य स्थितिबन्धस्थानकी अपेक्षा नीचेके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके स्थितिबन्धस्थान सम्बन्धी संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंकी नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन कर द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न होती उससे प्रथम गुणहानिके द्रन्य (२०० ) को गुणित करनेपर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकी प्रथम गुणहानिक द्रव्य होता है । पश्चात् सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी नानागुणहानिशलाकाओं ( २ ) का विरलन करके दूनाकर परस्पर गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसमेंसे एक अंक कम कर अवशिष्ट राशि (३) से उपर्युक्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी प्रथम गुणहानिके द्रव्यको गुणित करनेपर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के संक्लेश-विशुद्धिस्थान होते हैं ( १२८००×३=३८४०० ) । पश्चात् बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकी नानागुणहानिशलाकाओं (१६) का विरलन कर दुगुणित करके परस्पर गुणा करनेपर जो ( ६५५३६) प्राप्त हो उसमें से एक अंक कम करके अवशिष्ट राशि (६५५३५ ) से इसी प्रथम गुणहानि सम्बन्धी द्रव्यको गुणित करनेपर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके संक्लेश-विशुद्धिस्थान होते हैं (६५५३५×१००=६५५३५०० ) । इनमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंका १ ताप्रतौ ' अणेण ' इति पाठः । २ अ-आ-का प्रतिषु ' एगम्मि ', ताप्रतौ 'एग ( द ) म्मि ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ( ३ ) इति पाठः । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५२.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपख्वणा [२१९ असंखेजदिभागो गुणगारो आगच्छदि बादराणमुवरिमगुणहाणिसलागाणं किंचूणण्णोण्णभत्थरासिं सुहुमअण्णोण्णभत्थरासिणा गुणिय ताए चेव रूवूणाए ओवट्टिदपमाणत्तादो । एदेण गुणगारेण सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस-विसोहिहाणेसु गुणिदेसु बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि होति । अधवा सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंधहाणपमाणेण सुहुमेइंदियजहण्णहिदिबंधहाणपमाणबादरेइंदियअपजत्तहिदिबंधट्ठाणप्पहुडि उवरिमट्ठाणेसु कदेसु संखेजगुणाणि हवंति । संपहि तत्थ पढमखंडस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि सुहमेइंदियअपजत्तयस्स संकिलेस-विसोहिहाणमेत्ताणि होति । एदासिमेगा गुणगारसलागा [१]। पुणो सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स अण्णोण्णब्भत्थरासिणा [४] सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणेसु गुणिदेसु बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स बिदियखंडसंकिलेस-विसोहिहाणाणि हवंति । पुणो एदस्स वग्गेण गुणिदेसु तदियखंडस्स संकिलेस-विसोहिहाणाणि होति । पुणो एदस्स घणेण गुणिदेसु चउत्यखंडस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि होति । पुणो एदस्स वग्गवग्गेण गुणिदेसु पंचमखंडस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि होति । एवं णेदव्वं जाव चरिमखंडे त्ति । सुहमेइंदियअपज्जत्तजहण्णहिदिबंधटाणादो हेहिमाणं बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणं एगरूवस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो होदि, तेसिं सुहुमेइंदियअपज्जत्तसंकिलेसहाणाणमसंखेज्जदिभागत्तादो। एदाओ सव्वगुणगारसलागाओ भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार प्राप्त होता है, क्योंकि उसका प्रमाण बादर जीवोंकी उपरिम गुणहानिशलाकाओंकी कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशिको सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी अन्योन्याम्यस्त राशिसे गुणित करके एक अंकसे कम उसीके द्वारा अपवर्तित करनेसे जो प्राप्त हो उतने मात्र है। इस गुणकारसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके संक्लेशविशुद्धिस्थानोंको गुणित करनेपर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके संक्लेशविशुद्धिस्थान होते हैं - ____ अथवा, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके जघन्य स्थितिबन्धस्थानोंके बराबर जो बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके स्थितिबन्धस्थान हैं उनको आदि लेकर ऊपरके स्थानोंको सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके स्थितिबन्धस्थानोंके प्रमाणसे करनेपर वे संख्यातगुणे होते हैं। अब उनमें जो प्रथम खण्डके संक्लेश-विशुद्धिस्थान सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेशविशुद्धिस्थानोंके बराबर हैं, इनकी एक (१) गुणकारशलाका है। पुनः सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी अन्योन्याभ्यस्त राशि (४) से सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश। विशुद्धिस्थानोंको गुणित करनेपर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके द्वितीय स्खण्ड सम्बन्धी संक्लेश-विशुद्धिस्थान होते हैं । पश्चात् उनको इसके वर्गसे गुणित करनेपर तृतीय खण्डके संक्लेश-विशुद्धिस्थान होते हैं। फिर इनके घनसे उनको गुणित करनेपर चतुर्थ खण्डके संक्लेश-विशुद्धिस्थान होते हैं । इसके वर्गके वर्गसे उनको गुणित करनेपर पांचवे खण्डके संक्लेश-विशुद्धिस्थान होते हैं । इस प्रकार अन्तिम खण्ड तक ले जाना चाहिये । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धस्थानसे नीचेके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंका गुणकार एक अंकका असंख्यातवां भाग होता है, क्योंकि, वे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । इन सब गुणकारशलाकाओंको मिलाकर उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धि Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ५२. मेलाविय सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिहाणेसु गुणिदेसु बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि होति । पुणो एदेसु सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिहाणेहि ओवट्टिदेसु गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि । एदेसिं गुणगाराणं मेलावणविहाणं संदिटिमवलंबिय उच्चदे । तं जहा-सुहुमेइंदिय अपजत्तयस्स णाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थं कादूण स्वे अवणिदे एत्तियं होदि [३]। पुणो एदेण अण्णोण्णभत्थरासिणा सुहुमउवरिमबादरणाणागुणहाणिसलागाओ [७] विरलय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्यरासिम्हि भागे हिंदे भागलद्वमेत्तियं होदि [१२८।३] । पुणो लद्धे एदम्हि [१२८] सरिसच्छेदं करिय पक्खित्ते एत्तिय होदि [५१२।३] । पुणो एदेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण सुहुमेइंदियसव्वज्झवसाणहाणेसु [३८४००] गुणिदेसु बादरअपजत्तज्झवसाणहाणाणि पढमगुणहाणिअज्झजवसाणमेत्तेण अहियाणि होति [६५५३६००] । पुणो एत्तियमेत्तेण [१००] हाइदृण इच्छामो त्ति बादरेइंदियअपजत्तयस्स सव्वणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थे कदे एत्तियं होदि । तं च एदं [६५५३६] । पुणो एदेण पढमगुणहाणिदव्वे गुणिदे पढमगुहाणिअज्झवसाणाहियसव्वज्झवसाणपमाणं होदि । तं च एदं [६५५३६००] । स्थानोंको गुणित करनेपर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के संक्लेश विशुद्धिस्थान होते हैं। अब इनमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंका भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग गुणकार प्राप्त होता है। अब संदृष्टिका आश्रय करके इन गुणकारोंके मिलानेके विधानको कहते हैं । वह इस प्रकार है-सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी नानागुणहानिशालाकाओंका विरलन करके दुगुणाकर परस्पर गुणा करके जो राशि प्राप्त हो उसमेंसे एक कम करनेपर इतना होता है-३४३-४; ४-१-३ । अब सूक्ष्म जीवकी अपेक्षा बादर जीवकी आगेकी नानागुणहानि. शलाकाओं ( १० से१६ तक ७) का विरलनकर दुना करके परस्पर गुणा करने पर जो राशि प्राप्त हो उसमें उक्त अन्योन्याम्यस्त राशिका भाग देनेपर लब्ध इतना होता है३४६x६x६x६४३४३१२१, १२८:३१३८ । इस लब्ध राशिमें इस (१२८) को समच्छेद करके मिलानेपर इतना होता है-१२८-३६४, ३४+13=५३३ । इस पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र उस राशिके सूक्ष्म एकेन्द्रियके समस्त अध्यवसानोंको करनेपर बादर अपर्याप्तके अध्यवसान प्रथम गुणहानिके अध्यवसानस्थानोंसे अधिक होते हैं--३८४०:४५.१२६५५३६०० । अब चूंकि ये इतने (१००) मात्रसे हीन अभीष्ट हैं, अत एव बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी समस्त (१६) गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर द्विगुणा करके परस्पर गुणा करनेपर इतना होता है । वह यह है-६५५३६ । इससे प्रथम गुणहानिके द्रव्यको गुणित करनेपर प्रथम गुणहानिके अध्यवसानस्थानोंसे अधिक समस्त अध्यवसानस्थानोंका प्रमाण होता है। वह यह है-६५५३६४१००-६५५३६०० । इस १ प्रतिषु [५१२] इति पाठः । २ प्रतिषु 'सव्वज्झवसाय' इति पाठः। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५३.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [२२१ एदस्स रासिस्स जदि एत्तियो [५१२।३] गुणगाररासी लन्मदि, तो एत्तियस्य [१००]' किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एत्तियं होदि [११३८४] । पुणो एदम्मि पुविल्लगुणगाररासीदो [५१२।३] सरिसच्छेदं कादूण अवणिदे गुणगाररासी एत्तियो होदि [६५५३५॥३८४] । पुणो एदेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स सव्वज्झवसाणटाणेसु मेलाविय [३८४००] गुणिदेसु बादरेइंदियअपजत्तयस्स सव्वज्झवसाणहाणाणि होति । पमाणमेदं [६५५३५००] । एदं गुणगारविहाणं उवरि सव्वत्थ संभविय वत्तव्वं । सुहमेइंदियपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ ५३ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। एत्य गुणगाराणयमविहाणं पुव्वं व परवेदव्वं । कुदो ? सुहुमेइंदियपजत्तो विसुज्झमाणो बादरेइंदियअपजत्तयस्स सबटिदिबंधहाणहितो संखेजगुणाणि हिदिबंधट्ठाणाणि हेट्ठा ओसरदि, संकिलेसंतो वि तेहितो संखेजगुणाणि हिदिबंधट्ठाणाणि उवरि चडदि त्ति गुरुवदेसादो। ................. (६५५३६००) राशिकी यदि इतनी (५३३) मात्र गुणाकार राशि पायी जाती है, तो वह इतने (१००) मात्रकी कितनी पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमा गसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर इतना होता है-५१२४१००:६५५३६००-२६ -टेल इसको समच्छेद करके पूर्वकी गुणकार राशि मेंसे घटानेपर इतना होता है(१५१६ - उदट- ३५) पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र उक्त गुणकार राशिसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके समस्त अध्यवसानस्थानोंको मिलाकर गुणित करनेपर बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके समस्त अध्यवसानस्थान होते हैं। उनका प्रमाण यह है-१२८००+२५६००)४ ६५१३४००-६५५३५००। गुणकारकी इस विधिको आगे सब जगह यथासम्भव कहना चाहिये। __उनसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ५३॥ यहां गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। यहां गुणकार लानेकी विधिकी प्ररूपणा पहिलेके ही समान करना चाहिये, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव विशुद्ध होता हुआ बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके सब स्थितिबन्धस्थानोंकी अपेक्षा संख्यातगुणे स्थितिबन्धस्थान नीचे हटता है, तथा वहीं संक्लेशको प्राप्त होता हुआ उक्त स्थानोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणे स्थान ऊपर चढ़ता है। ऐसा गुरूका उपदेश है। २ प्रतिषु ६५५३५ एवंविधात्र १ प्रतिषु संख्येयं 'लभामो ति' इत्यतः पश्चादुपलाम्यते । संख्या समुपलम्यते। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १४. बादरेइंदियपजत्तयस्स संकिलेस विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ ५४॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । एत्थ गुणगारसाहणं पुव्वं व वत्तव्वं । बीइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ ५५॥ बादरेइंदियपजत्तयस्स डिदिबंधट्टाणेहिंतो बीइंदियअपजत्तयस्स पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तहिदिबंधट्ठाणाणि जेण असंखेजगुणाणि तेण संकिलेस-विसोहिहाणाणं पि असंखेजगुणत्तं ण विरुज्झदे । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । बीइंदियपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥५६॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? विसोहि-संकिलेसाणं वसेण हेट्ठा उवरिं च अप्पिदहिदिबंधटाणेहिंतो संखेजगुणहिदिबंधट्ठाणाणमुवलंभादो। तीइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ ५७॥ कथं पजत्तयस्स हिदिबंधहाणोहितो अपजत्तयस्स हिदिबंधट्ठाणाणं असंखेज्जगुणत्तं ? उनसे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ५४ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । यहां गुणकारकी सिद्धिका कथन पहिलेके ही समान कहना चाहिये। उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ५५ ॥ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानोंकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके पत्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिबन्धस्थान चूँकि असंख्यातगुणे हैं, अतएव संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंके भी असंख्यातगुणे होने में कोई विरोध नहीं है। यहां गुणकार पल्योपमंका असंख्यातवां भाग है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ५६ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, विशुद्धि अथवा संक्लेशके वशसे नीचे व ऊपर विवक्षित स्थितिबन्धस्थानोंकी अपेक्षा संख्यातगुणे स्थितिबन्धस्थान पाये जाते हैं। त्रीन्द्रिय अपर्याप्सकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ५७ ॥ शंका-पर्याप्तक जीवके स्थितिबन्धस्थानोंकी अपेक्षा अपर्याप्तक जीके स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे कैसे हो सकते हैं ? १ अ-आ-काप्रतिषु · संखेज्जगुणतं', ताप्रतौ [अ] संखेज्जगुणत्तं' इति पाठः । ' Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ५८.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [२२३ जादिविसेसत्तादो। तेणेव कारणेण संकिलेस-विसोहिहाणाणं पि सिद्धमसंखेज्जगुणत्तं । एत्थ वि गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो होदि । तीइंदियपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणणि ॥ ५८ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । कारणं जाणिय वत्तव्वं । चउरिंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ ५९ ॥ कुदो ? तीइंदियपज्जत्तयस्स हिदिबंधहाणेहिंतो चउरिंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंधसंखेजगुणत्तुवलंभादो । तं पि क, णव्वदे ? जादिविसेसादो । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । कारणं चिंतिय वत्तव्यं । चरिंदियपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ ६०॥ __ समाधान-भिन्नजातीय होनेसे उनके संख्यातगुणे होनेमें कोई विरोध नहीं है। इसी कारण संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंके भी असंख्यातगुणत्व सिद्ध होता है। यहां भी गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। " । त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके संक्लेशविशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ५८॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है ? इसका कारण जानकर कहना चाहिये। चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ५९॥ शंका-वे असंख्यातगुणे किस कारणसे हैं ? समाधान-चूंकि श्रीन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानोंकी अपेक्षा चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे पाये जाते हैं, अतः उसके संक्लेशविशुद्धिस्थानोंके असंख्यातगुणे होने में कोई विरोध नहीं हैं। शंका वह भी कैसे जाना जाता है ? समाधान-भिन्न जातीय होनेसे त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानोंकी अपेक्षा चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं, यह जाना जाता है। गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। कारण विचार कर कहना चाहिये। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ६ ॥ १ ताप्रती · वितेसादो' इति पाठः । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ६१. कुदो ? विसोहि-संकिलेसवसेण अप्पिदहिदिबंधट्ठाणेहिंतो हेट्ठा उवरिं च संखेजगुणहिदिबंधहाणेसु वीचारुवलंभादो। एत्थ वि गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। सेसं सुगमं । असण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ ६१ ॥ को गुणगारो ? पलिदोक्मस्स असंखेजदि भागो । कारणं चिंतिय वत्तव्वं । असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ ६२ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भागो । कारणं सुगमं । सण्णिपंचिदियअपजत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥६३॥ जादिविसेसेण संखेजगुणट्ठिदिबंधट्ठाणेसु संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणं पि असंखेजगुणत्तं पडि विरोहाभावादो । सेसं सुगमं । सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ ६४ ॥ __ इसका कारण यह कि विशुद्धि और संक्लेशके वशसे विवक्षित स्थितिबन्धस्थानोंसे नीचे व ऊपर संख्यातगुणे स्थितिबन्धस्थानोंमें बीचार पाया जाता है। यहां भी गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। शेष कथन सुगम है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ६१ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । कारण विचारकर कहना चाहिये। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ६२॥ · गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग हैं। कारण इसका सुगम है। संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ६३ ॥ क्योंकि, जातिभेदसे संख्यातगुणे स्थितिबन्धस्थानों में संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंके असंख्यातगुणे होने में कोई विरोध नहीं है । शेष कथन सुगम है।। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके संक्लेश-विशुद्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ ६४ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ६५.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [२२५ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । सेसं सुगमं । बध्यते इति बन्धः, स्थितिश्चासौ बन्धश्च स्थितिबन्धः, तस्य स्थानमवस्थाविशेषः स्थितिबंधस्थानम् । एदमत्थपदमस्सिदण परवणट्टमुवरिमसुत्तकलाओ आगदो सव्वत्थोवो संजदस्स जहण्णओ द्विदिबंधो ॥६५॥ जहण्णुक्कस्सहिदिपवणा किमट्ठमागदा ? हिदिबंधट्ठाणाणि एत्तियाणि होति त्ति पुव्वं परूविदाणि । संपहि तत्थ एगेगहिदिबंधहाणमेत्तिए समए घेतूण होदि त्ति परूवणठमागदा । एत्थ जहण्णुक्कस्सटिदिपरूवणाए संतपमाणाणियोगद्दारे मोत्तूण अप्पाबहुगं चेव किमटुं परूविदं ? ण एस दोसो, परूवणा-पमाणाविणाभाविअप्पाबहुअं त्ति कटु तदपस्वणादो। तम्हा अप्पाबहुअंतभूदपरूवणा-पमाणाणि वत्तइस्सामो। तं जहाचोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थि जहण्णुक्कस्सहिदीयो । परूवणा गदा।। चदुण्हं पि एइंदियाणं मोहजहण्णहिदी सागरोवमं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणयं । णाणावरणीय-दसणावरणीय-वेयणीय-अंतराइयाणं जहण्णहिदी सागरोवमस्स गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। शेष कथन सुगम है। जो बांधा जाता है वह बन्ध है । स्थितिस्वरूप जो वन्ध वह स्थितिबन्ध । [इस प्रकार यहां कर्मधारयसमास है।] उसके स्थान अर्थात् अवस्थाविशेषका नाम स्थितिबन्धस्थान है । इस अर्थपदका आश्रय करके प्ररूपणा करने के लिये आगेका सूत्रकलाप प्राप्त होता है संयत जीवका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है ॥ ६५ ॥ शंका-जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिकी प्ररूपणाका अवतार किसलिये हुआ है ? समाधान-स्थितिबन्धस्थान इतने होते हैं, यह पूर्वमें कहा जा चुका है। अब उनमेंसे एक एक स्थितिबन्धस्थान इतने समयोंको ग्रहण करके होता है, यह बतलानेके लिये इस प्ररूपणाका अवतार हुआ है। ___ शंका-इस जघन्य-उत्कृष्टस्थितिप्ररूपणामें सत् (प्ररूपणा ) और प्रमाण अनुअनुयोगद्वारोंको छोड़कर एक मात्र अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा किसलिये की गई है ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अल्पबहुत्व प्ररूपणा और प्रमाणका अविनाभावी है, ऐसा जानकर उन दोनों अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा यहां नहीं की.ई है। . इसी कारण अल्पबहुत्वके अन्तर्गत होनेसे प्ररूपणा और प्रमाण अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं । यथा--चौदह जीवसमासोंके जघन्य व उत्कृष्ट स्थितियां हैं। प्ररूपणा समाप्त हुई। चारों ही एकेन्द्रियोंके मोहकी जघन्य स्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपम प्रमाण है । शानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायकी जघन्य १ तत्र सूक्ष्मसापरायस्य जघन्यस्थितिबन्धः सर्वस्तोकः (१)। क. प्र. (मलय) १,८०-८१. २ अप्रतौ 'पमाणविणाभावि' इति पाठः। छ. ११-२९ ........ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, ६५. तिणि- सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणया । णामा - गोदाणं [ जहण्णद्विदी ] सागरोवमस्स बे-सत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणया । आउअस्स जहणहिदी खुद्दाभवग्गहणं' । एदेसिमुक्कस्सट्ठिदिपमाणं उच्चदे । तं जहाँ — मोहणीयस्स एगं सागरोवमं [ १ ] णाणावरणीय - दंसणावरणीय वेदणीय-अंतराइयाणं सागरोवमस्स तिष्णि - सत्त भागा पडिवुण्णा [३७] णामा-गोदाणं बे-सत्त भागा पडिवुण्णा [ २७ ] । णवरि सुहुमेइंदियपजत्तापज्जत्त-बाद्रेइंदियअपञ्जत्ताणमुक्कस्सट्ठिदिबंधो बादरेइंदियपज्जत्तस्सुक्कस्सडिदिबंधादो' पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणो । आउअस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो पुव्वकोडी सग-सगउक्कस्साबाहाए अहिया । स्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमके सात भागों में से तीन भाग ( 3 ) प्रमाण है । नाम और गोत्रकी जघन्य स्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमके सात भागों में दो भाग ( 3 ) प्रमाण है । आयुकी जघन्यु स्थिति क्षुद्रभव ग्रहण प्रमाण है । अब इन चारों एकेन्द्रियोंके उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण कहते हैं । यथा - - मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति एक ( १ ) सागरोपमं प्रमाण है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तरायकी उत्कृष्ट स्थिति एक सामरोपमके सात भागों में से परिपूर्ण तीन प्रमाण हैं । विशेषार्थ - एकेन्द्रिय से लेकर असंशी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके आयुको छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति मोहनीयके आधार से निम्न प्रकार त्रैराशिकके द्वारा निकाली जाती है-यदि सप्तर कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिवाले मोहनीय ( मिथ्यात्व ) कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति एकेन्द्रियके एक सागर प्रमाण बंधती है तो उसके तीस कोड़कोड़ी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति वाले ज्ञानावरणीय कर्मकी कितनी उत्कृष्ट बंधेगी, ३० को. को. सा. x१ - सागरोपम । इसी प्रकारसे द्वीन्द्रियादि जीवोंके ७० को को. सा. भी समझना चाहिये । मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका द्वीन्द्रियके २५ सागरोपम, त्रीन्द्रियके ५० सा. चतुरिन्द्रयके १०० सा. और असंज्ञी पंचेन्द्रियके १००० सा. प्रमाण बंध है । [ = डे सा.. ] नाम व गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम सात भागोंमेंसे परिपूर्ण दो भाग २० को. सा. x १ प्रमाण है । विशेष इतना है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त ७० को. सा. अपर्याप्त तथा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन होता है । आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अपनी अपनी उकृष्ट आबाधाले अधिक एक पूर्वकोटि प्रमाण है । १ तिर्यगायुषो मनुष्यायुषश्च जघन्या स्थितिः क्षुल्लकभवः । तस्य किं मानमिति चेदुच्यते-आवलिकानां द्वे शते षट्पंचशदधिके । क. प्र. ( मलय. ) १, ७८. २. ताप्रतौ ' एदेसिमुकस्सट्ठिदिपमाणं उच्चदे | तं जहा ' इत्येतावानयं पाठस्त्रुटितो जातः । ३. आ-काप्रस्यो: ' पज्जत्तस्सुक्कस्सबंधो', ताप्रतौ ' पज्जतुक्कसद्विदिबंघो ' इति पाठः । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ६५.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [ २२७ ___ बेइंदियादि जाव असण्णिपचिंदियो त्ति जहाकमेण मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो पणुवीससागरोवमाणि, पण्णासंसागरोवमाणि, सागरोवमसदं, सागरोवमसहस्सं पलिदोवमस्स संखेजदिभागेणे ऊणयं । णाणावरणादिचदुण्हं कम्माणमेवं चेव वत्तव्वं । णवरि पणुवीस. पण्णास-सद-सहस्ससागरोवमाणं तिण्णिसत्त भागा पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण ऊणया । एवं णामा-गोदाणं । णवरि बे-सत्त भागा ति वत्तव्वं । आउअस्स जहण्णहिदिबंधो खुद्दाभवग्गहणं जहण्णाबाहाए अब्भहियं । ___ उक्कस्सटिदिबंधो बेइंदिएसु मोहणीयस्स पणुवीसं सागरोवमाणि । चदुण्णं कम्माणं पणुवीससागरोवमाणं तिण्णि-सत्त भागा । णामा-गोदाणं पणुवीससागरोवमाणं बे-सत्त भागा २५-१० । ५। ७, ७।१। ७ । आउअस्स उक्कस्सहिदी पुव्वकोडी । तेइंदियस्स जहाकमेण पण्णासंसागरोवमाणं सत्त-सत्त भागा तिण्णि-सत्त भागा बे-सत्त भागा उक्कस्सहिदी होदि ५०-२१।३।७, १४।२।७। आउअस्स पुवकोडी । चउरिंदि द्वीन्द्रियसे लेकर असंशी पंचेन्द्रिय तक यथाक्रमसे मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध पल्पोपमके संख्यातवें भावसे हीन पच्चीस सागरोपम, पचास सागरोपम, सौ सागरोपम और हजार सागरोपम प्रमाण होता है। मानावरणादि चार कर्मोंकी जघन्य स्थितिबन्धका । भी कथन इसी प्रकारसे करना चाहिये। विशेष इतना है कि उनका जघन्य स्थितिबन्ध द्वीन्द्रियादिकोंके क्रमशः पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन पच्चीस, पचास, सौ और हजार सागरोपमोंके तीन सात भाग (3) प्रमाण होता है - [२५४, ५०x४, १००४है; १०००४ सा.] । इसी प्रकार नाम व गोत्र कर्मके भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि . यहां दो सात भाग कहना चाहिये [२५४, ५०x४, १००x४, १०००४ सागरोपम (पल्पोपमके संख्यातवें भागसे हीन)। आयुका जघन्य स्थितिबन्ध जघन्य आवाधासे सहित क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण है। द्वीन्द्रिय जीवों में मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पच्चीस सागरोपम प्रमाण होता है । चार काँका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पच्चीस सागरोपमोंके तीन सात (3) भाग प्रमाण होता है-[३० को. सा. X २५ -३४३५=१०५ सागरोपम । नाम गोत्रका उत्कृष्ट हाता ७०को. सा. स्थितिबन्ध पच्चीस सागरोपमोंके दो सात ( 3 ) भाग प्रमाण होता है२० को. सा.x२५ २४२५ २५-७१ सागरोपम ।आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि प्रमाण होता है। श्रीन्द्रिय जीवके मोहनीय, शानावरणादिक एवं नाम-गोत्र कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः पचास सागुरोपमोंके सात-सात भाग (७), तीन-सात भाग (3) और दो-सात भाग (3) प्रमाण है-५०x४-५०; ५०x२१३, ५०x१४ । आयुकी उत्कृष्ट स्थिति एक पूर्वकोटि प्रमाण होती है। १ प्रतिषु 'पण्णारस' इति पाठः। २ प्रतिषु ' असंखेजदिभागेण' इति पाठः। ३ एयं पणकदि पण्णं सयं सहस्सं च मिच्छवरबंधो। इगिविगलाणं अवरं पल्लासंखूण-संखूणं ॥ जदि सत्तरिस्स एत्तियमेत्तं कि दि तीसियादीण । इदि संपाते खेसाणं इगि विगलेसु उभयठिदी। गो, क. १४५. ४ ष. खं. पु.६ पृ. १९५. ७० को.सा. ७ 3 टास्चिातच एक पूचकाटि Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ६५. एसु सागरोवमसदस्स सत्त-सत्त भागा तिण्णिसत्त भागा बे-सत्त भागा पडिवुण्णा १००४२।६।७; २८।४।७ । आउअस्स पुवकोडी । असण्णिपंचिंदिएसु सागरोवमसहस्सस्स सत्त-सत्त भागा तिण्णि-सत्त भागा बे-सत्त भागा उक्कस्सहिदिबंधो १०००-४२८ । ४।७, २८५। ५। ७। आउअस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो'। सण्णिपंचिंदियअपजत्तयस्स सत्तण्णं कम्माण्णं जहण्णटिदिबंधो उक्कस्सटिदिबंधो च अंतो कोडाकोडीए । सण्णिपंचिंदियपजत्तयस्स वेयणीयस्स जहण्णटिदिबंधो बारस मुहुत्ता । णामागोदाणमट्ठमुहुत्ता । सेसाणं कम्माणं भिण्णमुहुत्तं । उक्कस्सहिदिबंधी मोहणीयस्स सत्तरि, चदुण्णं कम्माणं तीसं, णामागोदाणं बीसं सागरोवमकोडीयो। आउअस्स तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवं पमाणपरूवणा गदा । संपहि एदेसि हिदिबंधट्ठाणाणं अप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहा-सव्वत्थोवो संजदस्स जहण्णटिदिबंधो । एत्थ सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदस्स चरिमद्विदिबंधो जहण्णो त्ति घेत्तव्यो। चतुरिन्द्रिय जीवों में मोहनीय, शानावरणादिक एवं नाम गोत्र कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सौ सागरोपमोंके सात-सात भाग, तीन-सात भाग और दो-सात भाग प्रमाण होता है-१००, ४२७, २८ । आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक पूर्वकोटि प्रमाण होता है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंमें उपर्युक्त कौका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमशः एक हजार सागरोपमोंके सात-सात भाग, तीन-सात भाग और दो-सात भाग प्रमाण होता है१०००, ४२८३, २८५७ । आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण होता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवके आयुके विना सात कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तः कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण होता है। संक्षी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध बारह मुहूर्त प्रमाण होता है । नाम एवं गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध उसके आठ अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। शेष कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध उसके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । उक्त जीवके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर कोड़ाकोडि सागरोपम, ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोड़ाकोडि सागरोपम और नाम व गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोडाकोड़ि सागरोपम प्रमाण होता है। आयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होता प्रकार प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। अब इन स्थितिबन्धस्थानोंके अल्पबहुत्वको कहते हैं । यथा-संयतका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। यहां सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयतके अन्तिम स्थितिबन्धको जघन्य ग्रहण करना चाहिये। . चाहिय। ..... ............................................... १ आउचउक्कुक्कोसो पल्लासंखेजभागममणेसु । सेाण पुव्वकोडी साउतिभागो आबाहा सिं॥ क. प्र. १, ७४. २ अ-आ-का-प्रतिषु 'हिदिबंधट्टाणं' इति पाठः। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ६८.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्टाणारूवणा [२२९ उवरि किण्ण घेप्पदे ? ण, तत्थ कसायाभावेण हिदिबंधाभावादो । खीणकसाए वि एगसमइया हिदी - अंतोमुहुत्तमेत्तसुहुमसांपराइयचरिमहिदिबंधादो असंखेजगुणहीणा लब्भदि । सा किण्ण घेप्पदे ? ण, बिदियादिसमएसु अवट्ठाणस्स हिदि त्ति ववएसादो । ण च उप्पत्तिकाले हिदी होदि, विरोहादो। बादरेइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ टिदिबंधो असंखेज्जगुणो ॥६६॥ - को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? अंतोमुहुत्तमेत्तसंजदजहण्णद्विदिबंधेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणसागरोवममेत्तबादरेइंदियपजत्तजहण्णटिदिबंधे भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेजदिभागुवलंभादो । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहियो ॥ ६७॥ केत्तियमेत्तेण ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तेण । बादरेइंदियअपत्तजयस्स जहण्णओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ६८ ॥ शंका"इससे ऊपरके स्थितिबन्धको जघन्य स्वरूपसे क्यों नहीं ग्रहण करते ? समाधान नहीं, क्योंकि ऊपर कषायका अभाव होनेसे स्थितिबन्धका अस्तित्व भी नहीं है। शंका-क्षीणकषाय गुणस्थान में भी एक समयवाली स्थिति सुक्ष्मसाम्परायिकके अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तिम स्थितिबन्धकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हीन पायी जाती है । उसका ग्रहण क्यों नहीं करते? . समाधान-नहीं, क्योंकि, द्वितीयादि समों में स्थित रहनेका नाम स्थिति है। उत्पत्ति समयमें कहीं स्थिति नहीं होती, क्योंकि, वैसा होने में विरोध है। उससे बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है ॥६६॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्पोपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, संयतके अन्तर्मुहूर्त परिमित स्थितिबन्धका बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके पल्योपमके असंख्यातमें भागसे हीन सागरोपम प्रमाण जघन्य स्थितिबन्थमें भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग पाया जाता है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ६७॥ वह कितने प्रमाणसे अधिक है ? पल्योपमके असंख्यात भाग मात्रसे यह अधिक है . उससे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ६८ ॥ १ ततो बादरपर्याप्तकस्य जघन्यः स्थितिबन्धोऽसखेयगुणः (२)। क. प्र. (मलय,) १,८०-८१. (अतोऽग्रे वक्ष्यमाणमिदं सर्वमेवाल्पबहुस्वमत्र यथाक्रमं षट्त्रिंशत्पदेषुपलभ्यते). Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • २३०] . छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ६९. - केत्तियमेत्तो' विसेसो ? पलिदोवमस्स असंखेनदिमागपमाणवीचारहाणमेत्तो। सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ६९ ॥ केत्तियमत्तो विसेसो ? बादरेइंदियअपजत्तयस्स जहण्णहिदिबंधादो सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स हेहिमवीचारहाणमत्तो। तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ॥ ७०॥ केत्तियमत्तो विसेसो १ सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स वीचारहाणमेत्तो । बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ७१ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधादो उवरिमबादरेइंदियअपजत्तवीचारहाणमेत्तो। सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ७२ ॥ केत्तियमेतेण ? बादरेइंदियअपज्जत्त-उक्कस्सटिदिबंधादो उवरिमेण बादरेइंदियअपजत्त विशेष कितना है ? वह पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण वीचारस्थानके बराबर है। उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ६९॥ विशेष कितना है.? वह बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त सम्बन्धी नीचेके वीचारस्थानके बराबर है। उसी अपर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ७० ॥ विशेषका प्रमाण कितना है ? सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके वीचारस्थानके बराबर है। . बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ७१ ॥ विशेष कितना है ? वह सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे ऊपरके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके वीचारस्थानके बराबर है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ७२ ॥ वह कितने प्रमाणसे अधिक है ? यह बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थिति १ ताप्रतौ केत्तिओ' इति पाठः। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ७६. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [२३१ वीचारहाणहितो संखेजगुणेण सुहुमेइंदियपजत्तयस्स वीचारट्ठाणेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेतेण । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ७३ ॥ सुहुमेइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधादो उवरिमेहि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तबादरेइंदियपज्जत्तवीचारहाणेहि विसेसाहिओ। बीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ७४॥ को गुणगारो ? किंचूणपणुवीसरुवाणि । सेसं सुगमं । तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ७५॥ . बीइंदियअपजत्तजहण्णहिदिबंधादो हेट्ठा पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तवीचारहाणाणि ओसरिय बीइंदियपजत्तयस्स जहण्णट्ठिदिबंधस्स अवट्ठाणादो । तस्सेव अपजत्तयस्स उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ७६ ॥ सगजहण्णहिदिबंधादो पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तवीचारहाणाणि उवरि चडिय सगुक्कस्सट्ठिदिबंधसमुप्पत्तीदो। बन्धसे ऊपरके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके वीचारस्थानसे संख्यातगुणे व पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके वीचारस्थानसे अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ७३॥ वह सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे ऊपर पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तके वीचार स्थानोंसे विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ७४॥ गुणकार क्या है ? गुणकार कुछ कम पच्चीस रूप हैं । शेष कथन सुगम है। उसी अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ७५ ॥ क्योंकि, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धसे नीचे पल्योपमके संख्यातवें भाग मात्र वीचारस्थान हटकर द्वीन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध अवस्थित है। उसी अपर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ७६ ॥ क्योंकि, अपने जघन्य स्थितिबन्धसे पल्योपमके संख्यात भाग मात्र वीचारस्थान ऊपर चढ़कर अपना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्पन्न होता है । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ७७. तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कसओ हिदिबंधो विसेसाहिओ॥७७॥ . बीइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सहिदिबंधादो पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तहिदिबंधहाणाणि उवरि अब्भुस्सरिदूण बीइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सहिदिबंधावट्ठाणादो। तीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ ट्टिदिबंधो विसेसाहिओ॥७८ ।। कत्तियमेत्तो विसेसो ? पलिदोवमस्स संखेजदिभागेणूणपणुवीससागरोवममेत्तो । तीइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ॥७९॥ केत्तियमेत्तेण ? पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तेण । कुदो ? तीइंदियअपज्जत्तजहण्णहिदिबंधादो पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तहिदिबंधहाणाणि हेट्ठा ओसरियूण तीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णटिदिबंधावट्ठाणादो। तस्सेव उक्कस्सट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ८॥ केत्तियमेत्तेण ? पलिदोवमस्स संखेजदिभागपमाणसगवीचारहाणमेत्तेण । तीइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ८१॥ उसी पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ७७ ॥ क्योंकि, द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे पल्योपमके संख्यातवें भाग मात्र स्थितिबन्धस्थान ऊपर जाकर द्वीन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अवस्थित है। . त्रीन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ७८॥ विशेषका प्रमाण कितना है ? उसका प्रमाण पत्योपमके संख्यातवें भागसे हीन पच्चीस सागरोपम प्रमाण है। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ७९ ॥ कितने मात्रसे वह विशेष अधिक है ? वह पल्योपमके संख्यातवें भाग मावसे अधिक है, क्योंकि, त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिवन्धसे पल्योपमके संख्यात भाग मात्र स्थितिबन्धस्थान नीचे जाकर त्रीन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध अवस्थित है। उसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ८० ॥ वह कितने प्रमाणसे अधिक है ? वह पल्योपमके संख्यातवें भाग मात्र अपने वीचारस्थानोंके प्रमाणसे अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ८१॥ १ ततोऽपि पर्याप्तत्रीन्द्रियस्य जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः (१४) । क. प्र. (मलय.) १, ८०-८१. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ८५.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्ठाणपरूवणा [ २३३ तीइंदियअपजत्तयस्स उक्कस्सहिदीदो उवरिमतेइंदियपजत्तवीचारहाणेहि पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तेहि विसेसाहिओ । चउरिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ८२ ॥ केत्तियमत्तो विसेसो ? पलिदोवमस्स संखेजदिभागेणूणपण्णाससागरोवममेत्तो। तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधों विसेसाहिओ ॥ ८३॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तो। कुदो ? चउरिंदियअपजत्तजहण्णद्विदिबंधादो हेट्ठो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागमेत्तहिदिबंधट्ठाणाणि चउरिंदियअपजत्तद्विदिबंधट्ठाणेहिंतो संखेजगुणाणि ओसरिय चउरिंदियपजत्तजण्णटिदिबंधावट्ठाणादो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ८४॥ केत्तियमत्तो विसेसो १ पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तो । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ८५॥ वह त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे ऊपरके पल्योपमके संख्यातवें भाग मात्र एकेन्द्रियके वीचारस्थानोंसे विशेष अधिक है। . चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।। ८२ ॥ विशेषका प्रमाण कितना है? उसका प्रमाण पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन पचास सागरोपम है। उसी अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ८३ ॥ विशेषका प्रमाण कितना है? उसका प्रमाण पल्योपमका संख्यातवां भाग है, क्योंकि चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके जघन्य स्थितिबन्धसे नीचे पल्योपमके संख्यातवें भाग मात्र होकर चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानोंसे संण्यातगुणे स्थितिबन्धस्थान हटकर चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध अवस्थित है। उसी अपर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ८४॥ विशेषका प्रमाण कितना है ? वह पल्योपमके संख्यात भाग प्रमाण है। उसी पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ८५॥ १ ताप्रतौ 'हेडिम' इति पाठः।२ अ-आ-का-प्रतिषु 'तस्सेव उक्कस्सओ' इति पाठः।। छ. ११-३०. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, ८६. - केत्तियमेत्तेण ? चउरिंदियअपञ्जत्तहिदिबंधट्ठाणेहितो संखेजगुणेण चउरिंदियअपजत्तउक्कस्सट्ठिदिबंधादो उवरिमेण चउरिंदियपजत्तवीचारट्ठाणमेत्तेण विसेसाहिओ। असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ८६ ॥ को गुणगारो ? संखेजा. समया । कारणं सुगमं । तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ ८७ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेतो' । तस्सेव अपज्जत्तयस्से उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ ॥८८॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? सगवीचारहाणमेत्तो । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो . विसेसाहिओ ॥८९॥ केत्तियमेत्तो विसेसो ? पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तो। संजदस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो संखज्जगुणो ॥ ९०॥ वह कितने प्रमाणसे अधिक है ? वह चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थानोंसे संख्यातगुणे ऐसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे ऊपरके चतुरिन्द्रिय पर्याप्तके पीचारस्थानप्रमाणसे विशेष अधिक है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ८६ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय हैं । इसका कारण सुगम है। उसी अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ८७॥ विशेष कितना है ? वह पल्योपमके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। उसी अपर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ८८ ॥ विशेष कितना है ? वह अपने वीचारस्थानके बराबर है। . उसीके पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ ८९॥ विशेष कितना है ? वह पल्योपमके संख्यातवें भाग प्रमाण है। संयतका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९० ॥ १ काप्रती 'सगवीचारहाणमेत्तो' इति पाठः। २ अ-आ-का-प्रतिषु 'पज्जत्तयस्स' हति पाठः । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ९४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ठिदिबंधट्टाणपरूवणा [२३५ को गुणगारो ? संखेजा समया । कुदो ? सागरोवमसहस्सेण अंतोकोडाकोडीए ओवट्टिदाए संखेजसमओवलंभादो। संजदासंजदस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ९१ ॥ कुदो मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमयपमत्तैसंजदुक्कस्सटिदिबंधादो वि संजदासंजदजहण्णहिदिबंधो संखेजगुणो त्ति ? ण, देसघादिसंजलणोदयं पेक्खिदूण सव्वघादिपच्चक्खाणोदयस्स अणंतगुणत्तादो। ण च कारणे थोवे संते कज्जस्स बहुत्तं संभवइ, विरोहादो। तस्सेव उक्कस्सओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ९२॥ कुदो ? मिच्छत्ताहिमुहचरिमसमयसंजदासंजदउक्कस्सटिदिबंधग्गहणादो। . असंजदसम्मादिट्ठिपज्जत्तयस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणो॥ १३॥ कुदो ? उदयगदपञ्चक्खाणादो तस्सेव गदअपच्चक्खाणस्स अणंतगुणतादो। तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ९४॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात समय हैं, क्योंकि, हजार सागरोपमोंका अन्तः कोडाकोडिमें भाग देनेपर संख्यात समय प्राप्त होते हैं। संयतासंयतका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ।। ९१ ॥ शंका-मिथ्यात्वके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती प्रमत्तसंयतके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे भी संयतासंयत जीवका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा क्यों है ? समाधान-नहीं, क्योंकि देशघाती संज्वलन कषायके उदयकी अपेक्षा सर्वघाती प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय अनन्तगुणा है । और कारणके स्तोक होनेपर कार्यका आधिक्य सम्भव नहीं है, क्योंकि, पैसा होने में विरोध हैं। उक्त जीवका ही उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९२॥ कारण कि यहां मिथ्यात्वके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती संयतासंयतके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका ग्रहण किया गया है। असंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९३ ॥ कारण कि उसके प्रत्याख्यानाधरणके उदयकी अपेक्षा अप्रत्याख्यानाधरणका उदय अनन्तगुणा है। उसीके अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९४ ॥ १ अ-आ-का प्रतिषु 'समयपत्त' इति पाठः। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड कुदो ? अपजत्तकाले अइविसोहीएं द्विदिबंधापसरणणिमित्ताए अभावादो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ९५॥ अपजत्तकाले सन्चविसुद्धेण असंजदसम्मादिट्टिणा बज्झमाणहिदिबंधादो अपजत्तकाले चेव असंजदसम्मादिट्ठिणा सन्वुक्कट्ठेसंकिलेसेण बज्झमाणद्विदीए संखेजगुणत्तं पडि विरोहाभावादो | तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सओ विदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ९६ ॥ कुद ? अत्तअसं जद सम्मादिट्टिसव्वुक्कट्टसंकिलेसादो पज्जत्तअसंजदसम्मादिद्विसव्वुक्कडसंकिलेसस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो । सण्णिमिच्छाइट्ठिपंचिंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ९७ ॥ ३ २३६ ] कुदो ? असंजदसम्मादिट्ठिस्स सव्वुक्कट्ठसंकिलेसादो सणिमिच्छाइद्विपंचिंदियपजत्तसव्वजहण्णसंकिलेसस्स अनंतगुणत्तुवलंभादो, संकिलेसवडीए ट्ठिदिबंधवडिणिमित्तत्तादो । क्योंकि, अपर्याप्तकालमें स्थितिबन्धाप सरणमें निमित्तभूत अतिशय विशुद्धिका अभाव है । [ ४, २, ६, ९५. उसीके अपर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९५ ॥ क्योंकि, अपर्याप्तकालमें सर्वविशुद्ध असंख्यात सम्यग्दृष्टि जीवके द्वारा बांधे जानेवाले स्थितिबन्धकी अपेक्षा अपर्याप्तकालमें ही सर्वोत्कृष्ट संक्लेशसे संयुक्त असंयत सम्यग्दृष्टि द्वारा बांधे जानेवाले स्थितिबन्धके संख्यातगुणे होने में कोई विरोध नहीं है । उसके पर्याप्तका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९६ ॥ 3 इसका कारण यह है कि अपर्याप्त असंयत सम्यग्दृष्टिके सर्वोकृष्ट संक्लेशकी अपेक्षा पर्याप्त असंयत सम्यष्टष्टिका सर्वोत्कृष्ट संक्लेश अनन्तगुणा पाया जाता है । संज्ञी मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय पर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९७ ॥ कारण कि असंयत सम्यग्दृष्टिके सर्वोत्कृष्ट संक्लेशकी अपेक्षा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याशकका सर्वजघन्य संक्लेश अनन्तगुणा पाया जाता है, और संक्लेशकी वृद्धि ही स्थितिबन्धवृद्धिका निमित्त है । अथवा, मिथ्यात्वके उदय वश असंयत सम्यग्दृष्टिके सर्वोत्कृष्ट १ प्रतिषु ' अइसुद्धविसोहीए ' इति पाठः । २ अप्रतौ ' सव्वुक्कस्स ' इति पाठः । ३ सन्नीपज्जत्तियरे अरिओ य ( उ ) कोडिकोडीओ । ओघुक्कोसो सन्निस्स होइ पज्जत्तगस्सेव ॥ क. प्र. १,८२ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३७ ४, २, ६, १०१. ] वेणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा मिच्छतोदयणिमित्तेण वा असंजदसम्माइट्ठि सव्वुक्कस्सट्ठिदिबंधादो संजमाहिमुह - चरिमसमयमिच्छाइट्ठिस्स जहणट्ठिदिबंधो संखेजगुणो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ ट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ९८ ॥ कुदो ? संजमा हिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठिसंकिलेसादो अपजत्तमिच्छाइट्ठिसव्वजहण्णसंकिलेसस्स अनंतगुणत्तुवलंभादो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ ९९ ॥ दं । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ १०० ॥ अपज्जत्तकालसंकिलेसादो पजत्तद्धा सव्वुक्कस्ससंकिलेसस्स अनंतगुणत्तुवलंभादो । एवं द्विदिबंधद्वाणपरूवणा त्ति समत्तमणियोगद्दारं । - णिसेयपरूवणदाए तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि अनंतरावणिधा परंपरोवणिधा ॥ १०१ ॥ निषेचनं निषेकः, कम्मपरमाणुक्खंधणिक्खेवो णिसेगो णाम । तस्स परूवणदाए स्थितिबन्धकी अपेक्षा संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९८ ॥ कारण कि संयम अभिमुख हुए अन्तिम समयवतीं मिथ्यादृष्टिके संक्लेशकी अपेक्षा अपर्याप्त मिध्यादृष्टिका सर्वजघन्य संक्लेश अनन्तगुणा पाया जाता है । उसीके अपर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ९९ ॥ यह सूत्र सुगम है । उसीके पर्याप्तकका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ १०० ॥ कारण कि अपर्याप्तकालीन संक्लेशकी अपेक्षा पर्याप्तकालीन सर्वोत्कृष्ट संक्लेश अनन्तगुणा पाया जाता है । इस प्रकार स्थितिबन्धस्थान- प्ररूपणानुयोगद्वार समाप्त हुआ । निषेकप्ररूपणा में ये दो अनुयोगद्वार हैं— अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा ॥ १०१ ॥ 'निषेचनं निषेकः ' इस निरुक्तिके अनुसार कर्मपरमाणुओंके स्कन्धोंके निक्षेपण करनेका नाम निषेक है। उसके दो अनुयोगद्वार हैं, क्योंकि, अनन्तर प्ररूपणा और Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १०२. दुवे अणियोगद्दाराणि होति, अणंतर-परंपरपरूवणं मोत्तूण तदियपरूवणाए अभावादो !) अणंतरोवणिधाए पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइट्ठीणं पज्जत्तयाणं णाणावरणीय-दसणावरणीय-वेयणीयअंतराइयाणं तिण्णिवास. सहस्साणि आबाधं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं विदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण तीसं सागरोवमकोडीयो ति ॥१०२॥ विगलिंदियपडिसेहढे पंचिंदियणिद्देसो कदो । विगलिंदियपडिसेहो किमटुं कीरदे ? तत्थ उक्कस्सहिदीए उक्कस्साबाहाए च अभावादो । णिसेयपरूवणाए कीरमाणाए उक्कस्सटिदिउक्कस्साबाहाणं च परूवणाए को एत्थ संबंधो ? ण केवलं एसा णिसेयपवणा चेव, किंतु उक्स्सटिदि-उक्कस्साबाहा-णिसेगाणं च परवणत्तादो । हिदिबंधट्ठाणपरूवणाए परम्परा प्ररूपणाको छोड़कर तीसरी कोई प्ररूपणा नहीं है। ___अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीवोंके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मकी तीन हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें निक्षित है वह बहुत है, जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें निक्षिप्त है वह उससे विशेष हीन है, जो प्रदेशाग्र तृतीय समयमें निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, इस प्रकार वह उत्कर्षसे तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम तक उत्तरोत्तर विशेष हीन होता गया है ॥ १०२ ॥ विकलेन्द्रिय जीवोंका प्रतिषेध करने के लिये सूत्र में पंचेन्द्रिय पदका निर्देश किया गया है। शंका-विकलेन्द्रिय जीवोंका प्रतिषेध किसलिये किया जाता है ? समाधान-चूँकि उनमें उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट आबाधाका अभाव है, अतः उनका यहाँ प्रतिषेध किया गया है । शंका निषेकप्ररूपणा करते समय यहाँ उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट आवाधाकी प्ररूपणाका क्या सम्बन्ध है ? समाधान यह केवल निषेकप्ररूपणा ही नहीं है, किन्तु उत्कृष्ट स्थिति, उत्कृष्ट आबाधा और निषेकोंकी भी यह प्ररूपणा है। १ मोत्तूण सगमबाहे (इं) पढमाए ठिइए बहुतरं दव्यं । एतो बिसेसहीर्ण जाबुक्कोसं ति सव्वस्सि ॥ क. प्र. १,८३.। २ अ-आ-काप्रतिषु 'कुदो' इति पाठः। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १०२.] . वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा [२३९ उक्कस्सओ द्विदिबंधो उक्कस्सिया आवाहा च परूविदा । पुव्वं तेसिं परूविदाणं पुणो परूवणा एत्थ किमडे कीरदे १ ण एस दोसो, डिदिबंधहाणपरूवणाए सूचिदाणं परूवणाए कीरमाणाए पउणरुत्तियाभावादो। जदि एवं तो एदस्साणियोगद्दारस्स णिसेयपरूवणा त्ति ववएसो कधं जुज्जदे ? ण, णिसेयरचणाए पहाणभावेणे तस्स तव्ववएससंभवादो। ___असण्णिपडिसेहट्ट सण्णीणमिदि णिद्देसो कदो। सम्मादिट्ठीसु उक्कस्सहिदिबंधपडिसेहढे मिच्छाइट्ठीणमिदि णिद्देसो कदो। अपजत्तकाले उव कस्सटिदिबंधो पत्थि त्ति जाणावणटुं पजत्तयमिदि णिद्देसो कदो । सेसकम्मपडिसेहट्ट णाणावरणादिणिदेसो कदो। उक्कस्सहिदिं बंधमाणस्स तिसु वाससहस्सेसु पदेसणिक्खेवो णस्थि त्ति जाणावणटुं तिण्णिवाससहस्साणि आबाहं मोत्तूणे त्ति भणिदं । ___एत्थ एदेहि दोहि अणियोगद्दारेहि सेडिपवणासामण्णेण एगत्तमावण्णेहि सेसपंचणियोगद्दाराणि जेण कारणेण सूचिदाणि तेण एत्थ परूवणा पमाणं सेडी अवहारो शंका-स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणामें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध और उत्कृष्ट आवाधाकी भी प्ररूपणा की जा चुकी है । अतः पूर्वमें प्ररूपित उन दोनोंकी प्ररूपणा यहां फिरसे किस लिये की जा रही है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणामें उन दोनोंकी सूचना मात्र की गई है । अतः एव उनकी यहां प्ररूपणा करने में पुनरुक्ति दोषकी सम्भावना नहीं है। शंका-यदि ऐसा है तो फिर इस अनुयोगद्वारकी ‘निषेक-प्ररूपणा' यह संज्ञा कैसे उचित है ? समाधान नहीं, क्योंकि निषेक रचनाकी प्रधानता होनेसे उसकी उक्त संक्षा सम्भव ही है। असंशियोंका प्रतिषेध करने के लिये सूत्रमें 'सण्णीणं' पदका निर्देश किया गया है। सम्यग्दृष्टि जीवों में उत्कृष्ट स्थितिबन्धका निषेध करनेके लिये 'मिच्छाइट्ठीणं ' पदका उपादान किया है । अपर्याप्तकालमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता, इस बातके ज्ञापनार्थ 'पर्याप्तक' का ग्रहण किया है । शेष कर्मों का प्रतिषेध करनेके लिये झानावरणादिकोंका निर्देश किया है । उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले जीवके तीन हजार वर्षों में प्रदेशोंका निक्षेप नहीं होता, इस बातको बतलानेके लिये 'तीन हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर ऐसा कहा है। यहाँ ' श्रेणिप्ररूपणा' सामान्यकी अपेक्षा एकत्वको प्राप्त हुए इन दो ( अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा) अनुयोगद्वारोंके द्वारा चूँकि शेष पाँच अनुयोगद्वारोंकी सूचना की गई है अतः यहाँ प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पब हुत्व, १ आप्रती ' रचणाए पहावेण पहाणभावेण' इति पाठः।. Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, १०२. भागाभागो अप्पाबहुगं चेदि छ अणियोगद्दाराणि वत्तव्वाणि भवंति । एत्थ ताव परूवणं पमाणं च वत्तइस्लामो । तं जहा - चदुष्णं कम्माणं तिण्णिवाससहस्साणि आबाधं मोत्तूण जो उवरिमसमओ तत्थ णिसित्तपदेसग्गमत्थि । तत्तो अनंतरउवरिमसमए णिसित्तपदेसग्गं पि अस्थि । तत्तो उवरिमतदियसमए णिसित्तपदेसग्गं पि अस्थि । एवं दव्वं जाय ती संसारोवमकोडाकोडीणं चरिमसमओ त्ति । परूवणा गदा । पढाए दिए णित्तिपरमाणु अभवसिद्धिएहि अनंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता । एवं यव्वं जाव उक्कस्सहिदि ति । पमाणपरूवणा गदा । सेडिपरूवणा दुविहा - अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधा बुच्चदे — तिण्णिवाससहस्साणि आबाधं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं । जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं णिसेगभागहारेण खंडिदेगखंडमेत्तेण । जं तिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं रूवणणिसेगभागहारेण खंडिदेगखंडमेत्तेण । जं चउत्थसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं दुरूवूण णिसेगभागहारेण खंडिदेगखंडमेत्तेण । एवं यव्वं जाव पढमणिसेयस्स अद्धं चेट्ठिदं त्ति । पुणो बिदियगुणहाणिपढमणिसेयादो इन छह अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणाकरने योग्य है । इनमें पहिले प्ररूपणा और प्रमाणका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है-चार कर्मोकी तीन हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो अगला समय है उसमें निषिक्त प्रदेशान है। उससे अव्यवहित आगे के समय में निषिक्त प्रदेशाग्र भी है। उससे आगे के तीसरे समय में निषिक्त प्रदेशात्र भी है। इस प्रकार तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपमोंके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । प्ररूपणा समाप्त हुई । प्रथम स्थितिमें निषिक्त परमाणु अभव्य सिद्धोंसे अनन्तगुणे व सिद्धोंके अनन्तवें भाग प्रमाण हैं । [ द्वितीय स्थितिमें निषिक्त परमाणु विशेष हीन हैं ।] इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये । प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई । श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार है - अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । इनमें अनन्तरोपनिधाको कहते हैं 1 तीन हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रथम समय में निषिक्त प्रदेशाप्र ( २५६ ) है वह बहुत है । जो द्वितीय समय में निषिक्त प्रदेशाग्र है वह निषेकभागहारका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध हो उतने ( २५६ ÷ १६ = १६ ) मात्र से विशेष हीन है । जो प्रदेशात्र तृतीय समयमें निषिक है वह एक अंक कम निषेकभागहारका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उतने [ २४० : ( १६ - १ ) = १६ ] मात्र से विशेष हीन है । चतुर्थ समयमें जो प्रदेशाग्र निषिक्त है वह दो अंक कम निषेक भागहारका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उतने [ २२४ ( १६-२ )+१६ मात्र से विशेष हीन है । इस प्रकार प्रथम निषेकके अर्ध भाग तक ले जाना चाहिये । १ अ आ-काप्रतिषु ' अत्थं ' इति पाठः । - Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १०२. ] माहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा [ २४१ तत्थेव विदियणिसेयो विसेसहीणो । केत्तियमेत्तेण ? णिसेगभागहारेण खंडिदेयखंडमेत्तेण । तत्थेव तदियसमए णिसित्तं पदेसग्गं विसेसहीणं रूवूणणिसेगभागहारेण खंडिदेयखंडमेत्तेण । एवं यव्वं जाव एत्थतणपढमणिसेयस्स अद्धं' चेद्विदं ति । एवं यष्वं जाव चरिमगुणहाणि त्ति । एत्थ संदिट्ठी १४४ ७२ | ३६ | १८ ९ १६० ८० ४० | २०१० १७६ ८८ ४४ २२ ११ १९२ ९६ ४८ २४ दोगुणहाणि पहुड रूवणकमेण जाव रूवाहियगुणहाणि ति ठवेण रूवणणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोष्णन्भत्थरासिणा पादेकं गुणिय पुणो रूवूणणाणागुणहाणिसलागमेत्तपडिरासीयो अद्धद्धं काऊण १२ पक्खेवे सब्वे वि मेलाविय समयपबद्धे भागे हिदे जं लद्धं तेण सव्वपक्खेवेसु पादेकं गुणिदेसु इच्छिद - इच्छिदणिसेगा होंति, २०८ १०४ ५२ २६ १३ २२४ ११२ ५६ २८ १४ २४० १२० ६० ३० १५ २५६ | १२८ ६४ ३२ १६ प्रक्षेपकसंक्षेपेण विभक्ते यद्धनं समुपलद्धं । प्रक्षेपास्तेन गुणा प्रक्षेपसमानि खंडानि ॥ ६ ॥ इति संख्यानशास्त्रे उक्तत्वाँत् ।) पश्चात् द्वितीय गुणहानिके प्रथम निषेककी अपेक्षा उसका ही द्वितीय निषेक विशेष न है। कितने मात्र से वह विशेष होन है ? निषेकभागहारका भाग देनेसे जो प्राप्त हो उतने मात्र से वह विशेष हीन है । द्वितीय गुणहानिके तृतीय समय में निषिक प्रदेशाप्र एक अंक कम निषेकभागहारका भाग देनेपर जो प्राप्त हो उतने मात्र से विशेष हीन है । इस प्रकार यहाँके प्रथम निषेकका अर्ध भाग स्थित होने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार अन्तिम गुणहानि तक लेजाना चाहिये । यहाँ संदृष्टि - ( मूलमें देखिये ) । दो गुणहानियों (८ x २ = १६ ) को आदि लेकर एक एक अंक कमके क्रमसे एक अधिक गुणहानिप्रमाण ( १६, १५, १४, १३, १२, १२, १०, ९ ) तक स्थापित करना चाहिये । पश्चात् उनमेंसे प्रत्येकको एक कम नानागुणह । निशलाकाओं ( ५-१ ) की अन्योन्याभ्यस्त राशि ( १६ ) से गुणित ( १६४१६ ) करके एक कम नानागुणहानिशलाका (४) प्रमाण प्रतिराशियोंको आधी आधी करके ( १२८, ६४, ३२, १६ ) स्थापित करना चाहिये । पश्चात् इन सभी प्रक्षेपोंको मिलाकर प्राप्त राशिका समयप्रबद्धमें भाग देने पर जो लब्ध हो उससे सब प्रक्षेपोंमेंसे प्रत्येकको गुणित करनेपर इच्छित इच्छित निषेकका प्रमाण होता है, क्योंकि प्रक्षेपोंके संक्षेप अर्थात् योगफलका विवक्षित राशिमें भाग देनेपर जो धन प्राप्त हो उससे प्रक्षेपोंको गुणा करनेपर प्रक्षेपोंके बराबर खण्ड होते हैं ॥ ६ ॥ ऐसा गणितशास्त्र में कहा गया है । (पु. ६, पृ. १५८ ) देखिये । १ अ आ का प्रतिषु ' अत्थं ' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु रासी उक्तत्वात् ' इति पाठः । छ. ११-३१ • संख्यांनि Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ ] खंडागमे. वेणा खंड [ ४, २, ६, १०३. संपहि परूवणा - पमाणाणियोगद्दाराणि अणंतरोवणिधाए णिवदंति त्ति ताणि अभणिदूण मोहणीयस्स अणंतरोवणिधापरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइट्ठीणं पज्जत्तयाणं मोहणीयस्स सत्तवाससहस्साणि आबाहं मोनूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं, जं विदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडि ति ॥ १०३ ॥ पुव्वं णाणावरणादीणं चदुष्णं कम्माणं तिण्णिवाससहस्साणि त्ति आबाहा परूविदा । संपहि मोहणीयस्स सत्तवाससहस्साणि आबाधा त्ति किमहं वुच्चदे ? ण, सगट्ठिदिपडिभागेण आबाधुपत्तदो । तं जहा — दससागरोवमकोडाकोडीणं वस्ससहस्समाबाहा लब्भदि । aaमेदं णव्वदे ? परमगुरूवदेसादो । जदि दससागरोवमकोडाकोडीणं वस्ससहस्रमाबाहा अब चूँकि प्ररूपणा और प्रमाण ये दो अनुयोगद्वार अनन्तरोपनिधाके अन्तर्गत हैं अतः उनको न कहकर मोहनीय कर्मकी अनन्तरोपनिधाके प्ररूपणार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीवोंके मोहनीय कर्मकी सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशाय प्रथम समयमें निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशाग्र द्वितीय समय में निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, जो प्रदेशाग्र तृतीय समय में निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, इस प्रकार उत्कर्षसे सत्तर कोड़ाकोड़ि सागरोपम तक विशेष हीन विशेष हीन होता गया है ॥ १०३ ॥ शंका - पहिले ज्ञानावरणादि चार कमौंकी आबाधा तीन हजार वर्ष प्रमाण कही जा चुकी है। अब मोहनीय कर्मकी सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधा किसलिये बतलायी जा रही है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि आबाधाकी उत्पत्ति अपनी स्थिति के प्रतिभागसे होती है । यथा - दस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण स्थितिकी आबाधा एक हजार वर्ष प्रमाण पायी जाती है । शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान वह परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है । १ उदयं पडि सत्तण्हं आब्राहा कोडकोडि उवहीणं । वासस्यं तप्पडिभागेण य सेसद्विदीर्ण न्च ॥ गो. क. १५६. वास सहसम्बाहा कोडाकोडीद सगस्स सेसाणं । अणुवाओ अणुवट्टणगाउसु छम्मासिककोसो ॥ क. प्र. १,७५ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १०३.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूषणा [ २४३ लम्भदि तो सत्तरि-तीस-वीससागरोवमकोडाकोडीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए जहाकमेण सत्त तिण्णि वेण्णि वाससहस्साणि आबाहाओ होति । मोहणीयस्स आबाधा एसा ७००० । णाणावरणादीणं चदुण्णं कम्माणमाबाहा एत्तिया होदि ३०००। णामागोदाणमाबाहा एत्तिया होदि २००० । एदेण अत्थपदेण सेसउत्तरपयडीणं पि आबाहापरूपणा कायव्वा । एवं कदे सोलसण्णं कसायाणं चत्तारि वाससहस्साणि आबाधा होदि । एवं सेसउत्तरपयडीणं पि जाणिदृण वत्तब्वं । एवमेइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-असणिपंचिंदिएसु वि आबाहापरूवणा सग-सगहिदीसु कायव्वा । णवरि आउअस्स आवाधाणियमो णत्थि, पुन्वकोडितिभागमाबाई काऊण खुद्दाभवगहणमेत्तहिदीए वि बंधुवलंभादो असंखेवद्धाबाहाए वि तेत्तीससागरोवममेत्तहिदिबंधुवलंभादो। सेसं णाणावरणादिचदुण्णं कम्माणं जहा परूविदं तहा णिस्सेसं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो। एत्थ मोहसब्वपयडीणं पदेसापिंडं घेत्तूण किमणंतरोवणिधा वुच्चदे, आहो पुध-पुधपयडीणं णिसेगस्स अणंतरोवणिधा वुचदि ति ? ण ताव पढमवियप्पो जुजदे, चालीस यदि दस कोडाकोडि सांगरोपम प्रमाण स्थितिकी एक हजार वर्ष प्रमाण आबाधा पायी जाती है तो सत्तर, तीस और बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमान स्थितियोंकी आबाधा कितनी होगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर क्रमशः उनकी सात, तीन और दो हजार वर्ष प्रमाण आबाधा होती है । मोहनीय कर्मकी आबाधा ७००० वर्ष प्रमाण है । ज्ञानावरणादिक चार कम की आबाधा इतनी होती है३००० वर्ष । नाम व गोत्रकी आबाधा इतनी होती है-२००० वर्ष । इस अर्थपदसे शेष उत्तर प्रकृतियोंकी भी आबाधाकी प्ररूपणा करना चाहिये। ऐसा करनेपर सोलह कषायोंकी चार हजार वर्ष प्रमाण आबाधा होती है। इसी प्रकार शेष उत्तर प्रकृतियोंके विषय में भी जानकर प्ररूपणा करना चाहिये। - इस प्रकार एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंही पंचेन्द्रिय । अपनी अपनी कर्मस्थितिके अनुसार आबाधाकी प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि आयु कर्मकी आबाधाका ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, पूर्वकोटिके तृतीय भाग प्रमाण आबाधा करके क्षुद्रभवग्रहण मात्र स्थितिका भी बन्ध पाया जाता है, तथा असंक्षेपाद्धा मात्र आवाधामें भी तेतीस सागरोपम प्रमाण स्थितिका बन्ध पाया जाता है। शेष जैसे शानावरणादिक चार कर्मोकी प्ररूपणा की गई है पैसेही पूर्ण रूपसे प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई भेद नहीं है। शंका-यहां मोहनीय कर्मकी समस्त प्रकृतियोंके प्रदेशपिण्डको ग्रहण करके क्या अनन्तरोपनिधा कही जाती है, अथवा उसकी पृथक् पृथक् प्रकृतियोंके मिषेककी अनन्तरोपनिधा कही जाती हैं ? इनमें प्रथम विकल्प तो योग्य नहीं है, क्योंकि. अनन्तरोपनिधाकी १ प्रतिषु — सणि ' इति पाठः। २ प्रतिषु 'सग-सगहिदी' इति पाठः । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १०३. सागरोवमाणि अणंतरोवणिधाए विसेसहीणकमेण गंवण तदणंतरउवरिमसमए भणतगुणहीणप्पदेसणिसेगप्पसंगादो, देसघादिपदेसपिंडो अणंतगुणहीणो त्ति कसायपाहुडे णिदिद्वत्तादो । ण च अणंतगुणहीणत्तं वोत्तुं जुत्तं, विसेसहीणं सव्वत्थ णिसिंचदि त्ति सुत्तेण सह विरोहादो। ण विदियपक्खो वि, सव्वपयडीणं ठिदीयो अस्सिदृण पुध पुध णिसेयपरूवणापसंगादो। ण च एवं, विसेसहीणा विसेसहीणा सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीयो त्ति सुत्तेण सह विरोहादो ति ? एत्य परिहारो उच्चदे । तं जहा–ण ताव बिदियपक्खम्मि वुत्तदोसाणं संभवो, तदब्भुवगमाभावादो। ण पढमपक्खे वुत्तदोससंभवो वि, भिच्छत्तपदेसग्गं चेव घेतूण अणंतरोवणिधं परूवेमाणस्स तद्दोससमागमाभावादो । ण च सामण्णे विसेसो णत्यि, विसेसाणुविद्धाणं चेव सामण्णाणमुवलंभादो । ण च सामण्णे अप्पिदे विसेसप्पणा विरुज्झदे, विसेसवदिरित्तसामण्णाभावादो त्ति। संपहि उवरिल्लीणं हिदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदे ति सुत्ते वक्खाणिजमाणे उक्कस्सियाए हिदीए बहुगं पदेसग्गं देदि, दुचरिमादिहिदीसु विसेसहीणं देदि त्ति जं भणिदं तमेदेण सुत्तेण सह कधं ण विरुज्झदे ? ण, गुणिदकम्मंसियमस्सिदूण सा परूवणा अपेक्षा विशेषहीम क्रमसे चालीस सागरोपम जाकर उससे अव्यवहित आगेके समयमें भनन्तगुणे हीन प्रदेशवाले निषेकका प्रसंग आता है, क्योंकि, [ सर्वघातीकी अपेक्षा] देशघाती प्रकृतियोंका प्रदेशपिण्ड अनन्तगुणा हीन है; ऐसा कसायपाहुड़में कहा गया है। परन्तु अनम्तगुणी हीनताका कथन उचित नहीं है, क्योंकि. सर्वत्र विशेषहीन देता है, इस सूत्रके साथ विरोध होता है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि, समस्त प्रकृतियोंकी स्थितियोंका आश्रय करके पृथक् पृथक् निषेकोंकी प्ररूपणाका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम तक बे विशेषहीन विशेषहीन हैं, इस सूत्रके साथ विरोध आता है ? समाधान यहां उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-दूसरे प्रक्षमें दिये गये दोषोंकी सम्भावना तो है ही नहीं, क्योंकि, वैसा स्वीकार ही नहीं किया गया है । प्रथम पक्षमें कहे हुए दोषोंकी भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि एकमात्र मिथ्यात्व प्रकृतिके प्रदेशपिण्डको ग्रहण करके अनन्तरोपनिधाकी प्ररूपणा करनेपर उक्त दोषोंका आना सम्भव नहीं है। सामान्यमै विशेष न हो, ऐसा तो कुछ है नहीं, क्योंकि, विशेषोंसे सम्बद्ध ही सामान्य पाये जाते हैं । सामान्यकी मुख्यता होनेपर विशेषकी विवक्षा विरुद्ध हो, सो भी नहीं है, क्योंकि, विशेषोंसे भिन्न सामान्यका अभाव है। शंका-अब 'उधरिल्लीणं डिवीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदे' इस सूत्रका व्याख्यान करते हुए " उत्कष्ट स्थितिमें बहुत प्रदेशपिण्डको देता है, विचरम आदिक स्थितियों में विशेषहीन देता है" ग्रह जो कहा है वह इस सूत्रसे कैसे विरुद्ध नहीं होगा? १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु तदभवगमादो' इति पाठः । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १०४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा [२४५ कदा, इमा पुण खविदगुणिद-घोलमाणजीवे अस्सिदूण कदा ति विरोहाभावादो।। संपहि सगंतोक्खित्तपवणा-पमाणाणियोगद्दारमणंतरोवणिधमाउअस्स परूवण?मुत्तरसुत्तं भणदि ___पंचिंदियाणं सण्णीणं सम्मादिट्ठीणं वा मिच्छादिट्ठीणं वा पज्जत्तयाणमाउअस्स पुवकोडितिभागमाबाधं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसे. सहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सण तेतीससागरोवमाणि त्ति ॥१०४॥ ___एत्थ पुचकोडितिभागमाबाधं ति जं भणिदं तेण अण्णजोगववच्छेदो' ण कीरदे, किंतु अजोगववच्छेदों चेव; पुव्वकोडितिभागमादि कादृण जाव असंखेवद्धा त्ति ताव सव्वाबाधाहि तेत्तीससागरोवममेत्तहिदिबंधसंभवादो। जदि एवं तो उक्कस्साबाहाए चेव किमर्ट णिसेयपरूवणा कीरदे ? ण, आउअस्स उक्कस्साबाहा एत्तिया चेव होदि, उक्कस्साबाहाए सह समाधान नहीं, क्योंकि, यह प्ररूपणा गुणित कर्माशिकका आश्रय करके की गई है, किन्तु यह प्ररूपणा क्षपित गुणित-घोलमान जीधोंका आश्रय करके की गई है, अतः उससे विरुद्ध नहीं है। __अब प्ररूपणा और प्रमाण अनुयोगद्वारोंसे गर्भित आयुकर्मकी अनन्तरोपनिधाकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं पंचेन्द्रिय संज्ञी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीवोंके आयु कर्मकी एक पूर्वकोटिके तृतीय भाग प्रमाण आबाधाको छोड़कर प्रथम समयमें जो प्रदेशपिण्ड दिया गया है वह बहुत है, द्वितीय समयमें जो प्रदेशपिण्ड दिया गया है वह उससे विशेष हीन है, तृतीय समयमें जो प्रदेशपिण्ड दिया गया है वह विशेष हीन है; इस प्रकार उत्कर्षसे तीस सागरोपम तक वह विशेषहीन विशेषहीन होता गया है ॥ १०४॥ ___ यहां सूत्रमें 'पुवकोडितिभागमाबाधं ' यह जो कहा गया है उससे अन्ययोगव्यवच्छेद ( अभ्य आबाधाओंकी व्यावृत्ति) नहीं किया जा रहा है, किन्तु अयोगव्यवच्छेद ही किया जा रहा है। क्योंकि, पूर्वकोटिके त्रिभागको आदि लेकर असंक्षेपाचा तक समस्त भाषाधाओंके साथ तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुकर्मका बन्ध सम्भव है। शंका-यदि ऐसा है तो उत्कृष्ट आवाधामें ही किलिये निषेकप्ररूपणाकीजाती है। समाधान-नहीं, क्योंकि आयु कर्मकी उत्कृष्ट आबाधा इतनी ही होती है तथ, उस्कृष्ट भावाधाके साथ तेतील सागरोपम मात्र उत्कृष्ट स्थिति भी होती है, यह बतलानेके आ-काप्रतिषु 'अण्णजोगववएसो' इति पाठः । २विशेषणसंगतवकारअयोगव्यच्छेदबोधकः, यथा शंखः पाण्डुर एवेति । अयोगव्यवच्छेदो नाम उद्देश्यतावच्छेदक-समानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम् ।xxx विशेष्यसकतवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा पार्थ एव घमुर्धर इति । अन्ययोगव्यवच्छेदो माम विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेदः । सप्त, त. पृ. २५-२६. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १०५. तेत्तीस सागरोवमाणि उक्कस्सिया हिदी च होदि त्ति जाणावणङ्कं तदुत्तीए । देवाउअं पडुच्च सम्मादिट्ठीणं वा त्ति भणिदं, संजदेसु सम्मादिट्ठीसु पुव्वकोडितिभागपढमसमयद्विदीसु देवाउअस्स केसु वि तेत्तीससागरोवमपमाणस्स बंधुवलंभादो । णिरयाउअं पडुच्च मिच्छाइट्ठीणं वा त्ति वुत्तं, पुव्वकोडितिभागपढमसमए वह्माणमिच्छाइट्ठी तेत्तीससागरोवममेत्तणिरयाउअस्स बंधुवलंभादो । सेसं जहा णाणावरणीयस्स परुविदं तहा परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । अंतोखित्तपवणा-पमाणमणंतरोवणिधं णामा - गोदाणमुत्तरसुत्तेण भणदि — पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइट्टीणं पज्जत्तयाणं णामागोदाणं वेवास सहसाणि आबाधं मोतृण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं विदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण वीसं सागरोवमकोडीयो त्ति ।। १०५ ।। णिसेगभागहारो सव्वकम्मेसु सरिसो, सव्वत्थ गुणंहाणीणं सरिसत्तुवलंभादो । गोवुच्छविसेसा ण सव्वगुणहाणीसु सरिसा, किंतु आदिगुणहाणिप्पहुडि अद्धद्धगया, लिये उक्त प्ररूपणा की जा रही है । देवायुकी अपेक्षा करके ' सम्मादिट्ठीगं वा' ऐसा कहा गया है, क्योंकि, पूर्व कोंटिके त्रिभागके प्रथम समय में स्थित किन्हीं सभ्यग्दृष्टि संयत जीवोंमें तेतीस सांगरोपम प्रमाण देवायुका बन्ध पाया जाता है । नारकायुकी अपेक्षा करके 'मिच्छा हट्टीणं वा' ऐसा कहा गया है, क्योंकि, पूर्वकोटिके त्रिभाग के प्रथम समय में वर्तमान किन्हीं मिथ्यादृष्टि जीवों में तेतीस सागरोपम प्रमाण नारकायुका बन्ध पाया जाता है । शेष प्ररूपणा जैसे शानावरणीयके विषय में की गई है, वैसे ही यहां करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । अब आगे सूत्रसे प्ररूपणा व प्रमाण अनुयोगद्वारोंसे गर्भित नाम व गोत्रकी अनन्तरोपनिधाको कहते हैं पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीवोंके नाम व गोत्र कर्मकी दो हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशपिण्ड प्रथम समयमें निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशपिण्ड द्वितीय समय में निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, जो प्रदेशपिण्ड तृतीय समय में निषिक्त है, वह उससे विशेष हीन है, इस प्रकार उत्कर्षसे बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपमों तक विशेषहीन विशेषहीन होता गया है ।। १०५ ॥ निषेकभागहार सब कर्मोंमें समान है, क्योंकि सर्वत्र गुणहानियोंकी सदृशता देखी जाती है । गोपुच्छ विशेष सब गुणहानियोंमें सदृश नहीं है, किन्तु प्रथम गुणहानिसे लेकर Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १०६.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा २४७ गुणहाणीसु अवहिदासु गोवुच्छविसेसाणमवट्ठाणावरोहादो । सेसं जहा णाणावरणीयस्स परूविदं तहा पख्वेदव्वं । . संपहि सण्णीसु पजत्तेसु सव्वकम्माणं पदेसणिसेगस्स अणंतरोवणिधं परूविय सण्णिअपज्जत्ताणं तप्परूवणहमुत्तरसुत्तं भणदि - पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइट्टीणमपजत्तयाणं सत्तण्णं कम्माणमाउववज्जाणमंतोमुहुत्तमाबाधं मोतूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसितं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण अंतोकोडाकोडीयो त्ति ॥ १०६ ॥ एत्थ आउअं किमटुं एदेहि सह ण भणिदं ? ण एस दोसो, एदेसि हिदिबंधेण समाणाउअहिदिबंधाभावेण सह वोत्तुमसत्तीदो । णामा-गोदाणमंतोकोडाकोडीदो चदुण्णं कम्माणमतोकोडाकोडी दुभागभहिया । मोहस्स अंतोकोडाकोडी चदुण्णं कम्माणमंतो उत्तरोत्तर आधे आधे होते गये हैं, क्योंकि, गुणहानियोंके अवस्थित होनेपर गोपुच्छविशेषोंके अवस्थानका विरोध हैं । शेष प्ररूपणा जैसे ज्ञानावरणीयके सम्बन्धमें की गई है वैसे ही करना चाहिये। अब संशी पर्याप्तक जीवोंके सब कर्मों के प्रदेशनिषेककी अनन्तरोपनिधाकी प्ररूपणा करके संज्ञी अपर्याप्तक जीवोंके उसकी प्ररूपणा करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि अपर्याप्तक जीवोंके आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशपिण्ड प्रथम समयमें निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशपिण्ड द्वितीय समयमें निषिक्त है वह विशेषहीन है, जो प्रदेशपिण्ड तृतीय समयमें निषिक्त है वह विशेषहीन है, इस प्रकार उत्कर्षसे अन्तःकोड़ाकोड़ि सागरोपम तक विशेषहीन विशेषहीन होता गया है ॥ १०६॥ शंका-यहां इनके साथ आयु कर्मका कथन क्यों नहीं किया ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इनके स्थितिबन्धके समान आयु कर्मका स्थितिबन्ध नहीं होता; अतएव उनके साथ आयु कर्मका कहना शक्य नहीं है। शंका-नाम व गोत्रके अन्तः कोड़ाकोडि मात्र स्थितिबन्धकी अपेक्षा चार कमौका स्थितिबन्ध द्वितीय भागसे अधिक अन्तः कोड़ाकोडि प्रमाण होता है । मोहनीय कर्मकी अन्तःकोड़ाकोड़ि चार काँकी अन्तःकोड़ाकोड़िकी अपेक्षा एक तृतीय भाग सहित दो Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १०७. कोडाकोडीहितो सतिभाग-दोस्वगुणा ति । सेसकम्महिदी विसरिसा ति । तेण सेसकम्माणं पि एगजोगो मा होदु त्ति वुत्ते ण, अंतोकोडाकोडित्तणेण तेसिं हिदीणं समाणत्तुवलंभादो। अंतोमुहुत्तमाबाधं मोत्तूणेत्ति भणिदे पढमसमयप्पहुडि संखेजावलियाओ वजिदूण उवरि णिसेयरचणं करेदि त्ति घेत्तव्वं । सेसं सण्णिपंचिंदियपजत्तणाणावरणीयस्स जहा वुत्तं तहा वत्तन्वं, अविसेसादो। - पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणं चरिंदिय-तीइंदिय-बीइंदियाणं बादरेइंदियअपज्जत्तयाणं सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणमाउअस्स अंतो मुहुत्तमाबाधं मोतूण जाव पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं, जं बिदियसमए पदेसगं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेंसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण पुवकोडीयो त्ति ॥ १०७ ॥ एदे सत्त अपजत्तजीवसमाससख्वेण परिणयजीवा सुहुमेइंदियपज्जत्तजीवा च आउअस्स सवुक्कस्सट्ठिदिं बंधमाणा पुन्वकोडिं चेव जेण बंधंति तेण पुवकोडिमेत्ता चेव पदेसरूपों (२३) से गुणित है। शेष कर्मोकी स्थिति विसदृश है। इसलिये शेष कर्मोंका भी एक योग नहीं होना चाहिये? । समाधान नहीं, क्योंकि, अन्तःकोड़ाकोडि स्वरूपसे उनकी स्थितियों के समानता पायी जाती है। 'अंतोमुहुत्तमाबाधं मोत्तूण' ऐसा कहनेपर प्रथम समयसे लेकर संख्यात आवलियोंको छोड़कर इसके आगे निषेकरचनाको करता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। शेष कथन जैसे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके ज्ञानावरणीयके विषयमें किया है वैसा ही इसके भी करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय व बादर एकेन्द्रिय अपर्यातक तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक जीवोंके आयु कर्मकी अन्तर्मुहूर्त मात्र आबाधाको छोड़कर प्रथम समयमें जो प्रदेशाग्र निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, जो प्रदेशाग्र तृतीय समयमें निषिक्त है वह विशेष हीन है, इस प्रकार उत्कर्षसे पूर्वकोठि तक विशेषहीन विशेषहीन होता गया है ॥ १०७॥ अपर्याप्त जीवसमास स्वरूपसे परिणत ये सात जीव तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीव आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हुए चूँकि पूर्वकोटि प्रमाण ही बाँधते है, अतएव पूर्वकोटि मात्र ही प्रदेशरचना कही गई है । पूर्वकोटिमेंसे एक अंक कम इत्यादि क्रमसे १ काप्रती · दीरूव' इति पाठः। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १०८. ] dयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा [ २४९ रचणापरूविदा पुव्वकोडीदो रूवूणादिकमेण परिहीणा वि पदेसरचणा अस्थि, अण्णा उक्करसेण जाव पुव्वकोडि त्ति गिद्देसाणुववत्तदो । एदे पुव्वकोडीदो अन्भहियमाउअं किण बंति ? सहावदो अचंताभावेण निरुद्धसत्तित्तादो वा । एदेसिमाबाहा अंतोमुहुत्तमेत्ता चेवे ति किमहं वुच्चदे ? ण, एदेसिमंतोमुहुत्तआउआणं सगआउअतिभागे अंतोमुहुत्तभावस्सेव उवलंभादो | सेसं सुगमं । पंचिंदियाणमसण्णीणं चउरिंदियाणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं बादरएइंदियपज्जत्तयाणं सत्तण्णं कम्माणं आउअवज्जाणं अंतोमुहुत्तमाबाधं मोत्तृण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण सागरोवमसहस्सस्स सागरोवमसदस्स सागरोवमपण्णासाए सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमस्स तिण्णि- सत्तभागा सत्त- सत्तभागा हीन भी प्रदेशरचना होती है, क्योंकि, अन्यथा ' उक्कस्सेण जाव पुव्वकोडि त्ति ' यह निर्देश घटित नहीं होता । शंका- ये जीव पूर्वकोटिसे अधिक आयुको क्यों नहीं बाँधते हैं ? समाधान — उक्त जीव स्वभावतः उससे अधिक आयुको नहीं बाँधते हैं, अथवा अत्यन्ताभाव से निरुद्धशक्ति होनेसे वे अधिक आयुका बन्ध नहीं करते हैं । शंका- इन जीवोंके उक्त कर्मोंकी आबाधा अन्तर्मुहूर्त मात्र ही किसलिये कही जाती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि इन जीवोंकी आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही होती है, अतएव अपनी आयुके त्रिभागमें अन्तर्मुहूर्तता ही पायी जा सकती है। शेष कथन सुगम है । पंचेन्द्रिय असंज्ञी, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय जीवोंके आयु कर्मसे रहित सात कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र आबाधाको छोड़कर प्रथम समयमें जो प्रदेशपिण्ड निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशपिण्ड द्वितीय समय में निषिक्त है वह उससे विशेषहीन है, जो प्रदेशपिण्ड तृतीय समय में निषिक्त है वह उससे विशेषहीन है; इस प्रकार विशेषहीन विशेषहीन होकर उत्कर्षसे हजार सागरोपमोंके, सौ सागरोपमोंके, पचास सागरोपमोंके और पच्चीस सागरोपमोंके चार कर्मों, मोहनीय एवं नाम - गोत्र कर्मोंके क्रमसे सात भागोंमेंसे परिपूर्ण तीन भाग ( ३७ ), सात भाग ( ७।७ ) छ. ११-३२ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १०८. बे-सत्तभामा पडिवुण्णा ति ॥ १०८ ॥ एत्य पुल्वाणुपुवीए जेण णिदेसो कदो तेण असाणपंचिंदियाणं सागरोवमसहस्सस्से तिण्णि-सत्तभागा चदुण्णं कम्माणमणुकस्सहिदी होदि, मोहणीयस्स सत्त-सत्तभागा, णामागोदाणं बे-सत्तभागा । चउरािंदियाणं सागरोवमसदस्स तिण्णि-सत्तभागा चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सहिदी होदि, मोहणीयस्स सत्त-सत्तभागा, णामा-गोदाणं बे-सत्तभागा। तीइंदियपजत्तएसु सागरोवमपण्णासाए तिण्णि-सत्तभागा चतुण्डं कम्माणं उक्कस्सहिदी, मोहणीयस्स सत्त-सत्तभागा, णामा-गोदाणं बेसत्तभागा होदि । बीइंदियपजत्तएसु सागरोवमपणुवीसाए तिण्णि-सत्तभागा चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सहिदी, मोहणीयस्स सत्त-सत्तभागा, णामा-गोदाणं बे-सत्तभागा होदि । बादरएइंदियपज्जत्तएसु सागरोवमाए तिण्णि-सत्तभागा चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सहिदी, मोहणीयस्स सत्त-सत्तभागा, णामा-गोदाणं बे-सत्तभागा होदि । एत्थ एदाओ द्विदीओ तेरासियकमेण जाणिदूण आणेदव्वाओ । सत्तरिकोडाकोडिस्वेहि सत्तवाससहस्समोवट्टिय लद्धे सग-सगकमहिदीणं सागरोवमसलागाहि गुणिदे इच्छिदजीवसमासकम्महिदीणमाबाहाओ होति । सेसं जाणिय वत्तव्वं । और दो भागों ( २१७) तक चला गया है ॥ १०८ ॥ ___ यहाँ सूत्रमें चूंकि पूर्वानुपूर्वीके क्रमसे निर्देश किया गया है, अतः असंशी पंचेन्द्रिय जीवोंके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति हजार सागरोपमोंके तीन-सात भाग (3) प्रमाण, मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति सात-सात भाग (७) प्रमाण, और नाम-गोत्रकी दो-सात भाग (3) प्रमाण है । चतुरिन्द्रिय जीवोंके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति सौ सागरोपमोंके तीन-सात भाग प्रमाण, मोहनीयकी सात-सात भाग प्रमाण और नाम-गोत्रकी दो सात भाग प्रमाण है । श्रीन्द्रिय पर्याप्तक जीवों में चार कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति पचास सागरोपमोंके तीन सात भाग, मोहनीयकी सात-सात भाग और नाम-गोत्रकी दो-सात भाग प्रमाण है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंमें चार काकी उत्कृष्ट स्थिति पच्चीस सागरोपमोके तीन-सात भाग, मोहनीयकी सात-सात भाग और नाम-गोत्रकी दो सात भाग प्रमाण है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों में चार काँकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपमके तीन-सात भाग, मोहनीयकी सात-सात भाग और नाम-गोत्रकी दो सात भाग प्रमाण है। यहां इन स्थितियोंको त्रैराशिक क्रमसे जानकर ले जाना चाहिये । सत्तर कोड़ाकोड़ि रूपोंसे सात हजार वर्षोंको अपवर्तित करके जो लब्ध हो उसे अपनी कर्मस्थितियोंकी सागरोपमशलाकाओं द्वारा गुणित करनेपर अभीष्ट जीवसमासकी कर्मस्थितियोंकी आवाधायें होती हैं। शेष कथन जानकर करना चाहिये। १ अ-आ-काप्रतिषु सहस्स' इति पाठः। २ अप्रतो 'कम्माणमणुक्कट्ठिदी', आ-काप्रत्योः 'कम्माणमणुक्कस्सट्ठिदी' इति पाठः। ३ ताप्रतो 'गोदार्ण चेय वेसत्तमागा' इति पाठः । ४ ताप्रतो 'सगकम्म' इति पाठः। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १०९.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपख्वणा [ २५१ पंचिंदियाणमसण्णीणं चउरिदियाणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं बादरएइंदियपज्जत्तयाणमाउअस्स पुवकोडित्तिभागं बेमासं सोलसरादिदियाणि सादिरेयाणि चत्तारिवासाणि सत्तवाससहस्साणि सादिरेयाणि आबाहं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं निसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेमहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो पुव्वकोडि चि ॥१०९॥ ___असण्णिपंचिंदियपज्जत्ताणं पुव्वकोडितिभागो आबाहा होदि, तेसु भुंजमाणाउअस्स पुवकोडिपमाणस्स उवलंभादो । चउरिदिएसु उक्कस्साबाहा बे मासा, तत्थ सव्वुक्कस्सभुंजमाणाउअस्स छम्मासपमाणत्तुवलंभादो । तेइंदिएसु सोलसरादिदियाणि सादिरेयाणि उक्कस्साबाहा होदि, तेसु एगृणवण्णरादिदियमेत्तपरमाउदंसणादो। बीइंदिएसु चत्तारिवासाणि उक्कस्साबाहा होदि, तत्थ बारसवासमेत्तपरमाउदसणादो । बादरेइंदियपज्जत्तएसु सत्तसहस्सतिण्णिसदतेत्तीसवासाणि चत्तारिमासा च उक्कस्साबाहा होदि, तत्थ बावीससहस्समेत्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आयु कर्मकी क्रमशः पूर्वकोटिके तृतीय भाग, दो मास साधिक सोलह दिवस, चार वर्ष, और साधिक सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशपिण्ड प्रथम समयमें निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशपिण्ड द्वितीय समयमें निषिक्त है वह उससे विशेषहीन है, जो प्रदेशपिण्ड तृतीय समयमें निषिक्त है वह उससे विशेषहीन है, इस प्रकार उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग व पूर्वकोटि तक विशेषहीन विशेषहीन होता गया है ॥ १०९॥ ___असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आयुर्मकी आबाधा पूर्वकोटिके त्रिभाग प्रमाण होती है, क्योंकि, उनमें भुज्यमान आयु पूर्वकोटि प्रमाण पायी जाती है । चतुरिन्द्रिय जीवोंमें उसकी उत्कृष्ट आबाधा दोमास प्रमाण होती है, क्योंकि, उनमें सर्वोत्कृष्ट भुज्यमान आयु छह मास प्रमाण पायी जाती है। त्रीन्द्रिय जीवोंमें उत्कृष्ट आवाधा साधिक सोलह दिवस प्रमाण होती है, क्योंकि, उनमें उनचास दिवस प्रमाण उत्कृष्ट आयु देखी जाती है। द्वीन्द्रिय जीवोंमें चार वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आवाधा होती है, क्योंकि, उनमें बारह वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आयु देखी जाती है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंमें उत्कृष्ट आबाधा सात हजार तीन सौ तेतीस वर्ष व चार मास प्रमाण होती है, क्योंकि, उनमें बाईस हजार वर्ष १ प्रतिषु · माउअपुव्व ' इति पाठः। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ६, ११०. परमाउदंसणादो । एदाओ आबाहाओ वजिदूण पदेसरचणा कीरदि ति उत्तं होदि । पदेसविण्णासस्स आयामो पुण असण्णिपंचिंदियपजत्तएसु आउअस्स पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तो; तत्थ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तणिरयाउहिदीए बंधुवलंभादो । चउरिंदियादीणं आउअस्स पदेसविण्णासायामो पुव्वकोडिमेत्तो चेव, तत्थ एदम्हादो अहियबंधाभावादो । सेसं सुगमं । पंचिंदियाणमसण्णीणं चउरिदियाणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं बादरेइंदियअपज्जत्तयाणं सुहुमेइंदियपज्जत्तअपज्जत्तयाणं सत्तण्हं कम्माणमाउववज्जाणमंतोमुहत्तयाबाधं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं निसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण सागरोवमसदस्स सागरोवमपण्णासाए सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमस्स तिण्णिसत्तभागा, सत्त-सत्तभागा, बे-सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणया पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणया ति ॥ ११० ॥ प्रमाण उत्कृष्ट आयु देखी जाती है । इन आबाधाओं को छोड़कर प्रदेशरचना की जाती है, यह उक्त कथनका अभिप्राय है। परन्तु असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंमें आयु कर्म के प्रदेशविन्यासका आयाम पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि, उनमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण नारकायुका स्थितिबन्ध पाया जाता है । चतुरिन्द्रिय आदिक जीवोंके आयु कर्मके प्रदेशविन्यासका आयाम पूर्वकोटि प्रमाण ही है, क्योंकि, उनमें इससे अधिक स्थितिबन्धका अभाव है। शेष कथन सुगम है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक जीवोंके आयु कर्मसे रहित शेष सात कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र आबाधाको छोड़कर प्रथम समयमें जो प्रदेशपिण्ड निषिक्त है वह बहुत है, द्वितीय समयमें जो प्रदेशपिण्ड निषिक्त है वह उससे विशेषहीन है, तृतीय समयमें जो प्रदेशपिण्ड निषिक्त है वह उससे विशेषहीन है, इस प्रकार उत्कर्षसे सौ सागरोपम, पचास सागरोपम, पच्चीस सागरोपम और एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन तीन, सात और दो भाग तक विशेषहीन विशेषहीन होता चला गया है ॥ ११०॥ १ तातौ ' उक्कस्सेण [सागरोवमसहस्सस्स ] सागरोवम ' इति पाठः। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १११.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा [ २५३ एत्थ अपजत्तसद्दो असणिपंचिंदियादिसु पादेक्कमहिसंबंधणिजो, तस्संबंधेण विणा पउणरुत्तियप्पसंगादो । असण्णिपंचिंदियअपजत्तप्पहुडि जाव बीइंदियअपजत्तो त्ति ताव एदेसिं द्विदीयो पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण ऊणाओ। बादरेइंदियअपजत्त-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्ताणमुक्कस्साउहिदीयो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणसागरोवममेत्ताओ । सेसं सुगमं । एवमणंतरोवणिधा समत्ता । . परंपरोवणिधाए पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणं पज्जत्तयाणं अट्टणं कम्माणं जं पढमसमए पदेसग्गं तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा, एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव उक्कस्सिया हिदी ति ॥.१११ ॥ विसेसहीणकमेण गच्छंता णिसेगा किं कत्थ वि दुगुणहीणा जादा ति पुच्छिदे असंखेज्जगोवुच्छविसेसे गंवण दुगुणहीणा जादा त्ति जाणावणटुं परंपरोवणिधा आगदा । पढमाणसेगादो प्पहुडि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभाग गंतॄण दुगुणहीणा त्ति वयणेण कम्मटिदिअभंतरे असंखेजाओ दुगुणहाणीयो अस्थि त्ति णव्वदे । तं जहा--पलिदोवमस्स सूत्र में प्रयुक्त अपर्याप्त शब्दका सम्बन्ध असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदिक जीवोंमेंसे प्रत्येकके साथ करना चाहिये, क्योंकि, उसका सम्बन्ध न करनेसे पुनरुक्ति दोषका प्रसंग आता है। असंझी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकसे लेकर द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक तक इन जीवोंकी स्थितियाँ पल्योपमके संण्यातवें भागसे हीन हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक व अपर्याप्तक जीवोंकी उत्कृष्ट स्थितियाँ पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन सागरोपम प्रमाण हैं। शेष कथन सुगम है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। परम्परोपनिधाकी अपेक्षा संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आठ कर्मोंका जो प्रथम समयमें प्रदेशाग्र है उससे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर दुगुणहीन है, इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक दुगुणहीन दुगुणहीन होता चला गया है ॥ १११ ॥ विशेषहीनताके क्रमसे जाते हुए निषेक कहींपर दुगुण हीन भी हो जाते हैं अथवा नहीं होते हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तरमें कहते हैं कि असंख्यात गोपुच्छविशेष जाकर घे दुगुण हीन हो जाते हैं, इस बातके ज्ञापनार्थ परम्परोपनिधाका अवतार हुआ है। प्रथम निषेकसे लेकर पल्पोपमके असंख्यात बहुभाग जाकर दुगुण हीन होते हैं, इस वचनसे कर्मस्थितिके भीतर असंख्यात दुगुणहानियां हैं, यह जाना जाता है । यथा १ पल्लासंखियभागं गंतुं दुगुणूणमेवमुक्कोसा । नाणंतराणि पल्लस्स मूलभागो असंखतमो ॥ क. प्र. १,८४. २ अ-आ-का प्रतिषु 'भागे' इति पाठः। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १११. असंखेजदिभागं गंतूण ज़दि एगा दुगुणहाणिसैलागा लब्भदि तो कम्मट्टिदिअभंतरसंखेजपलिदोवमेसु केत्तियाओ दुगुणहाणिसलागाओ लभामो त्ति पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण कम्महिदीए ओवट्टिदाए पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो उवलब्भदि त्ति आबाधूणकम्महिदीए एगगुणहाणीए भागे हिदाए रूवणणाणागुणहाणिसलागाओ एक्किस्से गुणहाणिसलागाए असंखेजा भागा च आगच्छंति । कुदो ? णाणागुणहाणिसलागाहि कम्मट्टिदीए ओवट्टिदाए एगगुणहाणी आगच्छदि त्ति गुरुवदेसादो । तम्हा सव्वकम्माणं णाणागुणहाणिसलागाओ सच्छेदाओ होति । अद्धगुणहाणिणा आबाधाऊणकम्मट्ठिदीए ओवट्टिदाए जदि अच्छेदरासी आगच्छदि तो णाणागुणहाणिसलागाहि सयलकम्महिदीए ओवष्टिदाए सादिरेयगुणहाणिअद्धाणमागच्छदि । कुदो ? णाणागुणहाणिसलागाहि अहियाबाहाए ओवष्टिदाए एगरुवस्स असंखेदिमागुवलंभादो। ण च णाणागुणहाणिसलागाणं गुणहाणिअद्धाणस्स वा सच्छेदत्तं, तहोवएसाभावादो। तम्हा गुणहाणिणा आबाहूणेकम्महिदीए ओवट्टिदाए णाणागुणहाणिसलागाओ आगच्छंति । पुणो ताहि वि ताए ओवट्टिदाए एगगुणहाणिअद्धाणमागच्छदि त्ति घेत्तव्वं । एत्थ गुणहाणिअद्धाणं सव्वकम्माणमवहिदं । कुदो ? अण्णोण्णभत्थरासीणं विसरिसत्तब्भुवगमादो । तदो पल्पोपमके असंख्यातवें भाग जाकर यदि एक दुगुणहानिशलाका प्राप्त होती है तो कर्मस्थितिके भीतर असंख्यात पल्योपमोंमें कितनी दुगुणहानिशलाकायें प्राप्त होंगी, इस प्रकार पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कर्मस्थितिको अपवर्तित करनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है । अत एव आवाधासे हीन कर्मस्थितिमें एक गुणहानिका भाग देनेपर एक कम नानागुणहानिशलाकायें और एक गुणहानिशलाकाके असंख्यात बहुभाग आते हैं, क्योंकि, नानागुणहानिशलाकाओंका कर्मस्थितिमें भाग देनेपर एक गुणहानि लब्ध होती है, ऐसा गुरुका उपदेश है । इस कारण सब कमौकी नानागुणहानिशलाकायें सछेद होती हैं। अर्ध गुणहानिका आवाधासे हीन कर्मस्थितिमें भाग देनेपर यदि अछेद राशि प्राप्त होती है, (ऐसा अभीष्ट है) तो नानागुणहानिशलाकाओंका समस्त कर्मस्थितिमें भाग देनेपर साधिक गुणहानि अध्यान आता है, क्योंकि, नानागुणहानिशलाकाओंसे अधिक आवाधाको अपवर्तित करनेपर एक रूपका असंख्यातवां भाग पाया जाता है। परन्तु नानागुणहानिशलाकायें अथवा गुणहानिअध्वान सछेद नहीं हैं, क्योंकि, वैसा उपदेश नहीं है । इस कारण आबाधासे हीन कर्मस्थिति में गुणहानिका भाग देनेपर नानागुणहानिशलाकायें प्राप्त होती हैं । पश्चात् उनके द्वारा उसीको अपवर्तित करनेपर एक गुणहानि अध्वान आता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यहां सब कर्मोंका गुणहानिअध्वान अवस्थित है, क्योंकि, अन्योन्याम्यस्त राशियां विसदृश स्वीकार की गई हैं। .. १ ताप्रती 'एगा गुणहाणि-' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'आवाहाण' इति पाठः www.jainelibrary:org Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ११२.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणी [२५५ णामा-गोदणाणागुणहाणिसलागाहिंतो चदुण्णं कम्माणं णाणागुणहाणिसलागाओ दुभागाहियाओ । मोहणीयस्स णाणागुणहाणिसलागाओ आहुटगुणाओ । आउअस्स णाणागुणहाणिसलागाओ णामा-गोदणाणागुणहाणिसलागाणं संखेजदिभागमेतीयो। एवमसण्णीणमट्टण्णं कम्माणं पि तेरासियं काऊण णाणागुणहाणिसलागाओ उप्पाएयव्वाओ। असण्णीणमुक्कस्सहिदिबंधो' पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तो । गुणहाणिअद्धाणं पि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तं चेव । किंतु गुणहाणिअद्धाणादो असण्णीणं उक्कस्साउहिदिबंधो असंखेजगुणो त्ति एत्थ वि असंखेजाओ णाणागुणहाणिसलागाओ लन्भंति त्ति घेत्तत्वं । एवमसण्णिपंचिंदियपजत्तणाणावरणादीणं णाणागुणहाणिसलागाओ तेरासिएण आणेदव्वाओ। संपहि एत्य णाणागुणहाणिसलागाणं गुणहाणीए च पमाणपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं असंखेजाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि ॥ ११२ ॥ एत्य पलिदोवमस्स वग्गमूलमिदिवुत्ते पलिदोवमपढमवग्गमूलस्सेव गहणं कायव्वं, ण बिदियादीणं; पलिदोवमस्स वग्गमूले गहिदे पढमवग्गमूलस्सेव उप्पत्तिदंसणादो । ताणि च इस कारण नाम व गोत्रकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अपेक्षा चार कर्मे की नानागुणहानिशलाकायें द्वितीय भागसे अधिक हैं । मोहनीयकी नानागुणहानिशलाकायें उनसे साढेतीन गुणी हैं। आयुकर्मकी नानागुणहानिशलाकायें नाम-गोत्रकी नानागुणहानिशलाकाओंके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। इसी प्रकार असंज्ञी जीवोंके आठों कौकी नानागुणहानिशलाकाओंको त्रैराशिक करके उत्पन्न कराना चाहिये । असंशी जीवोंके आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। गुणहानिअध्वान भी पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है। किन्तु गुणहानिअध्वानसे असंज्ञी जीवोंके आयुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है, अतएव यहाँ भी असंख्यात नाना गुणहानिशलाकायें पायी जाती हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । इसी प्रकार असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके ज्ञानावरणादिक कमौकी नानागुणहानिशलाकाओंको त्रैराशिक द्वारा ले आना चाहिये। - अब यहां नानागुणहानिशलकाओं और गुणहानिके प्रमाणकी प्ररूपणाके लिये आगेका सूत्र कहते हैं एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है ॥११२॥ यहां ‘पल्योपमका धर्गमूल ' ऐसा कहनेपर पल्योपमके प्रथम वर्गमूलका ग्रहण करना चाहिये, द्वितीयादि वर्गमूलोंका नहीं; क्योंकि, पल्योपमके प्रथम वर्गमूलको ग्रहण करनेपर प्रथम वर्गमूलकी ही उत्पत्ति देखी जाती है। वे वर्गमूल असंख्यात हैं, क्योंकि, १अ-आ-काप्रतिषु'मुक्कस्साउद्विदिबंधो' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'उक्कस्साउद्विदिबंधो असंखेजगुणा ' इति पाठः। ३ एकस्मिन् द्विगुणवृद्धयोरन्तरे स्थितिस्थानानि पल्योपमवर्गमूलान्यसंख्येयानि। क. प्र. (मलय.) १,८८ muskan Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ j छक्खडागमे वेयणाखंडं . [४, २, ६, ११३. पढमवग्गमूलाणि असंखेज्जाणि, णाणागुणहाणिसलागाहि कम्महिदीए ओवट्टिदाए गुणहाणिपमाणुप्पत्तीदो। एसा गुणहाणी सव्वकम्माणं सरिसा; कम्मट्ठिदिभागहारभूदणाणागुणहाणिसलागाणं कम्मट्ठिदिपडिभागेण पमाणत्वलंभादो । णाणापदेसगुणहाणिटाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ११३ ॥ एत्थ मोहणीयस्स णाणागुणहाणिसलागाओ पलिदोवमस्स किंचूणद्धच्छेदणयमेत्ताओ। तं कधं णव्वदे ? चरिमगुणहाणिदव्वादो पढमणिसेयो असंखेजगुणो त्ति पदेसविरइयअप्पाबहुगादो । णाणावरणादीणं पुण णाणागुणहाणिसलागाओ पलिदोवमपढमवग्गभूलअद्धच्छेदणेहिंतो थोवाओ। कुदो ? एदाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थे कदे असंखेजपलिदोवमबिदियवग्गमूलुप्पत्तीदो। तं पि कुदो णव्वदे ? मोहणीयणाणागुणहाणिसलागाणं दो-तिष्णि-सत्तभागेसु विसेसाहियबिदियवग्गभूलछेदाणुवलंभादो। नानागुणहानिशलाकाओंका कर्मस्थितिमें भाग देने पर गुणहानिका प्रमाण प्राप्त होता है। यह गुणहानि सब कर्मोकी समान है, क्योंकि, कर्मस्थितिके भागहारभूत नानागुणहानिशलाकाओंका प्रमाण कर्मस्थितिप्रतिभागसे पाया जाता है।। .नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं॥११३॥ यहां मोहनीयकी नानागुणहानिशलाकायें पल्योपमके कुछ कम अर्धच्छेदोंके बराबर हैं। शंका-वह कैसे जाना जाता है ? समाधानवह ' अन्तिम गुणहानिके द्रव्यसे प्रथम निषेक असंख्यातगुणा है' इस प्रदेशविरचित अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। परन्तु शानावरणादिकोंकी नानागुणहानिशलाकायें पल्योपम सम्बन्धी प्रथम वर्गमूलके अर्धच्छेदोंसे स्तोक हैं, क्योंकि, इनका विरलन कर द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेपर पल्योपमके असंख्यात द्वितीय वर्गमूल उत्पन्न होते हैं। शंका-वह भी कहांसे जाना जाता है ? समाधान—चूंकि मोहनीयकी नानागुणहानिशलाकाओंके दो-तीन सात भागोंमें विशेष अधिक द्वितीय वर्गमूलके अर्धच्छेद पाये जाते हैं, अतः इसीसे उतने द्वितीय वर्गमूलोंकी उत्पत्तिका ज्ञान होता है। १नानाद्विगुणवृद्धिस्थानानि चांगुलवर्गभूलच्छेदनकासंख्येयतमभागप्रमाणानि । एतदुक्तं भवति.अंगुलमात्रक्षेत्रगतप्रदेशराशेर्यत् प्रथमं वर्गभूलं तन्मनुष्यप्रमाणहेतुराशिषण्णवतिच्छेदनविधिना तावच्छिद्यते यावद् भागं न प्रयच्छति । तेषां च छेदनकानामसंख्येयतमे भागे थावन्ति छेदकानि तावत्सु यावानाकाशप्रदेशराशिस्तावत्प्रभाणानि नानाद्विगुणस्थानानि भवन्ति । क. प्र. (मलय) १,८८. २ तापतौ ' पलिदोवमस्स बिदिय' इति पाठः। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, ११७.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि ॥ ११४ ॥ कुदो ? थोवूणपलिदोवमद्धच्छेदणयपमाणत्तादो थोवूणपलिदो वमपढमवग्गमूलच्छेद यत्तदो । एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ ११५ ॥ at गुणगारो ? असंखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणमपज्जत्तयाणं चउरिंदिय-तीइंदियबीइंदिय- एइंदिय- बादर - सुहुमपज्जत्तापज्जत्तयाणं सत्तण्णं कम्माणमाउववज्जाणं जं पढमसमए पदेसग्गं तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा, एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव उक्कस्सिया ट्ठिदिति ॥ ११६ ॥ एत्थ जधा सणिपज्जत्तणाणावरणादीणं परूवणा कदा तथा कायव्वा । णवरि एत्थ अपणो द्विदीर्ण पमाणं जाणिदूण वत्तव्वं । एयपदे सगुणहाणिट्टाणंतरमसंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि ॥ ११७ ॥ सुगमभेदं । [ २९७ नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं ॥ ११४ ॥ कारण यह कि वे पल्योपमके कुछ कम अर्धच्छेदों के बराबर होनेसे पल्योपमके प्रथम वर्गमूल के अर्धच्छेदोंसे कुछ कम हैं । एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ ११५ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल हैं । संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय बादर व सूक्ष्म इन पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवोंके आयुको छोड़ शेष सात कर्मोंका जो प्रदेशाय प्रथम समयमें है उससे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर वह दुगुणहीन हो जाता है, इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक वह दुगुणहीन दुगुणहीन होता जाता है ॥ ११६ ॥ यहां जैसे संज्ञी पर्याप्तकके ज्ञानावरणादिकोंकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही करना चाहिये । विशेषता इतनी है कि यहां अपनी स्थितियोंका प्रमाण जानकर कहना चाहिये । एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात वर्गमूलों के बराबर है ॥ ११७ ॥ यह सूत्र सुगम है । छ. ११-३२. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १९८० णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ११८ ॥ एदं पि सुगमं । णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि ॥ ११९ ॥ गुणहाणिणा कम्मट्टिदीए ओवट्टिदाए तेसिमुप्पत्तिदंसणादो। एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ १२० ॥ को गुणगारो ? असंखेजाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । एवं परम्परोवणिधा समत्ता। संपहि सेढिपरूवणाए सूचिदाणमवहार-भागाभाग-अप्पाबहुआणियोगद्दाराणं परवणं कस्सामो । तं जहा-सव्वासु हिदीसु पदेसग्गं पढमाए हिदीए पदेसपमाणेण केवचिरेण कालेण अवहिरिजदि ? दिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिजदि । एदस्स कारणं बुच्चदे । तं जहा—बिदियादिगुणहाणिदव्वे पढमगुणहाणिदव्वपमाणेण कदे चरिमगुणहाणि नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यात भाग प्रमाण है॥११८॥ यह सूत्र भी सुगम है। नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं ॥ ११९ ॥ कारण कि गुणहानि द्वारा कर्मस्थितिको अपवर्तित करनेपर उनकी उत्पत्ति देखी एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ १२० ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमके असंख्यात वर्गमूल हैं । इस प्रकार परम्परोपनिधा समाप्त हुई। __अब श्रेणिप्ररूपणा द्वारा सूचित अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-सब स्थितियोंका प्रदेशपिण्ड प्रथम स्थितिके प्रदेशपिण्डके प्रमाण द्वारा कितने कालसे अपहृत होता है ? उक्त प्रमाणके द्वारा वह डेंद गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है । इसका कारण बतलाते हैं । वह इस प्रकार है-द्वितीयादिक गुणहानियों के द्रव्यको प्रथम गुणहानिके द्रव्यप्रमाणसे करनेपर वह अन्तिम गुणहानिके द्रव्यसे रहित प्रथम गुणहानिका द्रव्य होता है। उसका प्रमाण यह है द्वि.गु. १२८ १२० ११२ १९४ ९६ ८८ जाती है। २ ६. २४० २४० प. " योग अन्तिम गुण. प्रथम गुण. | २५६ २४० २२४ २०८ १९२ १७६ १६० १४४ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १२०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे जिसेयपरूवणा [२५९ दव्वेणूणपढमगुणहाप्पिदव्वं होदि । तस्स पमाणमेदं २४० । २२५ । २१० । १९५ । १८०।१६५।१५०।१३५ । चरिमगुणहाणिदव्वपमाणमेदं १६ । १५।१४।१३। १२ । ११ । १०। ९ । एदम्मि दव्वे पुव्वदव्वम्हि पक्खित्ते पढमगुणहाणिदव्वपमाणं होदि । २५६ । २४०। २२४ । २०८ । १९२ । १७६ । १६० । १४४ । पुणो एदं पढमगुणहाणिदव्वं दोखंडे कादृण तत्थ एगखंडमधोसिरं करिय बिदियखंडपासे ठविदे एत्तियं होदि । २०० । २०० । २०० । २०० । २०० । २०० । २०० । २०० । एदस्स पमाणं पढमणिसेयस्स तिण्णि-चदुब्भागा सादिरेया । पुणो एत्थ सादिरेये अवणिदे सुद्धा पढमणिसेयस्स तिण्णि-चदुब्भागा चेव चेटुंति । तेसिं पमाणमेदं १९२ । १९२ । १९२ । १९२ । १९२ । १९२ । १९२ । १९२ । सादिरेयं पि एवं ८।८।८। ८।८।८।८।८ । पढमगुणहाणिदव्वे वि समकरणे कीरमाणे पढमणिसेगस्स तिण्णिचदुब्भागा सादिरेया होति । पुणो तेसु चदुब्भागे अवणिदे सेसं बे-चदुब्भागपमाणमेत्तियं होदि १२८ । १२८ । १२८ । १२८ । १२८ । १२८ । १२८ । १२८ । सेसचदुब्भागपमाणमेदं ६४ । ६४ । ६४। ६४ । ६४ । ६४ । ६४ । ६४ । पुणो इमं चदुब्भागं घेत्तूण पुचिल्लतिण्णि-चदुब्भागेसु पक्खित्ते गुणहाणिमेत्तपढमणिसेया होति । तेर्सि पमाणमेदं २५६ । २५६ । २५६ । २५६ । २५६ । २५६ । २५६ । २५६ । पुणो पढमणिसेयस्स अद्धाणि गुणहाणिमेत्ताणि अस्थि । ताणि पढमणिसेयपमाणेण कदे गुणहाणीए अद्धमत्ता पढमणिसेया होति । तेसिं पमाणमेदं २५६ । २५६ । २५६ । अन्तिम गुणहानिके द्रव्यका प्रमाण यह है । इस द्रव्यको पूर्व द्रव्यमें मिलानेपर प्रथम गुणहानिके द्रव्यका प्रमाण होता है । (संदृष्टिमें देखिये)। पुनः प्रथम गुणहानिके इस द्रक्ष्यके दो खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डको अधाशिर करके द्वितीय खण्डके पार्श्वमें स्थापित करनेपर इतना है-२००+२००+२००+२००+२००+२००+२००+२००-१६००। इसका प्रमाण प्रथम निषेकके तीन चतुर्थ भाग (३) से कुछ (८) अधिक होता है । इसमेंसे अधिकताके प्रमाणको कम कर देनेपर अवशिष्ट प्रथम निषेकके शुद्ध तीन चतुर्थ भाग ही रहते हैं(२००-८% ) १९२, १९२, १९२, १९२, १९२, १९२, १९२, १९२, साधिकताका भी प्रमाण यह है-८, ८, ८, ८, ८, ८, ८, ८। प्रथम गुणहानिके द्रव्यका भी समकरण करनेपर (१६००८-२००) यह प्रथम निषेकके साधिक (८) तीन चतुर्थ भाग प्रमाण होता है। फिर उनमेंसे एक चतुर्थ भागको अलग कर देनेपर शेष दो चतुर्थ भागोंका प्रमाण इतना होता है-[ १९२-६४=१२८=२५३४२ 1 १२८,१२८, १२८, १२८, १२८, १२८, १२८, १२८ । अवशेष चतुर्थ भागका प्रमाण यह है-६४, ६४, ६४, ६४, ६४, ६४, ६४, ६४ । अब इस चतुर्थ भागको ग्रहण करके पूर्वके तीन चतुर्थ भागोंमें मिला देनेपर गुणहानिके बराबर प्रथम निषेक होते हैं । उनका प्रमाण यह है-(१९२+६४२५६, २५६, २५६, २५६, २५६, २५६, २५६, २५६ । प्रथम निषेकके अर्ध भाग गुणहानिके बराबर अर्थात् आठ हैं (२४२४२४२४ २x२x२x२-२५६) । उनको प्रथम निषेकके प्रमाणसे करनेपर गुणहानिके अर्ध भाग प्रमाण Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] छक्खंडागमे वेयणाखंड . [४, २, ६, १२०. २५६ । पुणो एदे' गुणहाणिअद्धमत्तपढमणिसेगे घेत्तूण गुणहाणिमेत्तपढमणिसेगेसु पक्खित्तेसु दिवड्वगुणहाणिमेत्तपढमणिसेया होंति २५६ । १२ । पुणो सेसअधियदवे वि पढमणिसेयपमाणेण कदे तस्सद्धमेतं होदि १२८ । पुणो एदमप्पहाणं काढूण पढमणिसेगेण दिवगुणहाणीए गुणिदाए सव्वदव्वमेत्तियं होदि ३०७२ । पुणो एदम्हि दिवडगुणहाणीए १२ । भागे हिदे पढमणिसेयो आगच्छदि । एवं पढमणिसेयपमाणेण सव्वदव्वं दिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि त्ति सिद्धं । बिदियाए द्विदीए पदेसग्गपमाणेण सव्वहिदिपदेसग्गं केवचिरेण कालेण अवहिरिजदि ? सादिरेयदिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण । तं जहा—दिवड्वगुणहाणीयो विरलेदूण सव्वदव्वं समखंड कादूण दिण्णे एक्केक्कस्स रुवस्स पढमणिसेयपमाणं पावदि । पुणो हेट्ठा णिसेगभागहारं विरलेदूण उवरिमेगस्वधरिदं समखंडं कादृण दिण्णे विरलणवं पडि एगेग-गोवुच्छविसेसपमाणं पावदि । पुणो एदेण पमाणेण उवरिमसव्ववधरिदेसु अवणिदेसु दिवगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविसेसा अधिया होति । पुणो उव्वरिददव्वं पि दिवडगुणहाणिमेत्तबिदियणिसेयपमाणं होदि । पुणो अधियगोवुच्छविसेसे बिदियणिसेयपमाणेण कस्सामो। प्रथम निषेक होते हैं। उनका प्रमाण यह है--२५६, २५६, २५६, २५६ । पश्चात् गुणहानिके अध भाग प्रमाण इन प्रथम निषेकोंको ग्रहण करके गुणहानिके बराबर प्रथम निषेकोंमें मिला देनेपर डेढ़ गुणहानि प्रमाण प्रथम निषेक होते हैं-२५६४१२। अवशिष्ट अधिक द्रव्यको भी प्रथम निषेकके प्रमाणसे करनेपर वह उसके अर्ध भागके बराबर होता है १२८ । अब इसको गौण करके प्रथम निषेकसे डेढ़ गुणहानिको गुणित करनेपर सब द्रव्य इतना होता है-२५६४१२=३०७२ । इसमें डेढ़ गुणहानिका (१२) भाग देनेपर प्रथम निषेक प्राप्त होता है । इस प्रकार प्रथम निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्य डेढ़ गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है, यह सिद्ध होता है। द्वितीय स्थिति सम्बन्धी प्रदेशाग्रके प्रमाणसे सब स्थितियोंका प्रदेशपिण्ड कितनेकालसे अपहृत होता है ? वह साधिक डेढ़ गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है। यथा-डेढ गुणहानियोंको विरलित करके सब द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति प्रथम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है ( ३०७२-१२-२५६)। इसके नीचे निषेकभागहारका विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर विरलन अंकके प्रति एक एक गोपुच्छविशेषका प्रमाण प्राप्त होता है (२५६:१६=१६) । इस प्रमाणसे ऊपरकी सब एक अंकके प्रति प्राप्त राशियोंका अपनयन करनेपर डेढ़ गुणहानि प्रमाण गोपुच्छविशेष अधिक होते हैं (१६४१२-१९२)। अवशिष्ट द्रव्य भी डेढ़ गुणहानि मात्र द्वितीय निषेकके बराबर होता है (२४०x१२-२८८०)। १ ताप्रतौ 'एदेण' इति पाठः। २ ताप्रतौ 'एदं' इति पाठः। ३ प्रतिषु ' एवं ' इति पाठः। ४ आप्रतौ ' उवरिददव्वं', ताप्रतौ ' उवरि दन्वं' इति पाठः । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १२०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा [२६१ तं जहा-१६ । १५।१।१६ । १२ स्वणणिसेयभागहारमेत्तगोवुच्छविसेसे घेत्तण जदि एगं बिदियणिसेयपमाणं लब्भदि, तो दिवड्डगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविसेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए संदिट्ठीए चत्तारि पंचभागा होंति ४ । ५। पुणो एदं दिवड्डगुणहाणीसु सरिसच्छेदं' कादूण पक्खित्ते एत्तियं होदि ६४ । ५ । पुणो एदेण सव्वंदव्वे भागे हिदे बिदियणिसेगो आगच्छदि । तदियाए हिदीए पदेसग्गपमाणेण सव्वहिदिपदेसग्गं केवचिरेण कालेण अवहिरिअदि ? सादिरेयरूवाहियदिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिजदि १६ । १४ । १। १६ । २४ । दोवूणणिसेयभागहारमेत्तगोवुच्छविसेसेहिंतो जदि एगं तदियणिसेयपमाणं लभदि तो तिण्णिगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविसेसेसु केवडिए तदियणिसेगे लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवष्टिदाए एत्तियं होदि १। ५ । ७। पुणो एदम्मि दिवड्डगुणहाणिम्मि पक्खित्ते एत्तियं होदि ९६ । ७ पुणो एदेण सव्वदव्वे भागे हिदे तदियणिसेयो आगच्छदि । एवं जाणिदूण उवरि णेदव्वं जाव पढमगुणहाणीए अद्धं गदं ति। अब अधिक गोपुच्छविशेषोंको द्वितीय निषेकके प्रमाणसे करते हैं । यथा-एक कम निषेकभागहार प्रमाण गोपच्छविशेषोंको ग्रहण कर यदि एक द्वितीय निषेकका प्रमाण पाया जाता है, तो डेढ़ गुणहानि प्रमाण गोपुच्छविशेषोंमें कितना द्वितीय निषेकका प्रमाण प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर वह पाँच भागोंमेंसे चार भाग (६) प्रमाण होता है। . उदाहरण-यहां निषेकभागहारका प्रमाण १६ और गोपुच्छविशेषका प्रमाण भी १६ है; अतः निम्न प्रकार त्रैराशिक करनेपर उपर्युक्त प्रमाण प्राप्त होता है१२४६१-=( २४५४४)=१९२। पुनः इसको समच्छेद करके डेढ़ गुणहानियों में मिलानेपर इतना होता है-१५+३=६६। इसका सब द्रव्यमें भाग देने पर द्वितीय निषेक प्राप्त होता है-३०७२ ५ २४०।। __ तृतीय स्थिति सम्बन्धी प्रदेशाग्रप्रमाणसे सब स्थितियोंका प्रदेशपिण्ड कितने कालसे अपहृत होता है ? वह साधिक एक अंकसे अधिक डेढ़ गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है। दो रूपोंसे कम निषेकभागहार प्रमाण गोपुच्छविशेषोंसे यदि एक तृतीय निषेक प्राप्त होता है, तो तीन गुणहानियोंके बराबर गोपुच्छविशेषोंमें कितने तृतीय निषेक प्राप्त होंगे, इस प्रकार फलगुणित इच्छामें प्रमाणका भाग देनेपर इतना होता है उदाहरण-निषेकभागहार १६; गोपुच्छ १६, १६-२-१४, २४४=१७ । . इसको डेढ़ गुणहानियों में मिला देनेपर इतना होता है-१२+१.२ =-९६ । अब . इसका समस्त द्रव्यमें भाग देनेपर तृतीय निषेक आता है ३०७२: १२२४ । इस प्रकार जानकर प्रथम गुणहानिका अर्ध भाग समाप्त होने तक ले जाना चाहिये। .. १ ताप्रती ' सरिच्छेदं ' इति पाठः। २ प्रतिषु ६४ इति पाठः। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १२०. पुणो उवरिमणिसेयपमाणेण सव्वट्ठिदिपदेसग्गं केवचिरेण कालेण अवहिरिजदि ? गुणहाणिद्वाणंतरेण कालेन । तं जहा — दिवड गुणहाणिक्खेत्तं पढमणिसेगविक्खंभेण चत्तारि फालीयो कादूण पुणो तत्थ चउत्थफालिं घेत्तूण गुणहाणिअद्धपमाणेण तिण्णि खंडाणि कादूण परावत्तिय तिष्णं फालीणं पासे ठविदेसु बेगुणहाणीयो होंति अधवा, तेरासियकमेण आणेदव्वं । तं जहा - १६ । १२ । १ । १६ । १२ । ४ । णिसेयभागहारस्स तिष्णि-चदुब्भागमेत्तविसेसे घेत्तूण जदि एगं तदित्थणिसेयपमाणं लब्भदि तो आयामेण दिवङगुणहाणिविक्खंभेण णिसेयभागहारचदुब्भागमेत्तविसेसेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए गुणहाणीए अद्धमागच्छदि ४ । पुणो एदम्मि दिवङ्कगुणहाणिम्मि पक्खित्ते दोगुणहाणीयो भवंति १६ । पुणो एदाहि सव्वदव्वे भागे हिदे तदित्यणिसेयो आगच्छदि । तदुवरि भागहारे वुच्चमाणे सादिरेय-बे-गुणहाणीयो वत्तव्वाओ । एवं दव्वं जाव पढमगुणहाणिचरिमसमओ | M बिदियगुणहाणिपढमणिसेयपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिजमाणे केवचिरेण कालेण अवहिरिजदि ? तिण्ण गुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण । तं जहा - दिवङगुणहाणिक्खेत्तं ठविय अद्धेण उससे अग्रिम निषेकके प्रमाणसे सब स्थितियोंका प्रदेशाग्र कितने कालमें अपहृत होता है ? उक्त प्रमाणसे वह दोगुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है । यथाडेढ़ गुणहानि मात्र क्षेत्रकी प्रथम निषेकके विस्तारप्रमाणसे चार फालियां करके पश्चात् उनमें से चतुर्थ फालिको ग्रहण कर गुणहानिके अर्ध प्रमाणसे तीन खण्ड करके परिवर्तनपूर्वक तीन फालियोंके पार्श्व भाग में स्थापित करनेपर दो गुणहानियां होती हैं । (संदृष्ट मूलमें देखिये । ) अथवा, त्रैराशिकक्रमसे इसे ले आना चाहिये । यथा - निषेक भागहारके तीन चतुर्थ भाग मात्र विशेषोंको ग्रहण करके यदि वहांके एक निषेकका प्रमाण पाया जाता है, तो आयाम ( ? ) व डेढ़ गुणहानि विष्कम्भसे निषेकभागहारके चतुर्थ भाग मात्र विशेषों में वह कितना प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करने पर गुणहानिका अर्ध भाग आता है । फिर इसको डेढ़ गुणहानियोंमें मिलानेपर दो गुणहानियां (१६) होती हैं। इनका सब द्रव्य में भाग देनेपर वहांके निषेकका प्रमाण लब्ध होता है। उससे आगे के भागहारका कथन करनेपर साधिक दो गुणहानियां कहना चाहिये । इस प्रकार प्रथम गुणहानिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये । द्वितीय गुणहानि सम्बन्धी प्रथम निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्यको अपहृत करनेपर वह कितने कालसे अपहृत होता है ? उक्त प्रमाणसे वह तीन गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है । यथा— डेढ़ गुणहानि प्रमाण क्षेत्रको स्थापित करके (संदृष्टि मूलमें देखिये ) अर्ध Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १२०. ] · वेयणमहाहियारे वेयणकाल विहाणे णिसेयपरूवणां पाडिय बिदिअद्धस्वरि ठविदे तिण्णिगुणहाणीयो होंति । अधवा, दिवडगुणहाणीयो ठवेण एगगुणहाणि चडिय इच्छामो त्ति एगरूवं विरलिय बिगं करिय अण्णोन्मत्थे क उपरासिणा दिवगुणहाणीए गुणिदाए तिष्णिगुणहाणीयो होंति । २४ । पुणो दाहि सव्वदव्वे भागे हिदे बिदियगुणहाणीए पढमणिसेगो आगच्छदि । पुणो तिस्से चेव बिदियणिसेगपमाणेण सव्वदव्वं सादिरेयतिण्णिगुणहाणिट्ठाणंतरेण काले अवहिरिदि । तं जहा -- ८ । १५ । १ । ८ । २४ रूवूणणिसेयभागहारमेत्तगोच्छविसेसे घेत्तू जदि एगपक्खेवसलागा लब्भदि तो तिण्णिगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविसेसेहिंतो केवडियाओ पक्खेवसलागाओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एत्तियं होदि ८ । ५ । पुणो एदम्मि सरिसच्छेदं कादृण तिसुं गुणहाणीसु पक्खित्ते एत्तियं होदि १२८ । ५ । पुणो एदेण सव्वदव्वे भागे हिदे बिदियणिसेयो आगच्छदि । एवं [ दव्वं ] जाव विदियगुणहाणीए अद्धं गदं ति । तदो तणिसेयपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिजमाणे चत्तारिगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा — तिणिगुणहाणि - क्खेत्तं ठविय पुव्वं व चत्तारिफालीयो कादूण तत्थ तीहि फालीहि तदित्थणिसेओ होदि त्ति चउत्थफाली अधिया होदि । पुणो इममहियफालिं तप्पमाणेण कस्सामो-- ८ । १२ । २६३ भागसे फाड़कर द्वितीय अर्ध भागके ऊपर रखनेपर तीन गुणहानियां होती हैं । अथवा, डेढ़ गुणहानियोंको स्थापित करके चूंकि एक गुणहानि चढ़े हैं, अतः एक रूपका विरलन करके द्विगुणित कर परस्परमें गुणित करनेपर उत्पन्न राशिसे डेढ़ गुणहानिको गुणित करनेपर तीन गुणहानियां (२४) होती हैं । अब इनका सब द्रव्य में भाग देनेपर द्वितीय गुणहानिका प्रथम निषेक आता है । उसी (द्वितीय) गुणहानिके द्वितीय निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्य साधिक तीन गुणहानिस्थानान्तर कालसे अपहृत होता है । यथा - एक कम निषेकभागहार प्रमाण गोपुच्छविशेषोंको ग्रहणकर यदि एक प्रक्षेपशलाका प्राप्त है, तो तीन गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेषोंसे कितनी प्रक्षेपशलाकायें प्राप्त होंगी ? इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करने पर इतना होता है - २१६ | अब इसको समच्छेद करके तीन गुणहानियोंमें मिलानेपर इतना होता है - २४+६= 23 | इसका सब द्रव्यमें भाग देनेपर द्वितीय निषेक आता है - ३०७२÷१६ = १२० । इस प्रकार द्वितीय गुणहानिका अर्ध भाग समाप्त होने - तक ले जाना चाहिये । 1 पश्चात् उसके आगेके निषेकप्रमाणसे सब द्रव्यको अपहृत करनेपर वह चार गुणद्दानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है । यथा- तीन गुणहानि मात्र क्षेत्रको स्थापित कर पूर्वके ही समान चार फालियां करके उनमेंसे तीन फालियोंसे वहांका निषेक होता है । अतः चतुर्थ फालि अधिक है । अब इस अधिक फालिको उसके प्रमाणसे करते हैं १ अप्रतौ संदृष्टिरियमग्रे ' - भागहारमेत्त' इत्यतः पश्चादुपलभ्यते । २ ताप्रतौ ' ती ' इति पाठः । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १२.. १।८। ४ । २४ । णिसेगभागहारतिण्णि-चदुब्भागमेत्तगोवुच्छविसेसे घेत्तूण जदि एगो तदित्यणिसेगो लब्भदि तो एगफालिमत्तगोवुच्छविसेसेसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एत्तियं होदि ८ । पुणो एदम्मि तिहुँ गुणहाणीसु पक्खित्ते चत्तारिगुणहाणीयो होति ३२ । पुणो एदेण सव्वदव्वे भागे हिदे तदित्थणिसेयो होदि । एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव बिदियगुणहाणिचरिमणिसेयो ति। पुणो तदियगुणहाणिपढमणिसेयपमाणेण अवहिरिजमाणे छगुणहाणिहाणंतरपमाणेण अवहिरिजदि । तं जहा-तिण्णिगुणहाणिक्खेत्ते मज्झे पाडिय एगअद्धस्सुवरि बिदियअद्धे जोएदूण हविदे छगुणहाणीयो होति । अधवा, बेगुणहाणीओ चडिदाओ त्ति बे स्वे विरलिय विगं करिय अण्णोण्णभत्थे कदे चत्तारि रुवाणि उप्पाजंति । पुणो तेहि दिवड्डगुणहाणीए गुणिदाए भागहारो छगुणहाणिमेत्तो होदि ४८ । पुणो एदाहि सव्वदव्वे भागे हिदे इच्छिदणिसेयो आगच्छदि । पुणो तिस्से गुणहाणीए बिदियणिसेयपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिजमाणे सादिरेयछगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । एत्थ तेरासियकमेण लद्धपक्खेवरूवाणि ४८ । १५ । पुणो एदम्मि सरिसछेदं कादूण छसु गुणहाणीसु पक्खित्ते सादिरेयछगुणनिषेकभागहारके तीन चतुर्थ भाग मात्र गोपुच्छविशेषों को ग्रहण कर यदि वहांका एक निषेक प्राप्त होता है, तो एक फालि मात्र गोपुच्छविशेषोंमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर इतना होता है-८। इसको तीन गुणहानियों में मिलानेपर चार गुणहानियां होती हैं-२४+८=३२ । इसका सब द्रव्यमें भाग देनेपर वहांका (द्वि० गु० हा० का पांचवां ) निषेक होता है-३०७२-३२१६। इस प्रकार जानकर द्वितीय गुणहानिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये। , तृतीय गुणहानि सम्बन्धी प्रथम निषेकके प्रमाणसे सब द्रब्यको अपहृत करनेपर बह छह-गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है । यथा-तीन गुणहानि प्रमाण क्षेत्रको मध्यमें फाड़कर एक अर्ध भागके ऊपर द्वितीय अर्ध भागको जोड़कर स्थापित करनेपर छह गुणहानियां होती हैं। अथवा, चूंकि दो गुणहानियां चढे हैं अतः दो अंकोंका विरलन करके दुगुणा कर परस्पर गुणित करनेपर चार अंक उत्पन्न होते हैं । पश्चात् उनके द्वारा डेढ़ गुणहानियोंको गुणित करनेपर भागहार छह गुणहानि प्रमाण होता है-१२४४-४८ =८४६ । इनका सब द्रव्यमें भाग देनेपर अभीष्ट निषेक प्राप्त होता है-२०७२:४८६४। . ___ उक्त गुणहानिके द्वितीय निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्यको अपहृत करनेपर वह साधिक छह गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है। यहां त्रैराशिकक्रमसे प्राप्त प्रक्षेप अंक ये हैं-१६। इनको समच्छेद करके छह गुणहानियोंमें मिलाने पर साधिक १ ताप्रतौ ' तीसु' इति पाठः। २ अ-आ-ताप्रतिषु ' सव्वदव्वेण ' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'लोएदूण' इति पाठः। , Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १२०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा [ २६५ हाणीयो होति । ७६८ । १५' । पुणो एदाहि सव्वदव्वे भागे हिदे बिदियणिसेयो आगच्छदि । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अग्गट्ठिदिभागहारो त्ति । णवरि अग्गट्ठिदिभागहारो अंगुलस्स असंखेजदिभागो असंखेजओसप्पिणि-उस्सप्पिणिमेत्तो। तस्स पमाणमेदं ३०७२ । ९ । एदेण समयपबद्धे भागे हिदे चरिमणिसेयो आगच्छदि । एवं भागहारपरूवणा समत्ता । पढमाए हिदीए पदेसग्गं सव्वहिदिपदेसग्गस्स केवडियो भागो ? असंखेजदिभागो, दिवड्डगुणहाणीए खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तं ति वुत्तं होदि । एवं णेदव्वं जाव पढमगुणहाणिचरिमणिसेगो त्ति । बिदियगुणहाणिपढमणिसेगो सव्वढिदिपदेसग्गस्स केवडिओ भागो ? असंखेजदिभागो। को पडिभागो ? तिण्णि गुणहाणीयो । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव चरिमगुणहाणिचरिमणिसेगो त्ति । एवं भागाभागपरूवणा समत्ता।। सव्वत्थोवं चरिमाए हिदीए पदेसग्ग ९ । पढमाए हिदीए पदेसग्गमसंखेजगुणं । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ता किंचूणण्णोण्णभत्थरासी। तस्स पमाणमेदं २५६ । ९ । एदेण चरिमणिसेगे गुणिदे पढमणिसेगो होदि । २५६ । छह गुणहानियां होती हैं--१६ +६= १६६६ ५१६ । इनका सब द्रव्यमें भाग देनेपर तृतीय गुणहानिका द्वितीय निषेक आता है-३०७२ १५ = ६० । इस प्रकार जानकर अग्रस्थिति भागहार तक ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि अग्रस्थिति भागहार अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है जो असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणियोंके बराबर है। उसका प्रमाण यह है - 3०७२ । इसका समयप्रबद्धमें भाग देनेपर अन्तिम निषेक प्राप्त होता है-३०७२: ३०९७२- = ९| इस प्रकार भागहार प्ररूपणा समाप्त हुई। प्रथम स्थितिका प्रदेशपिण्ड समस्त स्थितियोंके प्रदेशपिण्डके कितने भाग प्रमाण है ? उनके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। समस्त स्थितियोंके प्रदेशपिण्डमें डेढ़ गुणहानिका भाग देनेपर जो प्राप्त हो (३०७२-१२-२५६) उतने मात्र यह है, यह उसका अभिप्राय है। इस प्रकार प्रथम गुणहानिके अन्तिम निषेक तक ले जाना चाहिये । द्वितीय गुणहानिका प्रथम निषेक समस्त स्थितियों के प्रदेशपिण्डके कितनेवें भाग प्रमाण है ? वह उसके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? प्रतिभाग तीन गुणहानियां हैं। इस प्रकार जानकर अन्तिम गुणहानिके अन्तिम निषेक तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार भागाभाग प्ररूपणा समाप्त हुई। । ___अन्तिम स्थितिका प्रदेशपिण्ड सबसे स्तोक (९) है। प्रथम स्थितिका प्रदेशपिण्ड उससे असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि है। उसका प्रमाण यह है-३५६। इसके द्वारा अन्तिम १अ-आ-ताप्रतिषु ७६८ । ५ । एवंविधात्र संदृष्टिरस्ति । २ अप्रतो 'भागो असंखेज्जाओसप्पिणि'. आ-काप्रत्योः 'भागो असंखेज्जासंखेज्जओसप्पिणि', ताप्रती 'भागो असंखेज्जाओ [ संखेज्जाओ ] ओसप्पिणि ! इति पाठः। ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ३०७३ इति पाठः। ४ का-ताप्रत्योः २५६ । ४ । एवंविधान संदृष्टिरस्ति। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १२१. अजहण्णअणुक्कस्सदव्वमसंखेजगुणं । को गुणगारो? सादिरेगेगरूवपरिहीणदिवडगुणहाणी । किं कारणं ? रूवूणदिवड्डगुणहाणिसलागाहि पढमणिसेगे गुणिदे पढमणिसेयवदिरित्तउवरिमसवहिदिदव्वं होदि २८१६ । पुणो एदम्मि चरिमहिदिदन्वेण विणा इच्छिन्जमाणे रूखूणदिवडगुणहाणीए एगरूवस्स असंखेजदिभागमवणिय पढमणिसेगे गुणिदे अजहण्णअणुक्कस्सदव्वं होदि २८०७ । अपढमं विसेसाहियं । केत्तियमेत्तो विसेसो ? उक्कस्सहिदिदव्वमेत्तो २८१६ । अणुक्कस्सं विसेसाहियं । केत्तियमेत्तो विसेसो ? चरिमणिसेगेणूणपढमणिसेगमेत्तो। सव्वासु हिदीसु पदेसग्गं विसेसाहियं । केत्तियमेत्तेण ? चरिमहिदिदव्वमेत्तेण । एवं णिसेयपरूवणा समत्ता। आबाधकंदयपरूवणदाए ॥ १२१ ॥ किमट्ठमाबाधकंदयपरूवणा आगदा ? किं सवहिदिबंधट्टाणेसु एक्का चेव आबाहा होदि, आहो अण्णण्णा होदि त्ति पुच्छिदे एवं होदि त्ति जाणावणट्ठमाबाहाकंदयपरूवणा निषेकको गुणित करनेपर प्रथम निषेक होता है --२५६४९ = २५६ । उससे अजघन्यानुत्कृष्ट द्रव्य असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? गुणकार साधिक एक अंकसे हीन डेढ़ गुणहानियां हैं। शंका-इसका कारण क्या है ? समाधान- इसका कारण यह है कि एक कम डेढ़गुणहानिशलाओंसे प्रथम निषेकको गुणित करनेपर प्रथम निषेकसे रहित अग्रिम सब स्थितियोंके द्रव्यका प्रमाण होता है-[२५६४(१२-१)=२८१६ (३०७२-२५६)]। __ अब यदि यह द्रव्य अन्तिम स्थितिके द्रव्यसे रहित अभीष्ट है, तो एक कम डेढ़ गुणहानिमेंसे एक अंकके असंख्यातवें भागको घटाकर शेषसे प्रथम निषेकको गुणित करनेपर अजघन्यअनुत्कृष्ट द्रव्यका प्रमाण होता है-१२-१=११, ११-३५-१०३२४, २५६४३६ = २८०७। इसकी अपेक्षा प्रथम स्थितिसे हीन सब द्रव्य विशेष अधिक है। विशेष कितना है ? वह उत्कृष्ट अर्थात् अन्तिम स्थितिके द्रव्यके बराबर है--२८०७+९=२८१६ । इससे अनुत्कृष्ट द्रव्य विशेष अधिक है। विशेष कितना है? वह अन्तिम निषेकसे हीन प्रथम निषेकके बराबर है-(२५६-९-२४७, २८१६+२४७-३०६३)। इससे सब स्थितियों में प्रदेशाग्र विशेष अधिक है। कितने मात्र विशेषसे वह अधिक है ? वह अन्तिम स्थितिके द्रव्यप्रमाणसे अधिक है-(२०६३+९-३०७२)। इस प्रकार निषेकप्ररूपणा समाप्त हुई। आबाधाकाण्डक प्ररूपणाका अधिकार है ॥ १२१ ॥ शंका-आबाधाकाण्डक प्ररूपणाका अवतार किसलिये हुआ है ? समाधान-सब स्थितिबन्धस्थानोंमें क्या एक ही आबाधा है, अथवा अन्य-अन्य हैं,ऐसा पूछने पर 'इस प्रकारकी आबाधा व्यवस्था है' यह जतलानेके लिये आबाधाकाण्डक प्ररूपणाका अवतार हुआ है। १ अ-आ-काप्रतिषु 'अण्णोण्णा', ताप्रती ' अण्णा ण' इति पाठ । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १२२.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे आबाधाकंडयपरूवणा [२६७ आगदा । एत्य तिण्णि अणियोगद्दाराणि परूवणा पमाणमप्पाबहुअं चेव । पमाणप्पायहुआणं संभवो होदु णाम, सुत्तसिद्धत्तादो। सुत्तम्मि असंतीए परूवणाए कधमेत्य संभवो ? ण एस दोसो, परूवणाए विणा पमाणप्पाबहुआणमणुववत्तीदो। तत्थ ताव सुत्तेण सूचिदपरूवणा बुच्चदे । तं जहा–चोदसण्णं जीवसमासाणं अत्थि आबाहाकंदयाणि आबाहाहाणाणि च । आबाहाकंदयपवणाए कधमाबाहट्ठाणाणि वुच्चंति ? ण, आबाहाकंदयपरूवणाए आबाहट्ठाणाविणाभावेण देसामासियत्तमावण्णाए आबाहट्ठाणपरूवणं पडि विरोहाभावादो । पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणं चउरिंदियाणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं एइंदियबादर-सुहुम-पजत्त-अपज्जत्तयाणं सत्तण्णं कम्माणमाउववज्जाणमुक्कस्सियादो द्विदीदो समए समए पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तमोसरिदूण एयमाबाहाकंदयं करेदि । एस कमो जाव जहणिया द्विदि त्ति' ॥ १२२॥ समए समए इदि वुत्ते आबाधाए एगेगसमए इदि ,वृत्तं होदि । उक्कस्साबाहाए इस आबाधाकाण्डकप्ररूपणामें तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । शंका-प्रमाण और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारोंकी सम्भावना भले ही हो, क्योंकि, वे सूत्रसे सिद्ध हैं । परन्तु सूत्र में न पाये जानेवाले प्ररूपणा अनुयोगद्वारकी सम्भावमा यहां कैसे हो सकती है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्ररूपणाके बिना प्रमाण और अल्प. बहत्वका कथन बन ही नहीं सकता। उनमें पहिले सूत्रसे सूचित प्ररूपणा अनुयोगद्वारका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है-चौदह जीवसमासोंके प्रावधाकाण्डक और आवाधास्थान दोनों हैं। शंका-आबाधाकाण्डकप्ररूपणामें आवाधास्थानोंका कथन क्यों किया जा रहा है ? समाधान-नहीं, क्योंकि आबाधाकाण्डकप्ररूपणाका आबाधास्थानप्ररूपणाके साथ अविनाभाव सम्बन्ध है, अतः आबाधास्थानप्ररूपणाके प्रति देशामर्शक भावको प्राप्त हुई आबाधाकाण्डकपणामें आबाधास्थानोंका कथन करना विरुद्ध नहीं है। ___ संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और बादर व सूक्ष्म एकेन्द्रिय इन पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके आयुको छोड़ शेष सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे समय समयमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र नीचे उतर कर एक आबाधाकाण्डकको करता है। यह क्रम जघन्य स्थिति तक है ॥ १२२॥ . सूत्रमें 'समए समए' ऐसा कहनेसे आवाधाके एक एक समयमें, ऐसा अभिप्राय १ मोत्तूण आउगाई समए समए अबाहहाणीए । पल्लासंखियभागं कंडं कुण अप्पबहुमेसि ॥ क. प्र. १, ८५. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ६, १२२ चरिमसमए णिरुद्ध उक्कस्सहिदीदो हेट्ठा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तमोसरिदूण एयमाबाहाकंदयं करेदि । आबाहचरिमसमयं णिरुभिदूण उक्कस्सियं हिदि बंधदि । तत्तो समऊणं पि बंधदि । एवं दुसमऊणादिकमेण णेदव्वं जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेगुणहिदि त्ति । एवमेदेण आबाहाचरिमसमएण बंधपाओग्गद्विदिविसेसाणमेगमाबाहाकंदयमिदि सण्णा त्ति वुत्तं होदि। आबाधाए दुचरिमसमयस्स णिरुंभणं कादृण एवं चेव बिदियमाबाहाकंदयं परुवेदव्वं । आबाहाए तिचरिमसमयणिरुंभणं कादृण पुवं व तदिओ आबाहाकंदओ पवेदव्यो। एवं णेयव्वं जाव जहणिया हिदि त्ति । एदेण सुत्तेण एगाबाहाकंदयस्स पमाणपरूवणा कदा । ___संपहि देसामासियत्तमावण्णेण एदेण सुत्तेण सूचिदाणमाबाहहाणाणमाबाहाकंदयसलागाणं च पमाणपरूवणा कीरदे । तं जहा— सण्णिपंचिंदियपज्जत्ताणमाबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि संखेजवासमेत्ताणि । सण्णिपंचिंदियअपजत्ताणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि अंतोमुहुत्तमेत्ताणि । असण्णिपंचिंदिय-चउरिंदिय-तीइंदिय समझना चाहिये । उत्कृष्ट आवाधाके अन्तिम समयकी विवक्षा होनेपर उत्कृष्ट स्थितिसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र नीचे उतर कर एक आबाधाकाण्डकको करता है। आबाधाके अन्तिम समयको विवक्षित करके उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है। उससे एक समय कम भी स्थितिको बांधता है । इस प्रकार दो समय कम इत्यादि क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे रहित स्थिति तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार आबाधाके इस अन्तिम समयमें बन्धके योग्य स्थितिविशेषोंकी एक आबाधाकाण्डक संज्ञा है, यह अभिप्राय है। आबाधाके द्विचरम समयकी विवक्षा करके इसी प्रकारसे द्वितीय आबाधाकाण्डककी प्ररूपणा करना चाहिये । आवाधाके त्रिचरम समयकी विवक्षा करके पहिलेके ही समान तृतीय आबाधाकाण्डककी प्ररूपणा करना चाहिये। इस प्रकार जघन्य स्थिति तक यही क्रम जानना चाहिये। इस सूत्रके द्वारा एक आबाधाकाण्डकके प्रमाणकी प्ररूपणा की गई है। अब देशमार्शक भावको प्राप्त हुए इस सूनके द्वारा सूचित आबाधास्थानों और आबाधाकाण्डकशलाओंके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है-संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही संख्यात वर्ष प्रमाण हैं। संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हैं । असंही पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय [ पर्याप्तक अपर्याप्त ] १ ताप्रतौ ' समऊणं बंधदि ' इति पाठः। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १२२.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे आबाधाकंडयपरूवणा [२६९ बीइंदियाणमट्टण्हं जीवसमासाणमाबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयसलगाओ च आवलियाए संखेजदिभागमेत्ताणि । चदुण्णमेइंदियाणं आबाहहाणाणि आबाहाकंदयाणि च आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ताणि। आउअस्स आबाहाकंदयपरूवणा किमट्ट ण कदा ? ण एस दोसो, आउअस्स इमा हिदी एदीए चेवे आबाहाए बज्झदि त्ति णियमाभावादो। पुवकोडितिभागमाबाहं काऊण तेत्तीसाउअंबंधदि, समऊणतेत्तीसं पि बंधदि, एवं दुसमऊण-तिसमऊणादिकमेण पुवकोडितिभागाबाहं धुवं कादृण णेदव्वं जाव बंधखुद्दाभवग्गहणं ति । पुणो एदे चेव आउवबंधवियप्पा पुवकोडितिभागे समऊणे आबाधत्तणेण णिरुद्धे वि होति । एवं दुसमऊणादिकमेण णेदव्वं जाव असंखेयद्धा त्ति.। जेणेवमणियमो तेण आउअस्स आबाहाकंदयपरूवणा ण कदा। ण च आबाहाकंदयाणि णत्यि त्ति आबाहहाणाणमसंभवो, तदभावे लिंगाभावादो । तदो आउअस्स णत्थि आबाहाकंदयाणि त्ति सिद्धं । इन आठ जीवसमासोंके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डकशलाकायें आवलीके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । चार एकेन्द्रिय जीवोंके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक आवलीके असंख्यात भाग प्रमाण हैं। शंका- यहां आयु कर्मके आवाधाकाण्डकोंकी प्ररूपणा किसलिये नहीं की गई ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, कारण कि आयुकी यह स्थिति इसी आबाधामें बंधती है, ऐसा कोई नियम नहीं है। पूर्वकोटिके त्रिभागको आबाधा करके तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुको बांधता है, एक समय कम तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुको भी बांधता है। इस प्रकार पूर्वकोटिके त्रिभाग रूप आबाधाको ध्रुव करके दो समय कम, तीन समय कम इत्यादि क्रमसे बन्ध क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण स्थिति तक ले जाना चाहिये। पूर्वकोटिके एक समय कम विभागको आबाधा रूपसे विवक्षित करने पर भी ये ही आयुबन्धके विकल्प होते हैं। इसी प्रकार दो समय कम, तीन समय कम इत्यादि क्रमसे असंख्येयाद्धा काल प्रमाण आबाधा तक ले जाना चाहिये । जिस कारण यहां कोई ऐसा नियम नहीं है, इसीलिये आयुके आवाधाकाण्डकोंकी प्ररूपणा नहीं की गई। आबाधाकाण्डक चूंकि नहीं हैं, इसलिये आवाधास्थान असम्भव हों; ऐसी कोई बात नहीं है, क्योंकि, उनके अभावमें कोई हेतु-नहीं है । इस कारण आयुके आवाधाकाण्डक नहीं हैं, यह सिद्ध है। ... १ आप्रती ' असंखे०', ताप्रती ' असंखे० ' इति पाठः। २ ताप्रतौ 'इमा द्विदीए चेव' इति पाठः। ३ अ-आ-काप्रतिषु 'दुसमऊणा' इति पाठः। ४ अ-आ-ताप्रतिषु पुव्वकोडिभागे' इति पाठः। ५ ताप्रतो' दुसमयादि-इति पाठः। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड . [४, २, ६, १२३ एत्थ अप्पाबहुगपरूवणा किण्ण कीरदे ? ण एस दोसो, उवरि भण्णमाणअप्पाबहु आणियोगद्दारेण तदवगमादो । एवमाबाधाकंदयपवणा समत्ता । अप्पाबहुएत्ति ॥ १२३ ॥ जं तं चउत्थमणियोगद्दारमप्पाबहुगमिदि तं' वत्तइस्सामो त्ति भणिदं होदि । पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइट्टीणं पज्जत्तापज्जत्ताणं सत्तण्हं कम्माणमाउववज्जाणं सव्वत्थोवा जहणिया आवाहो ॥ १२४ ॥ कुदो ? संखेजावलियमेत्ता होदृण अंतोमुहुत्तपमाणत्तादो। आवाहट्टाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेज्जगुणाणि ॥ १२५॥ कुदो ? जहण्णाबाधादो उक्कस्साबाहा संखेजगुणा, तेण आबाहट्ठाणाणि वि शंका-यहां अल्पबहुत्वप्ररूपणा क्यों नहीं की जाती है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उसका ज्ञान आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारसे हो जाता है । इस प्रकार आवधाकाण्डक प्ररूपणा समाप्त हुई। अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारका अधिकार है ॥ १२३ ॥ जो वह चौथा अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है उसको कहते हैं, यह अभिप्राय है। संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक व अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीवोंके आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोंकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है ॥ १२४ ॥ इसका कारण यह है कि उक्त आबाधा संख्यात आवली प्रमाण हो करके अन्तर्मुहूर्त मात्र है। आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं ॥ १२५ ॥ चूंकि जघन्य आवाधाकी अपेक्षा उत्कृष्ट आवाधा संख्यातगुणी है, इसीलिये आवाधास्थान भी उससे संख्यातगुणे ही हैं। शंका-कैसे? आप्रती तं' इति नोपलभ्यते। २एतेषां दशाना स्थानानामल्पबहुत्वमुच्यते--तत्र संज्ञिपंचेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु अपर्याप्त केषु वा बन्धकेषु आयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणां सर्वस्तोका जघन्याबाधा (१)। सा च हितप्रमाणा। क. प्र. (मलय. टीका) १,८६. ३ आप्रतो'च तुल्लाणि दो वि संखेज्जगुणाणि, इति पाठः। ततोऽबाधास्थानानि कंडकस्थानानि चासंख्येयगुणानि । तानि तु परस्परं तुल्यानि । तथाहिबधन्यामबाधामादि कृत्वोत्कृष्टाऽबाधाचरमसमयमभिव्याप्य यावन्तः समयाः प्राप्यन्ते तावन्त्यबाधास्थानानि भवन्ति । तद्यथा-जघन्याऽबाधा एकमबाधास्थानम् । सैव समयाधिका द्वितीयम् । द्विसमयाधिका तृतीयम् । एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टाबाधाचरमसमयः । एतावन्त्येव चाबाधाकंडकानि, जघन्याबाधात आरभ्य समयं समयं प्रति कंडकस्य प्राप्यमाणत्वात् । एतच्च प्रागेवोक्तम् (२-३)। क. प्र. (म.टी.) १,८६. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १२८.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे.अप्पाबहुअपरूवणा [ २७१ संखेजगुणाणि चेव । कथं ? समऊणजहण्णाबाहाए उक्कस्साबाहादो सोहिदाए आबाहहाणुप्पत्तीदो । कधमाबाहट्ठाणेहि आबाहाकंदयसलागाणं सरिसत्तं ? ण एस दोसो, एगेगाबाहट्ठाणस्स पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तहिदिबंधट्ठाणाणमाबाहाकंदयसण्णिदाणं उवलंभेण समाणत्ता। उक्कस्सिया आवाहा विसेसाहियां ॥ १२६ ॥ केत्तियमेत्तेण ? समऊणजहण्णाबाहमेत्तेण । णाणापदेसगुणहाणिट्टाणंतराणि असंखेज्जगुणाणिं ॥१२७॥ कुदो ? उक्कस्साबाहाओ संखेज्जावलियमेत्ताओ होदृण सण्णीसु पजत्तएसु संखेजवस्साणि अपजत्तएसु अंतोमुहुत्तं होति । णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि पुण असंखेजवस्साणि होदृण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ताणि । तेण उक्कस्सआबाहादो णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि असंखेजगुणाणि त्ति जुजदे। . एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ १२८॥ समाधान- क्योंकि, उत्कृष्ट आबाधामेंसे एक समय कम जघन्य आबाधाको घटा देनेपर आबाधास्थानोंकी उत्पत्ति होती है। . शंका-आवाधास्थानोंसे आबाधाकाण्डकशलाकायें समान कैसे हैं? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक एक आबाधास्थान सम्बन्धी जो पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिबन्धस्थान हैं उनकी आबाधाकाण्डक संज्ञा है अत एव उनके समानता है ही। उनसे उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है ॥ १२६ ॥ शंका-वह कितने प्रमाणसे अधिक है ? समाधान-वह एक समय कम जघन्य आवाधाके प्रमाणसे अधिक है। नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं ॥ १२७॥ कारण कि उत्कृष्ट आबाधायें संख्यात आवली प्रमाण हो करके संशी पर्याप्तक जीवों में संख्यात वर्ष और अपर्याप्तकोंमें अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती हैं । परन्तु नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यात वर्ष प्रमाण हो करके पल्योंपमके असंख्यातवें भाग मात्र हैं। अतएव उत्कृष्ट आबाधाकी अपेक्षा नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरोंका असंख्यातगुणा होना उचित ही है। एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ १२८ ॥ १ तेभ्य उत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका, जघन्याबाधायास्तत्र प्रवेशात् (४)। क. प्र.(म.टी.) १,८६. २ ततो दलिकनिषेकविधौ द्विगुणहानिस्थानानि असंख्येयगुणानि, पल्योपमप्रथमवर्गमूलासंख्येयभागगतसमयप्रमाणस्वात् (५)। क.प्र. (म.टी.)१,८६. ३ तत एकस्मिन् द्विगुणहान्योरन्तरे निषेकस्थानान्यसंख्येयगुणानि, तेषामसंख्येयानि पल्योपमवर्गमूलानि परिमाणमितिं कृत्वा (६)। क. प्र. (म. टी.) १,८६. .. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड कुदो ? असंखेजपलिदोवमपढमवग्ग मूलपमाणत्तादो । एयमाबाहा कंदयमसंखेज्जगुणं ॥ १२९ ॥ णाणापदेसगुणहाणिसला गाहि असंखेजवस्सपमाणाहि कम्मट्ठिदीए ओवट्टिदाए एयपदेस गुणहाणिट्ठाणंतरमागच्छदि । उक्कस्साबाहाए संखेज्जवस्समेत्ताए अंतोमुहुत्तमेत्ताए च सग-सगुक्कस्सट्ठिदीए ओवट्टिदाए जेणेगमाबाहा कंदयपमाणं होदि, तेणेगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरादो एगमाबाहाकंदयमसंखेज्जगुणमिदि घेत्तव्वं । २७२ ] जहण्णओ द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो ॥ १३० ॥ एगमाबाहाकंदयं णाम पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, जहण्णट्ठिदिबंधो पुण अंतोकोडाको डिमेत्तसागरोवमाणि । तेण एगाबाहाकंदयादो जहण्णओ द्विदिबंधो असंखेजगुण दो। ठिदिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥ १३१ ॥ जदिबंधादो उक्कस्सट्ठिदिबंधो जेण संखेजगुणो तेण द्विदिबंधट्ठाणाणि वि क्योंकि, वे पत्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलोंके बराबर हैं । एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है ॥ १२९ ॥ [ ४, २, ६, १२९. असंख्यात वर्ष प्रमाण नानाप्रदेशगुणहानिशलाकाओंका कर्मस्थितिमें भाग देनेपर एक गुणहानिस्थानान्तर लब्ध होता है । संख्यात वर्ष मात्र व अन्तर्मुहूर्त मात्र उत्कृष्ट आबाधाका अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देनेपर चूंकि एक आबाधाकाण्डकका प्रमाण होता है, अत एव एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरकी अपेक्षा एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है ॥ १३० ॥ चूंकि एक आबाधाकाण्डक पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, परन्तु जघन्य स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ि सागरोपमों प्रमाण है; अत एव एक आबाधाकाण्डककी अपेक्षा जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा हो जाता है । स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ १३१ ॥ चूंकि जघन्य स्थितिबन्धकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है, अतः उससे १ तेभ्योऽपि अर्थेन कंडक - [पंचसंग्रहे पुनरेतस्य स्थानेऽवाघाकंडकमित्येतदेवोपलभ्यते ] मसंख्येयगुणम् ( ७ ) । क.प्र. ( म. टी. ) १,८६. २ तस्माज्जन्यः स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुगः, अन्तः सागरोपमकोटी कोटी प्रमाणत्वात् । संज्ञिपंचेन्द्रिया हि श्रेणिमनारूढा जघन्यतोऽपि स्थितिबन्धमन्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणमेव कुर्वन्ति ( ८ ) । क. प्र. ( म. टी. ) १,८६. ३ ततोऽपि स्थितिबन्धस्थानानि संख्येयगुणानि ( ९ ) । क. प्र. ( म. टी. ) १,८६. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १३५. ] वेयणमहा हियारे वेयणकाल विहाणे अप्पा बहुअपरूवणा संखेजगुणाणि चेव, समऊणजहण्हडिदिबंधेणूणउक्कस्सट्ठिदिबंधस्सेव द्विदिबंधद्वाणववएंसादो। उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ १३२ ॥ केत्तियमेत्तेण ? समऊणजहण्णट्टिदिबंधमेत्तेण । पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणं पज्जत्तयाणमाउअस्स सव्वत्थोवा जहणिया आबाहों ॥ १३३ ॥ कुदो ? आउअं बंधिय समयाहियसव्वजहण्ण विस्समणकालग्गहणादो । जहण्णओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ १३४ ॥ कुदो ? खुद्दाभवग्गहणपमाणत्तादो । आबाहाद्वाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥ १३५ ॥ स्थितिबन्धस्थान भी संख्यातगुणे ही होने चाहिये, क्योंकि एक समय कम जघन्य स्थितिबन्धसे रहित उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी ही स्थितिबन्धस्थान संज्ञा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उससे विशेष अधिक है ॥ १३२ ॥ कितने मात्र से वह अधिक है ? एक समय कम जघन्य स्थितिबन्ध के प्रमाणसे वह अधिक है । [ २७३ संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आयुकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है ॥ १३३ ॥ क्योंकि, यहां आयुको बांधकर एक समय अधिक सर्वजघन्य विश्रमणकालका ग्रहण है । उससे जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ १३४ ॥ क्योंकि, वह क्षुद्रभवग्रहणके बराबर है । उससे आबाधास्थान संख्यातगुणे हैं ।। १३५ ॥ -१ तेभ्य उत्कृष्टा स्थितिर्विशेषाधिका, बघम्यस्थितेरबाधायाश्च तत्र प्रवेशात् । क. प्र. ( म. टी.) १,८६. २ तथा संज्ञिपंचेन्द्रियेष्वसंज्ञिपंचेन्द्रियेषु वा पर्यास केषु प्रत्येकमायुषो जघन्याबाधा सर्वस्तोका ( १ ) । ततो जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । स च क्षुल्लकभवरूपः ( २ ) । ततोऽबाधास्थानानि संख्येयगुणानि । जघन्याबाधारहितः पूर्वकोटित्रिभाग इति कृत्वा ( ३ । ततोऽप्युत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका, जघन्यावाधाया अपि तत्र प्रवेशात् (४) । ततो द्विगुणहानिस्थानान्यसंख्येयगुणानि, पल्योपमप्रथमवर्गमूला संख्येय भागगतसमय प्रमाणत्वात् (५) । तेभ्योऽप्येकस्मिन् द्विगुणहान्योरन्तरे निषेकस्थानान्यसंख्येयगुणानि ( ६ ) । तत्र युक्तिः प्रागुक्ता वक्तव्या । ततः स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि ( ७ ) । तेभ्योऽप्युत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः, जघन्य स्थितेरबाधायाश्च तत्र प्रवेशात् ( ८ ) । क. प्र. ( म. टी.) १,८६. छ. ११-३५. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ६, १३६. ___ जहण्णओ हिदिबंधो णाम अंतोमुहुत्तमेत्तो', आबाहाहाणाणि पुण संखेजपमाणपुव्वकोडितिभागमेत्ताणि; तेण जहण्णहिदिबंधादो आबाहट्टाणाणं संखेजगुणत्तं णव्वदे । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया ॥ १३६ ॥ केत्तियमेत्तेण ? समऊणजहण्णाबाहमेत्तेण । णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ॥ १३७ ॥ पुव्वकोडितिभाग पेक्खिदूण पलिदोवमस्स असंखेजदिमागमेत्तणाणागुणहाणिसलागाणमसंखेजगुणत्तुवलंभादो। एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ १३८ ॥ कुदो ? पलिदोवमपढमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागमेत्तणाणापदेसगुणहाणिहाणंतरसलागाहि असंखेजपलिदोवमवग्गमूलमेत्तएगपदेसगुणहाणीए ओवट्टिदाए असंखेजरूवुवलंभादो। ठिदिबंधट्टाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ १३९ ॥ कुदो ? एयपदेसगुणहाणिहाणंतर णाम पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, ठिदिबंधहाणाणि पुण संखेजसागरोवममेत्ताणि पलिदोवमस्सासंखेजदिभागो च; तेण एगपदेसगुण जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, परन्तु आवाधास्थान संख्यात प्रमाण [जघन्य आबाधासे रहित ] पूर्वकोटित्रिभाग मात्र हैं। इसीसे जाना जाता है कि जघन्य स्थितिबन्धकी अपेक्षा आबाधास्थान संख्यातगुणे हैं। उनसे उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है ॥ १३६ ॥ कितने प्रमाणसे वह अधिक है ? एक समय कम जघन्य आवाधाके प्रमाणसे वह विशेष अधिक है। नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं ॥ १३७ ॥ क्योंकि, पूर्वकोटित्रिभागकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण नानागुणहानिशलाकाओंके असंख्यातगुणत्व पाया जाता है। एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ १३८ ॥ क्योंकि, पल्योपम सम्बन्धी प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भाग मात्र नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरशलाकाओंका पल्योपमके असंख्यात वर्गमूलोंके बराबर एकप्रदेशगुणहानिमें भाग देनेपर असंख्यात अंक पाये जाते हैं। स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ १३९ ॥ क्योंकि, एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, परन्तु स्थितिबन्धस्थान संख्यात सागरोपम मात्र व पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं। इस कारण १ अ-आ-काप्रतिषु 'मेत्ता' इति पाठः। २ प्रतिषु ' असंखेज्ज' इति पाठः। ३ अ-आप्रत्योः 'पलिदोवमस्स संखे० भागो' इति पाठः। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १४३. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविद्दाणे अप्पाबहुअपरूवणा दो दिबंधद्वाणाणि असंखेजगुणाणि त्ति' घेत्तव्वं । उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ ॥ १४० ॥ केत्तियमेत्तेण ? समऊणजहण्णडिदिबंधमेत्तेण । पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणमपज्जत्तयाणं चउरिंदियाणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं एइंदियबादर - सुहुमपज्जत्तापज्जत्तयाणमा उअस्स सव्वत्थोवा जहणिया आवाहीं ॥ १४१ ॥ आउअं बंधिय समयाहियसव्वजहण्ण विस्समणका लग्गहणादो । जहण्णओ ट्ठदिबंधो संखेज्जगुणो ॥ १४२ ॥ कुदो ? बंधखुद्दाभवग्गहणादो । आवाहाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥ १४३ ॥ सग-सगउक्कस्साउआणं तिभागस्स समऊणजहण्णाबाहाए परिहीणस्स गहणादो । एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरकी अपेक्षा स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये | उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ १४०॥ वह कितने मात्रसे अधिक है ? एक समय कम जघन्य स्थितिबन्धके प्रमाणसे वह विशेष अधिक है । संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकों तथा चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और बादर एवं सूक्ष्म एकेन्द्रिय, इन पर्याप्त अपर्याप्तोंके आयुकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है ॥ १४१ ॥ क्योंकि, यहां आयुको बांधकर एक समयसे अधिक सर्वजघन्य विश्रमणकालका ग्रहण है । जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ १४२ ॥ [ २७५ क्योंकि, यहां बन्धक्षुद्रभवका ग्रहण है । आबाधास्थान संख्यातगुणे हैं ॥ १४३ ॥ क्योंकि, एक समय कम जघन्य प्रबाधासे हीन अपनी अपनी उत्कृष्ट आयुओंके त्रिभागका यहां ग्रहण है ? १ ताप्रतौ ' असंखेजगुणात्ति ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'सुहुमपजत्तयाण-' इति पाठः । ३ तथा पंचेन्द्रियेषु संशिष्वसंज्ञिष्वपर्याप्तेषु चतुरिन्द्रिय- श्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय- बादर सूक्ष्मै केन्द्रियेषु च पर्याप्तापर्यंतेषु प्रत्येकमायुषः सर्वस्तोका जघन्याबाधा ( १ ) । ततो जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः, स च क्षुल्लक भवरूपः ( २ ) । ततोऽवाघास्थानानि संख्येयगुणानि ( ३ ) । ततोऽप्युत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका ( ४ )। ततोऽपि स्थितिबन्धस्थानानि संखयेयगुणानि, जघन्यस्थितिन्यूनपूर्व कोटिप्रमाणत्वात् ( ५ ) । तत उत्कृष्टः स्थिति बन्धो विशेषाधिकः, जघन्यस्थितेरवाघायाश्च तत्र प्रवेशात् ( ६ ) । क. प्र. (म. टी.) १,८६. * Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] छक्खंडागमे वेयणाखंड - [४, २, ६, १४४ उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया ॥ १४४॥ केत्तियमेतेण ? समऊणजहण्णाबाहामेत्तेण । ठिदिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥१४५॥ कुदो १ समऊणजहण्णहिदिबंधेगृणपुवकोडिग्गहणादो। उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ ॥ १४६॥ केत्तियमेत्तेण ? समऊणजहण्णहिदिबंधमत्तेण ।। पंचिंदियाणमसण्णीणं चउरिदियाणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं पज्जत्त-अपज्जत्तयाणं सत्तण्णं कम्माणं आउववज्जाणमाबाहट्टाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि थोवाणि ॥१४७॥ कुदो १ आवलियाए संखेजदिभागप्पमाणत्तादो। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है ॥ १४४॥ वह कितने मात्र विशेषसे अधिक है ? वह एक समय कम जघन्य भावाधा मात्रले अधिक है। स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ १४५ ॥ क्योंकि, एक समय कम जघन्य स्थितिबन्धसे हीन पूर्वकोटिका ग्रहण है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ १४६ ॥ वह कितने मात्रसे अधिक है ? वह एक समय कम जघन्य स्थितिबन्धके प्रमाणसे विशेष अधिक है। - असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवोंके आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोंके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं ॥ १४७॥ क्योंकि, वे आवलीके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। १ तथाऽसंज्ञिपंचेन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-सूक्ष्मबादरैकेन्द्रियेषु पर्याप्तापर्याप्तेष्वायुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणां प्रत्येकमबाधास्थानानि कंडकानि च स्तोकानि परस्परं च तुल्यानि, आवलिकाऽसंख्येयभागगतसमयप्रमाणत्वात् (१-२) । ततो जघन्याबाधाऽसंख्येयगुणा, अन्तर्मुहूर्त प्रमाणस्वात् (३)। ततोऽप्युत्कृष्टाबाधा विशेषाधिका, जघन्याबाधाया अपि तत्र प्रवेशात (४)। ततो द्विगुणहीनानि (हानि) स्थानान्यसंख्येयगुणानि (५)। तत एकस्मिन् द्विगुणहान्योरन्तरे निषेकस्थानान्यसंखयेयगुणानि (६)। ततोऽर्थेन कंडकमसंख्येयगुणम् (७)। ततोऽपि स्थितिबन्धस्थानान्यसंख्येयगुणानि, पल्योपमा (म) संख्येयभागगतसमयप्रमाणत्वात् (८)। ततोऽपि जघन्यस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः (९)। ततोऽप्युत्कृष्टस्थितिबन्धो विशेषाधिकः, पस्योपमासंख्येयभागेनाभ्यधिकत्वादिति (१०)। क. प्र. (म. टी.) १,८६. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १५२. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अप्पाबहुअपरूवणा जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा ॥ १४८ ॥ कुदो ? संखेज्जावलियमेत्तजहण्णाबाहाए आवलियाए संखेजदिभागमेत्तआबाहट्ठाणेहि भागे हिदाए संखेजरूवोवलं भादो । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया ॥ १४९ ॥ केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए संखेजदिभागमेत्तेण । णाणापदेस गुणहाणिद्वाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ॥ १५० ॥ कुदो ? संखेज्जावलियमेत्तउक्कस्साबाहाए पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तणाणापदेस गुणहाणिङ्काणंतरेसु अवहिरिदेसु असंखेजरूवोवलंभादो । [ २०७ एयपदे सगुणहाणिट्टानंतरमसंखेज्जगुणं ॥ १५१ ॥ कुदो ? पलिदोवमच्छेदणाणं संखेज्जदिभागमेत्तणाणापदेसगुणहाणिसला गाहि असंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तएयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरे भागे हिदे असंखेजरूवोवलंभादो । एयमाबाधाकंदयमसंखेज्जगुणं ॥ १५२ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो उक्कस्साबाहाए ओवट्टिदणाणागुणहासिलागाओ वा । जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है ॥ १४८ ॥ क्योंकि, संख्यात आवलियों प्रमाण जघन्य आबाधामें आवलीके संख्यातवें भाग मात्र आबाधास्थानों का भाग देनेपर संख्यात अंक प्राप्त होते हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है ॥ १४९ ॥ कितने मात्र से वह विशेष अधिक है ? वह आवलीके संख्यातवें भाग मात्र से विशेष अधिक है । नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं ॥ १५० ॥ क्योंकि, संख्यात आवली प्रमाण उत्कृष्ट आबाधाका पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरोंमें भाग देनेपर असंख्यात अंक लब्ध होते हैं । एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ १५१ ॥ क्योंकि, पल्योपमके अर्धच्छेदोंके संख्यातवें भाग प्रमाण नानाप्रदेश गुणहा निशालाकाका पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण एक प्रदेशगुणद्वानिस्थानान्तर में भाग देनेवर असंख्यात अंक लब्ध होते हैं । एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है ॥ १५२ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग अथवा उत्कृष्ट भाबाधाले अपवर्तित नानागुणहानिशलाकायें हैं । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] _ छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ६, १५३ ठिदिबंधट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ १५३॥ को गुणगारो ? संखेजस्वोवट्टिदसगुक्कस्साबाहा । जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो ॥१५४ ॥ सुगमं । उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ ॥ १५५॥ केत्तियमेत्तेण ? पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तेण । एइंदियबादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्तयाणं सत्तण्हं कम्माणं आउववज्जाणमाबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि थोवाणि ॥१५६ ॥ कुदो ? आवलियाए असंखेजदिभागप्पमाणत्तादो। . जहणिया आबाहा असंखेज्जगुणा ॥ १५ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। कुदो ? आवलियाए असंखेजदि- भागमेत्तआबाहहाणेहि संखेजावलियमेत्तजहण्णाबाहाए ओवट्टिदाए आवलियाएं असंखेजदिभागुवलंभादो। स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ १५३ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार संख्यात अंकोंसे अपवर्तित अपनी उत्कृष्ट आवाधा है । जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ १५४ ।। • यह सूत्र सुगम है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ १५५ ॥ वह कितने मात्रसे विशेष अधिक है ? वह पल्योपमके संख्यातवें भाग माणसे मधिक है। बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंके आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं ॥ १५६ ॥ क्योंकि, वे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। जघन्य आबाधा असंख्यातगुणी है ॥ १५७॥ गुणकार क्या है ? गुणकार आपलीका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, आवलीके मसंख्यात भाग प्रमाण आबाधास्थानोंका संख्यात आवली मात्र जघन्य आबाघामें भाग देनेपर आवलीका असंख्यातवां भाग पाया जाता है ? १ ताप्रती 'आवलियाए' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अप्पाबहुअपरूवणा [२७९ उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया ॥ १५८ ॥ • केत्तियमेत्तो विसेसो ? आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तो।। - णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि ॥१५९ ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो उक्कस्साबाहोवट्टिदणाणागुणहाणिसलागाओ वा । एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ १६० ॥ सुगममेदं । एयमाबाहाकंदयमसंखेज्जगुणं ॥ १६१॥ एदं पि सुगमं । ठिदिबंधट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ १६२॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। जहण्णओ द्विदिबंधो असंखेजगुणो ॥ १६३ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ १६४ ॥ केत्तियमेत्तेण ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तेण । संपहि एदेण अप्पाबहुअसुत्तेण उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है ॥ १५८ ॥ विशेष कितना है? वह आवलीके असंख्यात भाग प्रमाण है। नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं ॥ १५९ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग अथवा उत्कृष्ट आवाधासे अपवर्तित नानागुणहानिशलाकायें हैं। एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ १६० ॥ यह सूत्र सुगम है। • एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है ॥ १६१ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ १६२॥ . गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। . जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है ॥ १६३ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ १६४ ॥ वह कितने मात्रसे विशेष अधिक है ? यह पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्रसे अधिक है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८.] __छाखंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६४. सूचिदाणं सत्याण-परल्याणअप्पाबहुआणं परवणं कस्सामो। सत्थाणे पयदं-पंचिंदियाणं पजत्तयाणं सण्णीणं सव्वत्थोवा आउअस्स जहण्णिया आबाहा। जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । णामा-गोदाणं जहण्णिया आबाहा संखेजगुणा । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । णामा-गोदाणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणा आबाहाकंदयाणि च दो वि तुलाणि विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स आबाहाहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि असंखेजगुणाणि । गामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणतराणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि । अट्ठण्णं कम्माणं एगपदेसगुणहाणिहाणंतरमसंखेजगुणं । सत्तण्णं कम्माणमेगमाबाहाकंदयमसंखेजगुणं । आउअस्स हिदिबंधट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो। चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंघो विसेसाहिओ। - अब इस अल्पबहुत्वसूत्रसे सूचित स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुपकी प्ररूपणा करते हैं। इनमें स्वस्थान अल्पबहुत्व प्रकृत है--संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आयुकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है । जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। नाम | गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। नाम व गोत्रके आवाधास्थान व आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य व संख्यातगुणे हैं। उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। चार कर्मोके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य व विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । मोहनीयके आवाधास्थान व आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य. असंण्यातगुणे हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुके आवाधास्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । आयु कर्मके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं । नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं। चार कर्मों के नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं। आठ काँका एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है। सात कमौका एक आवाधाकाण्डक असंण्यातगुणा है। आयुके स्थितिवन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। नाम-गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका जघन्य १मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'संखेजगुणाणि' इति पाठः। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८९ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अपाबहुअपरूवणा मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो असंखेजगुणों । णामा-गोदाणं हिदिधंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधहाणविसेसो विसेसाहिओ । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स द्विदिबंधट्ठाणविसेसो संखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। - पंचिंदियाणं सण्णीणमपजत्तयाणमाउअस्स सव्वत्थोवा जहणिया आबाहा । जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जयण्णिया आबाहा संखेजगुणा । णामा-गोदाणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । उकस्सिया आबाहा विसेसाहिआ। चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स ट्ठिदिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि असंखेजगुणाणि । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स वग्गमूलस्स असंखेजदिभागो । चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि । सत्तण्णं स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । नाम-गोत्रका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चार कर्मोंका स्थितिबन्धस्थानविशेष विशेष अधिक है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका स्थितिबन्धस्थानविशेष संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके आयुकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है। जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। आबाधास्थान संख्यातगुणे हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । नाम-गोत्रकी जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है । चार कर्मोकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। नाम-गोत्रके आबाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं। उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। चार कर्मोंके आबाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य व विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीयके आबाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुण हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । नामगोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है। गुणकार पल्योपमके वर्गमूलका असंख्यातवां भाग है । चार कर्मोंके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं। सात छ. ११-३६ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे बेपणाखंड [४, २, ६, १६४. कम्माणमेगपदेसगुणहाणिहाणंतरमसंखेजगुणं । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो असंखेजाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि । सत्तण्णं कम्माणमेगमाबाहाकंदयमसंखेजगुणं । को गुणगारो ? असंखेजावलियाओ गुणगारो। आवलियाए असंखेजदिभागो त्ति णिक्खेवाइरियो भणदि । किंतु सो एत्थ ण उत्तो, बहुवेहि आइरिएहि असम्मदत्तादो' । णामागोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो असंखेजगुणो । को गुणगारो ? अंतोमुहुत्तं । चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । णामा-गोदाणं द्विदिबंधट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधहाणाणि विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। मोहणीयस्स हिदिबंधट्टाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। पंचिंदियाणं असण्णीणं पजत्तयाणं णामा-गोदाणमाबाहहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि थोवाणि । चदुण्णं कम्माणं आबाहाट्ठाणाणि आबाहकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । आउअस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । काँका एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है जो पल्योपमके असंख्यात वर्गमूल प्रमाण है । सात कर्मोका एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात आवलियां हैं । गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है, ऐसा निक्षेपाचार्य कहते हैं। किन्तु उसे यहां नहीं कहा गया है, क्योंकि, वह बहुतसे आचार्योको इष्ट नहीं है । नामगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? गुणकार अन्तर्मुहूर्त है। चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके नाम व गोत्रके आबाधास्थान एवं आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं । चार कमौके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं। मोहनीयके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । आयुकी जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है। जघन्य स्थितिबन्ध संख्यात. गुणा है । नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । चार कमाँकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष - १ अप्रतौ ' असमुद्दत्तादो', आप्रतौ 'असम्मुद्दत्तादो', काप्रतौ ' असम्मुदत्तादो' इति पाठः । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अप्पाबहुअपरूवणा [२८३ मोहणीयस्स जहणिया आषाहा संखेनगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। आउअस्स आबाहाहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि असंखेजगाणि । को गुणगारो ? पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेनदिभागो। णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि असंखेजगुणाणि । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि । अटण्णं कम्माणमेगपदेसगुणहाणिहाणंतराणि असंखेजगुणाणि । को गुणगारो ? असंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । सत्तण्हं कम्माणमेयमाबाहाकंदयमसंखेजगुणं । को गुणगारो ? णाणागुणहाणिसलागाणमसंखेजदिभागो । आउअस्स हिदिबंधहाणाणि असंखेजगुणाणि । को गुणगारो ? अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागो। चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधहाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। __ असण्णिपंचिंदियअपजत्तयाण णामा-गोदाणं आबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च अधिक है । मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुके आवाधास्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमके वर्गमूलका असंख्यातवां भाग है । नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानन्तर असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। चार काँके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं। आठ कर्मों के एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल हैं । सात कौंका आवाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है? गुणकार नानागुणहानिशलाकाओंका असंख्यातवां भाग है। आयुके स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है? गुणकार अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। नाम-गोत्रके स्थितिबन्धस्थान बसंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है । चार कोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। माम गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है चार काँका जघन्य स्थितिबन्धविशेष अधिक है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उत्कृष्ट स्थितिषन्ध विशेष आ ___ असंही पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके नाम-गोत्रके आवाधास्थान और आषाधाकाण्डक Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६४. दो वि तुल्लाणि थोवाणि । चदुण्णं कम्माणं आबाहहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । आउअस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । आबाहाहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा · विसेसाहिया । आउअस्स हिदिबंधहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाणं णाणापदेसगुहाणिहाणंतराणि असंखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि । सत्तण्णं कम्माणमेगपदेसगुणहाणिहाणंतरमसंखेजगुणं । सत्तण्णं कम्माणमेगमाबाहाकंदयमसंखेजगुणं । उवरि सेसपदाणमसण्णिपंचिंदियपजत्तभंगो।। __ बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियपज्जत्तयाणं णामा-गोदाणमाबाहहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि थोवाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । आउअस्स जहण्णिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव जहण्णओ दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं । चार कर्मोके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं । मोहनीयके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं। आयुकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । आबाधास्थान संख्यातगुणे हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। नाम व गोत्रकी जधन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उनकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। आयुके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । नाम-गोत्रके नानाप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। चार कर्मोंके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं । मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं। सात कौंका एकप्रदेशगणहानिस्थानान्तर असंख्यातगणा है। सात काँका पक आबाधाकाण्ड असंख्यातगुणा है। आगे शेष पदोंकी प्ररूपणा असंशी पचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके नाम-गोत्रके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं। चार कर्मोंके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं । मोहनीयके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । आयुकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीका जघन्य Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अप्याबहुअपरूवणा [२८५ हिदिबंधो संखेजगुणो। णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेनगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स आबाहाहाणाणि संखेज्जगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव आउअस्स हिदिबंधट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। णामा-गोदाणं णाणापदेसगुहाणिहाणंतराणि असंखेजगुणाणि । सेसपदाणमसण्णिपंचिंदियअपजत्तभंगो। . एदसिं चेव अपजत्ताणं असण्णिपंचिंदियअपजत्तभंगो । बादरेइंदियपजत्तएसु णामागोदाणमाबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुलाणि थोवाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि। मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । आउअस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणं जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । आउअस्स आबाहाहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव आउअस्स हिदिबंधट्ठाणाणि स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। नाम व गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । चार कौंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । आयुके आबाधास्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके आयुके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । नाम गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। शेष पदोंकी प्ररूपणा असंही पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। इन्हीं द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंकी प्ररूपणा असंशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों में नाम-गोत्रके आबाधा स्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं । चार कर्मोंके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं । मोहनीयके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । आयुकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। नाम-गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चार कर्मोकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उत्कृष्ट आषाधा विशेष अधिक है । मोहनीयकी जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । आयुके आबाधास्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। उसीके आयुके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध • Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६४. संखेजगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि असंखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि । सत्तण्णं कम्माणमेगपदेसगुणहाणिटाणंतरमसंखेजगुणं । सत्तण्णं कम्माणमेगमाबाहाकंदयमसंखेजगुणं । णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधट्टाणाणि संखेजगुणाणि । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो असंखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो असंखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बादरेइंदियअपजत्त-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्ताणं च णामा-गोदाणमाबाहट्ठाणाणि आपाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि थोवाणि। चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । आउअस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । आउअस्स आबाहाहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। णामा-गोदाणं जहण्णिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । उक्कस्सिया आबाहा विशेष अधिक है। नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। चार कर्मोंके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं । मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं । सात कौका एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है। सात काँका एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है। नाम-गोत्रके स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं । चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । नाम-गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । चार कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंके नाम-गोत्रके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं। चार कर्मोके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं । मोहनीयके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । आयुकी जघन्य आवाधा संख्यात. गुणी है । जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। आयुके आबाधास्थान संण्यातगुणे हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । नाम-गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। चार कर्मोकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उत्कृष्ट Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, १६४.] वेपणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अपाबहुअपरूवणा [२८७ विसेसाहिया । मोहणीयस्स जहण्णिया आबाहा संखेजगुणा । उक्कस्सिया आबाहा क्सेिसाहिया । आउअस्स हिदिबंधहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसा हिओ। णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि असंखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं गाणापदेसगुहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि । सत्तण्णं कम्माणमेगपदेसगुणहाणिहाणंतरमसंखेजगुणं । सत्तण्णं कम्माणमेगभाबाहाकंदयमसंखेजगुणं । णामा-गोदाणं हिदिबंधट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं हिदिबधंढाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स हिदिबंधहाणाणि संखेजगुणाणि । णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो असंखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । एवं सत्थाणप्पाबहुगं समत्तं ।। परत्थाणे पयदं- सुहुमेइंदियअपज्जत्तयाण णामा-गोदाणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि थोवाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । बादरएइंदियअपज्जत्तयाणं णामा-गोदाणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं आबाहाहाणाणि आबाधा विशेष अधिक है । मोहनीयकी जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । आयुके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं । चार कमें के मानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं । मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं। सात काँका एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है। सात कमाका एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है । नाम-गोत्रके स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं । चार काँके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान हैं। नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। उत्कृष्ट स्थिति बन्ध विशेष अधिक है। चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ___ अब परस्थान अल्पब हुत्वका अधिकार है -सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके नाम व गोत्रकै आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य व स्तोक हैं। चार कर्मोंके आवाधा. . स्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं। मोहनीयके आबाधास्थान और आषाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक जीपोंके नाम-गोत्रके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं। चार . Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६४. आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुलाणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो तुल्लाणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेज्जगुणाणि । बेइंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदामाबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुलाणि संखेजगुणाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणमावाहाहाणाणि आवाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । तेइंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुलाणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च कौके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं। मोहनीयके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं। चार काँके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं। मोहनीयके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम गोत्रके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं। चार कर्मों के आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तल्य विशेष अधिक हैं । मोहनीयके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम-गोत्रके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य असंख्यातगुणे हैं । चार कर्मोंके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं । मोहनीयके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । चार कमौके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं । मोहनीयके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक.दोना। श्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम-गोत्रके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातणे हैं । चार कर्मोंके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष __१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु 'असंखेनगुणाणि', ताप्रतौ स्वीकृतपाठ एव । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अप्पाबहुअपरूवणा [२८९ दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुलाणि संखेजगुणाणि | चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । चउरिदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुलाणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुलाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । असण्णिपंचिंदियअपजत्तयस्स गामा-गोदाणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणमाबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि अधिक हैं । मोहनीयके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । चार कौंके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं। मोहनीयके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं ।चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम-गोत्रके आवाधास्थान व आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । चार कर्मोंके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं। मोहनीयके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं। उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । चार कर्मों के आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं । मोहनीयके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं। असंही पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम-गोत्रके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । चार कर्मों के आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं। मोहनीयके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संण्यातगुणे हैं। उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दानों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं। चार कमौके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य छ. ११-३७ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६४. विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । चोदसण्हं जीवसमासाणमाउअस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो। सत्तण्णमपजत्ताणं जीवसमासाणमाउअस्स आबाहाहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स आउअस्स आबाहाहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्य णामा-गोदाण जहणिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाण जहणिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। बादरेइंदियअपजतयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। बादरेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया। बादरेइंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । एवं सेसपदाणि विसेसाहियाणि त्ति वत्तवाणि । बादरेइंदियपजत्तयस्स विशेष अधिक हैं । मोहनीयके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यात गुणे हैं। चौदह जीवसमासोंके आयुकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। सात अपर्याप्त जीवसमासोंके आयुके आवाधास्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके आयु कर्मके आवाधास्थान संख्यातगुणे हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तककेनाम गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम-गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके नाम-गोत्रकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। बावर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके [नाम-गोत्रकी] उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्ति के नाम-गोत्रकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कमौकी जघन्य आधा विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मों की जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार काँकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कमाकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार काकी उत्कृष्ट भाषाधा विशेष अधिक है । बाद एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कमौकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। इसी प्रकार उसके शेष पद विशेष अधिक हैं, ऐसा कहना चाहिये । षादर Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अप्पाबहुअपरूवणा [ २९३ मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । सेसाणि सत्त पदाणि विसेसाहियाणि । बेइंदियपज्जत्तयाणं णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । बेइंदियअपजत्ताणं णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तेसिं चेव उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाण उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया। तस्सेव अपजत्तयस्से णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स [णामा-गोदाणं ] उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियअपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया। तस्सेव मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उसके शेष सात पद विशेष अधिक हैं । द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम गोत्रकी जघन्य आबाघा विशेष अधिक है। उनकी ही उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम गोत्रकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार को की उत्कृष्ट आंबाधा विशेष अधिक है। श्रीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रको जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम-गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम-गोत्रकी उत्कृष्ट बाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके [ नाम गोत्रकी ] उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार काँकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कौंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके चार काँको उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट आषाधा विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके मोहनीयकी उत्कृष्ट भाबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कट आवाधा विशेष अधिक १ ताप्रतौ ' तस्सेव [अ] पज.' इति पाठा Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६४. मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। चउरिदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जण्णिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स नामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव चउरिंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चउरिदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । असणिपंचिंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव णामा-गोदाणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया। तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया। तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्यातकके नाम-गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके नाम-गोत्रकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। उसी चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके चार कौकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके चार कमौकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके चार कौकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंकी उत्कृष्ट माबाधा विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके मोहनीयकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीके अपर्याप्तकके नाम गोत्रकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके नाम-गोत्रकी उत्कृष्ट आषाधा विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्माकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अप्पाबहुअपरूवणा [२९३ जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । असण्णिपंचिंदियपजत्तयस्य मोहणीयस्य जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सण्णिपंचिंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं जहण्णिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव मोहणीयस्स जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव चदुण्णं कम्माणं जहणिया आबाहा विसेसाहिया । तस्सेव मोहणीयस्स जण्णिया आबाहा संखेजगुणा । तस्सेव णामा-गोदाणं आबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणं आबाहहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । तेइंदियपजत्तयस्स आउअस्स आबाहाहाणाणि संखेजगुणाणि। उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चउरिदियपजत्तयस्स आउअस्स आबाहाहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बेइंदियपज्जत्तयस्स [आउअस्स] आबाहट्ठाणाणि [ संखेजगुणाणि] । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । सण्णिपंचिंदियपजत्ताणं णामा-गोदाणं आबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार काँकी उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। असंशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी जघन्य आवाधा विशेष अधिक है। उसीके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयकी उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उसीके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके मोहनोयकी जघन्य आवाधा संख्यातगुणी है । उसीके अपर्याप्तकके नाम गोत्रकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उत्तीके चार कर्मोंकी जघन्य आबाधा विशेष अधिक है। उसीके मोहनीयकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है। उसीके नाम गोत्रके आबाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चार कमोके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक है। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है । मोहनीयके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही. तुल्य संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट आवाधा विशेष अधिक है। श्रीन्द्रिय पर्याप्तकके आयुके आवाधास्थान संघातगुणे हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके मायुके भावाधास्थान संण्यातगुणे हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके [आयुके] आवाधास्थान [संख्यातगुणे हैं ] । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। संक्षी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रके आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ६, १६४. संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । चदुण्णं कम्माणमाबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आवाहा विसेसाहिया । मोहणीयस्स आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुलाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । बादरएइंदियपजत्ताणमाउअस्स आबाहाट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसाहिया । पंचिंदियसण्णि-असण्णीणं पजत्ताणमाउअस्स आबाहाहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सिया आबाहा विसेसा हिया । बारसण्णं जीवसमासाणमाउअस्स हिदिबंधट्टाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । असण्णिपंचिंदियपजत्ताणमाउअस्स णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेजगुणाणि । सुहुमेइंदियअपजत्ताण णामा-गोदाणं णाणापदेसगुहाणिहाणंतराणि असंखेजगुणाणि। बादरेइंदियअपजत्ताणं णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । सुहमेइंदियपजत्ताणं णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि विसेसाहियाणि । बादरेइंदियपजत्ताण णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । बादरएइंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । बादरेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । सुहुमेइंदिय emainine संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। चार कर्मों के आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। मोहनीयके आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों ही तुल्य संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आयुके आबाधास्थान विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। पंचेन्द्रिय संशी व असंही पर्याप्तक जीवोंके आयुके आबाधास्थान :संख्यातगुणे हैं। उत्कृष्ट आबाधा विशेष अधिक है। बारह जीवसमासोंके आयुके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आयुके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके नाम गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके नाम गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय इय अपयोप्तकके चार कमाके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कमौके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कमौके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। बादर पकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक है। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९५ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अप्पाबहुअपरूवणा अपजत्तयस्से मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि । बादरेइंदियअपजत्तयस्स णाणापदेसगुहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । बादरएइंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । बेइंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि। तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं णाणापदेसगुहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । बेइंदियअपजत्तयस्सै मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्सै मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । चउरिंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं पाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणतराणि विसेसाहियाणि | सण्णिपंचिंदियपज्जत्ताणमाउअस्स णाणापदेसगुणहासूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके नामगोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं । उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं । उसीके अपर्याप्तकके चार कमों के नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तकके चार कमौके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर यिशेष अधिक हैं । त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। उसीके अपर्याप्तकके चार काँके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंके नाना. प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं । उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आयुके नानाप्रदेशगुण १ अ-आ-काप्रतिषु 'पज.', ताप्रती [अ] पज.' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिधुदिपमइति पाठः।.३ तामतो' अपनइति पाठः । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६४. मिट्ठाणंतराणि विसेसाहियाणि । चउरिंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तेइंदियअपजत्तयस्स मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । चउरिंदियअपजत्तयस्स मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । असण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । असण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेज्जगुणाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । सण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेज्जगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं णाणापदेस हानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं । चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मोंके नानाप्रदेश-गुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मों के नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं । त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकके मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। असंही पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं। उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष : अधिक हैं । उसीके अपर्याप्तकके चार कमौके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक . हैं । उसीके पर्याप्तकके चार कमौके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। असंही पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। संशी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं। चार कर्मोंके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे है । उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं। चार कमौके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर विशेष अधिक हैं। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६४. ] वेयणमहाहियारे वेयणकाल विहाणे अप्पा बहुअपरूवणा गुणहाणिद्वाणंतराणि विसेसाहियाणि | मोहणीयस्य णाणापदेसगुणहाणिद्वाणंतराणि संखेज्जगुणाणि । अट्ठण्णं कम्माणं एगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । सत्तण्णं कम्माणमेगमाबाहाकंदयमसंखेज्जगुणं । असणिपंचिंदियपत्तयस्स आउअस्स ट्ठिदिबंधाणाणि असंखेज्जगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स णामागोदाणं द्विदिबंधट्टाणि असंखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं द्विदिवंधद्वाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीस द्विदिबंधाणाणि संखेजगुणाणि । बादरएइंदियअपजत्तयस्स णामा - गोदाणं ट्ठिदिबंधट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधट्टाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स द्विदिबंधट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स णामा - गोदाणं ट्ठिदिबंधद्वाणि संखेजगुणाणि । चदुष्णं कम्माणं द्विदिबंधट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स ट्ठिदिबंधद्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । बादरेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणं द्विदिबंधाणाणि संजगुणाणि । चदुष्णं कम्माणं द्विदिबंधद्वाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स ट्ठिदिबंध - संजगुणाणि । बेइंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं द्विदिबंधट्टाणाणि असंखेजगुणाणि । चदुणं कम्माणं द्विदिबंधट्टाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स दिबंध - द्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा - गोदाणं द्विदिबंधद्वाणाणि संखेजगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधद्वाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स द्विदिबंधद्वाणाणि संखेजगुणाणि । तेइंदियअपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं द्विदिबंधद्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । मोहनीयके नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर संख्यातगुणे हैं । आठ कर्मोंका एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है । सात कर्मोंका एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है । असंशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके आयुके स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं । चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम- गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं । मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं। चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उसीके पर्याप्तकके नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । are कर्मो स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। श्रीन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । चार कमोंके छ. ११-३८ [ २९७ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ] छक्खडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १६४. दुणं कम्माणं द्विदिबंधद्वाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स ट्ठिदिबंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा - गोदाणं द्विदिबंधट्टाणाणि संखेजगुणाणि । चदुणं कम्माणं द्विदिबंधट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स विदिबंधद्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । चउरिंदियअपजत्तयस्स णामा - गोदाणं द्विदिबंधद्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधट्टाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स द्विदिबंधाणाणि संखेजगुणाणि । तस्सेव पत्तयस्स णामा - गोदाणं द्विदिबंधद्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं द्विदिषंधद्वाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स द्विदिबंधद्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । असण्णिपंचिंदियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं द्विदिबंधद्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । चदुण्णं कम्माणं द्विदिबंधाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स ट्ठिदिबंधट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । तस्सेव पत्तयस्स णामा-गोदाणं द्विदिबंधद्वाणाणि संखेज्जगुणाणि । चदुष्णं कम्माणं बंधाणाणि विसेसाहियाणि । मोहणीयस्स द्विदिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । सुहुमेइंदियअपत्तयस्स णामा-गोदाणं जहणओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बादरेइंदियअपजत्तयस्से णामा-गोदाणं जहणओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । सुहुमेइं दियअपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ दबंध विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा - गोदाणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बादरेइंदियअपजत्तयस्स णामा - गोदाणमुक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं । मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उसीके पर्याप्तक के नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। मोहनीय के स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक के नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं। चार कमौके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उसीके पर्याप्तकके नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं । मोहनीय स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं । मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उसीके पर्याप्तक के नाम गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके नाम गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के नाम गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' बादरएइंदियपज्ज० ' इति पाठः । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अप्पाबहुअपरूवणा [२९९ सुहमेइंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेस हिओ । बादरेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सुहुमेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो • विसेसाहिओ । बादरेइंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमेइंदियअपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बादरेइंदियअपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ' हिदिबंधो विसेसाहिओ । बादरेइंदियअपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। बादरेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बेइंदियपजत्तयस्स गामा-गोदाणं जहण्णओ पर्याप्तकके नाम-गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तिकके नाम-गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार काँका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार काँका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके चार काँका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार काँका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष भधिक है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कर स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। १ तातो 'जह• ' इति पाठः। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६४ हिदिबंधो संखेजगुणो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्हं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तेइंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पन्जत्तयस्स णामागोदाणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तेइंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणमुक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । बेइंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकके नाम-गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम-गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके चार काँका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार काँका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कौंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार काँका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। श्रीन्द्रिय पर्याप्तकके नाम गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम-गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके चार कौका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मीका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष भधिक है। द्वीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके मपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६१.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अप्पाबहुअपरूवणा [३०१ चउरिंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पजत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स आउअस्स हिदिबंधहाणाणि विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । चउरिंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तेइंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णटिदिबंधो विसेसाहिओ। तैस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । चउरिंदियपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णहिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पज्जत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । तस्सेव अपजत्तयस्स गामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके नाम गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के आयुके स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके वार कमौका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। त्रीन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम गोत्रका जधन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा १ अ-आ-का-प्रतिष्वनुपलभ्यमानं वाक्यमिदं मप्रतितोऽत्र योजितम् । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] छक्खंडागमे वेयणाखंडं - [४, २, ६, १६४. विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पजत्तयस्सं णामा-गोदाणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स चदुण्णं कम्माणं उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो। तस्सेव अपज्जत्तयस्स मोहणीयस्स जहण्णओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव अपजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । तस्सेव पजत्तयस्स मोहणीयस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । सण्णिपंचिंदियपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ) मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । तस्सेव अपजत्तयस्स णामा-गोदाणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो । चदुण्णं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओ । मोहणीयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । तस्सेव अपज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं द्विदिबंधहाणाणि संखेज्जगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधहाणाणि विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। मोहणीयस्स हिदिबंधहाणाणि संखेज्जगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव पज्जत्तयस्स णामा-गोदाणं ट्ठिदिबंधट्ठाणाणि संखेजगुणाणि । उवकस्सओ हिदिबंधो है। उसीके अपर्याप्तकके नाम गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके अपर्याप्तकके नाम-गोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके नामगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके चार कौंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। असंही पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके अपर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । उसीके पर्याप्तकके मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। संशी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके नाम-गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकके नामगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। चार कर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उसीके अपर्याप्तकके नाम-गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। चार कर्मों के स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातेगुणे हैं। उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। उसीके पर्याप्तकके नाम-गोत्रके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०३ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अन्याबहुअपरूवणा विसेसाहिओ। चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधहाणाणि विसेसाहियाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। मोहणीयस्स हिदिबंधहाणाणि संखेजगुणाणि । उक्कस्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। ___ संपहि सुत्तंतोणिलीणस्स एदस्स अप्पाबहुगस्स विसमपदाणं भंजणप्पिया पंजियां उच्चदे । तं जहा-तिण्णिमाससहस्समाबाहं काऊण समऊण-बिसमऊणादिकमेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागं जाव ओसारिय बंधदि ताव णिसेगट्टिदी च ऊणा होदि । कुदो ? एदेसु हिदिबंधविसेसेसु उक्स्साबाहं मोत्तूण अण्णाबाहाणमभावादो । पुणो संपुण्णआबाहाकंदएणणउक्कस्सद्विदिं बंधमाणस्स आबाहा समऊणतिण्णिवाससहस्समेत्ता होदि, पुचिल्लाबाहाचरिमसमए पढमणिसेयो पडिदो त्ति तस्स णिसेयहिदीए अंतब्भावादो। समऊणाबाहाकंदएणणउक्कस्सटिदिबंधे संपुण्णाबाहाकंदएणूणउक्कस्सट्ठिदिबंधे च णिसेयद्विदीयो समाणाओ, पुविलाबाधादो संपहिआबाधाए समऊणत्तुवलंभादो । पुणो समऊणतिण्णिवाससहस्साणि आबाहभावेण धुवं करिय समऊण-बिसमऊणादिकमेण जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तद्विदिबंधट्ठाणाणि ओसरिय बंधदि ताव णिसेयहिदी चेव अधिक है । चार कर्मों के स्थितिबन्धस्थान विशेष अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। मोहनीयके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। अब सूत्रके अन्तर्गत इस अलगबहुत्वके विषम पदोंकी भंजनात्मक पंजिकाको कहते हैं। यथा, तीन हजार वर्ष मात्र आबाधा करके एक समय कम, दो समय कम, इत्यादि क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग तक नीचे हटकर स्थितिको जब तक बांधता है तब तक निषेकस्थिति ही कम होती जाती है, क्योंकि, इन स्थितिबन्धों में उत्कृष्ट आबाधाके अतिरिक्त अन्य आबाधाओंकी सम्भावना नहीं है। पश्चात् सम्पूर्ण आवाधाकाण्डकसे रहित उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले जीवके आबाधाका प्रमाण एक समय कम तीन हजार वर्ष होता है, क्योंकि पूर्वोक्त आबाधाके अन्तिम समयमें चूंकि प्रथम निषेक आचुका है अतः वह निषेक स्थितिमें गर्भित है । एक समय कम आबाधाकाण्डकसे हीन उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें तथा सम्पूर्ण आबाधाकाण्डकसे हीन उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें निषेक स्थितियां समान हैं, क्योंकि, पहिलेकी आबाधासे इस समयकी आबाधा एक समय तक पायी जाती है । फिर एक समय कम तीन हजार वर्षोंको आबाधा रूपसे स्थिर करके एक समय कम, दो समय कम, इत्यादि क्रमसे जब तक पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिबन्धस्थान नीचे हटकर स्थितिको बांधता है तब तक केवल निषेक स्थिति ही १कारिका स्वल्पवृत्तिस्तु सूत्र सूचनकं स्मृतम् । टीका निरन्तरं व्याख्या पञ्जिका पदभञ्जिका॥ प्रमेयर० (वैजेयप्रियपुत्रस्येत्या दिश्लोकस्य टिप्पण्याम् ) पिज्यतेऽर्थोऽस्यामिति 'पिजि भाषार्थः' अस्माच्चौरादिकादधिकरणे "गुरोश्च हलः" इत्यप्रत्यये, पृषोदरत्वादिकारस्याकारे स्वार्थे कनि च, पिञ्जयतीति विग्रहे तु क्वनि वा पञ्जिका निश्शेषपदस्य व्याख्या। अमरकोष ३, ५, ७. (रसालाख्या टीका) २ प्रतिषु 'पुण' इति पाठः। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६४. ऊणा होदि, समऊणुक्कस्साबाधाए तत्थ धुवभावेण अवठ्ठाणदसणादो। पुणो बिदियआबाधाकंडयमेत्तमोसरिय बंधे उक्कस्साबाहा दुसमऊणा होदि । कुदो ? समउत्तरहिदिबंधणिसेगहिदीहि सह समऊणहिदिबंधणिसेगट्ठिदीणं समाणत्तुवलंभादो। पुणो एत्तो समऊणदुसमऊणादिकमेण जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणूणहिदि बंधदि ताव दुसमऊणतिण्णिवाससहस्समेत्ता आबाहा होंदि । संपुण्णेसु आबाहाकंदएसु परिहीणेसु तिसमऊणतिण्णिवाससहस्समेत्तआबाहा होदि । एवं समऊणाबाहाकंदयमेत्ताओ हिदीयो जाव परिहायति ताव एक्का चेव आबाहा होदूण पुणो संपुण्णेगाबाहाकंदयमेत्तहिदीसु परिहीणासु पुविलाबाहादो संपहियाबाहा समऊणा होदि ति सव्वत्थ वत्तव्वं । एदेण कमेण ओदारेदव्वं जाव जहण्णाबाहा जहण्णणिसेयहिदी च चिट्ठदि त्ति । जहण्णटिदिबंधादो समउत्तरादिकमेण जाव समऊणाबाहाकंदयमेत्तहिदीयो बड्डिदूण बंधदि ताव आबाहा जहणिया चेव होदि । पुणो संपुण्णमेगमाबाहाकंदयमेत्तं बढिदूण बंधमाणस्स आबाहा जहण्णाबाहादो समउत्तरा होदि । आबाहावड्डिदसमए णिसेगहिदी ण वढ्ढदि, अक्कमेण दोणं हिदीणं वड्डिप्पसंगादो । दोसु समएसु जुगवं वडिदेसु को उत्तरोत्तर कम होती जाती है, क्योंकि, उनमें एक समय कम उत्कृष्ट आवाधाका ध्रुष स्वरूपसे अवस्थान देखा जाता है। पश्चात् द्वितीय आबाधाकाण्डकके बराबर स्थितिबन्धस्थान नीचे हटकर जो स्थितिबन्ध होता है, उसमें उत्कृष्ट आबाधा दो समय कम होती है, क्योंकि, एक समय अधिक स्थितिबन्धोंकी निषेक स्थितियोंके साथ एक समय कम स्थितिबन्धकी निषेकस्थितियोंकी समानता पायी जाती है । इसके आगे एक समय कम, दो समय कम, इत्यादि क्रमसे जब तक पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन स्थितिको बांधता है तब तक आवाधा दो समय कम तीन हजार वर्ष प्रमाण होती है । सम्पूर्ण आवाधा-काण्डकोंके हीन होनेपर आबाधा तीन समय कम तीन हजार वर्ष मात्र होती है। इस प्रकार जब तक एक समय कम आबाधाकाण्डकके बराबर स्थितियां हीन होती हैं तब तक एक ही आबाधा होती है। पश्चात सम्पूर्ण एक आबाधाकाण्डकके बराबर स्थितियोंके हीन हो जानेपर पहिलेकी आबाधासे इस समयकी आबाधा एक समय कम होती है, ऐसा सर्वत्र कथन करना चाहिये । इस क्रमसे जब तक जघन्य आवाधा और जघन्य निषेकस्थिति प्राप्त नहीं होती तब तक नीचे उतारना चाहिये। जघन्य स्थितिबन्धसे एक समय अधिक, दो समय अधिक, इत्यादि क्रमसे जब तक एक समय कम आबाधाकाण्डकके बराबर स्थितियां वृद्धिंगत होकर बन्ध होता है तब तक आबाधा जघन्य ही होती है । पुनः सम्पूर्ण एक आबाधाकाण्डकके बराबर सि वृद्धिगत होनेपर स्थितिको बाँधनेवाले जीवके जघन्य आबाधाकी अपेक्षा एक समय अधिक आबाधा होती है । आबाधाकी वृद्धिके समयमें निषेकस्थितिकी वृद्धि नहीं होती, क्योंकि, वैसा होनेपर एक साथ दोनों स्थितियोंकी वृद्धिका प्रसंग आता है। शंका-दो समयोंकी एक साथ वृद्धि होनेपर क्या दोष है ? १ प्रतिषु परिक्षीणेसु' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' वडिदे' इति पाठः । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अण्याबहुअपरूवणा [३०५ दोसो ? ण, जहण्णहिदिमुक्कस्सदिम्हि सोहिय रूवे पक्खित्ते हिदिबंधट्ठाणाणमणुप्पत्तिप्पसंगादो । ण च एवं, हिदिबंधट्ठाणसुत्तेण सह विरोहादो । एवं कदे अन्तोमुहुत्तूणतिण्णिवाससहस्समेत्ताणि आबाहाहाणाणि लद्धाणि' होति । जत्तियाणि आबाहाहाणाणि तत्तियाणि चेव आबाहाकंदयाणि लब्भंति । णवरि अंतिममाबाहकंदयमेगरूवर्ण । कुदो ? जहण्णहिदिजहण्णाबाहाए चरिमसमयस्स सव्वणिसेगहिदीसु परिहीणासु जहण्णहिदिग्गहणादो। मोहणीयस्स अंतोमुहत्तूणसत्तवाससहस्समेत्ताणि आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च हवंति । एत्य आबाहाकंदएसु एगरूवअवणयणस्स कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । एवमूणिदे आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च तुल्लाणि त्ति अप्पाबहुगसुत्तेण विरोहो किण्ण होदि त्ति उत्ते, ण, वीचारहाणेसु उप्पण्णआबाहाकंदयसलागाणं तेहि समाणत्तं पडि विरोहाभावादो। ___णामा-गोदाणमंतोमुहुत्तूणबेवाससहस्समेत्ताणि आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि हवंति । समाधान-नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेसे उत्कृष्ट स्थितिमेंसे जघन्य स्थितिको कम करके एक अंक मिलानेपर स्थितिबन्धस्थानोंकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, स्थितिबन्धस्थान सूत्रके साथ विरोध आता है। ___इस प्रकार करनेपर अन्तमुहूर्तसे रहित तीन हजार वर्ष प्रमाण आबाधास्थान प्राप्त होते हैं। जितने आबाधास्थान प्राप्त हैं उतने ही आबाधाकाण्डक प्राप्त होते हैं। विशेष इतना है कि अन्तिम आबाधाकाण्डक एक अंकसे हीन होता है, क्योंकि, जघन्य स्थिति सम्बन्धी जघन्य आबाधाके अन्तिम समयकी सब निषेकस्थितियोंकी हानि हो जानेपर जघन्य स्थितिका ग्रहण किया गया है। मोहनीय कर्मके अन्तर्मुहूर्तसे हीन सात हजार वर्ष प्रमाण आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक होते हैं। यहाँ आबाधाकाण्डकों से एक अंक कम करनेका कारण पहिलेके ही समान कहना चाहिये। शंका-इस प्रकार कम करनेपर 'आबाधास्थान और आबाधाकाण्डक दोनों तुल्य हैं ' इस अल्पबहुत्वसूत्रके साथ विरोध क्यों नहीं होगा? समाधान-इस शंकाके उत्तरमै कहते हैं कि उससे विरोध नहीं होगा, क्योंकि, घीवारस्थानोंमें उत्पन्न आवाधाकाण्डकशलाकाओंकी उनके साथ समानतामें कोई विरोध नहीं है। नाम व गोत्रके आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक अन्तर्मुहूर्त कम दो हजार वर्ष प्रमाण हैं। १ अ-आ-काप्रतिषु हिदीहि ' इति पाठः। २ अ-आ-का प्रतिषु 'अद्धाणि' इति पाठः। ३ अ-आ-काप्रतिषु 'रूवाणं' इति पाठः। छ. ११-३९ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६४. __ आउअस्स अंतोमुहत्तूणपुव्वकोडितिभागमेत्ताणि आबाहट्ठाणाणि । आबाहाकंदयांणि पुण णस्थि । कारणं चिंतिय वत्तव्वं । जेणेवंविहमाबाहाकंदयं तेणेगाबाहाकंदएण समऊणजहण्णहिदिमोवट्टिय लद्धम्मि एगरूवे पक्खित्ते जहणिया आबाहा आगच्छदि । अधवा, जहण्णाबाहाए आबाहाहाणगुणिदएगाबाहाकंदए भागे हिदे जं लद्धं तेणे हिदिबंधहाणेसु भागे हिदे जहणिया आबाहा आगच्छदि । अधवा, जहण्णाबाहाए उक्कस्साबाहमोवट्टिय लद्धेण एगमाबाहाकंदयं गुणिय तेण उक्कस्सहिदीए भागे हिदाए जहणियाबाहा होदि । एक्केण आबाहाकंदएण हिदिबंधहाणेसु भागे हिदेसु आबाहहाणाणि आगछंति । जहण्णाबाहमुक्कस्साबाहादो सोहिदे सुद्धसेसमाबाहहाणविसेसो णाम । एक्केणाबाहाकंदएण उक्कस्सहिदीए भागे हिदाए उक्कस्साबाहा होदि । एगपदेसगुणहाणिहाणंतरेण कम्महिदिम्हेिं भागे हिदे णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणि आगच्छंति । णाणापदेसगुणहाणिहाणतरेहि कम्महिदीए ओवट्टिदाए एगपदेसगुणहाणिहाणंतरं होदि । उक्कस्सियाए आबाहाए उक्कस्सहिदीए ओवट्टिदाए एगमाबाहाकंदयं होदि । अधवा, आबाहाहाणेहि हिदिबंधहाणेसु ओवट्टिदेसु एगमाबाहकंदयं होदि । जहणियाए आबाहाए एगमाबाहाकंदयं गुणिय पुणो ___आयुके आबाधास्थान अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटिके तृतीय भाग प्रमाण हैं। उसके आबाधाकाण्डक नहीं होते। इसका कारण विचारपूर्वक कहना चाहिये। जिस कारण इस प्रकारका आबाधाकाण्डक है इसीलिये एक आवाधाकाण्डकका एक समय कम जघन्य स्थितिमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उसमें एक अंक मिला देनेपर घाय आबाधाका प्रमाण आता है । अथवा, जघन्य आबाधाका आवाधास्थानोंसे गुणित एक आवाधाकाण्डकमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उसका स्थितिबन्धस्थानोंमें भाग देनेसे जघन्य आबाधा आती है। अथवा, उत्कृष्ट आवाधामें जघन्य आवाधाका भाग देकर जो प्राप्त हो उससे एक आवाधाकाण्डकको गुणित करना चाहिये । पश्चात् प्राप्त राशिका उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देनेपर जघन्य आबाधाका प्रमाण आता है। स्थितिबन्धस्थानोंमें एक श्राबाधाकाण्डकका भाग देनेपर आवाधास्थानोंका प्रमाण भाता है । उत्कृष्ट आबाधामेसे जघन्य आवाधाको कम करनेपर जो शेष रहे वह आबाधास्थानविशेष कहलाता है। उत्कृष्ट स्थितिमें एक आवाधाकाण्डकका भाग देनेपर उस्कृष्ट आषाधाका प्रमाण आता है। कर्मस्थितिमें एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका भाग देनेपर नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका प्रमाण आता है। नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका कर्मस्थितिमें भाग देनेपर एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका प्रमाण आता है। उत्कृष्ट स्थितिमें उत्कृष्ट आबाधाका भाग देनेपर आवाधाकण्डकका प्रमाण होता है। अथवा, स्थितिबन्धस्थानों में आबाधास्थानोंका भाग देनेपर एक आवाधाकाण्डकका प्रमाण १ अप्रतौ 'जं बंधं ति तेण', आप्रतौ 'जं बंध तेण', इति पाठः। २ अ-आ-ताप्रतिषु 'कम्मद्विदिं', काप्रती 'कम्मद्विदि' इति पाठः । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे अप्पाबहुअपरूवणा [३०७ तत्थ रूवणे आबाहाकंदए अवणिदे जहण्णहिदिबंधो होदि । आबाहहाणविसेसेहि एगमाबाहाकंदयं गुणिय तत्थ रूवूणाबाहाकंदए पक्खित्ते हिदिबंधट्टाणविसेसो होदि । उक्कस्सियाए आबाहाए एगआबाहाकंदए गुणिदे उक्कस्सटिदिबंधो होदि । - संपहि चदुण्णमेइंदियजीवसमासाणमट्टण्णं विगलिंदियजीवसमासाणं च आबाहाहाणाणेमाबाहाकंदयाणं च पमाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा—संखेजपलिदोवममेत्तवीचारहाणेहि जदि संखेजावलियमेत्ताणि आबाहट्टाणाणि आबाहाकंदयाणि च लभंति तो पलिदोवमस्स संखेजदिभागमेत्तवीचारहाणाणं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तवीचारहाणाणं च केत्तियाणि आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए चदुण्णमेइंदियजीवसमासाणमावलियाए असंखेजदिभागमेत्ताणि आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च होति । बेइंदियादिअट्टणं पि जीवसमासाणमावलियाए संखेजदिभागमेत्ताणि आबाहाहाणाणि आबाहाकंदयाणि च होति । एवं णाणापदेसगुणहाणिहाणंतराणमेगपदेसगुणहाणिहाणंतरस्स च तेरासियं काऊण सव्वजीवसमाससव्वकम्महिदीणं पमाणपरूवणं कायव्वं । होता है। जघन्य आबाधासे एक आबाधाकाण्डकको गुणित करके उसमें से एक कम आबाधाकाण्डकको घटा देनेपर जघन्य स्थितिबन्ध होता है। आबाधास्थानविशेषोंसे एक आबाधाकाण्डकको गुणित करके प्राप्त राशिमें एक कम आबाधाकाण्डकको मिलानेपर स्थितिबन्धस्थानविशेष प्राप्त होता है । उत्कृष्ट आवाधासे एक आबाधाकाण्डकको गुणित करनेपर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्राप्त होता है। अब चार एकेन्द्रिय समासों और आठ विकलेन्द्रिय जीवसमासोंके आवाधास्थानों व आवाधाकाण्डकोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-संख्यात पल्योपम प्रमाण वीचारस्थानोंसे यदि संख्यात आवलि प्रमाण आवाधास्थान व आबाधाकाण्डक प्राप्त होते हैं, तो पल्योपमके संख्यातवें भाग मात्र वीचारस्थानों और पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र वीचारस्थानोंके कितने आवाधास्थान और आबाधाकाण्डक प्राप्त होंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर चार एकेन्द्रिय जीवसमासोंके आवलिके असंख्यातवें भाग मात्र आवाधास्थान और आवाधाकाण्डक प्राप्त होते हैं। द्वीन्द्रियादिक आठोंही जीवसमासोंके आवलिके संख्यातवें भाग मात्र आवाधास्थान व आवाधाकाण्डक होते हैं । इसी प्रकार नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरों और एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका त्रैराशिक करके समस्त जीवसमासों सम्बन्धी कर्मस्थितियोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करना चाहिये। १काप्रती आबाहाहाणाणि', ताप्रती आबाहाट्रणाणि (f), इति पाठः। २ अ-आप्रत्यो। 'विचारहाणेहियो जदि काप्रसौ विचारदाणेहिओ जदि'. ताप्रतो विचारहाणेहिय (हितो) इति पाठः। ३ ताप्रतो'लब्भदि (भंति)', इति पाठः। ४ ताप्रतो' असंखे.' इति पाठः। ५ ताप्रतो 'संखेजदि' इति पाठः ६ ताप्रती'च' इत्येतस्पदं नास्ति । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, १६५. सव्वत्थोवा आउअस्स जहण्णाबाहा इदि वुत्ते असंखेयद्धपिढमसमए आउअकम्मबंधमाढविय जहण्णबंधगद्धाए चरिमसमए वट्टमाणस्स जा आबाहा सा घेत्तव्वां, तत्तो ऊणाएँ अण्णाबाहाए अणुवलंभादो । खुद्दाभवग्गहणप्पहुडि समउत्तर- दुसमउत्तरादिकमेण जाव अपजत्तउक्कस्साउअं ति ताव णिरंतरं गंतॄण पुणो उवरि अंतोमुहुत्तमंतरं होण सण असणपजत्ताणं जहण्णाउअं होदि । पुणो एदमादिं कादूण उवरि णिरंतरं गच्छदि जाव तेत्तीससागरोवमाणि त्ति । तेण जहण्णविदिबंधमुक्कस्सट्ठिदिबंधम्हि सोहिदे सेसकम्माणं व आउअस्स द्विदिबंधाणविसेसो ण उप्पजदि त्ति घेत्तव्वं । एवमप्पा बहुगं समत्तं । - ( बिदिया चूलिया ) ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणदाए तत्थ इमाणि तिण्णि अणिओगदाराणि जीवसमुदाहारोपयडिसमुदाहारो द्विदिसमुदाहारो र्त्ति ॥ १६५ ॥ संपधि इमा कालविहाणस्स बिदिया चूलिया किमहमागदा ? ठिदिबंधहाणाणं कारणभृदअज्झवसाणट्ठाणपरूवणङ्कं । (ट्ठिदिबंधट्ठाणबंधकारणसंकिलेस-विसोहिट्ठाणाणं परूवणा ३०८ ] ' आयुकी जघन्य आबाधा सबसे स्तोक है ऐसा' कहनेपर असंख्येयाद्धा असंक्षेपाडा ) के प्रथम समय में आयु कर्मके बन्धको प्रारम्भ करके जघन्य बन्धककालके अन्तिम समय में वर्तमान जीवके जो आबाधा होती है उसका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि उससे हीन और अन्य आबाधा पायी नहीं जाती । क्षुद्रभवग्रहणको आदि लेकर एक समय अधिक दो समय अधिक इत्यादि क्रम से जब तक अपर्याप्तककी उत्कृष्ट आयु नहीं प्राप्त होती तब तक निरन्तर जाकर तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त अन्तर होकर संज्ञी व असंशी पर्यातकोंकी जघन्य आयु होती है । फिर इसको आदि लेकर आगे तेतील सागरोपम तक निरन्तर जाते हैं । इसलिये उत्कृष्ट स्थितिबन्धमेंसे जघन्य स्थितिबन्धको कम करनेपर शेष कर्मोंके समान आयु कर्मका स्थितिबन्धविशेष उत्पन्न नहीं होता, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । (द्वितीय चूलिका ) स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानप्ररूपणा अधिकृत है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं— जीवसमुदाहार, प्रकृतिसमुदाहार और स्थितिसमुदाहार ॥ १६५ ॥ शंका- अब यह कालविधानकी द्वितीय चूलिका किसलिये आयी है ? समाधान स्थितिबन्धस्थानोंके कारणभूत अध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा करनेके लिये प्राप्त हुई है । १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ आ-का-ताप्रतिषु ' संखेयद्धा -' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु ' जाव आबाहा घेत्तव्वा', मप्रतौ 'नाव आबाहा सा घेत्तव्वा' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' ऊणए' इति पाठः । ४ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'अण्णाबाहा अणुवलंभादो' इति पाठः । ५ तदेवमुक्तमल्पबहुत्वम् । इदानीं स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानप्ररूपणा कर्तव्या । तत्र त्रीण्यनुयोगद्वाराणि । तद्यथा — स्थितिसमुदाहारः १, प्रकृति - समुदाहारः २, जीवसमुदाहारश्च ३ । समुदाहारः प्रतिपादनम् । क.प्र. (म.टी.) १,८७ गाथामा उत्था निका । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६५. ] वेयणमहा हियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंध झव जाणपरूवणा [ ३०९ पढमाए चूलियाए कदा चेव, पुणो तत्थ परूविदाणं संकिलेस - विसोहिट्ठाणाणं परूवणाण कायव्वा; पुणरुत्तदोसप्पसंगादो ण च कसा उदयद्वाणाणि मोत्तूण द्विदिबंधस्स कारणमत्थि, द्विदिअणुभागे कसायदो कुणदि त्ति वयणेण विरोहप्पसंगादो त्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहा - असादबंधपाओग्गकसा उदयद्वाणाणि संकिलेसो णाम । ताणि च ही वाण होण बिदियट्ठिदिपहुडि विसेसाहिय कमेण ताव गच्छंत जाव उक्कस्सट्ठिदि त्ति । एदाणि च सव्वमूलपयडीणं समाणाणि, कसाएण विणा बज्झमाणमूलपaste अणुवलंभादो | सादबंधपाओग्गाणि कसाउद यहाणाणि विसोहिद्वाणाणि । एदाणि च उक्कस्सट्टिदीए थोवाणि होदूण दुचरिमंट्ठिदिप्पहुडिप्पगणणादो विसेसाहियकमेण ताव गच्छंति जाव जहण्णट्ठिदिति । संकिलेसट्ठाणेहिंतो किमहं विसोहिद्वाणाणि ऊणत्तमुवगयाणि १ ण, साभावियादो । एदाणि संकिलेसविसोहिद्वाणाणि णाम द्विदिबंधमूलकारणभूदाणि दोर्स द्विदिबंधट्ठाणपरूवणाए वण्णणा कदा । ण च एत्थ एदेसिं पुव्वं परूविदाणं परूवणा अत्थि जेण पुणरुत्तदोसो होजे, किंतु एत्थ द्विदिबंधट्टाणाणं विसेसपच्चयस्स द्विदिबंधज्झवसाणसण्णिदस्स परूवणा कीरदे । ण पुणरुत्तदोसो वि ढुक्कदे, पुव्वमपरूविदट्ठिदि शंका — स्थितिबन्धस्थानोंके कारणभूत संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंकी प्ररूपणा प्रथम चूलिका में की ही जा चुकी है, अतः वहां वर्णित संक्लेश-विशुद्धिस्थानोंकी प्ररूपणा फिरसे नहीं की जानी चाहिये; क्योंकि, वैसा करनेपर पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता हैं । कषायोदय स्थानोंको छोड़कर स्थितिबन्धका और कोई दूसरा कारण संभव नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर " स्थिति व अनुभागको कषायसे करता है " इस आगम वाक्यके साथ विरोधका प्रसंग आता है ? समाधान-यहां इस शंकाका उत्तर कहते हैं । वह इस प्रकार है-असातावेदनीयके बन्ध योग्य कषायोदयस्थानोंको संक्लेश कहा जाता है । वे जघन्य स्थिति में स्तोक होकर आगे द्वितीय स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक विशेषाधिकता के क्रमसे जाते हैं। ये सब मूल प्रकृतियोंके समान हैं. क्योंकि, कषायके विना बंधको प्राप्त होनेवाली कोई मूल प्रकृति पायी नहीं जाती । सातावेदनीयके बन्ध योग्य परिणामोंको विशुद्धिस्थान कहते हैं । ये उत्कृष्ट स्थिति में स्तोक होकर आगे द्विचरम स्थितिसे लेकर जघन्य स्थिति तक गणनाकी अपेक्षा विशेष अधिकता के क्रमले जाते हैं । शंका- विशुद्धिस्थान संक्लेशस्थानोंकी अपेक्षा हीनताको क्यों प्राप्त हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि वे स्वभावसे ही हीनताको प्राप्त हैं। ये संक्लेश-विशुद्धिस्थान स्थितित्रन्धके मूल कारणभूत हैं । इनका वर्णन स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा में किया गया है। यहां पूर्व में वर्णित इनकी पुनः प्ररूपणा नहीं की जा रही है, जिससे कि पुनरुक्त दोष होनेकी सम्भावना हो । किन्तु यहां स्थितिबंधाध्यबसान नामसे प्रसिद्ध स्थितिबन्धस्थानोंके विशेष प्रत्यय ( कारण ) की प्ररूपणा की जा रही है । अतः पुनरुक्त दोष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, यहां पूर्व में जिनकी प्ररूपणा नहीं की गयी है, उन बन्धाध्यवसानस्थानों की प्ररूवणा की गयी है । १ अ-भाप्रतोः ' जेण पुणरुत्तदोसो ण होज्ज' काप्रतो जे बुण बुतदोस्रो ण होज्ज' इति पाठः । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६५. बंधज्झवसाणहाणपवणत्तादो। हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि कसाउदयट्ठाणाणि ण होति त्ति कधं णव्वदे १ णामा-गोदाणं हिदिबंधज्झवसाणहाणेहिंतो चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि [ असंखेजगुणाणि त्ति अप्पाबहुगसुत्तादो । जदि पुण कसाउदयहाणाणि चेव हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि ] होति तो णेदमप्पाबहुगं धडदे, कसायोदयहाणेण विणा मूलपयडिबंधाभावेण सव्वपयडिटिदिबंधज्झवसाणहाणाणं समाणत्तप्पसंगादो । तम्हा सव्वमूलपयडीणं सग-सगउदयादो समुप्पण्णपरिणामाणं सग-सगहिदिबंधकारणत्तेण हिदिबंधज्झवसाणहाणसण्णिदाणं एत्थ गहणं कायव्वं, अण्णहा उत्तदोसप्पसंगादो । एदेसिं हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं परवणमिमा बिदिया चूलिया आगदा । तत्य तिण्णि आणियोगद्दाराणि जीव-पयडि-द्विदिसमुदाहारभेदेण )तत्य जीवसमुदाहारो किमढे आगदो? सादासादाणं एक्वेकिस्से हिदीए एत्तिया जीवा होति ण होति त्ति जाणावण?मागदो। पयडिसमुदाहारो किमढमागदो ? एदिस्से पयडीए हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि एत्तियाणि ____शंका-स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान कषायोदयस्थान नहीं हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-नाम व गोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी अपेक्षा चार कौके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं, इस अल्पबहुत्वसूत्रसे वह जाना जाता है। यदि कषायोदयस्थान ही स्थितिवन्धाध्यवसानस्थान हों तो यह अल्पबहुत्व घटित नहीं हो सकता है, क्योंकि, कषायोदयस्थानके विना मुल प्रकृतियोंका बन्ध न हो सकनेसे सभी मूल प्रकृतियोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी समानताका प्रसंग आता है । अत एव सब मूल प्रकृतियोंके अपने अपने उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होते हैं उनकी ही अपनी अपनी स्थितिके बन्धमें कारण होनेसे स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान संशा है। उनका ही ग्रहण यहाँ करना चाहिये, क्योंकि, अन्यथा पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता है। ___ इन स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणाके लिये द्वितीय चूलिकाका अवतार हुआ है। उसमें तीन अनुयोगद्वार हैं-जीवसमुदाहार, प्रकृतिसमुदाहार और स्थितिसमुदाहार। शंका-इनमें जीवसमुदाहार किसलिये आया है ? समाधान साता व असाताकी एक एक स्थितिमें इतने जीव हैं व इतने नहीं है, इस बातके ज्ञापनार्थ जीवसमुदाहार प्राप्त हुआ है। प्रकृतिसमुदाहार किसलिये आया है ? इस प्रकृतिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान इतने होते हैं और इतने नहीं होते हैं, इस १अ-आ-का-ताप्रतिष्वनुपलभ्यमानमिदं हेतुवचनं मप्रतितोऽत्र योजितम् । २ अ-आ-का-ताप्रतिष्वनुपलभ्यमानोऽयं कोष्ठकस्थः पाठो मप्रतितोऽत्र योजितः। For Privafe & Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६६. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणां [३११ होति [ एत्तियाणि ] ण होति त्ति जाणावण?मागदो । हिदिसमुदाहारो किमट्ठमागदो ? एदिस्से हिदीए एत्तियाणि हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि होति, एत्तियाणि ण होति त्ति जाणावणटुं । ण चे तिण्णि अणियोगद्दाराणि मोत्तूण एत्य चउत्थमणियोगदारं संभवदि, अणुवलंभादो । पयडिटिदिसमुदाहाराणं हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणपरूवणटुं होदु णाम, पयडि-हिदीओ अस्सिदूण तत्थ हिदिबंधज्झवसाणहाणपरूवणुवलंभादो । ण जीवसमुदाहारस्स, तत्थ तदणुवलंभादो ति ? ण एस दोसो, ठिदीणं कजे कारणोक्यारेण ठिदिबंधज्झवसाणहाणववएसोवलंभादो । ण च जीवसमुदाहारो उवयारेण हिदिबंधज्झवसाणहाणसण्णिदद्विदीयो ण पस्वेदि, तत्थ जीवविसेसिदहिदिपरूवणुवलंभादो। अधवा, ठिदिबंधज्झवसाणहाणमासओ त्ति जीवाणं तत्थ तव्ववएसो त्ति ण दोसो। जीवसमुदाहारे त्ति जे ते णाणावरणीयस्स बंधा जीवा ते दुविहा-सादबंधा चेव असादबंधा चेव ॥ १६६ ॥ __पुवुद्दिट्टअहियारसंभालणटं जीवसमुदाहारो पयदं ति अज्झाहारो कायव्वो, अण्णहा बातका परिशान करानेके लिये प्रकृतिसमुदाहारका अवतार हुआ है। स्थितिसमुदाहार किस लिये आया है ? इस स्थितिके इतने स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं और इतने नहीं होते हैं, इसका परिक्षान कराने के लिये स्थितिसमुदाहार प्राप्त हुआ है। इन तीन अनुयोगद्वारोंको छोड़कर यहां किसी चौथे अनुयोगद्वारकी सम्भावना नहीं है, क्योकि, वह पाया नहीं जाता। शंका-स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा करनेके लिये प्रकृतिसमुदाहार व स्थितिसमुदाहारकी सम्भावना भले ही हो, क्योंकि, प्रकृति व स्थितिका आश्रय करके वहां स्थितिबन्धाभ्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा पायी जाती है। किन्तु जीघसमुदाहारकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि, वहां उनकी प्ररूपणा पायी नहीं जाती? समाधान यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कार्यमें कारणका उपचार करनेसे स्थितियोंकी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान संज्ञा पायी जाती है । और जीवसमुदाहार उपचारसे स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान संज्ञाको प्राप्त हुई स्थितियोंकी प्ररूपणा न करता हो, ऐसा है नहीं; क्योंकि, उसमें जीवसे विशेषताको प्राप्त हुई स्थितियोंकी प्ररूपणा पायी जाती है । अथवा, चूँकि स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान आस्रव है, अतः वहाँ जीवोंकी उक्त संज्ञामें कोई दोष नहीं है। जीवसमुदाहार प्रकृत है। जो ज्ञानावरणीयके बन्धक जीव हैं वे दो प्रकार हैंसातबन्धक और असातबन्धक ॥१६६॥ पूर्वोहिष्ट अधिकारका स्मरण करानेके लिये 'जीवसमुदाहार प्रकृत है' ऐसा अभ्याहार करना चाहिये, क्योंकि अन्यथा परिज्ञान नहीं हो सकता। 'सानुबंधा' १ अ-आ-काप्रतिषु 'जाणाषणटुं च' इति पाठः। २ आ-का-ताप्रतिषु 'परूवणतं' इति पाठः। ३ अप्रतौ जीवसमुदाहारो' इति पाठः। ४ ताप्रतीति ' इत्येतत्पदं नास्ति । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] - छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६७. अत्थपडिवत्तीए अभावादो । सादबंधा ति उत्ते सादबंधया त्ति घेत्तव्यं, कत्तारणिदेसादो। णाणावरणीयस्स बंधया जीवा' दुविहा चेव सादबंधया असादबंधया चेदि । ण च सादासादाणं बंधेण विणा णाणावरणीयस्स बंधया जीवा अत्थि, अणुवलंभादो। एत्थ णाणावरणीयगहणण णाणावरणादीणं धुवबंधीणं पयडीणं बंधया जीवा दुविहा त्ति वत्तव्वं । सादबंधया इदि उत्ते साद-थिर-सुभ-सुस्सर-सुभग-आदेज-जसकित्ति-उच्चागोदाणमट्टण्णं सुहपयडीणं परियत्तमाणीणं गहणं कायव्वं, अण्णोण्णाविणाभाविबंधादो । असादबंधया इदि उत्ते असाद-अथिर-असुह-दुभग-दुस्सर-अणादेज-अजसगित्ति-णीचागोदबंधयाणं गहणं कायव्वं, बंधेण अण्णोण्णाविणाभावित्तदंसणादो । सादासादादीणमक्कमेण एगजीवम्मि बंधो किण्ण जायदे ? ण, अचंताभावेण पडिसिद्धअक्कमप्पउत्तीदो। सादासादादीणमक्कमबंधे जीवाणं सत्ती पत्थि त्ति भणिदं होदि । । तत्थ जे ते सादबंधा जीवा ते तिविहा- चउट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा बिट्ठाणबंधी ॥ १६७ ॥ . तत्थ सादबंधा जीवा ति णिद्देसेण असादबंधयजीवाणं पडिसेहो कदो । तिविहा त्ति वयणेण चउव्विहादिपडिसेहो कदो। चउठाण-तिहाण-बिट्ठाणमिदि तिविहो सादाणु भागो होदि । सादावेदणीए एगहाणाणुभागो णत्यि, तहाणुवलंभादो । बंधं पडि एगट्ठाकहनेपर 'सादबंधया' अर्थात् सातावेदनीयके बन्धक, ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, कर्ताका निर्देश है। ज्ञानावरणीयसे बन्धक जीव दो प्रकार ही हैं-सातबन्धक और असातबन्धक । साता व असाता वेदनीयके बन्धसे रहित ज्ञानावरणीयके बन्धक जीव नहीं हैं, क्योंकि वे पाये नहीं जाते । सूत्र में जो झानावरणीय पदका उपादान किया है उससे ज्ञानावरणादिक ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक जीय दो प्रकार हैं, ऐसा कहना चाहिये। 'सादबंधया ' कहनेपर साता, स्थिर, शुभ, सुस्वर, सुभग, आदेय, यशकीर्ति और उश्चगोत्र, इन आठ परिवर्तमान प्रकृतियोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, इनके बन्धमें परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। असादबंघया' कहनेसे असाता, अस्थिर, अशुभ, दुर्मग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और नीच गोत्रके बन्धकोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, बन्धकी अपेक्षा उनमें अविनाभाव सम्बन्ध देखा जाता है। शंका-एक जीवमें एक साथ साता व असातादिकोंकाबन्ध क्यों नहीं होता है? समाधान नहीं, उनकी युगपत् प्रवृत्ति अत्यन्ताभावसे प्रतिषिद्ध है, अर्थात् साता व असाता आदिकोंको एक साथ बाँधनेमें जीवोंकी शक्ति नहीं है, यह अभिप्राय है। उनमें जो सातबन्धक जीव हैं वे तीन प्रकार हैं-चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक ॥ १६७॥ सूत्रमें 'सादबन्धा जीवा' इस निर्देशसे असातबन्धक जीवोंका निषेध किया गया है। चतुःस्थान, त्रिस्थान और द्विस्थान इस प्रकारसे साता वेदनीयका अनुभाग तीन प्रकार है । सातावेदनीयमें एकस्थान अनुभाग नहीं है, क्योंकि, पैसा पाया नहीं जाता। १बंधंतीधुवपगडी परित्तमाणिगसुमाण तिविहरसं चउ-तिगबिट्ठाणगयं विवरीयगयं च असुभाणं|क.प्र.१.९०. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १६८. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे डिदिबंधल्झवसाणपख्वणा [३१३ णाणुभागस्स संभवो जदि वि णत्थि तो वि संत पडुच्च अत्थि ति एगट्ठाणाणुभागों एत्थ किण्ण परूविदो ? ण, बंधाहियारे संतपरूवणाणुववत्तीदो । एत्य सादाणुभागो जहण्णफहयप्पहुडि जाव उक्कस्सफद्दयो त्ति ताव रचेयव्वो सेडिआगारेण । तत्थ पढमो भागो गुडसमाणो' एगं हाणं, बिदियो भागो खंडसमाणो बिदियं हाणं, तदियो भागो सक्करातुल्लो तदियं ठाणं, चउत्यो भागो अमियसमो चउत्थट्ठाणं । एदाणि चत्तारिहाणाणि जम्मि सादाणुभागबंधे अत्थि सो अणुभागबंधो चउत्थट्ठाणो । तस्स बंधया जीवा चउठाणबंधया णाम । एवं तिहाण-बिट्ठाणबंधाणं पि परूवणं कायव्वं । एवं सादबंधया अणुभागबंधभेदेण तिविहा चेव होति । ___ असादबंधा जीवा तिविही- बिट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा चउटाणबंधा ति ॥ १६८ ॥ एत्य असादाणुभागो पुव्वं व सेडिआगारेण ठइदूण चत्तारिभागेसु कदेसु तत्थ पढमभागो णिबसमो एगट्ठाणं, बिदियभागो कांजीरसमो बिदियहाणं, तदियभागो विससमो शंकायद्यपि बन्धकी अपेक्षा एकस्थान अनुभागकी सम्भावना नहीं है, तथापि सत्त्वकी अपेक्षा तो उसकी सम्भावना है ही। फिर एकस्थानानुभागकी प्ररूपणा यहाँ क्यों नहीं की गई? समाधान नहीं, क्योंकि बन्धके अधिकार में सत्त्वकी प्ररूपणा संगत नहीं है। यहाँ जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक श्रेणिके आकारसे साताके अनुभागकी रचना करना चाहिये । उसमें प्रथम भाग गुड़के समान एक स्थान, द्वितीय के समान दसरा स्थान, तृतीय भाग शक्करके समान तीसरा स्थान, और चतुर्थ भाग अमृतके समान चौथा स्थान है । इस प्रकार जिस साताके अनुभागमें ये चार स्थान हों वह अनुभागबन्ध चतुर्थस्थान कहा जाता है। उसको बाँधनेवाले जीव चतुःस्थानबन्धक कहलाते हैं । इसी प्रकार त्रिस्थान और द्विस्थानबन्धकोंकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । इस अनुभागके मेदसे सातबन्धक तीन प्रकारके हैं। असातबन्धक जीव तीन प्रकारके हैं-द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक ॥ १६८॥ ___यहाँ असाताके अनुभागको पहिलके ही समान श्रेणिके आकारसे स्थापित करके चार भाग करनेपर उनमें से प्रथम भाग नीमके समान एक स्थान, द्वितीय भाग कांजीरके समान इसरे स्थान, तृतीय भाग विषके समान तीसरे स्थान, और चतुर्थ भाग हालाहलके १ अ-आ-काप्रतिषु 'गुणसमाणो', ताप्रतौ 'गुण (ड) समाणो' इति पाठः। २ इह शुभप्रकृतीनां रस: क्षीरादिरसोपमः। अशुभप्रकृतीनां तु घोषातकी-निंबादिरसोपमः। उक्त च-'घोसाडइ-निबुवमो असुभाण सुभाष खीर-खंडुवमो' इति । क्षीरादिरसश्च स्वाभाविक एकस्थानिक उम्यते । योस्तु कर्षयोरावर्तने कृते सति योऽवशिष्यते एकः कर्षः स विस्थानिकः । प्रयाणामावर्तने कृते सति य उद्धरित एकः कर्षः त्रिस्थानगतः। चतुर्णा तु कर्षणामावर्तने कृते सति योऽवशिष्टः एकः कर्षः स चतुस्थानगतः । क. प्र. (म. टी.) १,९०. ३ अप्रतौ ' असादबंधजीवा तिविहा' इति पाठः । छ. ११-४०. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६९. तदियं ठाणं, चउत्थो भागो हालाहलतुल्लो चउत्यहाणं । तत्य दोण्णि हाणाणि जम्हि अणुभागबंधे सो बिहाणो' णाम । तस्स बंधया जीवा बिट्ठाणबंधा । एवं तिहाणबंधाणं चउहाणबंधाणं च परूवणा कायव्वा । एवमणुभागबंधमस्सिदूण असादबंधा तिविहा होति । सव्वविसुद्धा सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवों ॥ १६९॥ सव्वेहिंतो विसुद्धा सव्वविसुद्धा । सादबिट्ठाण-तिहाणबंधएहिंतो सादस्स चउठाणबंधा जीवा सुळु विसुद्धा ति उत्तं होदि । एत्थे का विसुद्धदा णाम ? अइतिव्वकसायाभावो मदकसाओ विसुद्धदा त्ति घेत्तव्वा । तत्थ सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा सव्वविसुद्ध त्ति भणिदे सुट्ठमंदसंकिलेसा त्ति घेत्तव्वं । जहण्णहिदिबंधकारणजीवपरिणामो वा विसुद्धदा णाम । तिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्टदरों ॥ १७०॥ सादचउहाणबंधएहिंतो सादस्सेव तिट्ठाणाणुभागबंधया जीवा संकिलिट्ठदरा, कसाउक्कड्डा त्ति भणिदं होदि । समान चौथे स्थान रूप है । उनमेंसे जिस अनुभागबन्धमें दो स्थान हैं वह द्विस्थान अनुभागबन्ध कहलाता है। उसको बांधनेवाले जीव द्विस्थानबन्धक कहे जाते हैं। इसी प्रकार त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक जीवोंकी प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार अनुभागबन्धका आश्रय करके असातबन्धक तीन प्रकारके होते हैं। . सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध हैं ॥ १६९ ॥ 'सव्वेहितो विसुद्ध सव्वविसुद्धा ' इस प्रकार सर्वविशुद्ध पदमें तत्पुरुष समास है। साता वेदनीयके द्विस्थानबन्धकों और त्रिस्थानबन्धकोंकी अपेक्षा उनके चतुःस्थानबन्धक जीव अतिशय विशुद्ध हैं, यह उसका अभिप्राय है। __ शंका-यहां विशुद्धतासे क्या अभिप्राय है ? समाधान अत्यन्त तीव्र कषायके अभावमें जो मन्द कषाय होती है उसे विशुद्धता पदसे ग्रहण करना चाहिये। सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव सर्वविशुद्ध हैं, ऐसा कहनेपर 'वे अतिशय मन्द संक्लेशसे सहित हैं ' ऐसा ग्रहण करना चाहिये । अथवा, जघन्य स्थितिबन्धका . कारण स्वरूप जो जीवका परिणाम है उसे विशुद्धता समझना चाहिये। त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं ॥ १७०॥ साताके चतुःस्थानबन्धकोंकी अपेक्षा साताके ही त्रिस्थानानुभागबंधक जीव संक्लिष्ट तर हैं, अर्थात् वे उनकी अपेक्षा उत्कट कषायवाले हैं, यह अभिप्राय है। ........................................ - १ अ-आ-काप्रतिषु 'अणुमागबंधो सो विट्ठाणू' इति पाठः। २ ये सर्वविशुद्धा रस बघ्नन्ति । क. प्र. (म. टी.) १,९१. । ३ अप्रतो'एवं एत्थ' इति पाठः। ४ ये पुनर्मध्यमपरिणामास्ते त्रिस्थानगतं रसं बघ्नन्ति । क. प्र. (म. टी.) १,९१। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १७४. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणा [३१५ बिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्ठदरी ॥ १७१ ॥ सादतिट्ठाणुभागबंधएहिंतो सादस्सेव बिट्ठाणाणुभागबंधया जीवा संकिलिट्ठदरा, संकिलेसेणे अहिया त्ति भणिदं होदि । सव्वविसुद्धा असादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा ॥१७२ ॥ असादस्स तिट्ठाणाणुभागबंधएहितो तस्सेव बिट्ठाणाणुभागबंधया मंदकसाया त्ति भणिदं होदि। तिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्टदरा ॥ १७३ ॥ __ असादस्स बिट्ठाणाणुभागबंधएहिंतो तिहाणाणुभागबंधया जीवा सुळुक्कडसंकिलेसा होति । कुदो ? साभावियादो। चउट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्टदरा ॥ १७४॥ असादतिहाणाणुभागबंधएहिंतो तस्सेव चउट्ठाणाणुभागबंधयाणं कसायो अइबहुलो होदि । कुदो ? साभावियादो । संकिलेसे वट्ठमाणे सादादीणं सुहपयडीणमणुभागबंधो हायदि, असादादीणमसुहपयडीणमणुभागबंधो वढदि । संकिलेसे हायमाणे सादादीणं . . द्विस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं ॥ १७१॥ . साताके त्रिस्थानुभागबन्धकोंकी अपेक्षा साताके ही द्विस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं, अर्थात् वे अधिक संक्लेशवाले हैं। असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव सर्वविशुद्ध हैं ॥ १७२ ॥ ... असाता वेदनीयके त्रिस्थानानुभागबन्धकोंकी अपेक्षा उसके ही द्विस्थानानुभाग बन्धक जीव मन्दकषायवाले है, यह सूत्रका अभिप्राय है। . त्रिस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं ॥ १७३ ॥ असाताके द्विस्थानानुभागबन्धकोंकी अपेक्षा उसके ही त्रिस्थानानुभागबन्धक जीव अति उत्कट संक्लेशसे संयुक्त होते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। - चतुःस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं ॥ १७४ ॥ असाताके त्रिस्थानानुभागबन्धकोंकी अपेक्षा उसके ही चतुःस्थानानुभागबन्धकोंकी कषाय अतिशय बहुल होती है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। संक्लेशकी वृद्धि होनेपर साता आदिक शुभ प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध हीन होता है और असाता आदिक अशुभ .............................. १ संक्लिष्टपरिणामास्तु द्विस्थानगतम् । क. प्र. (म.टी.) १,९१.। २ अ-आ-काप्रतिषु 'सेकिलेसेवां इति पाठः। ३ ये पुनस्तद्योग्यमूमिकानुसारेण सर्वविशुद्धा परावर्तमाना अशुभप्रकृतीबध्नन्ति ते तासद्विस्थानगतं रस निवर्तयन्ति क. प्र. (म. टी.) १,९१। ४ मध्यमपरिणामत्रिस्थानगम् । क. प्र. (म. टी.) १,८१.५ संक्लिष्ट्रपरिणामास्तु चतुःस्थानगतम् । क. प्र. (म. टी.) १,९१. । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १७५ सुहपयडीणमणुभागबंधो वडदि, असादादीणं असुहपयडीणमणुभागबंधो हायदि त्ति उत्तं होदि । सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स जहणियं द्विदि बंधंति ॥ १७५॥ णाणावरणग्गहणं जेण देसामासियं तेण णाणावरणादीणं धुवबंधीणमसुहपयडीणं सव्वासिं जहण्णयं हिदि बंधंति त्ति घेत्तव्वं । जे जे सादस्स चउहाणाणुभागबंधया जीवा ते ते णाणावरणादीणं जहणियं चेव हिदि बंधति त्ति णावहारण कीरदे, चउठाणबंधएसु णाणावरणादीणमजहण्णहिदीणं पि बंधदंसणादो। जेण कसाओ हिदिबंधस्स कारणं तेण मंदकसाइणो सादस्स चउठाणबंधया जीवा णाणावरणीयस्स जहणियं हिदिं बंधति त्ति भणिदं । सादस्स तिट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स अजहण्णअणुक्कस्सियं ठिदि बंधंति ॥ १७६ ॥ ण ताव उक्कस्सियं हिदिं बंधंति, असादजोग्गुक्कससंकिलेसेहि विणा णाणावरणीप्रकृतियोंका अनुभागबन्ध बढ़ता है। संक्लेशकी हानि होनेपर साता आदिक शुभ प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध बढ़ता है और असाता आदिक अशुभ प्रकृतियोंका अनुभागबन्ध हीन होता है, यह अभिप्राय है। सातावेदनीयके चतुस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं ॥ १७५॥ चॅकिशानावरणका ग्रहण देशामर्शक है, अतः उससे मानावरणाविक वबन्धी सब अशुभ प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं। ऐसा ग्रहण करना चाहिये । जो जो साता वेदनीयके चतुस्थानानुभागबन्धक जीव हैं वे वेशानाधरणादिकोंकी जघन्य ही स्थितिको बाँधते हैं, ऐसा अवधारण नहीं किया जा रहा है, क्योंकि, चतुःस्थानबन्धकों में झानावरणादिकोंकी अजघन्य स्थितियोंका भी बन्ध देखा जाता है। चूंकि स्थितिबन्धका कारण कषाय है, अतः सातावेदनीयके चतु:स्थानबन्धक मन्दकषायी जीव झानावरणीयकी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं। ऐसा कहा गया है। साताके त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं ॥ १७६ ॥ . ये जीव शानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, क्योंकि, असाताके योन्य १ये सर्वविशुद्धा शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगतं रस बध्नन्ति ते ध्रुवप्रकृतीनां जघन्या स्थिति निवर्तयन्ति । क.प्र. (म. टी.)१,९१.। २ ताप्रतो'णाणावरणीयादीणं' इति पाठः। ३ अ-आ-काप्रतिषु 'धुववड्डीणमसुह- ताप्रतो 'धुववट्टीए असुह-' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु 'णाणावहारणं' इति पाठः। ५ परावर्तमानशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानगतस्य रसस्य ये बन्धकास्ते ध्रुवप्रकृतीनामजघन्यां मध्यमा स्थिति अनन्ति । क. प्र. (म.टी.) १,९२.। ६ कापतो 'सायकस्स',अ-आ प्रत्योः सागरुकस्स' ताप्रतो 'सागर (१)क्कस्स-इति पाठः। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १७७. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्ञवसाणपरूवणा [३१७ यस्स [उक्कस्स] हिदिबंधासंभवादो। ण जहण्णयं पि बंधति, उक्टविसोहीए अभावादो। तम्हा सादस्स तिट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणादीणमजहण्णमणुक्कस्सियं हिदि बंधंति त्ति उत्तं । सादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा सादस्स चेव उक्कस्सियं टिदि बंधति ॥ १७७॥ सादस्स बिट्ठाणबंधया जीवा जेण उक्कट्ठसंकिलेसा तेण सादस्स उक्कस्सियं हिदि बंधंति, ण णाणावरणीयस्स; ओघुक्कस्ससंकिलेसाभावादो। ण च सादबंधपाओग्गउक्कस्ससंकिलेसेण णाणावरणीयस्स उक्कस्सहिदि बंधदि, विरोहादो । ण च सादस्स बिट्टाणबंधया सव्वे वि सादुक्कस्सहिदि पण्णारससागरोवमकोडाकोडिमेत्तं बंधति, तत्थे अणुक्कस्सहिदिबंधस्स वि उवलंभादो। तम्हा अजोगववच्छेदो एत्थ कायबो (अत्रोपयोगिनौ श्लोको विशेषण-विशेष्याभ्यां क्रियया च सहोदितः । पार्थों धनुर्धरो नीलं सरोजमिति वायां ॥७॥ अयोगमपर्योगमत्यन्तायोगमेव च । व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचकः ॥८॥ उत्कृष्ट संक्लेशके विना बानावरणीय [ उत्कृष्ट ] स्थितिवन्धकी सम्भावना नहीं है। उसकी जघन्य स्थितिको भी नहीं बांधते हैं, क्योंकि उनके उत्कृष्ट विशुद्धिका अभाव है । अतएव त्रिस्थानबन्धक जीवशानाधरणादिकोंकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितिको बांधते हैं, ऐसा कहा गया है। .. साताके द्विस्थानबन्धक जीव सातावेदनीयकी ही उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं ॥१७॥ सातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव कि उत्कृष्ट संक्लेशसे संयुक्त होते हैं अतःवे साता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधते हैं, न कि भानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिको, क्योंकि यहां सामान्य उत्कृष्ट संक्लेशका अभाव है। साताके बन्ध योग्य उस्का संक्लेशहानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि, इसमें विरोध है। दूसरे, साता वेदनीयके द्विस्थानबन्धक सभी जीव सातावेदनीयकी पन्द्रह कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिको नहीं बांधते हैं, क्योंकि उनमें उसका अनुत्छर. स्थितिबन्ध भी पाया जाता है। इस कारण यहां अयोगव्यवच्छेद करना चाहिये । यहां उपयोगी दो श्लोक निपात अर्थात् एवकार व्यतिरेचक अर्थात् निवर्तक या नियामक होता है । विशेषण, विशेष्य और क्रियाके साथ कहा गया निपात क्रमसे अयोग, अपरयोग ( अन्ययोग) १ अ-का-ताप्रतिषु संकिलेसेहि वि णाणावरणीयस्स' इति पाठः। २ अ-आ-का-ताप्रतिषु 'ण' इत्येतत्पदं नास्ति, मप्रती स्वस्ति तत् । ३ प्रतिषु 'उक्कस्सहिदी' इति पाठः। ४ आप्रतो 'सागरोवममेत कोगकोडी बन्नन्ति' इति पाठः।५ अप्रतो 'तस्त' इति पाठः। ६ ताप्रतो 'वामथा (१) इति पाठः। ७ अ-काप्रत्योः -योगमेव' इति पाठः।८ प्रमाणवार्तिक ४-१९०.। . Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १७८. - असादस्स बेठाणबंधा जीवा संस्थाणेणं णाणावरणीयस्स जहणियं द्विदिं बंधंति ॥ १७८ ॥ - असादबंधएसु बेट्ठाणबंधया जीवा अइविसुद्धा मंदकसाइत्तादो जहण्णट्ठिदिकारणपरिणामेहि संजुत्ता, तेण णाणावरणीयस्स जहणियं हिदि बंधति । जहण्णहिदिं बंधता वि ओघजहणियं हिदि ण बंधति त्ति जाणावण8 सत्थाणेण णाणावरणीयस्स जहणियं हिदि बंधति त्ति भणिदं । सत्याणेण णाणावरणीयस्स का जहण्णहिदी णाम ? असादेण सह और अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है। जैसे-'पार्थो धनुधरः' और 'नीलं सरोजम्' इन वाक्योंके साथ प्रयुक्त एषकार ॥ ७-८ - विशेषार्थ-विशेषणके साथ प्रयुक्त एवकार अयोगव्यवच्छेदका बोधक होता है। जैसे-'पार्थों धनुर्धरः एव ' अर्थात् पार्थ धनुषधारी ही है, इस वाक्यमें प्रयुक्त एवकार पार्थमें अधनुर्धरत्वकी आशंकाको दूरकर धनुर्धरत्वका विधान करता है। अतः वह अयोगव्यवच्छेदका बोधक है । विशेष्यके साथ प्रयुक्त एवकार अन्ययोगव्यवच्छेदका बोधक होता है । जैसे-'पार्थ एव धनुर्धरः' अर्थात् अर्जुन ही एक मात्र धनुर्धर है, इस काक्यमें प्रयुक्त एषकार अर्जुनमें जो अन्य धनुधरौंकी अपेक्षा सातिशय धनुर्धरत्व विद्यमान है उसका अन्य पुरुषों में निषेध करता है। अतएव वह भन्ययोगव्यवच्छेदका बोधक है। क्रियापदके साथ प्रयुक्त एवकार अत्यन्तायोगव्यवछेदका बोधक होता है। जैसे'नीलं सरोजं भवत्येव' अर्थात् सरोज नील होता ही है, इस वाक्यमें प्रयुक्त एवकार सरोजमें नीलत्वके अत्यन्ताभावका व्यवच्छेदक होनेसे अत्यन्तायोगव्यवच्छेदका बोधक है। (देखिये न्यायकुमुदचन्द्र भा. २ पृ. ६९३) : असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव स्वस्थानसे ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं ॥ १७८॥ __ असातबन्धकोंमें द्विस्थानबन्धक जीव अतिशय विशुद्ध होते हुए, मन्दकषायी होनेसे कि जघन्य स्थितिके कारणभूत परिणामोंसे संयुक्त हैं, इसीलिये वे ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिको बाँधते हैं । जमन्य स्थितिको बाँधते हुए भी वे ओघ जघन्य स्थितिको नहीं बाँधते है, इस बातके शापनार्य 'स्वस्थानसे शानावरणीयकी जघन्य स्थितिको बांधते हैं। ऐसा कहा गया है। शंका-स्वस्थानसे शानावरणीयकी जघन्य स्थिति किसे कहते हैं। १ अ-आ-काप्रतिषु 'संठाणेण' इति पाठः। २ तथा इतरासां परावर्तमानाशुभप्रकृतीनां ये द्विस्थानगतं रस बध्नन्ति ते ध्रुवप्रकृतीनां जघन्यां स्थितिं स्वस्थाने, स्वविशुद्धिभूमिकानुसारेणेत्यर्थः, बध्नन्ति । परावर्तमानाशुभप्रकृतिसत्कद्विस्थानगतरसबन्धहेतुविशुद्धयनुसारेण जघन्या स्थिति बध्नन्ति, न त्वतिजघन्या. मित्यर्थः। बघन्यस्थितिबन्धो हि ध्रुवप्रकृतीनामेकान्तविशुद्धौ सम्भवति, न च तदानीं परावर्तमानाशुभ. प्रकृतीनां बन्धा सम्भवन्ति । क. प्र. (म. टी.) १,९२. । ३ प्रतिषु ' संजुत्तं' इति पाठः। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............................................... ४, २, ६, १८०. ] वेयणमहाहियारे वेषणकालविहाणे डिदिबंधष्झवसाणपरूवणा (३१९ बंधपाओग्गा गाणावरणीयस्से सत्वजहण्णहिदी सा. सत्याणजहण्णा णाम । तिस्से बंधया त्ति उत्तं होदि .. ... . असादस्स तिट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स अजहण्णअणुक्कस्सियं द्विदि बंधंति ॥ १७९ ॥ कुदो ? ण ताव उक्कस्सियं हिदि बंधंति, उक्कस्ससंकिलेसाभावादो । ण जहणियं पि, अइविसुद्धपरिणामाभावादो । तम्हा णाणावरणीयस्स अजहण्ण-अणुक्कस्सियं चैव हिदि असादतिट्ठाणबंधा जीवा बंधंति त्ति सिद्धं । . . असादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा असादस्स चेव उक्कस्सियं टिदिं बंधंति ॥ १८० ॥ जेण असादस्स चउट्ठाणबंधया जीवा तिव्वसंकिलेसा तेण असादस्स उक्कस्सियं हिदि बंधंति । एत्थ चेव सद्दो अवि-सदृढे वट्टदे। तेण णाणावरणादीणं पि उक्कस्सियं द्विदिं बंधति त्ति घेत्तव्वं, अण्णहा तदुक्कस्सहिदीणं बंधकारणाभावप्पसंगादो । एवं समाधान-असातावेदनीयके साथ बन्धके योग्य जो ज्ञानावरणीयकी सबसे जघन्य स्थिति है वह स्वस्थान जघन्य स्थिति कही जाती है। उक्त जीव उसी स्थितिके बन्धक हैं, यह अभिप्राय है। असातावेदनीयके त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थितिको बांधते हैं ॥ १७९ ॥ कारण यह कि वे उत्कृष्ट स्थितिको तो बांधते नहीं हैं, क्योंकि, उनके उत्कृष्ट संक्लेशका अभाव है। न जघन्य स्थितिको भी बांधते हैं. क्योंकि, उनके अत्यन्त विशुद्ध परिणामोंका अभाव है। इस कारण असाताके त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितिको ही बांधते हैं, यह सिद्ध है। असाता वेदनीयके चतुस्थानबन्धक जीव असातावेदनीयकी ही उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं ॥ १८०॥ चूँकि असाता वेदनीयके चतुस्थानबन्धक जीव तीव्र संक्लेशसे संयुक्त होते हैं, अतएव वे असाता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं। यहाँ सूत्रमें प्रयुक्त 'चेव' शब्द 'अपि' शब्दके अर्थ में वर्तमान है। इसीलिये वे ज्ञानावरणादिकोंकी भी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि, इसके विना उनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणोंके अभाषका प्रसंग आवेगा । इस प्रकार साता व असाता वेदनीयके १ये पुनः परावर्तमानशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानमतस्य रसस्य बन्धकास्ते ध्रुवप्रकृतीनामजघन्यो स्थिति बन्नन्ति । क. प्र. (म. टी.)१,९२.। २ तथा ये परावर्तमानाशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानगतं रसं नमन्ति ते ध्रुवप्रकृतीनामुत्कृष्टो स्थिति निवर्तयन्ति । क.प्र. (म.टी.) १,९२। . .. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२.] - छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १८१. सादासादाणं चउहाण-तिहाण-बिट्ठाणाणुभागबंधेसु हिदीणं संकिलेस-विसोहीणं च पमाणं परूविय संपहि हिदीयो आधारं कादूण तत्थ द्विदजीवाणं सेडिपवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि तेसिं दुविहा सेडिपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा ॥ १८१ ॥ एदं सुत्तं देसामासियं, सेडिपरूवणं भणिदूण परूवणा-पमाण-अवहार-भागाभागअप्पाबहुगाणं सूचयत्तादो । तेण ताव परूवणादीणं पण्णवणा कीरदे । तं जहा- सादस्स चउहाणबंधया तिहाणबंधया बिट्ठाणबंधया असादस्स बिट्ठाणबंधया तिट्ठाणबंधया चउहाणपंधया णाणावरणीयस्स सग-सगजहणियाए द्विदीए अस्थि जीवा बिदियाए ठिदीए अस्थि जीवा एवं णेयव्वं जाव अप्पप्पणो उक्कस्सहिदि त्ति । परूवणा गदा। __ सादस्स चउठाण-तिहाण-बिट्ठाणबंधया असादस्स बिट्ठाण-तिहाण-चउठाणबंधगा णाणावरणीयस्स सग-सगजहण्णियाए हिदीए जीवा पदरस्स असंखेजदिमागमेत्ता, बिदियाए ठिदीए पदरस्स असंखेजदिभागमेत्ता, एवं णेदव्वं जाव अप्पप्पणो उक्कस्सहिदि त्ति । सादबिहाणिय जवमज्झादो असादचउहाणियजवमज्झादो च उवरिमहिदीसु कत्थ वि सेडीए असंखेजदिभागमेत्ता जीवा किण्ण होति त्ति उत्ते- ण होति । किं कारणं? अप्पप्पणो चतुःस्थान, त्रिस्थान और विस्थान रूप अनुभागबन्धों में स्थितियो एवं संक्लेश व विशुद्धिके प्रमाणकी प्ररूपणा करके अब स्थितियोंका आश्रय करके उनमें स्थित जीवोंकी श्रेणिप्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं । उनकी श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा ॥१८॥ - यह सूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, वह श्रेणिप्ररूपणाको कहकर प्ररूपणा, प्रमाण, अवहार, भागाभाग और अलाबहुत्व अनुयोगद्वारोंका सूचक है। अतएव पहिले प्ररूपणा आदिक अनुयोगद्वारोंका प्रज्ञापन किया जाता है। यथा-सातावेदनीयके चतु:स्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक तथा असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक त्रिस्थानबन्धक और चतुस्थानबन्धक शानावरणीयकी अपनी अपनी जघन्य स्थितिमें जीव हैं। द्वितीय स्थितिमें जीव हैं। इस प्रकार अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये। प्ररूपणा समाप्त हुई। , सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक तथा. असाता वेदनीयके द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक जीव शानावरणीयकी अपनी अपनी जघन्य स्थितिमें जगप्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। द्वितीय स्थितिमें जीव प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । इस प्रकार अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक ले जाना चाहिये। . शंका-साता वेदनीयके विस्थानिक यवमध्यसे तथा असातावेदनीयके चतुः स्थानिक यवमध्यसे ऊपरकी स्थितियोंमें कहींपर भी जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण जीव क्यों नहीं होते ? Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १८२. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्यवसाणपरूवणा [३२९ जहण्णहिदीए जीवेहि समाणजवमज्झउवरिमट्टिदिजीवा पदरस्स असंखेजदिभागमेत्ता, तसरासिम्मि तिण्णिगुणहाणिगुणिदपलिदोवमस्स असंखेजदिमागेण भागे हिदे सेडीए असंखेजदिमागमेत्तसेडीणमुवलंभादो । ण च एदेसु पदरस्स असंखेजदिभागमेत्तजीवेसु पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तद्धाणं गंण अद्धद्धेणे ज्झीयमाणेसु अवसाणे सेडीए असंखेजदिभागमेत्तं होदि, उवरिमअण्णोण्णन्मत्यरासिणा पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण पदरस्स असंखेजदिभागे भागे हिदे असंखेजसेडिमेत्तजीवोवलंभादो । उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ सेडिछेदणाहिंतो बहुगाओ ति के वि आइरिया भणंति । तेसिमाइरियाणमहिप्पारण सेडीए असंखेजदिभागमेत्ता जीवा उवरि तप्पाओग्गासंखेजगुणहाणीयो गंतृण होति । ण च एवं, वक्खाणे अण्णोण्णभत्थरासिस्स पलिदोवमस्स असंखेजदिभागत्तुवलंभादो । पमाणपरूवणा गदा। अणंतरोवणिधाए सादस्स चउट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा जीवा असादस्स विट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधी जीवा णाणावरणीयस्स जहण्णियाए ट्ठिदीए जीवा थोवा ॥ १८२॥ समाधान-उक्त शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि वे श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण नहीं होते हैं। कारण यह कि अपनी अपनी जघन्य स्थिति के जीवोंके समान यवमध्यसे उपरिम स्थितियोंके जीव प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, क्योंकि, त्रस राशिमें तीन गुणहानियोंसे गुणित पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण जगश्रेणियाँ लब्ध होती हैं। परन्तु प्रतरके असंख्यातवें भाग मात्र इन जीवोंके के असंख्यातवे भाग मात्र अध्यान जाकर अर्ध-अर्ध भागसे हीन होनेपर अन्तमें उनका प्रमाण श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र रहता है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण उपरिम अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रतरके असंख्यातवें भागमें भाग देनेपर असंख्यात श्रेणियों प्रमाण जीव उपलब्ध होते हैं। ऊपरकी नानागुणहानिशलाकायें श्रेणिके अर्धच्छेदोंसे बहुत हैं, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। उन आचार्यों के अभिप्रायसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण आष आगे तत्मायोग्य असंख्यात गुणहानियां जाकर हैं। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि, इस व्याख्यानमें भन्योन्याम्यस्त राशि पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण पायी जाती है। प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा साता वेदनीयके चतुःस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक जीव, असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक जीव तथा ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिके जीव स्तोक हैं ॥ १८२॥ १ अ-आ-का-प्रतिषु 'अद्धण' इति पाठः। २ साप्रती 'पदरस्स असंखेजदिभागे' इत्येतावान् पाठो नास्ति । आप्रतो असंखे. भागेण भागे हिदे, काप्रती असंखेज्ज दिमागे हिदे' इति पाठः। ३ तापतो 'विट्ठाणतिहाणबंधा' इति पाठः।४ योवा जाणियाए होति विसेसाहिओ दहिसयाई। छ. ११-४१ umraineermenter Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १८३. सादस्स चउहाणाणुभागबंधपाओग्गष्टिदीयो सागरोवमसदपुधत्तमेत्ताओ । ताओ . बुद्धीए पुध हविय, तिहाणाणुभागबंधपाओग्गाओ सागरोवमसदपुधत्तमेत्ताओ, एदाओ वि पुध हविय; एवमसादस्स बिट्ठाणतिहाणाणुभागबंधपाओग्गसागरोक्मसदपुधत्तमत्ताहिदीयो च पुध हविय, तत्थ एदसिं चदुण्णं पि पंतीणं णाणावरणीयस्स जहण्णियाए हिदीए जीवा थोवा; तसरासिस्स संखेजदिभागमेक्केक्कट्रिदिपंतिअब्भतरे हिदजीवरासिं तिणिगुणहाणिगुणिदपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भागे देि जहण्णहिदिजीवाणं पमाणुवलंभादो। बिदियाए ट्ठिदीए जीवा विसेसाहिया ॥ १८३ ॥ कुदो ? एगगुणहाणियद्धाणमसंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलमत्तं विरलिय जहण्णहिदिजीवे समखंडं करिय विरलणरूवं पडि दादूण तत्थ एगखंडमेत्तेण अहियत्तुवलंभादो । एगगुणअद्धाणं चेव भागहारो होदि ति कधं णव्वदे ? पक्खेवाणं दुगुणत्तुवलंभादो। तं पि कुदो ? अण्णहा जवमज्झभावाणुववत्तीदो। ___ साता वेदनीयकी चतुःस्थानानुभागवन्धके योग्य शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण स्थितियां हैं । उनको बुद्धिसे पृथक् स्थापित करके उसीकी त्रिस्थानानुभागबन्धके योग्य जो शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण स्थितियां हैं इनको भी पृथक् स्थापित करके, इसी प्रकार असाता वेदनीयकी द्विस्थान व त्रिस्थान रूप अनुभागबन्धके योग्य शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण स्थितियोंको प्रथक स्थापित करके उनमें इन चारों ही कमाकी पंक्तियोंके शानावरणीयकी जघन्य स्थितिके जीव स्तोक हैं, क्योंकि, अस राशिके संख्यातवें भाग एक एक पंक्तिके भीतर स्थित जीवराशिमें तीन गुणहानिगुणित पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जघन्य स्थितिके जीवोंका प्रमाण उपलब्ध होता है। . द्वितीय स्थितिके जीव विशेष अधिक हैं ॥ १८३ ॥ इसका कारण यह है कि पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण एकगुणहानि- अध्यानका विरलन करके जघन्य स्थितिके जीवोंको समखण्ड करके प्रत्येक विरलन रूपके ऊपर देकर उनसे एक खण्डके प्रमाणसे उनमें अधिकता पायी जाती है। शंका-एकगुणहानिअध्वान ही भागहार होता है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान--प्रक्षेपोंमें दुगुणताकी उपलब्धि होनेसे जाना जाता है कि एक गुणहानिअध्वान ही भागहार होता है। _शंका-वह भी कहांसे जाना जाता है ? जीवा विसेसहीणा उदहिसयपुहत्त मो जाव ॥ एवं तिहाणकरा बिट्ठाणकरा य आ सुभुक्कोसा। असभाण बिट्टाणे ति-च उट्ठाणे य उक्कोसा ॥ क. प्र. १,९३-९४.। परावर्तमानानां शुभप्रकृतीनां चतुस्थानगतरसबन्धका सन्तो ज्ञानावरणीयादीनां ध्रुवप्रकृतीनां जघन्यस्थिती बन्धकस्वेन वर्तमाना जीवा स्तोकाः (म. टी.)। १अप्रतो' पि कम्माण पंतीणं' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'जीवरासी.. तिण्णि', आप्रती 'जीवरासितिण्णि' इति पाठः। ... . Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १८६. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्यवसाणपरूवणा [३२३ - तदियाए हिदीए जीवा विसेसाहिया ॥ १८४ ॥ केत्तियमेत्तेण ? एगविसेसमेत्तेण । एवं उवरिं पि एगेगजीवविसेसमहियं कादूण णेदव्वं । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव सागरोवमसदपुधत्वं ॥१८५॥ ___ सागरोवमसदपुधत्तवयणेण चदुण्णं पि जवमज्झाणं हेट्ठिमअद्धाणपमाणं जाणाविदं । एत्य विसेसो अणवट्टिदो दट्टब्बो, गुणहाणि पडि दुगुणक्कमेण विसेसाणं वडिदंसणादो। तेण परं विसेसहीणा विसेसहीणा जाव सागरोवमसदपुत्त्रं ॥१८६॥ एदेण सागरोवमसदपुधत्तवयणेण चदुण्णं जवमज्झाणं उवरिमअद्धाणपमाणं आणाविदं । जवमज्झउवरिमगुणहाणीयो वि हेट्टिमगुणहाणीहि अद्धाणपमाणेण समाणाओ। जीवविसेसा पुण अणवहिदा; अद्धद्धक्कमेण गुणहाणि पडि तेसिं गमणुवलंभादो। समाधान—चूँकि इसके विना यवमध्यपना बनता नहीं है, इसलिये उनका दुगुणत्व निश्चित होता है। तृतीय स्थितिमें जीव विशेष अधिक हैं ॥ १८४ ॥ .. कितने प्रमाणसे वे भधिक हैं ? वे एक विशेष मात्रसे अधिक हैं । इसी प्रकार आगे भी एक एक जीवविशेषको अधिक करके ले जाना चाहिये। ___ इस प्रकार शतपृथक्त्व सागरोपमों तक विशेष अधिक विशेष अधिक ही हैं॥१८५॥ 'शतपृथक्त्व सागरोपम' के कहनेसे चारों ही यवमध्योंके अधस्तन अध्यानका प्रमाण बतलाया गया है। यहां विशेषको अनवस्थित समझना चाहिये, क्योंकि, प्रत्येक गुणहानिके प्रति दुगुणे क्रमसे विशेषोंकी वृद्धि देखी जाती है। उसके आगे शतपृथक्त्व सागरोपमों तक विशेष हीन विशेष हीन हैं ॥ १८६ ॥ इस ‘सागरोपमशतपृथक्त्व' के कहनेसे चारों यवमध्योंके उपरिम अध्वानका प्रमाण बतलाया गया है। यवमध्यसे ऊपरकी गुणहानियां भी अध्वानप्रमाणकी अपेक्षा नीचेकी गुणहानियोंके समान हैं । परन्तु जीवविशेष अनवस्थित हैं, क्योंकि, प्रत्येक गुणहानिके प्रति उनकी आधे आधे क्रमसे प्रवृत्ति देखी जाती है। wanaman ....... .......... १ ततो द्वितीयस्यां स्थितौ विशेषाधिकाः । ततोऽपि तृतीयस्यां स्थितो विशेषाधिकाः । एवं तावद्विशेषाधिका वक्तव्या यावत्प्रभूतानि सागरोपमशतान्यतिक्रान्तानि भवन्ति । ततः परं विशेषहीना विशेषहीनास्तावद्वतन्या यावद्विशेषहानावपि 'उदहिसयपुहुत्तं त्ति' प्रभूतानि सागरोपमशतानि भवन्ति । 'मो' इति पादपूरणे। पृथक्त्वशब्दोऽत्र बहुत्ववाची। यदाह चूर्णिकृत्-पृहुत्तसहो बहुत्तवाचीति ।' इति । क. प्र. (म. टी.) १,९३.। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [.२ ३२४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १८७. सादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा असादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स जहणियाए ट्ठिदीए जीवा थोवा ।। १८७॥ कुदो ? जहण्णट्ठाणजीहितो विसेसाहियकमेण उवरिमट्ठिदिजीवाणं वलिदसणादो। बिदियाए द्विदीए जीवा विसेसाहिया ॥१८८ ॥ _____ केत्तियमेत्तो विसेसो ? एगजीवविसेसमेत्तो। को पडिभागो ? एगदुगुणवडिअद्धाणं । तदियाए ट्ठिदीए जीवा विसेसाहिया ॥ १८९॥ को विसेसो ? ख्वाहियगुणहाणीए खंडिदएगखंडमेत्तो । एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव सागरोवमसदपुधत्तं ॥ १९०॥ __ एदेण सागरोवमसदपुधत्तणिद्देसेण जवमज्झाणं हेडिमअद्धाणं जाणाविदं । एत्थ गुणहाणिअद्धाणाणं पमाणमवहिदं । जीवविसेसा पुण अणवहिदा, गुणहाणिं पडि दुगुणदुगुणक्कमेण तेर्सि वड्डिदंसणादो। - तेण परं विसेसहीणा विसेसहीणा जाव सादस्स असादस्स उक्कस्सिया हिदि ति ॥ १९१ ॥ _ साताके द्विस्थानबन्धक जीव और असाताके चतुःस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिमें स्तोक हैं ॥ १८७॥ इसका कारण यह है कि जघन्य स्थितिक जीवोंकी अपेक्षा जा जीवोंके विशेष अधिक क्रमसे वृद्धि देखी जाती है। . द्वितीय स्थितिमें जीव विशेष अधिक हैं ॥ १८८॥ विशेष कितना है ? बुह एक जीविशेषके बराबर है। प्रतिभाग क्या है ? एक दुगुणवृद्धिअध्वान प्रतिमाग है। तृतीय स्थितिमें जीव विशेष अधिक हैं ॥ १८९॥ _ विशेष क्या है ? एक अधिक गुणहानिका द्वितीय स्थितिमें भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उतना विशेषका प्रमाण है। इस प्रकार शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण स्थिति तक जीवोंका प्रमाण विशेष अधिक विशेष अधिक होता गया है ॥ १९० ॥ 'शतपृथक्त्व सागरोपम' इस निर्देशसे यवमध्चोंके अधस्तन अध्धानको बतलाया गया है। यहां गुणहानिअध्वानोंका प्रमाण अवस्थित है। परन्तु जीव विशेष अनवस्थित है, प्रत्येक गुणहानिके अनुसार उनके दुगुण-दुगुण वृद्धि देखी जाती है। इसके आगे साता व असाता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति तक वे विशेष हीन विशेष हीन होते गये हैं ॥ १९१॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, १९२. ] वेयणमहा हियारे वेयणकाळविहाणे द्विदिबंधझवसाणपरूवणा [ ३२५ देसि दोणं जवमज्झाणं पुध परूवणा किमहं कदा ? पुव्विल्लचदुण्णं जवमज्झाणं जवमज्झादो हेट्ठिम-उवरिमअद्धाणाणि सागरोवमसदपुधत्तमेत्ताणि चेव, एदेसिं दोण जवमज्झाणं हेट्ठिमअद्धाणाणि सागरोवमसदपुधत्तमेत्ताणि, उवरिमअद्धाणाणि पुण पण्णारसतीससागरोवमकोडाकोडिमेत्ताणि त्ति जाणावणङ्कं पुध परूवणा कदा । एत्थ छष्णं पि जवमज्झाणं एगेगगुणहाणिअद्धाणं समाणं । कुदो । गुरूवएसादो । णाणागुणहाणिसला - गाओ पुण असमाणाओ,' जवमज्झे हिमउवरिमअद्धाणाणं अण्णोष्णसमाणत्ताभावादो । एत्थ संदिट्ठी एसा १६।२०|२४|२८|३२|४०|४८/५६/६४|५६।४८|४०|३२|२८|२४| २०।१६।१४|१२|१०|८|७ | ६ | ५ | एवमणंतरोवणिधा समत्ता । परंपरोवणिधाए सादस्स चउट्टाणबंधा तिट्ठाणबंधा जीवा असादस्स विद्वाणबंधा तिट्ठाणबंधा णाणावरणीयस्स जहण्णियाए ट्टिदीए जीवेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणवदि ॥ ९९२ ॥ तदो जहणट्ठाणजीवेहिंतो त्ति [ उत्तं ] होदि । जहण्णट्ठाणजीवेर्हितो दुगुणत्तं शंका- - इन दो· यवमध्योंकी पृथक् प्ररूपणा किसलिये की गई है ? समाधान-पूर्व चार यवमध्यों सम्बन्धी यवमध्यसे नीचे व ऊपरके मध्यान शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण ही हैं, परन्तु इन दो यवमध्योंके नीचेके अध्वान शतपृथक्त्व: सागरोपम प्रमाण और उपरिम अध्वान पन्द्रह व तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण हैं; इस बात को बतलानेके लिये उनकी पृथक प्ररूपणा की गई है। यहां छह यवमयोंकी एक एक गुणहानिका अध्वान समान है, क्योंकि, ऐसा गुरुका उपदेश है । परन्तु नानागुणद्दानिशलाकायें असमान हैं, क्योंकि, यवमध्य में नीचे व ऊपरके अध्वानोंके परस्पर संमानता नहीं है। यहां उनकी संदृष्टि: यह है - ( मूलमें देखिये ) इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई । परम्परोपनिधाकी अपेक्षा साताके चतुस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक जीव तथा असाताके द्विस्थानबन्धक व त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिके जीवोंकी अपेक्षा उनसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते हैं । १९२ ॥ ' तदो' पदका अर्थ ' जघन्य स्थितिके जीवोंकी अपेक्षा' है । अर्थात् वे जघन्य १ ताप्रयो ' असमाणाओ त्ति', इति पाठः । २ पल्लासंखियमूलानि गंतुं दुगुणा य द्रुगुणहीणा य ! नाणंतराणि पलस्त मूलभागो असंखतमो ॥ क. प्र. १,९५ । पल्लत्ति - परावर्तमानशुभप्रकृतीनां चतुः स्थानगतरसबन्धका वप्रकृतीनां जघम्यस्थितौ बन्धकत्वेन वर्तमाना ये जीवास्तदपेक्षया जघन्यस्थितेः परतः पस्योपमस्यासंख्येयानि बर्गमूलानि - पल्योपमस्या संख्येयेषु वर्गमूलेषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणाः स्थितीरतिक्रम्यान्तरे स्थितिस्थाने द्विगुणा भवन्ति ( म. डी. ) । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] छक्खंडागमे बेयणाखंड [ ४, २, ६, १९३. पंडिवजमाणा । कं पेक्खिदूण दुगुणत्ते पुच्छिदे जहण्णहिदीए जीवेर्हितो त्ति भणिदं होदि । एदेसिं, जवमज्झाणं णाणा गुणहाणिसलागाहि अप्पप्पणी अद्धाणे भागे हिदे एगगुणहाणि - अद्धा होदि त्तत्वं । जवमज्झस्स हेट्ठा एक्का चैव गुणहाणी ण होदि, अगाओ होति त्ति जाणावणद्वमुत्तरसुत्तं भणदि एवं दु गुणवडिदा दुगुणवड्ढिदा जाव जवमज्झं ॥ १९३ ॥ अवमिद्धाणं गंतॄण दुगुणवड्डी होदि त्ति जाणावणहमेवमिदि विदेसो कदो । जवमज्झस्स ट्ठा गुणहाणीयो बहुगाओ होंति त्ति जाणावणटुं विच्छाणिद्देसो' कदो । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा ॥। १९४ ।। जवमज्झादो उवरिमगुणहाणीयो आयामेण हेट्ठिमगुणहाणीहि समाणाओ । से सुगमं । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव सागरोवमसदपुधत्तं ॥ १९५ ॥ एदसिं चदुण्णं जवमज्झाणं हेडिमभागो व्व उवरिमभागो सागरोवमसदपुधत्तमेत्तो चेव होदि त्ति जाणावणहं सागरोवमसदपुधत्तग्गहणं कदं । सेसं सुगमं । स्थितिके जीवोंकी अपेक्षा डुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते हैं। किसकी अपेक्षा वे दुगुणे हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि वे जघन्य स्थितिके जीवोंकी अपेक्षा दुगुणे हैं, यह अभिप्राय निकलता है। इन यवमध्योंकी नानागुणहानिशलाका मकां अपने अपने अध्वानमें भाग देनेपर एक गुणहानिअध्वान प्राप्त होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यवमध्यके नीचे एक ही गुणहानि नहीं होती, किन्तु वे अनेक होती हैं; इस बातका ज्ञापन करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं इस प्रकार यवमध्य तक वे दुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त हुए हैं ॥ १९३ ॥ अवस्थित अध्वान जाकर दुगुणी वृद्धि होती है, इस बातका परिज्ञान करानेके लिये ' एवं ' पदका निर्देश किया गया है । यवमध्यके नीचे गुणहानियां बहुत होती हैं. इस बातके शापनार्थ 'दुगुणवडिदा दुगुणवढिदा ' यह वीप्सा (द्विरुक्ति) का निर्देश किया है । इसके आगे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर वे दुगुणी हानिको प्राप्त होते हैं ॥ १९४ ॥ मध्यसे ऊपरकी गुणहानियां आयामकी अपेक्षा समान हैं। शेष कथन सुगम है । इस प्रकार शतपृथक्त्व सागरीपम प्रमाण स्थितितंक दुगुणी दुगुणी हानिको प्राप्त होते गये है ॥ १९५ ॥ इन चार यवमध्योंके अधस्तन भागके समान उपरिम भाग भी शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण ही है, इस बातका परिक्षा कराने के लिये सूत्र में ' सागरोपमशतपृथक्त्व ' का ग्रहण किया है। शेष कथन सुगम है । १ प्रतिषु 'मिच्छाणिद्देसो ' इति पाठः । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २००. ] वेयणमहाहियारे वेयणकाविहाणे विदिबंधज्झवसाणपरूवंणां ३२७ सादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा असादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स जहणियाए द्विदीए जीवेहितो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं मंतूण दुगुणवढिदा ॥ १९६ ।। सुगममेदं । . एवं दुगुणवड्ढिदा दुगुणवड्ढिदा जाव सागरोक्मसदपुधत्तं ॥ १९७॥ एवं पि सुगमं । तेण परं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागं गंतूण दुगुणहीणा ॥ १९८ ॥ एदं पि सुगमं । एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव सादस्स असादस्स उक्कस्सिया हिदि त्ति ॥ १९९ ॥ . एदं पि सुगमं । एगजीव-दुगुणवढि-हाणिटाणंतरमसंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि ॥२००॥ पुव्वं गुणहाणीए आयामो सामण्णेण परूविदो, विसेसेण विणा पलस्स असंखेजदि सातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव व असातावेदनीयके चतुस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिके जीवोंकी अपेक्षा उससे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते गये हैं ॥ १९६॥ ___यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार शतपृथक्त्व सागरोपमों तक दुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते गये हैं ॥ १९७॥ यह सूत्र भी सुगम है। इसके आगे पल्योपमका असंख्यातवां भाग जाकर वे दुगुणी हानिको प्राप्त होते गये हैं ॥ १९८॥ यह सूत्र भी सुगम है। इस प्रकार साता व असाता वेदनीयकी उत्कृष्ट स्थिति तक दुगुणे दुगुणे हीन होते गये हैं॥१९९॥. यह सूत्र भी सुगम है। एकजीवदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात वर्गमूल प्रमाण है ॥२०॥ पहिले सामान्य रूपले गुणहानिके आयामकी प्ररूपणा की गई है, क्योंकि, वह Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८) - छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २०१. पो त्ति उवइट्टत्तादो । संपधि तस्स अद्धाणस्स विसेसो एदेण सुत्तेण परूविदो । असंखेजाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि त्ति भणिदे असंखेजा पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि त्ति घेत्तव्वं, विदियादिवग्गमूलेसु वग्गिदेसु पलिदोवमाणुप्पत्तीदो। . णाणाजीव-दुगुणवढि-हाणिट्टाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो ॥२०१॥ पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेजदि भागमेत्ताओ णाणागुणहाणिसलागाओ होति त्ति जदि वि सामण्णेण उत्तं तो वि पलिदोवमअद्धछेदणएहिंतो थोवाओ ति घेत्तव्वं । कुदो ? एदेसिमण्णोण्णभत्थरासी पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो ति गुरूवदेसादो । णाणाजीव-दुगुणवढि-हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि ॥२०२॥ कुदो ? पलिदोवमादो असंखेजाणि वग्गट्ठाणाणि हेट्ठा ओसरिय उप्पण्णत्तादो । एगजीव-दुगुणवढि-हाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ २०३॥ कुदो ? असंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणत्तादो । कम्मपदेसगुणहाणीदो एसा जीवगुणहाणी किं सरिसा किमसरिसा त्ति पुच्छिदे एवं ण जाणिजदे । कुदो ? सुत्ताभावादो । एवं सेडिपरूवणा समता। विशेषके विना पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण है, ऐसा उपदिष्ट है । इस समय इस सूत्रके द्वारा उस अध्वानका विशेष बतलाया गया है। 'असंखेज्जाणि पलिदोषमबग्गमलाणि' ऐसा कहनेपर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमलोंको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, द्वितीयादि वर्गमूलोंका वर्ग करनेपर पल्योपम उत्पन्न नहीं होता है। नानाजीवदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥ २०१॥ ___यद्यपि पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण नानागुणहानिशलाकायें होती हैं, ऐसा सामान्य रूपसे कहा गया है, तो भी वे पल्योपमके अर्धच्छेदोंसे स्तोक हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये; क्याकि, इनकी अन्योन्याभ्यस्त राशि पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, ऐसा गुरुका उपदेश है। नानाजीवदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर स्तोक हैं ॥ २०२॥ क्योंकि, वे पल्योपमसे असंख्यात वर्गस्थान नीचे हटकर उत्पन्न हुए हैं। एकजीवदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ २०३॥ · क्योंकि, वह पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलोंके बराबर है। कर्मप्रदेशोंकी गुणहानिकी अपेक्षा यह जीवगुणहानि क्या सहश है या विसदृश है, ऐसा पूछनेपर उसका उत्तर शात नहीं होता, क्योंकि, उसकी प्ररूपणा करनेवाला कोई सूत्र नहीं है। इस प्रकार श्रेणिप्ररूपणा समाप्त हुई। १ प्रतिषु ' वग्गेसु' इति पाठः। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २०३. ) वेयणमहाहियारे वैयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्यवसाणपरूवणा [३२९ . जवमज्झजीवपमाणेण सव्वजीवा केवचिरेण कालेण अपहिरिजंति ? तिण्णिगुणहाणिहाणंतरेण । छण्णं जवाणं जीवे अप्पप्पणो जवमज्झजीवपमाणेण कदे किंचूणतिण्णिगुणहाणिमेता होति । संदिट्ठीए सव्वदव्वमहतीसाहियछस्सदमेत्तं ६३८ । किंचूणतिण्णिगुणहाणीओ एदाओ ३१९।३२ । एदाहि सव्वदव्वे भागे हिदे जवमज्झजीवपमाणं होदि ६४ । ' - पुणो छण्णं जवाणं जवमज्झस्स हेटिमजहण्णहिदिजीवपमाणेण सव्वजीवा केवचिरेण कालेण अवहिरिजंति ? तिण्णिगुणहाणिगुणिदपलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तेण । तं जहा-- जीवजवमज्झस्स हेहिमणाणागुणहाणिसलागाओ (२) विरलिय बिगुणिय अण्णोण्णभत्थे कदे पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो उप्पजदि (४)। पुणो एदेण किंचूणतिसु गुणहाणीसु गुणिदासु पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तगुणहाणिपमाणं होदि (३१९।८)। पुणो .एदेण सव्वदव्वे भागे हिदे जहण्णहिदिजीवपमाणं होदि (१६)। पुणो एदं परिहाणि कादूण णेदव्वं जाव पढमगुणहाणिचरिमटिदिजीवेत्ति । पुणो बिदियगुणहाणिपढमहिदिजीवपमाणेण सव्वहिदिजीवा केवचिरेण काळेण अवहिरिजंति ? जहण्णहिदिजीवभागहारादो अद्धमत्तेण । कुदों ? एगदुगुणवडि चडिदो त्ति एगरूवं विरलिय बिगुणिय अण्णोण्णन्मत्थं कादूण पुवभागहारे ओवट्टिदे तद पत्तीदो - यवमध्यके जीवोंके प्रमाणसे सब जीव कितने कालके द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे तीन गुणहानिस्थानान्तरकालके द्वारा अपहृत होते हैं। छह यवोंके जीवोंको अपने अपने यवमध्यजीवोंके प्रमाणसे करनेपर वे कुछ कम तीन गुणहानियोंके बराबर होते हैं। संदृष्टिमें सब द्रव्यका प्रमाण छह सौ अदतीस (६३८) है । कुछ कम तीन गुणहानियां ये हैं--१-। इनका सब द्रव्यमें भाग देनेपर यवमध्यके जीवोंका प्रमाण होता है६३८३१९ - २०४१६४३३-६४ । छह यवोंके यवमध्यसे नीचेकी जघन्य स्थितिके जीवोंके प्रमाणसे सब जीव कितने कालके द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे तीन गुणहानियोंसे गुणित पल्योपमके असंख्यातवे भाग मात्र कालके द्वारा अपहृत होते हैं। यथा जीवयवमध्यके नीवेकी नानागुणहानिशलाकाओं (२) का विरलन करके द्विगुणित कर परस्पर गुणित करनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग (२x२-४) उत्पन्न होता है। इसके द्वारा कुछ कम तीन गुणहानियोंको गुणित करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र गुणहानियोंका प्रमाण होता है-- १४-32.इसका सब द्रव्यमें भाग जघन्य स्थितिके जीवोंका प्रमाण होता है-६३८१५१. ४ १६ । इसकी हानि करके प्रथम गुणहानि सम्बन्धी अन्तिम स्थितिके जीवों तक ले जाना चाहिये। .... द्वितीय गुणहानिकी प्रथम स्थितिके जीवोंके प्रमाणसे सब स्थितियोंके जीव कितने कालके द्वारा अपहत होते हैं? वे उक्त प्रमाण से जघन्य स्थिति सम्बन्धी जीवोंके भागहारके अर्ध भाग मात्रसे अपहत होते हैं, क्योंकि, एक दुगुणवृद्धि आगे गये हैं, अतः एक अंकका विरलन करके दुगुणा करके परस्पर गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उससे पूर्व छ. ११-४२ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २०३ ३१९।१६ । पुणो एदेण सव्वदव्वे भागे हिंदे बिदियगुणहाणिपढमहिदिजीवपमाणं होदि ३२ । पुणो परिहाणि कादूण णेदव्वं जाव छण्णं जवाणं सागरोवमसदपुधत्तमेत्तमुवरि चढिदूण द्विदजवमज्झजीवपमाणं पत्तं त्ति । पुणो तस्स भागहारो किंचूणतिण्णिगुणहाणीयो ३१९ । ३२ । पुणो एदस्सुवरि पक्खेवं कादूण णेदव्वं जाव छण्णं जवाणं चरिमहिदिजीवपमाणं पत्तं ति । पुणो तप्पमाणेण अवहिरिजमाणे पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिजंति । तं जहा-जवमज्झाणमुवरिमणाणागुणहाणिसलागाणं (४) अण्णोण्णभत्थरासिणा (१६) तिण्णिगुणहाणीयो गुणिय किंचूणे कदे पलिदोवमस्स असंखेजदिमागमेत्तगुणहाणीयो भागहारो होदि त्ति (६३८ । ५)। पुणो एदेण सव्वदव्वे भागे हिदे चरिमहिदिजीवपमाणमागच्छदि (५)। एवं भागहारपरूवणा गदा। छण्णं जवाणं जवमज्झजीवा सव्वजीवाणं केवडियो भागो १ असंखेजदिभागो। को पडिभागो ? किंचूणतिण्णिगुणहाणीयो। एवं जवमज्झस्स हेटोवरिं जाणिदूण भागाभागपरूवणा कायव्वा । भागाभागपरूवणा गदा । सव्वत्योवा छण्णं जवाणं चरिमट्ठिदिजीवा ५ । तेसिं जहण्णहिदिजीवा असंखेजगुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? जवमज्झस्स उवरिम भागहारको अपवर्तित करनेपर उसका अर्ध भाग उत्पन्न होता है-१४२; 32+२=१६ । इसका सब द्रव्यमैं भाग देनेपर द्वितीय गुणहानिकी प्रथम स्थितिके जीवोंका प्रमाण होता है-६३८- ३२ । इतनी हानि करके छह यवोंके शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण आगे जाकर स्थित यवमध्य सम्बन्धी जीवोंका प्रमाण प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । उसका भागहार कुछ कम तीन गुणहानियां है-३३३ । इसके आगे प्रक्षेप करके छह यषोंकी भन्तिम स्थिति सम्बन्धी जीवोंका प्रमाण प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । उस प्रमाणसे अपहृत करनेपर वे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र गुणहानिस्थानान्तरकालके द्वारा अपहृत होते हैं। यथा-यवमध्योंकी उपरिम नानागुणहानिशलाकाओं (४) की 'अन्योन्याभ्यस्त राशि (१६) से तीन गुणहानियोंको गुणित करके कुछ कम करनेपर पल्योपमके असंख्यातचे भाग मात्र गुणहानियां भागहार होती हैं । इसका सब द्रव्यमें भाग देनेपर अन्तिम स्थितिके जीवोंका प्रमाण (५) भाता है। इस प्रकार भागहारप्ररूपणा समाप्त हुई। छह यवोंके यवमध्यके जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं? वे सब जीवोंक असंख्यातधे भाग प्रमाण हैं । प्रतिभाग क्या है ? प्रतिभाग कुछ कम तीन गुणहानियां हैं। इसी प्रकार यवमध्यके नीचे व ऊपर भी जानकर भागाभागकी प्ररूपणा करना चाहिये। भागाभागकी प्ररूपणा समाप्त हुई। छह यवोंकी अन्तिम स्थितिके जीव सबसे स्तोक हैं (५)। उनकी जघन्य स्थितिके जीष उनसे असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २०३: ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्मवसाणपरूवणा [३३१ जहण्णहिदिजीवसमाणजीवहिदीदो उवरिमणाणागुणहाणिसलागाओ (२) विरलिय पिंग करिय अण्णोण्णभत्यं कादूण किंचूणे कदे पलिदोवमस्स असंखेजदिमागमेत्तगुणगाररासिसमुप्पत्तीदो १६ । ५। एदेण चरिमहिदिजीवे गुणिदें जहण्णट्ठिदिजीवपमाणं होदि १६ । जवमज्झजीवा असंखेजगुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागो । कुदो ? जवमज्झस्सुवरिमजहण्णहिदिसमाणजीवाणं च हेटिम (२)णाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्यरासिस्स गुणगारभूदस्स पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तत्तुवलंभादों ४ । एदेण जहण्णहिदिजीवे गुणिदे जवमज्झजीवा होंति ६४ । केत्तियासु हिदीसु जवममं? एक्किस्से चेव। जवमज्झप्पहुडि हेहिमजीवा असंखेजगुणा । को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, किंचूणदिवगुणहाणीयो ति उत्तं होदि । ३९ । ८ । एदेण जवमज्झजीवे गुणिदे जवमझेण सह हेट्ठिमजीवपमाणं होदि ३१२। जवमज्झस्स उवरिमजीवा विसेसाहिया। बंधविसेसाहियकारणं उच्चदे । तं जहा-जवमज्झटिमआयामादों। तत्तो उवरिमदीहपमाणं संखेजगुणं । पुणो जवमज्झस्स हेट्ठा है, क्योंकि, उपरिम जघन्य स्थितिके जीवोंके समान जीवस्थितिसे ऊपरकी नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन करके दूना कर परस्पर गुणन करनेपर जो प्राप्त हो उसमें कुछ कम करनेपर पल्योपमके असंख्यात भाग प्रमाण गुणकार राशि उत्पन्न होती है---। इससे अन्तिम स्थितिके जीवोंको गुणित करनेपर जघन्य स्थितिके जीवोंका प्रमाण होता है-१६ । उनसे यवमध्यके जीव असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, यवमध्यसे ऊपरकी और जघन्य स्थितिके समान जीवोंके नीचेकी नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन करके द्विगुणित कर परस्पर गुणा करनेपर जो गुणकारभूत राशि प्राप्त होती है वह पल्योपमके असंण्यातवें भाग प्रमाण पायी जाती हैं-४। इससे जघन्य स्थितिके जीवोंको गुणित करनेपर यवमध्यके जीव होते है-६४। शंका-कितनी स्थितियों में यषमध्य होता है ? समाधान-एक ही स्थितिमें होता है। यवमध्यसे लेकर नीचेके जीव असंख्यात गुणे हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग अर्थात् कुछ कम डेढ गुणहानियां हैं, यह अभिप्राय हैहै। इससे यवमध्यजीवोंको गुणित करनेपर यवमध्यके साथ नीचे के जीवोंका प्रमाण होता है-३१२ । यवमध्यसे ऊपरके जीव विशेष अधिक हैं । उनके विशेष अधिक होनेका कारण बतलाते हैं। वह इस प्रकार है-यवमध्यके अधस्तन आयामकी अपेक्षा उससे ऊपरकी दीर्घताका प्रमाण संख्यातगुणा है। यवमध्यके नीचे जितना अध्यान है उतना १ अ-काप्रत्योः '-समासाण-', ताप्रतो ' समासाणं ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'बीवगुणिदे' इति पाठः। ३ ताप्रतो 'जहण्णहिदिसमएण बीवाणं' इति पाठः। ४ अ-आ-काप्रतिषु 'मेत्तुबळंभादो' इति पाठः। ५ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु १२ इति पाठः। ६ अप्रतो' जबमकडिमजीवेहि सरिस होदि आयामादो'इति पाठः। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २०४ जत्तियमद्धाणं तत्तियमेत्तमुवरि गंवण द्विदद्विदीणं जीवपमाणं जवमज्झटिमजीवेहि सरिसं होदि । पुणो वि उवरिमट्ठिदिदीहपमाणं संखेजगुणमत्थि । तासु हिदीसु हिदसव्वजीवा जवमज्झहेहिमजीवाणमसंखेजदिभागमेत्ता । तेसिं पमाणमेदं ७८ । पुणो एदम्मि एत्थ ३१२ पक्खित्ते जवमज्झटिमजीवाणमसंखेजदिभागमेत्तेण उवरिमजीवा अहिया हॉति ३९० । सव्वासु हिदीसु जीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? जवमज्झहेहिमजीवपक्खित्तमत्तण ६३८ । अधवा, पुणरवि अण्णेण पयारेण अप्पाबहुअं भणिस्सामो । तं जहा-सव्वत्योवा छण्णं जवाणं उक्कस्सियाए.हिदीए जीवा । अप्पप्पणो जहणियाए हिदीए जीवा पुध पुध असंखेजगुणा । अजहण्ण-अणुक्कस्सियासु हिदीसु जीवा असंखेजगुणा । पढमासु हिदीसु जीवा विसेसाहिया । अचरिमासु हिदीसु जीवा विसेसाहिया । सव्वासु हिदीसु जीवा विसेसाहिया । एदाओ द्विदीओ णाणोवजोगेण बझंति, एदाओ च दंसणोवजोगेण वज्झंति त्ति जाणावणहमुत्तरसुत्तं भणदि सादस्स असादस्स य बिट्ठाणयम्मि णियमा अणागारपाओग्गडाणाणि ॥ २०४॥ अणागारउवजोगपाओग्गहिदिबंधट्टाणाणि णियमा णिच्छएण सादासादाणं विट्ठामात्र ऊपर जाकर स्थित स्थितियोंके जीवोंका प्रमाण यवमध्यसे नीचेके जीवोंके समान होता है। फिर भी उपरिम स्थितियोंकी दीर्घताका प्रमाण संख्यातगुणा है । उन स्थितियों में स्थित सब जीघ यवमध्यके अधस्तन जीर्थोके असंख्यातवें भाग मात्र हैं। उनका प्रमाण यह है-७८ । इसको इसमें ( ३१२) मिलानेपर यवमध्यसे नीचेके जीवोंके असंख्यातवें भाग मात्रसे ऊपरके जीव अधिक होते है-३१२+७८=३९० । सब स्थितियों में जीव विशेष अधिक हैं । कितने मात्रसे अधिक हैं ? यवमध्यके नीचेके जीवोंके प्रक्षिप्त मात्रसे घे अधिक हैं-६३८ । अथवा फिरसे भी दूसरे प्रकारसे अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार हैछह यवोंकी उत्कृष्ट स्थिति में जीव सबसे स्तोक हैं । अपनी अपनी जघन्य स्थितिमें पृथक् पृथकु असंख्यातगुणे हैं। अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितियों में जीव असंख्यातगुणे हैं । प्रथम स्थितियों में जीव विशेष अधिक हैं। अचरम स्थितियों में जीव विशेष अधिक हैं। सब स्थितियों में जीव विशेष अधिक हैं। ये स्थितियाँ शानोगयोगसे बँधती हैं और ये स्थितियाँ दर्शनोपयोगसे बंधती हैं, यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं साता व असाता वेदनीयके विस्थानिक अनुभागमें निश्चयसे अनाकार उपयोग योग्य स्थान होते हैं ॥ २०४॥ __अनाकार उपयोग योग्य स्थितिबन्धस्थान नियम अर्थात् निश्चयसे साता व असावा १ प्रतिषु 'अजहण्णा-' इति पाठः। २ अणगारप्पाउग्गा बिट्टाणगयाउ दुविहपगडीणं । सागारा सम्वत्थ वि...॥ क. प्र. १,९६.। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २०५. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्यवसाणपरूवणा [३३३. णियम्मि अणुभागे षज्झमाणे होति, ण अण्णत्थ; दंसणोवजोगकाले अइसकिलेसविसोहीणमभावादो। को दंसणोबजोगो णाम ? अंतरंगउवंजोगो'। कुदो ? आगारो णाम कम्मकत्तारभावो, तेण विणा जा उवलद्धी सो अणागारउवजोगो । अंतरंगउवजोगे वि कम्म-कत्तारभावो अस्थि त्ति णासंकणिजं, तत्य कत्तारादो दव-खेत्तेहि फर्टेकम्माभावादो। एवं संते सुद-मणपजवणाणाणं पि दंसणोवजोगपुरंगमत्तं पसजदि ति उत्ते, ण, मदिणाणपुरंगमाणं तेसिं दोण्णं पि दंसणोवजोगपुरंगमत्तविरोहादो । तदो बज्झत्थगहणसंते विसिट्ठसगसरूवसंवेयणं दंसणमिदि सिद्धं । ण च बज्झत्यग्गहणुम्मुहावत्था चेव दंसणं, किंतु बज्झत्यग्गहणुवसंहरणपढमसमयप्पहुडि जाव बज्झत्थअग्गहणचरिमसमओ त्ति दंसणुवजोगो त्ति घेत्तन्वं, अण्णहा दंसण-णाणोवजोगवदिरित्तस्स वि जीवस्स अस्थित्तप्पसंगादो। सागारपाओग्गट्टाणाणि सव्वत्थ ॥ २०५॥ वेदनीयके विस्थानिक अनुभागका बन्ध होनेपर होते हैं, अन्यत्र नहीं होते; क्योंकि, दर्शनोपयोगके समयमें अतिशय संक्लेश और विशुद्धिका अभाव होता है। शंका-दर्शनोपयोग किसे कहते हैं ? समाधान-अन्तरंग उपयोगको दर्शनोपयोग कहते हैं। कारण यह कि आकारका अर्थ कर्मकर्तृत्व है, उसके विना जो अर्थोपलब्धि होती है उसे अनाकार उपयोग कहा जाता है। ___अन्तरंग उपयोगमें भी कर्मकर्तृत्व होता है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये। क्योंकि, उसमें कर्ताकी अपेक्षा द्रव्य व क्षेत्रसे स्पष्ट कर्मका अभाव है। शंका-ऐसा होनेपर श्रुतबान और मनापर्यय ज्ञानके भी दर्शनोपयोगपूर्वक होनेका प्रसंग आवेगा? समाधान नहीं आवेगा, क्योंकि, वे दोनों शान मतिशानपूर्वक होते हैं, अतः उनके दर्शनोपयोगपूर्वक होने में विरोध है । इस कारण बाह्य अर्थका ग्रहण होनेपर जो विशिष्ट आत्मस्वरूपका वेदन होता है वह दर्शन है, यह सिद्ध होता है। बाह्य अर्थके ग्रहणके उन्मुख होने रूप जो अवस्था होती है वही दर्शन हो, ऐसी बात भी नहीं है, किन्तु बाह्यार्थग्रहणके उपसंहारके प्रथम समयसे लेकर बाह्यार्थक अग्रहणके अन्तिम समय तक दर्शनोपयोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, इसके विना दर्शन व शानोपयोगसे मिन्न भी जीवके अस्तित्वका प्रसंग आता है। साकार उपयोगके योग्य स्थान सर्वत्र बँधते हैं ॥ २०५॥ wun........................ ..... १ ताप्रती ‘णाम ! अंतरोवजोगो अंतरंगउवलोगो' इति पाठः। २ अप्रतौ 'जाउवाउवल्दी' इति पाठः। ३ताप्रतो'अंतरंगउवजागो' इति पाठः। ४ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु फिद्धि ताप्रती 'फड्ढ (१)' इति पाठः। ५ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'दो' इति पाठः। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] .. खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २०६. सागारो णाणोवजोगो, तत्थ कम्म-कत्तारभावसंभवादो। तस्स सागारस्स पाओग्गाणि द्विदिषधटाणाणि सव्वत्थ अस्थि । भावत्थो-जाणि हिदिबंधहाणाणि दंसणोवजोगेण सह बझंति ताणि णाणोवजोगेण वि बझंति । जाणि दंसणोवजोगेण ण बझंति' हिदिषधहाणाणि ताणि वि णाणोवजोगेण बझंति त्ति उत्तं होदि । एदेसि छष्ण जवाणं हेहिम-उवरिमभागाणं थोवबहुत्तजाणावणहमणागारैपाओग्गट्ठाणाणं पमाणजाणावणटुं च उवरिलमप्पाबहुगसुत्तमागदं सादस्स चउट्ठाणिय॑जवमज्झस्स हेट्टदो टाणाणि थोवाणि । २०६॥ कुदो १ सागरोवमसदपुधत्तपमाणत्तादो। उवरि संखेज्जगुणाणि ॥ २०७॥ जवमज्झादो उवरिमट्टिदिबंधढाणाणि संखेजगुणाणि । किं कारणं ? अइविसुद्धहिदीहितो मंदविसुद्धहिदीणं बहुत्ताविरोहादो। साकारसे अभिप्राय ज्ञानोपयोगका है, क्योंकि, उसमें कर्म और कर्तृत्वकी सम्भावना है। उक्त साकार उपयोगके योग्य स्थितिबन्धस्थान सर्वत्र होते हैं । भावार्थ-जो स्थितिबन्धस्थान दर्शनोपयोगके साथ बँधते हैं वे ज्ञानोपयोगके साथ भी बँधते हैं। जो स्थितिबन्धस्थान दर्शनोपयोगके साथ नहीं बंधते हैं वे भी शानोपयोगके साथ बँधते है, यह उसका अभिप्राय है। इन छह यवोंके अधस्तन और उपरिम भागोंके अल्पबहुत्वको बतलानेके लिये तथा मनाकार उपयोगके योग्य स्थानोंके प्रमाणको भी बतलानेके लिये आगेका अल्पबहुत्वसूत्र प्राप्त होता है साता वेदनीयके चतुःस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थान स्तोक हैं ॥ २०६॥ कारण कि वे शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण हैं। उपरिम स्थान उनसे संख्यातगुणे हैं ॥ २०७ ॥ यबमध्यसे ऊपरके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, अति विशुद्ध १ ताप्रतो 'बाणि दंसणोवजोगेण ण बति' इत्येतावानयं पाठस्त्रुटितोऽस्ति । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु तिण्णि' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'अणगार' इति पाठः (काप्रतौ श्रुटितोऽत्र पाठः)। ताप्रती'चउट्ठाणिया जव-' इति पाठः । ५...हिट्ठा थोवाणि जवमज्झा ।। ठाणाणि चउट्ठाणा संखेजगणाणि उवरिमेवन्ति (एवं)। तिट्ठाणे बिट्ठाणे सुभाणि एगतमीसाणि || उवरिं मिस्साणि जहनगो सुभाणं तो विसेसहियो। होह सुभाण जहण्णो संखेज्जगुणाणि ठाणाणि ॥ बिट्ठाणे जवममा हेट्टा एगंत मीसगाणवरि । एवं ति-चउठाणे जवमझाओ य डायठिई॥ अंतोकोडाकोडी सुभबिहाण जवमाश्री उरि। एगंतगा विसिवा मुमजिट्ठा डायट्टिइजेड्डा ॥ क. प्र. १,९५-१००, परावर्तमानशुभप्रकवीनां चत स्थानकरसयवमध्यादयः स्थितिस्थानानि सर्वस्तोकानि (म.टी. १,९६)। तेभ्यतास्थाम. करसयवमध्यस्यैवोपरि स्थितिस्थानानि संखेयगुणानि (२)। क. प्र. (म. टी.) १,९७. । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, २, ६, २१०. 1 वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्मवसाणपरूवणा ३५ . सादस्स तिहाणियजवमज्झस्स हेट्टदो ट्ठाणाणि संखेज गुणाणि ॥ २०८ ॥ कुदो १ चउहाणियअणुभागबंधपाओग्गणझवसाणेहितो सादतिहाणियजवमज्झट्ठिमअणुभागबंधपाओग्गअज्झवसाणाणमसुहत्तदंसणादो। उवरि संखेजगुणाणि ॥२०९॥ कुदो १ सादतिहाणियजवमज्झटिमअंज्झवसाणेहिंतो उवरिमअज्झवसाणाणमसुहर दसणादो । मंदविसोहीहि परिणममाणा जीवा बहुगा होति, तासिं पाओग्महिदीयो वि बहुगीयो त्ति उत्तं होदि । कुदो ? जं तेणें वि मंदविसोहीणमुप्पत्तीदो। सादस्स बिट्टाणियजवमज्झस्स हेटदो एयंतसागारपाओग्गडाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥२१० ॥ कुदो ? सादतिहाणियजवमज्झस्स उवरिमट्ठिदिसंकिलेसादो सादविद्वाणिसवन स्थितियोंकी अपेक्षा मन्द विशुद्ध स्थितियों के बहुत होने में कोई विरोध नहीं है। साता वेदनीयके त्रिस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थान उनसे असंख्यातगुणे हैं ॥२०॥ कारण यह कि चतुःस्थानिक अनुभागबन्धके योग्य परिणामोंकी अपेक्षा सातक त्रिस्थानिक यवमध्यके नीचेके अनुभागबन्धके योग्य परिणाम अशुभ देखे जाते हैं। - यवमध्यसे ऊपरके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २०९ ॥ यक कारण कि साताके त्रिस्थानिक यवमध्यके अधस्तन परिणामोंकी अपेक्षा उपरिम परिणाम अशुभ देने जाते हैं । मन्द विशुद्धियों रूप परिणमन करनेवाले जीव बहुत हैं तथा उनके योग्य स्थितियां भी बहुत हैं, यह अभिप्राय है। इसका कारण यह है कि उसने भी मम्द विशुद्धियां उत्पन्न होती हैं। साता वेदनीयके द्विस्थानिक यवमध्यके नीचे एकान्ततः साकार उपयोगके योग्य स्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २१० ॥ इसका कारण यह है कि साता वेदनीयके त्रिस्थानिक यषमध्यके ऊपरके स्थितिबन्ध १ अ-आ-काप्रतिषु 'असंखेज्जगुणाणि' इति पाठ । २ तेभ्योऽपि त्रिस्थानकरसयवमध्यस्योपरि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि ४ । क. प्र. (म.टी.) १,९७ । तेभ्योऽपि परावर्तमानशुभप्रकृतीना त्रिस्थानकरसयवध्यादधः स्थितिस्थानानि संख्येयगुणाणि ३ । क. प्र. (म. टी.) १,९७ ।३ अ-आ-पा. प्रतिषु 'जुत्तेण' इति पाठः। ४ अप्रतौ 'सायर', आ-काप्रत्योः 'सागर' इति पाठः। ५ तेम्बोऽपि पयवर्तमानशुभप्रकृतीनां द्विस्थानकरसयवमध्यादधास्थितिस्थानानि एकान्तसाकारोपयोगयोग्यानि संख्येषगुणानि५ । क. प्र. (म. टी.) १,९७.। । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६] . . छक्खंडागमे वेयणाखंड ४, २, ६, २११. सहस्स हेटिमट्टिदिबंधट्टाणाणं सागारोवजोगेणेव बज्झमाणाणं संकिलेसस्स असुहत्तदंसणादो । दीसइ च सुहवजादिपाओग्गट्ठाणेहितो असुहपत्थरादिपाओग्गहाणाणमइबहुत्तं । मिस्सयाणि संखेज्जगुणाणि ॥ २११ ॥ - सागार-अणागारउवजोगाणं जाणि पाओग्गाणि सादबेटाणियजवमझादो हेडिमाणि हिदिबंधट्टाणाणि ताणि संखेजगुणाणि । कुदो ? हेडिमअज्झवसाणेहिंतो एदेसिमज्झवसाणाणं असुहत्तुवलंभादो । मोक्खकारणादो संसारकारणेण बहुएण होदव्वं, अण्णहा देवमणुस्सहिंतो तिरिक्खाणमणंतगुणत्ताणुववत्तीदो। . ... सादस्स चेव बिट्टाणियजवमज्झस्स उवरि मिस्सयाणि संखेज्जगुणाणि ॥ २१२॥ - ... कारणं हेटिमअज्झवसाणेहिंतो उवरिमअज्झवसाणाणं सुठ्ठ असुहत्तं । असादस्स बिट्ठाणियजवमज्झस्स हेट्टदो एयंतसायारपाओग्गट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥ २१३ ॥ स्थानों के संक्लेशको अपेक्षा साता वेदनीयके विस्थानिक यवमध्यके नीचेके साकार उपयोगसे बंधनेवाले स्थितिबन्धस्थानोंका संक्लेशन अशुभ देखा जाता है । वज्र आदिके योग्य शुभ स्थानोंकी अपेक्षा अशुभ पत्थर आदिके योग्य स्थान अत्यन्त बहुत देखे मिश्र स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २११॥ ... साकार व अनाकार उपयोगके योग्य जो साता घेदनीयके विस्थानिक यवमध्यके नीचके स्थितिबन्धस्थान हैं वे संख्यातगुणे हैं, क्योंकि नीचेके अध्यवसानोंकी अपेक्षा ये भध्यवसान अशुभ देने जाते हैं। मोक्षके कारणकी अपेक्षा संसारका कारण बहुत होना चाहिये, क्योंकि, अन्यथा देख और मनुष्योंकी अपेक्षा तिर्यचोंका अनन्तगुणत्व बन महीं सकता। साताके ही द्विस्थानिक यवमध्यके ऊपर मिश्र स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं॥२१२॥ । इसका कारण अघस्तन अध्यवसानोंकी अपेक्षा उपरिम अध्यवसानोंका अत्यन्त असाताके विस्थानिक यवमध्यके नीचे एकान्ततः साकार उपयोगके योग्य स्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २१३॥ १ताप्रतो'वज्जदि इति पाठः । २ तेभ्योपि द्विस्थानकरसयवमध्यादधः पाश्चात्येभ्य ऊध्ये स्थितिस्थानानि मिश्राणि साकारानाकारोपयोगयोग्यानि संख्येयगुणानि ६। क.प्र. (म.टी.) १,९७. । ३. अप्रतो 'सादरसेव' इति पाठः। ४ तेभ्योऽपि द्विस्थानकरसयवमध्यस्योपरि मिश्राणि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि ७क. प्र. १,९८.। ५ ताप्रतौ 'असंखेज्जगुणानि इति पाठः। ततोऽप्यशुभपरावर्तमानप्रकृतीनामेव द्विस्थानकरसयवमध्यादध एकान्तसाकारोपयोगयोग्यानि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि १० । क. प्र. (म.टी.) १,९९ । भीमातह होना है। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २१६. ] वेयणमद्दा हियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंध झवसाणपरूवणा [ ३३७ दो ? सादबिट्ठाणियजवमज्झस्स उवरि सागाराणागारपाओग्गट्ठिदिबंध ज्झवसाणेहिंतो असादबिट्ठाणियजवमज्झस्स हेट्ठिमएयंतसागारपाओग्गट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणमसुहतुवलंभादो । मिस्सयाणि संखेज्जगुणाणि ॥ २९४ ॥ कारणं सुगमं । असादस्स चेव बिट्टाणियजवमज्झस्सुवरि मिस्सयाणि संखेज्जगुणाणि ॥ २१५ ॥ देसि हिदिबंधाणाणं संखेज्जगुणत्तस्स कारणं पुव्वं परुविदमिदि णेह परूविज दे । सागाराणागारपाओग्गट्ठिदिबंधट्ठाण पहुडिबिट्ठाण - तिट्ठाण - चउद्वाणपाओग्गादिमिसेसदिहिंतो संखेज्जगुणमद्भाणमुवरि गंतॄण असादस्स बिट्ठाणजवमज्झस्स सागार - अणगारपाओग्गाणाण होंति । कुदो ? पयडिविसेसेण तदो संखेज्जगुणं गंतॄण तदुप्पत्तिविरोहाभावादो । एयंतसागारपाओग्गट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥ २१६ ॥ सादस्स कारणं सुगमं । इसका कारण यह है कि साता के द्विस्थानिक यवमध्यके ऊपरके साकार व अनाकार उपयोगके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसानों की अपेक्षा असाताके द्विस्थानिक यवमध्यके नीचे के सर्वथा साकार उपयोगके योग्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान अशुभ पाये जाते हैं । मिश्र स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २९४ ॥ इसका कारण सुगम है । ऊपर मिश्र स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २१५ ॥ इन स्थितिबन्धस्थानोंके संख्यातगुणे होने का जो कारण है उसकी प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है, अतः वह यहां फिर से नहीं की जा रही है । साता वेदनीयके साकार और अनाकार उपयोग के योग्य स्थितिबन्धस्थानोंको लेकर द्विस्थान त्रिस्थान एवं चतुस्थान योग्य इत्यादि नीचे की समस्त स्थितियोंसे संख्यातगुणे अध्वान आगे जाकर असातावेदनीयके द्विस्थान यवमध्यके साकार व अनाकार उपयोग योग्य स्थान होते हैं, क्योंकि, प्रकृति विशेष के कारण उनसे संख्यातगुणे स्थान आगे जाकर उनके उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं है । एकान्ततः साकार उपयोगके योग्य स्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २१६ ॥ इसका कारण सुगम है । १ ततस्तासामेव परावर्तमानाशुभप्रकृतीनां द्विस्थानकरस्यवमध्यादधः पाश्चात्येभ्य ऊर्ध्व मिश्राणि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणाणि ११ । क. प्र. ( म. टी. ) १,९९ । २ तेभ्योऽपि तासामेवाशुभपरावर्तमानप्रकृतीनां द्विस्थानकरस्यवमध्यादुपरि स्थितिस्थानानि मिश्राणि संख्येयगुणानि १२ । क. प्र. ( म. टी ) १, ९९. ३ तेभ्योऽप्युपरि एकान्तसाकारोपयोगयोग्यानि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि १३ । क.प्र. (म. टी.) १, ९९. । छ. ११-४३. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं . [४, २, ६, २१७. . असादस्स तिहाणियजवमज्झस्स हेढदो ट्ठाणाणि संखेजगुणाणि ॥ २१७॥ कुदो ? हेष्टिमसंकिलेसेहिंतो एदेसि संकिलेसाणमसुहत्तदंसणादो । उवरि संखेज्जगुणाणि ॥ २१८ ॥ कारणं सुगमं । असादस्स चउहाणियजवमज्झस्स हेढदो ट्ठाणाणि संखेज्जा गुणाणि ॥ २१९ ॥ कारणं सुगमं। सादस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणों ॥२२० ॥ कुदो ? असादस्स चउहाणियजवमज्झस्स हेटिमट्ठिदिबंधट्ठाणाणि सागरोवमसदपुधत्तमेत्ताणि । सादस्स जहण्णओ हिदिबंधो पुण अंतोकोडाकोडिआबाधूणा । तेण असादस्स चउहाणियजवमज्झटिमटाणेहिंतो सादस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेजगुणो जादो । जट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ।। २२१ ॥ असाता वेदनीयके त्रिस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २१७ ॥ . कारण यह कि नीचेके संक्लेश परिणामोंकी अपेक्षा ये संक्लेश परिणाम अशुभ देखे जाते हैं। उसके ऊपरके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २१८ ॥ इसका कारण सुगम है। असाता वेदनीयके चतुःस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २१९॥ इसका कारण सुगम है। सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ २२० ॥ कारण कि असाता वेदनीयके चतुःस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थितिबन्धस्थान शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण हैं। परन्तु सातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध आवाधासे हीन अन्तःकोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण है । इसीलिये असाताके चतुस्थानिक यवमध्यके नीचे के स्थानोंकी अपेक्षा साता वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा हो जाता है । ज-स्थितिबन्ध उससे विशेष अधिक है ॥ २२१ ॥ १ तेभ्योऽपि तासामेव परावर्तमानाशुभप्रकृतीनां त्रिस्थानकरसयवमध्यादधः स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि १४ । क. प्र. (म. टी.) १,९९, । २ तेभ्योऽपि तासामेव परावर्तमानाशभप्रकृतीनां त्रिस्थानकरसयवमध्यस्योपरि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि १५ । क. प्र. (म. टी.) १,९९. । ३ तेभ्योऽप्यशुभपरावर्तमानप्रकृवीनामेव चतु:स्थानकरसयवमध्यादधःस्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि १६ । क. प्र. (म. टी.) १,९९. ४ तेभ्योऽपि शुभाना परावर्तमानप्रकृतीनां जघन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः ८ । क. प्र. (म. टी.) १,९८. Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २२५. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्यवसाणपरूवणा [३३९ . जहिदिबंधो णाम अबाहाए सहिदजहण्णहिदिबंधो, पहाणीकयकालत्तादो। जहण्णबंधो णाम आवाधूणजहण्णबंधो, पहाणीकयणिसेगहिदित्तादो । तेण जहण्णहिदिबंधादो जहिदिबंधो विसेसाहिओ । केत्तियमेत्तेण ? सगअंतोमुहुत्तजहण्णाबाहामेत्तेण । असादस्स जहण्णओ हिदिबंधो विसेसाहिओं ॥ २२२ ॥ केत्तियमेत्तेण ? संखेजसागरोवममेत्तेण । जट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ २२३ ॥ केत्तियमेत्तेण ? जहण्णाबाहामेत्तेण ।। जत्तो उक्कस्सयं दाहं गच्छदि सा ट्ठिदी संखेज्जगुणां ॥२२४॥ दाहो णाम संकिलेसो । कुदो? इह-परभवसंतावकारणत्तादो। उक्कस्सदाहो णाम उक्कस्सहिदिबंधकारणउक्कस्ससंकिलेसो । जिस्से हिंदीए ठाइदूण उक्कस्ससंकिलेसं गंदण उक्कस्सहिदि बंधदि सा हिदी संखेजगुणा त्ति उत्तं होदि। अंतोकोडाकोडी संखेज्जगुणों ॥२२५॥ आवाधासे सहित जघन्य स्थितिबन्धको ज-स्थितिबन्ध कहा जाता है, क्योंकि, वहां कालकी प्रधानता है । आबाधासे हीन जघन्य स्थितिबन्ध जघन्य बन्ध कहलाता है, क्योंकि, उसमें निषेकस्थितिकी प्रधानता है । इसीलिये जघन्य स्थितिबन्धसे ज-स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। कितने मात्रसे वह अधिक है? वह अपनी अन्तर्मुहर्त मात्र जघन्य भावाधाके प्रमाणसे अधिक है। असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ २२२॥ वह कितने मात्रसे अधिक है। वह संख्यात सागरोपम मात्रसे अधिक है। ज-स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ २२३॥ कितने मात्रसे अधिक है ? वह जघन्य आबाधा मात्रसे अधिक है। जिसके कारण प्राणी उत्कृष्ट दाहको प्राप्त होता है वह स्थिति संख्यातगुणी है ॥२२४॥ दाहका अर्थ संक्लेश है, क्योंकि, वह इस भव और पर भवमें सन्तापका कारण है। उत्कृष्ट दाहका अर्थ उत्कृष्ट स्थितिबन्धका कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेश है। जिस स्थितिमें स्थित होकर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हो जीव उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है वह स्थिति संख्यातगुणी है, यह अभिप्राय है। अन्तःकोड़ाकोडिका प्रमाण संख्यातगुणा है ॥ २२५॥ . १ ततोऽप्यशुभपरावर्तमानप्रकृतीनां जघन्यः स्थितिबन्धः विशेषाधिकः९। क. प्र. (म.टी.) १,९८.। २ अ-आ-काप्रतिषु 'जहण्णढिदिबन्धो' इति पाठः। ३ तेभ्योऽपि यवमध्यादुपरि डायस्थिति. संख्येयगुणः १७। यतः स्थितिस्थानादपवर्तनाकरणवशेनोत्कृष्ट स्थितिं याति तावती स्थिति यस्थितिः रित्युच्यते । क. प्र. (म. टी.) १.९९. ४ तापतौ'उकस्सहिदी' इति पाठः। ५ ततोऽपि सागरोपमाणामन्तःकोटाकोटी संख्येयगुणा १८ । क. प्र. (म. टी.) १,१००। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड पुव्विदी अंतोकोडा कोडिमेत्ता, एसा वि हिदी' किंतु एसा णिव्वियप्पा, तेण संखेज्जगुणा त्ति भणिदा । ३४०. ] सादरस बिट्ठाणियजवमज्झस्स उवरि एयंतसागारपाओग्गाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥ २२६ ॥ कुदो ? अंतोकोडाकोडीए ऊणपण्णा रससागरोवमकोडा कोडिपमाणत्तादो । सादस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधों विसेसाहिओं ॥ २२७ ॥ केतियमेत्तेण ? सादअणागारपाओग्गट्ठाण पहुडि हेट्टिमआबाधूणअंतो को डाकोडिसेियहिदिमेत्तेणें । जट्टिदिबंधो विसेसाहियो ॥ २२८ ॥ केत्तियमेत्तेण ? सगआबाधामेत्तेण । दाहट्टिदी विसेसाहियाँ ॥ २२९ ॥ [ ४, २, ६, २२६. अंतोकोडाको डिमेत्ता चेव । पूर्वोक्त स्थितिका प्रमाण अन्तः कोडाकोडि मात्र है, यह स्थिति भी अन्तःकोड़ाकोड़ि प्रमाण ही है । किन्तु यह स्थिति निर्विकल्प है, इसीलिये संख्यातगुणी कही गई है। सातावेदनीयके द्विस्थानिक यवमध्यके ऊपरके एकान्ततः साकार उपयोगके योग्य स्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २२६ ॥ क्योंकि, वे अन्तःकोड़ा कोड़ि से हीन पन्द्रह कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण हैं । सातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।। २२७ ॥ वह कितने मात्र से अधिक है ? साताके अनाकार उपयोगके योग्य स्थानों को लेकर नीचे आबाधासे रहित अन्तःकोड़ाकोड़ि सागरोपम निषेकस्थितियोंके प्रमाणसे वह अधिक हैं । - स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।। २२८ ॥ कितने मात्र से वह अधिक है ? वह अपनी आबाधा के प्रमाणसे अधिक है । दाहस्थिति विशेष अधिक है ।। २२९ ॥ १ अ आ-काप्रतिषु 'एसा दि ट्ठिद ' इति पाठः । २ ततोऽपि परावर्तमान शुभप्रकृतीनां द्विस्थानकरसयवमध्यस्योपरि यानि मिश्राणि स्थितिस्थानानि तेष मुकान्तमाकारोपयोगयोग्यानि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि १९ । क. प्र. ( म. टी. ) १,१०० ३ अ आ-काप्रतिषु ' उकस्सद्विदिवन्धो' इति पाठः । ४. तेभ्योऽपि परावर्तमान शुभप्रकृतीनामुत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिकः २० । क. प्र. (म. टी.) १,१००.. । ५ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु ' मेत्तो' इति पाठः । ६ अ आ का प्रतिषु ' जहण्णट्ठिदिबन्धो ' इति पाठः । ७ ततोऽप्यशुभ- ( १ ) परावर्तमान शुभप्रकृतीनां बद्धा डायस्थितिर्विशेषाधिका २१ । यतः स्थितिस्थानात् मांडूकप्लुतिन्यायेन डायां फालां दत्वा या या स्थितिर्बध्यते ततः प्रभुति Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २३३. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधझवसाणपरूवणा [ ३४.१ दाहो उक्कस्सडिदिपाओग्गसंकिलेसो तस्स दाहस्स कारणभूदहिदी दाहहिदी णाम, कारणे कज्जुवारादो । तत्थ जहण्णदाहट्टिदिप्पहुडि जाव उक्कस्सदाहट्ठिदित्ति एदासिं सव्वासिं जादिदुवारेण एयत्तमावण्णाणं दाहहिदि ति सण्णा । सा पण्णारससागरोवमPaternister पेक्खिण विसेसाहिया, किंचृणतीससागरोवमकोडाको डिपमाणत्तादो । असादस्स चउट्टाणियजवमज्झस्स उवरिमाणाणि विमेसाहियाणि ॥ २३० ॥ केत्तियमेत्तेण अंतोकोडाको डिसागरोवममेत्तेण । असादचउट्ठाणियजवमज्झादो उवरिमजहण्णदाहद्विदीदो हेमि असादस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ २३१ ॥ केत्तियमेत्तेण ? अंतोकोडाकोडीए । जट्टिदिबंध विसेसाहिओ ॥ २३२ ॥ त्तियत्ण ? तिण्णिवाससहस्समेत्तेण । एदेण अट्टपदेण सव्वत्थोवा सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवां ॥२३३॥ दाहका अर्थ उत्कृष्ट स्थितिके योग्य संक्लेश है । उस दाहकी कारणभूत स्थिति कारण का का उपचार करनेसे दादस्थिति कही जाती है । उसमें जघन्य दाहस्थिति से लेकर उत्कृष्ट दाहस्थितिपर्यन्त जातिके द्वारा एकताको प्राप्त हुई इन सब स्थितियोंकी दाहस्थिति संज्ञा है । वह पन्द्रह कोड़ाकोड़ि सागरोपमों की अपेक्षा विशेष अधिक है, क्योंकि, वह कुछ कम तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण है । असाता वेदनीयके चतुः स्थानिक यवमध्यके ऊपरके स्थान विशेष अधिक हैं ॥ २३०॥ वे कितने मात्र से अधिक हैं ? असाता वेदनीयके चतुस्थानिक यवमध्यके ऊपरकी जघन्य दाहस्थितिसे नीचेके अन्तः कोड़ाकोड़ि सागरोपम मात्र से अधिक हैं । असातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है | २३१ ॥ वह कितने मात्रसे अधिक है ? वह अन्तःकोड़ाकोड़ि सागरोपम मात्र से अधिक है ! ज-स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ २३२ ॥ वह कितने मात्र से अधिक है ? वह तीन हजार वर्ष मात्र से अधिक है । इस अर्थपदसे सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं ॥ २३३॥ तदन्ता तावती स्थितिर्ब्रद्धा डायस्थितिरिहोच्यते । सा चोत्कर्षतोऽन्तः सागरोपमकोटिकोट्यूना सकलकर्मस्थितिप्रमाणा वेदितव्या । तथाहि — अन्तः सागरोपमकोटिकोटिप्रमाणं स्थितिबन्धं कृत्वा पर्याप्तसंशिपंचेन्द्रिय उत्कृष्टां स्थिति बनातीति, नान्यथा । क. प्र. ( म. टी. ) १,१००. .९ तत्गेऽपि परावर्तमानाशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिक इति २२ । क. प्र. ( म. टी. ) १,१००. २ संखेजगुणा जीवा कमसो एएस दुविहपगईणं । असुभाणं तिट्ठाणे सव्युवरि विसेसओ अहिया । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड . [४, २, ६, २३४. एदमत्थमाहारं काऊण छण्णं जवाणं जीवाणमप्पाबहुगं भणिस्सामो। तम्हि भण्णमाणे सादस्स चउठाणबंधा जीवा थोवा । कुदो ? थोवद्धाणत्तादो।। तिट्ठाणबंधा जीवा संखेज्जगुणा ॥ २३४ ॥ कुदो ? सादचउट्ठाणाणुभागबंधपाओग्गहिदीहिंतो तिहाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसाणं संखेजगुणत्तुवलंभादो। बिट्ठाणबंधा जीवा संखेज्जगुणा ॥२३५॥ - कुदो ? सादावेदणीयतिहाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसेहितो तस्सेव बिट्ठाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसाणं संखेजगुणत्तुवलंभादो। असादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा संखेजगुणी २३६ ॥ सादावेदणीयबिट्टाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसेहितो असादावेदणीयबिट्ठाणाणु- . भागबंधपाओग्गहिदिविसेसा संखेजगुणहीणा । कुदो ? अंतोकोडाकोडिऊणपण्णारससागरोवमकोडाकोडिमेत्तसादबिट्ठाणाणुभागबंधपाओग्गहिदीहिंतो सागरोवमसदपुत्तहिदिविसेसाणं संखेजगुणहीणत्तुवलंभादो । तदो असादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा संखेजगुणा त्ति ण इस अर्थको आधार करके छह यवोंके जीवोंके अल्पबहुत्वको कहते हैं। उसका कथन करने में साता वेदनीयके चतुस्थानबन्धक जीव स्तोक हैं, क्योंकि, उनका अध्वान स्तोक है। त्रिस्थानबन्धक जीव उनसे संख्यातगुणे हैं ॥ २३४ ॥ इसका कारण यह है कि साता वेदनीयके चतुःस्थान अनुभागवन्धके योग्य स्थितियोंकी अपेक्षा त्रिस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेष संख्यातगुणे पाये जाते हैं। द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ॥ २३५ ॥ कारण कि सातावेदनीयके त्रिस्थान अनुभागवन्धके योग्य स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा उसके ही द्विस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेष संख्यातगुणे पाये जाते हैं। असाता वेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ॥ २३६ ॥ शंका-साता वेदनीयके द्विस्थान अनुभागवन्धके योग्य स्थितिविशेषोंसे असातावेदनीयके द्विस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थिति विशेष संख्यातगुणे हीन हैं, क्योंकि, अन्तःकोड़ाकोडिसे हीन पन्द्रह कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण साता वेदनीयके द्विस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितियोंकी अपेक्षा शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण स्थिति विशेष संख्यातगुणे हीन पाये जाते हैं । अतएव असाताके द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं, यह कहना उचित नहीं है? क.प्र.१.१०१. सर्वस्तोकाः परावर्तमानशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानकरसबन्धका जीवाः तेभ्योऽपि त्रिस्थान. करसबन्धकाः संख्येयगुणाः। तेभ्योऽपि द्विस्थानकरसबन्धकाः संख्येयगुणाः (म. टी.) १तेभ्योऽपि परावर्तमानशुभप्रकृतीनां द्विस्थानकरसबन्धकाः संख्येयगुणाः। तेभ्योऽपि चतुःस्थानकरसन्धका संख्येयगुणाः। तेभ्योऽपि त्रिस्थानकरसबन्धका विशेषाधिकाः । क. प्र. (म.टी.) १,१०१. । १ ताप्रतो 'सादावेदणीणं विट्ठाणाणु-' इति पाठः । ३ ताप्रतो 'विट्ठाणाणुबन्ध ' इति पाठः। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, ५, ६, २३८. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्मवसाणपरूवणा [३४३ जुअदि ? ण, सादावेदणीयबंधगद्धादो संखेजगुणाए असादावेदणीयबंधगद्धाए संचिदाणं संखेजगुणत्तेण विरोहाभावादो संखेजगुणत्तं जुज्जदे ।। चउट्ठाणबंधा जीवा संखेज्जगुणा ॥ २३७ ॥ कुदो ? असादविट्ठाणुभागबंधपाओग्गट्टिदिविसेसेहिंतो तस्सेव चउहाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसाणं संखेजगुणतुवलंभादो। तिट्ठाणबंधा जीवा विसेसाहिया ॥२३८॥ असादस्स चउट्ठाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसेहितो तस्सेव तिहाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसा संखेजगुणहीणा । तदो तिहाणबंधजीवाणं विसेसाहियत्तं [ण ] जुनदि त्ति? ण एस दोसो, सुक्कुक्कस्सपरिणामेसु बहुहिदिविसेसेसु वट्टमाणजीवहिंतो थोवहिदिविसेसेसु मज्झिमपरिणामेसु च वट्टमाणजीवाणं बहुत्तं पडि विरोहाभावादो। ण च बहुसंकिलेसविसोहीसु खल्लविल्लसंजोगो ब्व तुट्टीए समुप्पजमाणासु जीवबहुत्तं संभवदि, तहाणुवलंभादो । संखेजगुणा ण होंति, विसेसाहिया चेव होंति ति कधं णव्वदे ? एदम्हादो समाधान नहीं, क्योंकि, सातावेदनीयके बन्धककालकी अपेक्षा संख्यातगुणे असाता वेदनीयके बन्धक कालमें संचित जीवोंके संख्यातगुणत्वसे कोई विरोध न होनेके कारण उनको संख्यातगुणा कहना उचित ही है। चतुःस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ॥ २३७॥ कारण कि असाता वेदनीयके द्विस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा उसके ही चतुःस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेष संख्यातगुणे पाये जाते हैं। त्रिस्थानबन्धक.जीव विशेष अधिक हैं ॥ २३८ ॥ शंका-असाता वेदनीयके चतुःस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा उसके ही त्रिस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेष संख्यातगुणे हीन हैं । इस कारण त्रिस्थानबन्धक जीवोंको उनसे विशेष अधिक कहना उचित [ नही ] है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि, शुक्ललेश्याकै उत्कृष्ट परिणामों में बहुत स्थितिविशेषोंमें वर्तमान जीवोंकी अपेक्षा स्तोक स्थितिविशेषों और मध्यम परिणामों में वर्तमान जीवोंके बहुत होने में कोई विरोध नहीं है । स्वस्थ बिल्बसंयोग (खल्वाट और बिल्व फलके संयोग) के समान त्रुटिसे अर्थात् यदा कदाचित् उत्पन्न होनेवाले बहुत संक्लेश व बहुत विशुद्धिमें जीवोंकी अधिकता सम्भव नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता। शंका-वे संख्यातगुणे नहीं हैं, विशेष अधिक ही हैं; यह कैसे जाना जाता हैं ? समांधान-वह इसी सूत्रसे जाना जाता है। . १ अप्रतौ 'खल्लविल्लसंतो व्व तुट्ठीए', आ-काप्रत्योः 'खल्लविलसंजो व्व तुट्ठीए' इति पाठः। २ अ-आ-काप्रतिषु 'जवबहुतं' इति पाठः। ३ ताप्रतो 'विसेसाहिया होति' इति पाठः। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ छक्खंडागमे वेयणाखंड - [४, २, ६, २३८. चेव सुत्तादो। विसंवादिसुत्तं किण्ण जायदे १ ण, विसंवादकारणसयलदोसुम्मुक्कभूदबलिवयण-विणिग्गयस्स सुत्तस्स विसंवादितैविरोहादो। एसो जीवसमुदाहारो बीइंदिय-तीइंदियचउरिंदिय-असण्णिपंचिंदियपजत्तापजत्तएसु सण्णिअपजत्तएसु च जोजेयव्वो। णवैरि हिदिविसेसो णायव्वो । बादर-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्तेसु वि एवं चेव वत्तव्यो । णवरि एदेसु सव्वेसु वि सादासादाणं बिट्ठाणजवमझं चेव, तत्थ तिहाण-चउहाणाणुभागाणं बंधाभावादो। णवरि बादर-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्तएसु एक्कक्किस्से हिदीए अणंता जीवा । पढमहिदिबंधजीवप्पहुडि कमेण विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण खंडिदमेत्तेण । पलिदोवमस्स असंखेजदिमागं गंण दुगुणवड्डिदा दुगुणवडिदा जाव जवमझं । तेण परं विसेसहीणा । सेसं जाणिदूण वत्तव्यं । एसो जीवसमुदाहारो बहुभेदो वि संतो संखेवेण एत्थ परूविदो । एवं जीवसमुदाहारो समत्तो। शंका-यह सूत्र विसंवाद सहित क्यों नहीं है ? - समाधान नहीं, क्योंकि, जो भूतबलि भट्टारक विसंवादके कारणभूत समस्त दोषोंसे रहित हैं उनके मुखसे निकले हुए सूत्रके विसंवादी होनेमें विरोध है। इस जीवसमुदाहारको द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक अपर्याप्तक तथा संज्ञी अपर्याप्तक जीवोंमें जोड़ना चाहिये । विशेष इतना है कि उक्त जीवों के स्थितिभेदको जानना चाहिये । बादर व सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवों में भी इसी प्रकार कहना चाहिये । विशेष इतना है कि इन सभी जीवोंमें साता व असाताका द्विस्थानिक अनुभाग रूप यवमध्य ही होता है, क्योंकि, उनमें त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक अनुभागोंके बन्धका अभाव है। विशेषता यह है कि बादर व सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवों में एक एक स्थितिमें अनन्त जीव होते हैं। वे क्रमशः प्रथम स्थितिबन्धके जीवोंसे लेकर विशेष अधिक हैं । कितने मात्रसे वे अधिक हैं ? उनको पत्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध हो उतने मात्रसे भी अधिक हैं । पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर यवमध्य तक दुगुणी दुगुणी वृद्धिसे वृद्धिंगत होते गये हैं । आगे वे विशेष हीन हैं। शेष कथन जानकर कना चाहिये। बहुत भेदोंसे संयुक्त होनेपर भी इस जीवसमुदाहारकी यहां संक्षेपसे प्ररूपणा की गई है । इस प्रकार जीवसमुदाहार समाप्त हुआ। ... १ अ-आ-काप्रतिषु विसंवादीसुत्तं', ताप्रती विसंवादी सुत्तं' इति पाठः । २ प्रतिषु विसंवादत्तइति पाठः। ३ ताप्रतौ द्विदिविसेसो वत्तवो' इत्येतावानयं पाठस्त्रुटितोऽस्ति । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४५ ४, २, ६, २३८. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्ञवसाणपरूवणा (संदृष्टियां) ००००००००० TO.०० ००००००००००० 000000000 .0000000 जत्तो उक्कस्स गच्छदि सा हिदी एसा जहष्णाबाधा उक्कस्साबाधा सादजहण्णगो द्विदि बंधो ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ०००० ० ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ००००००००००१००००००००१०००००००१०००००० ००००००००००००००००००००००००१०००.०० ०००००००१००००००००१०००००००१०००००० साद उक्कस्सगो द्विदिबंधो ०००००००१००००००००१०००००००१०००००० ००००००१००००००००१०००००००१०००००० ०००००१००००००००१०००००००१०००००० ०००००१०००००००१०००००००१०००००० ००००१०००००००१०००००००१०००००० धुवट्टिदीए चरिमट्टिदी एसा ./ 000000 ०००००००० Moooooooo 000000000/ . १. जहणिया आवाधा उक्कसाचाधा असादजहण्णगो हिदिबंधो > ०००००० जत्तो उक्कस्सं दाई संगच्छदि सा हिदी एसा णिब्वियप्पअंतोकोडाकोडी ०००००००००००००००००० छ. ११-४४ दाहहिदी असाद उक्कस्सगो द्विदिधंबो Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २२९ पयडिसमुदाहारे ति तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि पमाणाणुगमो अप्पाबहुए ति ॥२३९॥ परूवणाए सह तिण्णिअणियोगद्दाराणि किण्ण परूविदाणि ? ण, एदेसु चेव परूवणाए अंतम्भूदत्तादो । ण च परूवणाए विणा पमाणादीणं संभवो अस्थि, विरोहादो । तेण एत्य ताव परूवणं वत्तइस्सामो । तं जहा-अत्थि णाणावरणादीणं पयडीणं द्विदिबंधज्झवसाणहाणाणि । पख्वणा गदा।। पमाणाणुगमे णाणावरणीयस्स असंखेज्जा लोगा डिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि ॥ २४०॥ णाणावरणीयस्स हिदिबंधकारणअज्झवसाणहाणाणि सव्वाणि एगहें कादूण एसा परूवणा परूविदा । ठिदिं पडि अज्झवसाणहाणाणमेसा पमाणपरूवणा ण होदि, उवरि द्विदिसमुदाहारे हिदि पडि अज्झवसाणपमाणस्स परूविजमाणत्तादो । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ २४१ ॥ जहा णाणावरणीयस्स हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणमव्वोगाढेण पमाणपरूवणा कदा ___ अब प्रकृतिसमुदाहारका अधिकार है। उसमें दो अनुयोगद्वार हैं-प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व ॥ २३९ ॥ शंका-प्ररूपणाके साथ यहां तीन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? समाधान नहीं, क्योंकि, इनमें ही प्ररूपणाका अन्तर्भाव हो जाता है। कारण कि प्ररूपणाके विना प्रमाणादिकोंकी सम्भावना ही नहीं है, क्योंकि, उसमें विरोध है। इसी कारण यहां पहिले प्ररूपणाको कहते हैं । वह इस प्रकार है-ज्ञानावरणादिक प्रकृतियोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हैं । प्ररूपणा समाप्त हुई। प्रमाणानुगमके अनुसार ज्ञानावरणीयके असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हैं ॥ २४०॥ शानावरणीयके स्थितिबन्धमें कारणभूत सब अध्यवसानस्थानोंको इकट्ठा करके यह प्रमाणप्ररूपणा कही गई है। प्रत्येक स्थितिके अध्यवसानस्थानोंकी यह प्रमाणप्ररूपणा नहीं है, क्योंकि, आगे स्थितिसमुदाहारमें प्रत्येक स्थितिके आश्रयसे अध्यवसानस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा की जानेवाली है। इसी प्रकार शेष सात कर्मोंकी प्रमाणप्ररूपणा है ॥ २४१॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी अब्योगाढ स्वरूपसे १ आप्रतौ 'समुदाहारो' इति पाठः। २ अ-आप्रत्योः 'इमा दुवो' इति पाठः। ३ संप्रति प्रकृतिसमुदाहार उच्यते । तत्र च द्वे अनुयोगद्वारे। तद्यथा--प्रमाणानुगमः अल्पबहुत्वं च । तत्र प्रमाणानुगमे ज्ञानावरणीयस्स सर्वेषु स्थितिबन्धेषु कियन्त्यध्यसायस्थानानि १ उच्यते-असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि । एवं सर्वकर्मणामपि द्रष्टव्यम् । क. प्र. (म. टी.) १,८८.। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २४३. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे डिदिबंधज्झवसाणपरूवणा [३४७ तधा सेससत्तण्णं कम्माणं पमाणपख्वणा कायव्वा । एवं पमाणाणुगमे त्ति समत्तमणियोगद्दारं । अप्पाबहुए ति सव्वत्थोवा आउअस्स द्विदिबधंज्झवसाणडाणाणि' ॥ २४२ ॥ __कुदो ? चदुण्णमाउआणं सव्वोदयवियप्पग्गहणादो । कसायउदयट्ठाणेसु उच्चिदूर्ण गहिदझवसाणहाणाणमाउअबंधपाओग्गाणं किण्ण [ पवणा] कीरदे ? ण, सगहिदिबंधहाणहेदुभृदसोदयहाणाणं परूवणाए अण्णपयडिउयहाणेहि पओजणाभावादो। ___णामा-गोदाणं हिदिबंधज्झवसाणट्टाणाणि दो वि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि ॥ २४३॥ कुदो ? साभावियादो । णामा-गोदाणमुदयस्सेव आउओदयस्स संसारावत्याए सव्वत्थ संभवे संते हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं थोवत्तं कत्तो णव्वदे ? ठिदिबंधट्ठाणाणं थोवप्रमाणप्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कमौकी प्रमाणप्ररूपणा भी करना चाहिये। इस प्रकार प्रमाणानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारके अनुसार आयुकर्मके स्थितिबन्धाध्यवसान सबसे स्तोक हैं ॥ २४२ ॥ ___कारण कि चारों आयुओंके सब उदयविकल्पोंका यहां ग्रहण किया गया है । शंका-कषायोदयस्थानोंमेंसे चुनकर ग्रहण किये गये आयुबन्धके योग्य अध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा यहां क्यों नहीं की जाती है ? समाधान नहीं, क्योंकि अपने स्थितिबन्धस्थानोंके हेतुभूत अपने उदयस्थानोंकी प्ररूपणामें दूसरी प्रकृतियोंके उदयस्थानोंका कोई प्रयोजन नहीं है। ' नाम व गोत्रके स्थितिबन्धस्थान दोनोंही तुल्य असंख्यातगुणे हैं ॥ २४३ ॥ कारण कि ऐसा स्वभावसे है। शंका--जिस प्रकार संसार अवस्थामें नाम व गोत्रका उदय सर्वत्र सम्भव है, उसी प्रकार आयुके उदयकी भी सर्वत्र सम्भावना होनेपर उसके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी स्तोकता कहांसे जानी जाती है १ठिइदीहयाए त्ति-स्थितिदीर्घतया क्रमशः क्रमेणाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि वक्तव्यानि । यस्य यतः क्रमेण दीर्घा स्थितिस्तस्य ततः क्रमेणाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि वक्तव्यानीत्यर्थः । तथाहि -सर्वस्तोकान्यायुषः स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि । क. प्र. (म. टी.) १,८९.। २ प्रतिषु 'उन्विदूण' इति पाठः। ३ तेभ्योऽपि नाम-गोत्रयोरसंख्येयगुणानि । नन्वायुषः स्थितिस्थानेषु यथोत्तरमसंख्येयगुणा बृद्धिः, नाम-गोत्रयोस्तु विशेषाधिका, तत्कथमायुरपेक्षया नाम-गोत्रयोरसंख्येयगुगानि भवन्ति ? उच्यते-आयुषो जघन्यस्थितावध्यवसायस्थानान्यतीव स्तोकानि, नाम-गोत्रयोः पुनर्जघन्यायां स्थितौ अतिप्रभूतानि, स्तोकानि चायुषः स्थितिस्थानानि, नाम-गोत्रयोस्त्वतिप्रभूतानि, ततो न कश्चिद्दोषः । क. प्र. (म. टी.) १,८९.। . Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८] खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, २४४. त्तादो। हिदिबंधहाणाणं पहाणत्ते इच्छिज्जमाणे गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो होदि । होदु णाम, असंखेजलोगभेत्तो चेवेत्ति गुणगारे अम्हाणं पमाणणियमाभावादो। णामा-गोदज्झवसाणहाणाणं कधं तुलत्तं ? ण, हिदिं बंधताण समाणत्तणेण तत्तुल्लत्तावगमादो। णाणावरणीय-दंसणावरणीय-वेयणीयअंतराइयाणं विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि चत्तारि वि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि ॥ २४४ ॥ णामा-गोदेहिंतो चत्तारि वि कम्माणि मिच्छत्तासंजम-कसायपच्चएहि सरिसाणि । तेण णाभा-गोदाणं अज्झवसाणेहिंतो चदुण्णं कम्माणं अज्झवसाणहाणाणि असंखेजगुणाणि त्ति ण घडदे । णामा-गोदाणं द्विदिबंधहाणहितो चदुण्णं कम्माणं हिदिबंधहाणाणि विसेसाहियाणि त्ति असंखेजगुणतं ण जुजदे । हेहिमबेतिभागढिदिबंधटाणपाओगकसाएहिंतो उवरिमतिभागढिदिबंधहाणपाओग्गकसाउदयट्ठाणाणं असमाणाणमणुवलंभेण __ समाधान-चूंकि उसके स्थितिबन्धस्थान स्तोक हैं, अतः इसीसे उसके . स्थितिवन्धाध्यवसानस्थानोंकी स्तोकताका भी परिक्षान हो जाता है। स्थितिबन्धस्थानोंकी प्रधानताके अभीष्ट होनेपर गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग होता है। शंका यदि पल्योपमक असंख्यातवां भाग गुणकार है तो, हो, क्योंकि असंख्यात लोक मात्र ही गुणकार होता है, ऐसा हमारे पास उसके प्रमाणका कोई नियम नहीं है। शंका नाम व गोत्रके स्थितिबन्धस्थानोंके परस्पर समानता कैसे है ? समाधान नहीं, क्योंकि स्थितिबन्धस्थानोंकी समानतासे उनकी समानता भी निश्चित है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय, इन चारों ही कर्मों के स्थितिबन्धस्थान तुल्य व असंख्यातगुणे हैं ॥ २४४ ॥ __ शंका-चारों ही कर्म मिथ्यात्व, असंयम और कषाय रूप प्रत्ययोंकी अपेक्षा चूंकि नाम-गोत्रके समान हैं इसी कारण नाम-गोत्रके अध्यवसानस्थानोंकी अपेक्षा चारों कर्मों के अध्यवसानस्थानोंको असंख्यातगुणा बतलाना संगत नहीं है। दूसरे, नाम-गोत्रके स्थितिबन्धस्थानोंकी अपेक्षा चार कर्मोंके स्थितिबन्धस्थान चूंकि विशेष अधिक हैं, इसलिये भी उनके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकों असंख्यातगुणा बतलाना उचित नहीं ? इसके अतिरिक्त चूंकि नीचेके दो त्रिभाग मात्र स्थितिबन्धस्थानोंके योग्य कषायोदयस्थानोंकी अपेक्षा ऊपरके एक त्रिभाग मात्र स्थितिबन्धस्थानोंके योग्य कषायोदयस्थानोंके असमान न पाये जानेसे भी उनका असंख्यातगुणत्व घटित नहीं होता? १ नाम-गोत्रयोः सत्कस्थितिबन्धाध्यवसायस्थानेभ्यो ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीय-वेदनीयान्तरायाणं स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि । कथमिति चेदुच्यते-इह पल्योपमासंख्येयभागमात्रासु स्थितिध्वतिक्रान्तासु द्विगुणवृद्धिरुपलब्धा । तथा च सत्येकैकस्यापि पल्योपमस्यान्तेऽअसंख्येयगुणानि लभ्यन्ते, किं पुनर्दशसागरोपमकोटीकोट्यन्ते इति । क.प्र. (म. टी.) १,८९.। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २४६. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणा [३४९ असंखेजगुणत्ताणुववत्तीदो ? ण एस दोसो, णामा-गोदाणमुदयट्ठाणेहिंतो चदुण्णं कम्माणं उदयट्ठाणबहुत्तेण असंखेजगुणत्ताविरोहादो। कथं चदुण्णं कम्माणं पयडिअज्झवसाणाणं अण्णोण्णं समाणत्तं ? ण, सोदयादिवियप्पेहि तेसिं भेदाभावादो। मोहणीयस्स विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि ॥ २४५॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? चदुण्णं कम्माणमुदयहाणेहिंतो मोहणीयस्स उदयट्ठाणाणमसंखेजगुणत्तादो । एवं पगडिसमुदाहारो समत्तो। ठिदिसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि पगणणा अणुकट्ठी तिव्व-मंददा ति ॥ २४६ ॥ तत्थ पगणणा णाम इमिस्से इमिस्से ह्रिदीए बंधकारणभृदाणि द्विदिबंधज्झवसाणहाणाणि एत्तियाणि एत्तियाणि होति त्ति हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं पमाणं पख्वेदि । तत्य अणुकही णाम हिदि पडि हिदिबंधज्झवसाणहाणाणं समाणत्तमसमाणत्तं च परूवेदि । तिव्व-मंददा णाम तेसिं जहण्णुक्कस्सपरिणामाणमविभागपडिच्छेदाणमप्पाबहुगं पख्वेदि । समाधान यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि, नाम-गोत्रके उदयस्थानोंकी अपेक्षा चार कमौके उदयस्थानोंके बहुत होनेसे उनके असंख्यातगुणे होने में कोई विरोध नहीं है । शंका-चार कर्मों के प्रकृतिअध्यवसानस्थानोंके परस्पर समानता कैसे है ? समाधान नहीं, क्योंकि स्वोदयादिक विकल्पोंकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं है। मोहनीयके स्थितिषन्धाध्यवसानस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २४५॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, चार कर्मों के उदयस्थानोंकी अपेक्षा मोहनीयके उदयस्थान असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार प्रकृतिसमुदहार समाप्त हुआ। अब स्थितिसमुदाहारका अधिकार है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार है-प्रगणना, अनुकृष्टि और तीव्रमन्दता ॥ २४६॥ इनमें प्रगणना नामक अनुयोगद्वार अमुक अमुक स्थितिके बन्धके कारणभूत स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान इतने इतने होते हैं, इस प्रकार स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करता है। अनुकृति अनुयोगद्वार प्रत्येक स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी समानता व असमानताको बतलाता है। तीवमन्दता अनुयोगद्वार उनके जघन्य व उत्कृष्ट परिणामोंके अविभाग प्रतिच्छेदोंके अल्पहुत्वकी प्ररूपणा करता है। १ तेभ्योऽपि कषायमोहनीयस्य स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि । तेभ्योऽपि दर्शनमोहनीयस्य स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि । क. प्र. (म. टी.) १,८९.। २ तत्र स्थितिसमुदाहारेऽपि त्रीण्यनुयोगद्वाराणि । तद्यथा-प्रगणना १, अनुकृष्टिः २, तीव्रमन्दता ३ च । तत्र प्रगणना प्ररूपणार्थमाह-क. प्र. (म. टी.) १,८७ गाथाया उत्थानिका । ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'पयति' इति पाठः। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ६, २४७. तिण्णि चेव अणियोगद्दाराणि किमट्ट परूविदाणि ? ण, चउत्यादिअणियोगद्दाराणं संभवाभावादो। पगणणाए णाणावरणीयस्स जहणियाए ट्ठिदीए द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेजा लोगा ॥ २४७॥ जहण्णहिदी णाम धुवहिदी, तत्तो हेट्ठा हिदिबंधाभावादो । तत्थ हिदिबंधज्ज्ञवसाणहाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि अणंतभागवड्डि-असंखेजभागवड्डि-संखेजभागवड्डि-संखेजगुणवडि-असंखेजगुणवड्डि-अणंतगुणवड्डीहि णिप्पण्णअसंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणि होति । कधमेक्कस्स जहण्णहिदिबंधज्झबसाणहाणस्स अणंतो सव्वजीवरासी भागहारो कीरदे ? ण, जहण्णहिदिबंधज्झवसाणहाणे वि असंतसव्वजीवरासिमेत्तअविभागपडिच्छेदुवलंभादो। . बिदियाए ट्ठिदीए ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेजा लोगा ।। २४८॥ ___ बिदियाए टिदीए त्ति वुत्ते समउत्तरमवहिदी घेत्तव्वा । कधं तिस्से बिदियत्तं १ ण, शंका-तीन ही अनुयोगद्वार किस लिये कहे हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि चतुर्थादिक अन्य अनुयोगद्वारोंकी सम्भावनाका अभाव है। प्रगणना अनुयोगद्वारका अधिकार है। ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं ॥ २४७॥ जघन्य स्थितिका अर्थ वस्थिति है, क्योकि, उसके नीचे स्थितिबन्धका अभाव है । उसमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं। वे अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि, इन छह वृद्धियोंसे उत्पन्न असंख्यातं लोक मात्र छह स्थानोंसे संयुक्त होते हैं। शंका-अनन्त सर्व जीव राशिको एक जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानका भागहार कैसे किया जा रहा है ? समाधान नहीं, क्योंकि एक जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसानमें भी अनन्त सब जीवराशि प्रमाण अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। द्वितीय स्थितिमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं ॥ २४८॥ 'बिदियाए ट्ठिदीए' ऐसा कहनेपर एक समय अधिक अवस्थितिका ग्रहण करना चाहिये। शंका-इसको द्वितीय स्थिति कहना कैसे उचित है ? समाधान नहीं, क्योंकि, ध्रुवस्थितिसे एक समय अधिक स्थिति पृथक् पायी १ ठिइबंधे ठितिबंधे अज्झवसाणाणसंखया लोगा। हस्सा वे (वि) सेसवुड्डी आऊणमसंखगुणवडी ॥ क. प्र. १,८७.। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २५०. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंध व साणपरूवणा धुवदिदो समउत्तरद्विदीए पुधत्तुवलंभादो । तिस्से हिंदीए बंधपाओग्गज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेजलोगमेत्तछट्टाणाणि होति त्ति भणिदं होदि । [ ३५१ तदियाए हिदीए द्विदिबंधज्झवसाणट्टाणाणि असंखेज्जा लोगा ॥ २४९ ॥ अनंतभागवढ्ढीए अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाणं गंतॄण सइमसंखेजभागवडी होदि । पुणो वि तेत्तियमेत्तं चैव अनंतमागवड्डीए अद्धाणं गंतॄण बिदियअसंखेजभागवड्डी होदि । एवं कंदयमेत्तअसंखेज्जभागवड्डीओ कंदयवग्र्ग - कंदयमेत्तअणंतभागवड्डीयो च गंतूण सई संखेज्जभागवड्डी होदि । पुणो वि एत्तियमेत्तं चेव अद्धाणं पुव्वविहाणेण गंतॄण बिदिया संखेज्जभागवड्डी होदि । एवमेदेण विहाणेण कंदयमेत्तसंखेज्जभागवड्डीसु गंदासु समयाविरोहेण सई संखेजगुणवड्डी होदि । एदेण कमेण कंदयमेत्तसंखेजगुणवड्डीसु गदासु सइमसंखेज्जगुणवडी होदि । पुणो समयाविरोहेण कंदयमेत्तअसंखेज्जगुणवड्डीसु गदासु सइमणंतगुणवड्डी होदि । एदं सव्वं पि एगं छट्टाणं त्ति भण्णदि । एरिसाणि असंखेज्जदिलोगमेत्तछट्ठाणाणि घेत्तूण दिया हिदी बिंधज्झवसाणद्वाणाणि होंति । 1 एवमसंखेज्जा लोगा असंखेज्जा लोगा जाव उक्कस्सट्टिदि त्ति ॥ २५० ॥ जाती है। उक्त स्थितिके बन्धके योग्य अध्यवसानस्थान असंख्यात लोक मात्र छह स्थानोंसे संयुक्त होते हैं, यह अभिप्राय है । तृतीय स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं ॥ २४९॥ अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अनन्तभागवृद्धिके स्थानोंके वीतनेपर एक बार असंख्यात भागवृद्धि होती है । फिरसे भी उतना ही अनन्तभागवृद्धिका अध्वान जाकर द्वितीय असंख्यात भागवृद्धि होती है । इस प्रकारसे काण्डक प्रमाण असंख्यात भागवृद्धियों, काण्डक वर्ग और काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धियोंके वीतने पर एक वार संख्यात भागवृद्धि होती है । फिरसे भी पूर्वोक्त रीतिसे इतने मात्र स्थान जाकर द्वितीय संख्यात भागवृद्धि होती है । इस प्रकार इस रीतिसे काण्डक प्रमाण संख्यातभागवृद्धियोंके वीतने पर आगमाविरोधसे एक बार संख्यातगुणवृद्धि होती है । इस क्रमसे काण्डुक प्रमाण संख्यातगुणवृद्धियोंके वीत जानेपर एक वार असंख्यातगुणवृद्धि होती है । पश्चात् आगमाविरोधसे काण्डक प्रमाण असंख्यातगुणवृद्धियोंके बीतनेपर एक वार अनन्तगुणवृद्धि होती है । यह सभी एक षट्स्थान कहा जाता है। ऐसे असंख्यात लोक प्रमाण षट्स्थान ग्रहण करके तृतीय स्थितिमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक असंख्यात लोक असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं ॥ २५० ॥ १ प्रतिषु ' कंदयवग्गो कंदय' इति पाठः । * Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २५१. जहा पुग्विल्लीणं तिण्णं द्विदीणं अज्झवसाणहाणाणि पमाणेण असंखेजलोगमेत्ताणि तहा उवरिमसव्वहिदीणं पि हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं पमाणं होदि त्ति जाणावण?मेवमिदि णिद्देसो कदो। एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ २५१ ॥ जहा णाणावरणीयस्स हिदि पडि हिदिबंधज्झवसाणहाणाणं पमाणपरूवणा कदा तथा सेससत्तण्णं पि कम्माणं परवेदव्वं, असंखेजलोगपमाणत्तं पडि भेदाभावादो । एवं पमाणपरूवणा गदा। ___एत्थ संतपरूवणा किण्ण परूविदा ? ण, तिस्से पमाणंतब्भावादो । कदो ? पमाणेण विणा संताणुववत्तीदो । तेसिं दुविधा सेडिपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा ॥२५२ ॥ जत्थ णिरंतरं थोवबहुत्तपरिक्खा कीरदे सा अणंतरोवणिधा । जत्थ दुगुण-चदुगुणादिपरिक्खा कीरदि सा परंपरोवणिधा । एवं सेडिपवणा दुविहा चेव, तदियादिपयारा___ जिस प्रकार पूर्वोक्त तीन स्थितियोंके अध्यवसानस्थान प्रमाणसे असंख्यात लोक मात्र हैं, उसी प्रकार आगेकी सब स्थितियोंके भी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंका प्रमाण होता है। यह बतलानेके लिये सूत्रमें ' एवं ' पदका निर्देश किया गया है।। इसी प्रकार सात कर्मोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ २५१॥ जिस प्रकार मानावरणीयकी प्रत्येक स्थितिसम्बन्धी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार शेष सात कर्मोंकी भी स्थितियोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उनमें असंख्यात लोक प्रमाणकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। इस प्रकार प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। शंका-यहां सत्प्ररूपणाकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? ___समाधान नहीं, क्योंकि उसका प्रमाण अनुयोगद्वार में अन्तर्भाव हो जाता है, कारण कि प्रमाणके विना सत्व घटित ही नहीं होता है। . उक्त स्थानोंकी श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा ॥ २५२॥ जहांपर निरन्तर अल्पबहुत्वकी परीक्षा की जाती है वह अनन्तरोपनिधा कही जाती है। जहांपर दुगुणत्व और चतुर्गुणत्व आदिकी परीक्षा की जाती है वह परम्परोपनिधा कहलाती है। इस प्रकार श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार ही है, क्योंकि, और ततीयादि प्रकारोंकी १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-प्रतिषु 'णाणावरणीयस्स पडि', ताप्रतौ ‘णाणावरणीयस्स पयडि' इति पाठः। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २५४. ] वेयणमहाहियारे वेयकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणा [- ३५३ संभवाद । एत्थ संदिट्ठी बालजणबुद्धिविष्फारण ठवेदव्वा - - १६ । २० । २४ । २८ ३२ । ४० । ४८ । ५६ । ६४ । ८० । ९६ । ११२ । १२८ । १६० । १९२ । २२४ । २५६ । अनंतवणिधाए णाणावरणीयस्स जहण्णियाए द्विदीए द्विदिबंध ज्झवसाणद्वाणाणि योवाणि ॥ २५३ ॥ केहिंतो थोवाणि त्ति वुत्ते उवरिमद्विदिवधज्झवसाणहाणेहिंतो । कधमेदं णव्वदे ? ा दिबंधाणाभावेण द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाभावादो । विदियाए हिदीए ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्टाणाणि विसेसाहियाणि ॥ २५४ ॥ केत्तियमेत्तेण ? असंखेज्जलोगमेत्तेण । जहण्णट्ठिदिअज्झवसाणहाणाणं विसेसागमणहं को भागहारो ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । एगगुणहाणिअद्धाणमिदि वृत्तं होदि । सम्भावना नहीं है । यहांपर अज्ञानी जनोंकी बुद्धिको विकसित करनेके लिये संष्टष्टिकी की स्थापना करना चाहिये ( मूल में देखिये ) अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान स्तोक हैं ॥ २५३ ॥ शंका - किनकी अपेक्षा स्तोक हैं ? समाधान- इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि वे ऊपर के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी अपेक्षा स्तोक हैं । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - चूंकि नीचे स्थितिबन्धस्थानोंके न होनेसे स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंका अभाव है; अतः इसीसे ज्ञात होता है कि वे ऊपर के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी अपेक्षा स्तोक हैं । द्वितीय स्थिति स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं ॥ २५४ ॥ कितने मात्र से अधिक हैं ? असंख्यात लोक मात्रसे वे अधिक हैं । शंका- जघन्य स्थिति के अध्यवसानस्थानोंके विशेषको लानेके लिये भागहार क्या है ? १ अत्र द्वेधा प्ररूपणा । तद्यथा - अनन्तरोपनिधया परंपरोपनिधया च तत्र । अनन्तरोपनिधया प्रमाणमाह - हस्सा वे (वि) सेसबड्डी आयुर्वेर्जानां कर्मणां हृस्वाज्जघन्यात् स्थितिबन्धात् परतो द्वितीयादिषु स्थितिस्थानबन्धेषु विशेषवृद्धिः विशेषाधिका वृद्धिरवसेया । तद्यथा - ज्ञानावरणीयस्य जघन्यस्थितौ तदुबन्धहेतुभूता अध्यवसाया नानाजीवापेक्षयाऽसंख्ये यलोक । काशप्रदेशप्रमाणाः । ते चान्यापेक्षया सर्वस्तोका । क.प्र. (म. टी.) १,८७. । २ ततो द्वितीयस्थितौ विशेषाधिकाः । ततोऽपि तृतीय स्थितौ विशेषाधिकाः । एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्टा स्थितिः । एवं सर्वेष्वपि कर्मसु वाच्यम् । क. प्र. (म.टी.) १,८७. । छ. ११-४५ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४] वखंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २५५ संदिट्ठीए एत्थ गुणहाणिपमाणं चत्तारि ४ । एदं विरलेदूण जहण्णहिदिबंधज्झवसाणहाणाणि सोलस समखंडं कादूण दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगपक्खेवपमाणं पावदि । एत्य एगपक्खेवं घेत्तूण जहण्णहिदिबंधज्झवसाणहाणेसु पक्खित्ते बिदियट्ठिदिबंधज्झवसाणहाणाणि होति तिघेत्तव्वं । तदियाए [ ट्ठिदीए ] ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि ॥ २५५॥ केत्तियमेत्तेण १ एगपक्खेवमेत्तेण । एत्य जाव पढमगुणहाणिचरिमसमओ त्ति अवहिदो पक्खेवो । कुदो १ वविदएगेगपक्खेवाणं हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणमेगेगरूवाहियगुणहाणिभागहारुवलंभादो। ___ एवं विसेसाहियाणि विसेसाहियाणि जाव उक्कस्सिया हिदि ति ॥ २५६ ॥ एवं सवहिदिबंधझवसाणट्ठाणाणि । अणंतराणंतरेण विसेसाहियकमेणं गच्छंति जाव उकस्सहिदिबंधज्झवसाणटाणे त्ति । णवरि गुणहाणि पडि पक्खेवो दुगुण-दुगुणो होदि । कुदो १ दुगुण-दुगुणक्कमेण हिदिगुणहाणिचरिमटिदिबंधज्झवसाणहाणाणमवहिदएगगुणहाणिभागहारदसणादो। समाघान-भागहार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। अभिप्राय यह कि एकगुणहानिअध्वान भागहार है। यहां संदृष्टिमें गुणदानिका प्रमाण चार (४) है। इसका विरलन करके जघन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके प्रमाण सोलहको समखण्ड करके देनेपर एक एक विरलनरूपके ऊपर एक प्रक्षेपका प्रमाग प्राप्त होता है। यहां एक प्रक्षेपको ग्रहण करके जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानों में मिलानेपर द्वितीय स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंका प्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिये । तृतीय स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं ॥ २५५ ॥ कितने मात्रसे वे विशेष अधिक हैं ? एक प्रक्षेपके प्रमाणसे वे विशेष अधिक हैं। यहां प्रथम गुणहानिके अन्तिम समय तक अवस्थित प्रक्षेप है, क्योंकि एक प्रक्षेपसे वृद्धिको प्राव हुए स्थितिबन्धावसानस्थानोंका उत्तरोत्तर एक एक अंकसे अधिक गुणहाणि भागहार पाया जाता है। ____ इस प्रकार वे उत्कृष्ट स्थितितक विशेष अधिक विशेष अधिक हैं ॥ २५६ ॥ इस प्रकार सब स्थितियोंके अध्यवसानस्थान अनन्तर-अनन्तर क्रमसे उत्कृष्ट स्थितिके स्थितिबन्धाध्यघसानस्थानोंतक उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते गये हैं। विशेष इतना है कि प्रक्षेप प्रत्येक गुगहानिके अनुसार दूना दना होता गया है। कारण कि दूने दने क्रमसे स्थित गुणहानियोंमें अन्तिम स्थिति के स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंका अवस्थित एक गुणहानि भागहार देखा जाता है। १ ताप्रती 'अयहिदो । कुदो' इति पाठः । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २६०. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्झवसाणपरूवणा [ ३५१ एवं छण्ण कम्माणं ॥ २५७ ॥ जहा णाणावरणीयस्स अणंतरोवणिधा परूविदा तहा छण्णं कम्माणं आउववजाणं परूवेदव्वा, विसेसाहियत्तं पडि भेदाभावादो । आउअस्स जहणियाए हिदीए ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि थोवाणि ॥ २५८ ॥ कुदो ? आउअस्स असंखेज्जदिलोगमेत्तट्ठिदिवंधज्झवसाणद्वाणाणमसंखेज्जदिभागमेत्ताणं चैव जहणडिदिपाओग्गत्तादो । विदियाए द्विदीए हिदिबंधझवसाणाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ २५९ ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कुदो ? जहण्णट्ठिदिबंधकारणादो समउत्तरद्विदिबंधकारणाणं बहुत्तुवलंभादो । तदिया हिदी द्विदिबंधज्झवसाणट्टाणाणि असंखेज्ज - गुणाणि ॥ २६० ॥ को गुणगारो ? आवलियाए असंखेज्जदिभागो । कारणं पुव्वं व वत्तव्वं । इसी प्रकार छह कर्मों की अनन्तरोपनिधाकी प्ररूपणा करना चाहिये ।। २५७ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मको अनन्तरोपनिधाकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार आयुको छोड़कर शेष छह कर्मोकी अनन्तरोपनिधा की प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उसमें विशेष अधिकताकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है । आयु कर्मकी जघन्य स्थितिमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान स्तोक हैं ॥ २५८ ॥ इसका कारण यह है कि आयु कर्मके असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानों में उनके असंख्यातवें भाग मात्र ही जघन्य स्थितिके योग्य हैं । - द्वितीय स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २५९ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार आवलिका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, जघन्य स्थितिबन्धके कारणोंकी अपेक्षा एक एक समय अधिक स्थितिबन्धके कारण बहुत पाये जाते हैं । तृतीय स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २६० ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार आवलिका असंख्यातवां भाग है । इसके कारणका कथन पहिलेके ही समान करना चाहिये । १ आऊणमसंखगुणवडी । आयुषां जघन्यस्थितेरारम्य प्रतिस्थितिबन्धमसंख्येयगुणवृद्धिर्वक्तव्या । तद्यथा – आयुषो जघन्य स्थितौ तदुबन्धहेतुभूता अध्यवसाया असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः । ते च सर्वस्तोकाः । ततो द्वितीयस्थितौ असंख्येयगुणाः । ततोऽपि तृतीयस्थितावसंख्येयगुणाः । एवं तावकान् यावदुत्कृष्टा स्थितिः । क. प्र. ( म. टी.) १,८७. । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ६, २६१. - एवमसंखेजगुणाणि असंखेज्जगुणाणि जाव उक्कसिया हिदि ति ॥ २६१ ॥ एवं ठिदि पडि हिदि पडि आवलियाए असंखेजदिभागगुणगारेण सव्वढिदिबंधज्झवसाणटाणाणि णेदव्वाणि जाव उक्कस्सटिदि त्ति । एवमणंतरोवणिधा समत्ता। परंपरोवणिधाए णाणावरणीयस्स जहणियाए हिदीए द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतृण दुगुणवढिदा ॥ २६२ ॥ • कुदो ? विरलणमेत्तपक्खेवेसु जहण्णद्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणेसु वडिदेसु दुगुणझवसाणट्ठाणसमुप्पत्तीदो। - एवं दुगुणवड्ढिदा दुगुणवडूिढदा जाव उक्कस्सिया हिदि त्ति ॥ २६३ ॥ एवमवट्ठिदमेत्तियमद्धाणं गंवण सव्वदुगुणवडीओ उप्पजंति त्ति वत्तव्वं । एवं द्विदिबंधज्झवसाणदुगुणवढि-हाणिट्ठाणंतरं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागों ॥ २६४ ॥ इस प्रकार वे उत्कृष्ट स्थिति तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे होते गये हैं ॥ २६१॥ '। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितितक एक एक स्थितिके प्रति सब स्थितिबन्धाध्यवसान स्थानोंकी आवलिके असंख्यातवें भाग गुणकारसे ले जाना चाहिये । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। .. परम्परोपनिधाकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी अपेक्षा उनसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर वे दुगुणी वृद्धिको प्राप्त हैं ॥ २६२ ॥ .इसका कारण यह है कि जघन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानों में विरलन राशिके बराबर प्रक्षेपोंकी वृद्धिके होनेपर दुगुणे अध्यवसानस्थानोंकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार वे उत्कृष्ट स्थिति तक दुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त हुए हैं ॥ २६३॥ इस प्रकार इतना मात्र अध्वान जाकर सब दुगुणवृद्धियां उत्पन्न होती हैं, ऐसा कहना चाहिये। एक स्थितिसम्बन्धी अध्यवसानोंके दुगुण-दुगुणवृद्धिहानिस्थानोंके अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥ २६४ ॥ १अ-आ-का-प्रतिषु 'पयडि' इति पाठः। २ पल्लासंखियभागं गंतुं दुगुणाणि जाव उक्कोसा क.प्र. १,८८. । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, ४, ६, २६६. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणा [३५७ कुदो ? णाणागुणहाणिसलागाहि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ताहि संखेजपलिदोवमेसु भागे हिदेसु असंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलुवलंभादो । एवमेदेण सुत्तेण एगगुणहाणिअद्वाणपमाणं परूविदं । णाणागुणहाणिसलागाणं पमाणपरूवणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि __णाणाद्विदिबंधज्झवसाणदुगुणवड्ढि-हाणिट्ठाणंतराणि अंगुलवग्गमूलछेदणाणामसंखेज्जदिभागो' ॥ २६५ ॥ ____ अंगुलवग्गमूलमिदि वुत्ते सूचीअंगुलपढमवग्गमूलं घेत्तव्वं । तस्स अद्धछेदणाणं असंखेजदिभागमेत्ताओ णाणागुणहाणिसलागाओ होति । होताओ वि मोहणीयहिदिपदेसणाणागुणहाणिसलागाहिंतो थोवाओ, ताणिं पलिदोवमेवग्गमूलस्स असंखेजदिभागमेत्ताओ त्ति पमाणमभणिदूण अंगुलवग्गमूलच्छेदणाणं असंखेजदिभागो त्ति परविदत्तादो । होताओ वि असंखेजगुणहीणाओ पुव्वं विहजमाणरासीदो संपहि विहज्जमाणरासीए असंखेजगुणहीणत्तादो। ___णाणाठिदिबंधज्झवसाणदुगुणवड्ढि-हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि ॥ २६६॥ कारण कि पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र नानागुणहानिशलाकाओंका संख्यात पल्योपमोंमें भाग देनेपर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल लब्ध होते हैं । इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा एक गुणहानिअध्वानके प्रमाणकी प्ररूपणा की गई है। नानागुणहानिशलाकाओंके प्रमाणकी प्ररूपणाके लिये आगेका सूत्र कहते हैं नानास्थितिबन्धाध्यवसानों सम्बन्धी दुगुण-दुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर अंगुलसम्बन्धी वर्गमूलके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥ २६५॥ 'अंगुलवर्गमूल' ऐसा कहनेपर सूचीअंगुलके प्रथम वर्गमूलको ग्रहण करना चाहिये । उसके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण नानागुणहानिशलाकायें होती हैं। इतनी होकरके भी मोहनीय कर्मके स्थितिप्रदेशोंकी नानागुणहानिशलाकाओंसे स्तोक हैं, क्योंकि, 'वे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं' ऐसा उनका प्रमाण न बतलाकर 'वे अंगुलके वर्गमूलसम्बन्धी अर्धच्छेदोंके संख्यातवें भाग हैं ' ऐसी प्ररूपणा की गई है। असंख्यातगुणी हीन होती हुई भी पूर्व में विभज्यमान राशिसे इस समयकी विभज्यमान राशि असंख्यातगुणी हीन है। नानास्थितिबन्धाध्यवसानदुगुणवृद्धिहानिस्थानान्तर स्तोक हैं ॥ २६६ ॥ . नाणंतराणि अंगुलमूलच्छेयणमसंखतमो ॥ क. प्र. १,८८., नानाद्विगुणवृद्धिस्थानानि चांगुलवर्गमलच्छेदनकासंख्येयतमभागप्रमाणाणि । एतदुक्तं भवति-अंगुलमात्रक्षेत्रगतप्रदेशराशेर्यत्प्रथमं वर्गमलं तन्मनुष्य प्रमाणहेतुराशिषण्णवतिच्छेदनविधिना तावच्छिद्यते यावद् भागं न प्रयच्छति । तेषां च छेदनकानामसंख्येयतमे भागे यावन्ति छेदनकानि तावत्सु यावानाकाशप्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणानि नानाद्विगुणस्थानानि भवन्ति (म.टी.)। २ अ-आ-काप्रतिषु 'तासिव पलिदोवम- इति पाठः। . .. sureenth........... Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं . [४, २, ६, २६७. कुदो १ पलिदोवमपढमवग्गमूलस्स असंखेजदिभागपमाणत्तादो । एयढिदिबंधज्झवसाणदुगुणवढि-हाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ २६७॥ कुदो ? असंखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणत्तादो । कधमेदं णव्वदे ? णाणागुणहाणिसलागाहि कम्महिदीए ओवट्टिदाए एगगुणहाणिपमाणुवलंभादो। एवं छण्णं कंम्माणमाउववज्जाणं ॥ २६८॥ जहा णाणावरणीयस्स परंपरोवणिधा परूविदा तहा छण्णं कम्माणं परवेदव्वं, क्सेिसाभावादो। आउअस्स एसा पवणा णत्थि, ठिदि पडि असंखेजगुणक्कमेण हिदिबंधज्झवसाणहाणाणं वड्डिदंसणादो। ___ संपहि सेडिपख्वणाए सूचिदाणं अवहार-भागाभाग-अप्पाबहुगाणं परवणं कस्सामो । तं जहा-जहणियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणहाणपमाणेण सव्वढिदिबंधज्झवसाणहाणाणि केवचिरेण कालेण अवहिरिजंति ? असंखेजदिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिजंति । तं जहा-उक्कस्सट्ठिदिबंधज्झवसाणहाणपमाणेण सव्वहिदिबंधज्झवसाणेसु कदेसु किंचूण क्योंकि, वे पल्योपम सम्बन्धी प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। एक स्थितिबन्धाध्यवसानदुगुणवृद्धिहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ २६७ ॥ क्योंकि, वह पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलोंके बराबर है। शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान--चूँकि कर्मस्थितिमें नानागुणहानिशलाकाओंका भाग देनेपर एक गुणहानिका प्रमाण लब्ध होता है, इसीसे जाना जाता है कि वह पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलोंके बराबर है। इसी प्रकार आयुको छोड़कर छह कर्मोकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ २६८॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकी परम्परोपनिधाकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार छह काँकी परम्परोपनिधाकी भी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। आयु कर्मके सम्बन्धमें यह प्ररूपणा लागू नहीं होती, क्योंकि, उसके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके प्रत्येक स्थितिके अनुसार असंख्यातगुणितक्रमसे वृद्धि देखी जाती है। ___ अब श्रेणिप्ररूपणाके द्वारा सूचित अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करते हैं । यथा-जघन्य स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके प्रमाणसे सब स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान कितने कालके द्वारा अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे असंख्यात डेढ गुणहानिस्थानान्तरकालके द्वारा अपहृत होते हैं । यथा-सब स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंको उत्कृष्ट स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके प्रमाणसे करनेपर वे कुछ कम डेढ गुणहानि प्रमाण होते हैं। वहां संदृष्टिमें सब अध्यवसानस्थानोंका प्रमाण Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २६८. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणा [३५९ दिवडगुणहाणिमत्तं होदि तत्थ संदिट्टीए सव्वज्झवसाणहाणपमाणमेदं १५६० । पुणो एदम्मि उक्कस्सहिदिबंधज्झवसाणेहि भागे हिदे दिवड्डगुणहाणिपमाणमागच्छदि । तं च एवं १९५। ३२ । पुणो एदं जहण्णट्ठिदिअज्झवसाणभागहारमिच्छामो ति सव्वज्झवसाणदुगुणवडि-हाणिसलागाओ विरलिय बिगुणिय अण्णोण्णभासे कदे जो उप्पण्णरासी तेण रासिणा १६ दिवगुणहाणीए गुणिदाए जहण्णहिदिअज्झवसाणभागहारो होदि १९५।२। पुणो एदेण सव्वज्झवसाणेसु अवहिरिदेसु जहण्णहिदिअज्झवसाणमागच्छदि १६ । पुणो एदस्सुवरि भागहारो विसेसहीणकमेण जाणिदूण णेदवो जाव एगदुगुणवड्डिपमाणमेत्तं चडिदो त्ति । पुणो तप्पमाणेण अवहिरिजमाणे पुव्वभागहारो अद्ध होदि । कुदो ? एगगुणवड्डि चडिदो त्ति एगरूवं विरलिय बिगं करिय अण्णोण्णब्भत्थं कादूण पुवभागहारे ओवट्टिदे तदद्धवलंभादो १९५। ४ । पुणो एदस्सुवरि भागहारो जाणिदूण णेदव्वो जाव उक्कस्सहिदिअज्झवसाणे त्ति । पुणो तप्पमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिजमाणे किंचूणदिवडगुणहाणिहाणंतरेण अवहिरिजदि। ___ एवं छण्णं कम्माणं भागहारपरूवणा परवेदव्वा । एवं आउअस्स वि वत्तव्वं । णवरि जहण्णहिदिअज्झवसाणपमाणेण सव्वज्झवसाणहाणाणि असंखेजलोगमेत्तकालेण अवहिरिजंति तं जहा-आउअस्स अज्झवसाणगुणगारो अवहिदो त्ति के वि आइरिया भणंति । यह है-१५६० । इसमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंका भाग देनेपर डेढ गुणहानि प्रमाण आता है। वह यह है-३५ । इस जघन्य स्थितिसम्बन्धी अध्यवसानोके भागहारको लानेकी इच्छासे सब अध्यवसानस्थानोंकी दुगुणवृद्धि-हानिशलाकाओंका विरलन करके दुगुणित कर परस्पर गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो (१६) उससे डेढ गुणहानिको गुणित करनेपर जघन्य स्थितिके अध्यवसानस्थानोंका भागहार होता है-३५४१६=१३५ । इसका सब अध्यवसानस्थानों में भाग देनेपर जघन्य स्थिर्तिके अध्यवसानस्थानोंका प्रमाण आता है-१५६०१३५=१३:४३५१६। इसके आगे एक दगुणवृद्धि प्रमाण मात्र जाने तक भागहारको विशेषहीन क्रमसे जानकर ले जाना चाहिये। फिर उक्त प्रमाणसे अपहृत करनेपर पूर्व भागहार आधा होता है, क्वोंकि, एक गुणहानि आगे गये हैं, अतः एक अंकका विरलन करके दुगुणा कर परस्पर गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उससे पूर्व भागहारको अपवर्तित करनेपर उसका अर्ध भाग लब्ध होता है१५+२=18५। फिर इसके आगे उत्कृष्ट स्थितिके अध्यबसानस्थानोंतक भागहारको जानकर ले जाना चाहिये। उसके प्रमाणसे सब द्रव्यको अपहृत करनेपर वह कुछ कम डेढ गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है। इस प्रकार छह कमाके भागहारकी प्ररूपणा करना चाहिये। इसी प्रकार आयकर्मके भी भागहारकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि सब अध्यवसानस्थान जघन्य स्थितिसम्बन्धी अध्यवसानस्थानोंके प्रमाणसे असंख्यात लोक मात्र कालके द्वारा ताप्रती ' सम्वझवसाणपमाणमेदं ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'अवहिरिजदेसु' इति पाठः। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३६० . छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २६८. तसिमहिप्पाएण भागहारो वुच्चदे--अंतोमुहुत्तूणतेत्तीससागरोवमाणि गच्छं कादूण “ अर्द्ध शून्य रूपेषु गुणम्" इति गणितन्यायेन जं लद्धं तं ठविय “रूपोनमादिसंगुणमेकोणगुणोन्मथितमिच्छा " एदेण सुत्तेण रूवणं काऊण असंखेजलोगमेत्तआदिणा गुणिय रूवूणगुणगारेण आवलियाए असंखेजदिभागेण भागे हिदे सव्वझवसाणपमाणं होदि । एदम्मि जहण्णट्ठिदिज्झवसाणपमाणेणोवट्टिदे असंखेज्जा लोगा लभंति । तेण जहण्णहिदिअज्झवसाणपमाणेण अवहिरिजमाणे सव्वझवसाणहाणाणि असंखेजलोगमेत्तकालेण अवहिरिजंति । एवं उवरिमहिदिअज्झवसाणाणं पि असंखेजलोगभागहारो वत्तव्यो । णवरि सव्वत्थ एसो चेव भागहारो होदि ति णियमो णत्थि, कत्थ वि घणलोग-जगपदर-सेडि-सागर-पल्ल-आवलियातदसंखेजदिभागमेत्तभागहारुवलंभादो । उक्कस्सहिदिअज्झवसाणपमाणेण सव्वज्झवसाणाणि सादिरेगएगरूवपमाणेण अवहिरिजति । एत्थ कारणं जाणिदूण वत्तव्वं । एवं भागहारपरूवणा समत्ता। ___ जहणियाए हिदीए अज्झवसाणहाणाणि सव्वहिदिअज्झवसाणहाणाणं केवडिओ भागो ? असंखेजदिभागो । को पडिभागो ? असंखेज्जाणि गुणहाणिहाणंतराणि । एवं णेदव्वं जाव उक्करसहिदिअज्झवसाणट्ठाणे ति । एवं छण्णं कम्माणं । आउअस्स वि एवं अपहृत होते हैं । यथा-आयु कर्मके अध्यवसानोंका गुणकार अवस्थित है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । उनके अभिप्रायसे भागहारका कथन करते हैं-अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपमोंको गच्छ करके " अर्द्ध शून्यं रूपेणु गुणम्" इस गणितन्यायसे जो लब्ध हो उसको स्थापित करके 'रूपोनमादिसंगुणमेकोनगुणोन्मथितमिच्छा' इस सूत्रके अनुसार एक रूप कम करके असंख्यात लोक मात्र आदिसे गुणितकर एक अंकसे रहित आवलिके असंख्यातवें भाग मात्र गुणकारका भाग देनेपर सब अध्यवसानोंका प्रमाण होता है । इसमें जघन्य स्थितिके अध्यवसानोंका जो प्रमाण हों उसका भाग देनेपर असंख्यात लोक लब्ध होते हैं । इसी कारण जघन्य स्थितिके अध्यवसानोंका जो प्रमाण है उससे सब अध्यवसानस्थानोंको अपहृत करनेपर वे असंख्यात लोक मात्र कालसे अपहृत होते हैं। इसी प्रकार आगेकी स्थितियोंके भी अध्यवसानस्थानोंका भागहार असंख्यात लोक मात्र कहना चाहिये । विशेष इतना है कि सभी जगह यही भागहार हो, ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, कहींपर घनलोक, जगप्रतर, जगश्रेणि, सागर, पल्य, आवलि और उनके असंख्यातवें भाग मात्र भागहार पाया जाता है। उत्कृष्ट स्थितिके अध्यवसानोंके प्रमाणसे सब अध्यवसान साधिक एक रूपके प्रमाणसे अपहृत होते हैं। यहां कारण जानकर बतलाना चाहिये। इस प्रकार भागहार प्ररूपणा समाप्त हुई। जघन्य स्थितिके अध्यवसानस्थान सब स्थितियोंके अध्यवसानस्थानोंके कितनेवें भाग प्रमाण हैं ? वे उनके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । प्रतिभाग क्या है ? प्रतिभाग असंख्यात गुणहानिस्थानान्तर हैं । इस प्रकार, उत्कृष्ट स्थितिके अध्यवसानस्थानोंतक ले जाना चाहिये ? इसी प्रकार छह कमौके सम्बन्धमें भागाभागकी प्ररूपणा करना चाहिये। १ अप्रतौ 'परूवणं' इति पाठः। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २६८.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणपख्वणा T३६१ चेव वत्तव्वं । णवरि उक्कस्सटिदिअज्झवसाणहाणाणि सव्वज्झवसाणट्ठाणाणमसंखेजा भागा होति । एवं भागाभागपरूवणा समत्ता । सव्वत्थोवाणि णाणावरणीयस्य जहणियाए द्विदीए द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि १६ । उक्कस्सियाए हिदीए द्विदिबंधज्झवसाणाणि असंखेजगुणाणि । को गुणगारो? अण्णोण्णब्भत्थरासी १६ । अजहण्ण-अणुक्कस्सहिदिबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेजगुणाणि । को गुणगारो ? किंचूणदिवडगुणहाणीयो । तस्स पमाणमेदं १६३ । ३२ । पुणो एदेण उक्कस्सहिदिअज्झवसाणहाणेसु गुणिदेसु अजहण्ण-अणुक्कस्सहिदिबंधज्झवसाणहाणपमाणं होदि १३०४ । अणुक्कस्सियासु हिदीसु हिदिबंधज्झवसाणाणि विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णट्ठिदिअज्झवसाणमेत्तेण १३२० । अजहण्णियासु द्विदीसु द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णहिदिअज्झवसाणेहि परिहीणउक्कस्सटिदिअज्झवसाणमेत्तेण १५६०'। सव्वासु हिदीसु अज्झवसाणहाणाणि विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णहिदिअज्झवसाणमेत्तेण १५७६ । ___आउववजाणं छण्णं पि कम्माणं एवं चेव वत्तव्वं । आउअस्स जहणियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि थोवाणि । अजहण्णअणुक्कस्सियासु.हिदीसु हिदिबंधज्झवसाणहाआयुके विषयमें भी इसी प्रकार ही कथन करना चाहिये । विशेष इतना है कि आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थिति सम्बन्धी अध्यवसान समस्त अध्यवसानस्थानोंके असंण्यात बहुभाग प्रमाण हैं। इस प्रकार भागाभाग प्ररूपणा समाप्त शानावरणीयकी जघन्य स्थिति सम्बन्धी स्थितिबन्धाध्यवसागस्थान सबसे स्तोक हैं (१६)। उत्कृष्ट स्थितिसम्बधी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार अन्योन्याभ्यस्त राशि है (१६)। अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति. बन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार कुछ कम डेढ गुणहानियां हैं । उसका प्रमाण यह है-१३३ । इसके द्वारा उत्कृष्ट स्थिति सम्बधी अध्यवसानस्थानोंको गुणित करनेपर अजघन्य अनुस्कृष्ट स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंका प्रमाण होता है-२५६४१३३१३०४ । अनुत्कृष्ट स्थितियोंमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । कितने मात्रसे वे विशेष अधिक हैं ? जघन्य स्थितिके अध्यवसानस्थानोंके प्रमाणसे वे अधिक हैं । १३०४+१६=१३२० अजघन्य स्थितियोंमें स्थितिबन्धाभ्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं । कितने मात्रसे अधिक हैं ? जघन्य स्थितिके अध्यवसानस्थानोंसे हीन उत्कृष्ट स्थितिके अध्यवसानस्थानोंके प्रमाणसे वे अधिक हैं-१३२०+(२५६-१६)-१५६०। सब स्थितियों में अध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं। जघन्य स्थितिके अध्यषसानस्थानोंके प्रमाणसे विशेष अधिक है-२५६०+१६-१५७६ । आयु कर्मको छोड़कर छह कौके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा इसी प्रकारसे करना चाहिये । आयु कर्मकी जघन्य स्थितिमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान स्तोक हैं । अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितियोंमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यात १ प्रतिषु १०६०५ एवंविधान संदृष्टिः। . Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] 'छक्खंडागमे वेयणाखंड - [४, २, ६, २६९. णाणि असंखेजगुणाणि । को गुणगारो ? असंखेजा लोगा । अणुक्कस्सियासु हिदीसु हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णहिदिअज्झवसाणमेत्तेण । उक्कस्सियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेजगुणाणि ।को गुणगारो? आवलियाए असंखेजदिभागो। अजहणियासु हिदीसु हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तेण ? अजहण्ण-अणुक्कस्सहिदिबंधज्झवसाणट्ठाणमेत्तेण । सव्वासु हिदीसु हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णहिदिअज्झवसाणहाणमेत्तेण । एवं पगणणा त्ति समत्तमणिओगद्दारं ।। अणुकट्ठीए णाणावरणीयस्स जहणियाए द्विदीए जाणि हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि ताणि बिदियाए हिदीए बंधज्झवसाणट्ठाणाणि अपुव्वाणि' ॥२६९ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णभाणे संदिट्ठी उच्चदे । तं जहा—जहण्णट्ठिदीए विणा उक्कस्सहिदिपमाणं सत्त ७ । धुवहिदिपमाणं पंच ५। धुवहिदीए सह उक्कस्सहिदिपमाणमेदं १२ । पुणो एदिस्से समयचरणं काढूण धुवहिदिप्पहुडि उवरिमसव्वहिदिविसेसेसु सव्वज्झ ................................................................................ गुणे हैं। गुणकार क्या है ? गुणकार असंख्यात लोक हैं। अनुत्कृष्ट स्थितियोंमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? जघन्य स्थिति सम्बन्धी अध्यवसानस्थानोंके प्रमाणसे अधिक हैं । उत्कृष्ट स्थितिमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं । गुणकार क्या है ? गुणकार आवलिका असंख्यातवां भाग है। अजघन्य स्थितियोंमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितियोंके अध्यवसानस्थानोंके प्रमाणसे वे अधिक हैं। सब स्थितियोंमें स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान विशेष अधिक हैं। कितने मात्रसे अधिक हैं ? अजघन्य स्थितियोंके अध्यवसानस्थानोंके प्रमाणसे वे अधिक हैं। इस प्रकार प्रगणमा अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। - अनुकृष्टिकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिमें जो स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हैं द्वितीय स्थितिमें वे स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हैं और अपूर्व स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान भी हैं ॥ २६९॥ , इस सूत्रका अर्थ कहते समय संदृष्टि कही जाती है। वह इस प्रकार हैजघन्य स्थितिके विना उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण सात (७) है । ध्रुवस्थितिका प्रमाण पांच (५) है। ध्रुवस्थितिके साथ उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण यह है-१२। इसके समयोंकी १सांप्रतमनुकृष्टिश्चिन्त्यते । सा च न विद्यते । तथा हि-ज्ञानावरणीयस्य जघन्यस्थितिबन्धे न्यध्यवसायस्थानानि, तेभ्यो द्वितीयस्थितिबन्धेऽन्यानि, तेभ्योऽपि तृतीयस्थितिबन्धेऽन्यानि, एवं तावद्वाच्यं यावदुस्कृष्ठा स्थितिः। एवं सर्वेषामपि कर्मणां दृष्टव्यम् (१-२)। क. प्र. (म. टी.) १,८८.। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २६९.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे टुिंदिबंधझवसाणपरूवणा [३६३ वसाणाणमसंखेजलोगमेत्ताणं तिरिच्छेण रचणा कायव्वा । एवं रचणं कादूण सव्वहिदिविसेसहिदअज्झवसाणहाणाणं णिव्वग्गणाकंदयमेत्तखंडाणि कादव्वाणि । किं पमाणं णिव्वग्गणकंदयं ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो । संदिट्ठीए तस्स पमाणं चत्तारि ४ । एदाणि खंडाणि किं समाणि, आहो विसमाणि ? ण होति समाणि, विसमाणि' चेव । कथं णव्वदे ? परमाइरियोवदेसादो । तं जहा-पढमखंडादो बिदियखंडं विसेसाहियं असंखेजलोगमेत्तेण । बिदियखंडादो वदियखंडं विसेसाहियं असंखेजलोगमेत्तेण । तदियखंडादो चउत्थखंडं विसेसाहियमसंखेजलोगमेत्तेण । एवं णेदव्वं जाव चरिमखंडं त्ति । णवरि पढमखंडादो वि चरिमखंडं विसेसाहियं चेव । कुदो ? परमाइरियोवदेसादो बाहाणुवलंभादो च । एत्य संदिट्ठी । एवं ठविय एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-णाणावरणीयस्स जहण्णियाए टिदीए जाणि रचना करके ध्रुवस्थितिको आदि लेकर आगेके सब स्थितिविशेषों में रहनेवाले असंख्यात लोक प्रमाण सब अध्यवसानस्थानोंकी तिरछे रूपसे रचना करना चाहिये । इस प्रकार रचना करके सब स्थितिविशेषोंमें स्थित अध्यवसानस्थानोंके निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण खण्ड करना चाहिये। ... शंका निर्वर्गणाकाण्डकका प्रमाण कितना है ? समाधान-वह पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। संदृष्टि में उसका प्रमाण चार (४) है। शंका ये खण्ड क्या सम हैं, अथवा विषम ? समाधान-वे सम नहीं होते, विषम ही होते हैं। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान--यह श्रेष्ठ आचार्योंके उपदेशसे जाना जाता है । जैसे-प्रथम खण्डकी अपेक्षा द्वितीय खण्ड असंख्यात लोक मात्रसे विशेष अधिक है । द्वितीय खण्डकी अपेक्षा तृतीय खण्ड असंख्यात लोक मात्रसे विशेष अधिक है। तृतीय खण्डकी अपेक्षा चतुर्थ खण्ड असंख्यात लोक प्रमाणसे विशेष अधिक है। इस प्रकार अन्तिम खण्ड तक ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि प्रथम खण्डकी अपेक्षा भी अन्तिम खण्ड विशेष अधिक ही है, क्योंकि, ऐसा ही उत्कृष्ट आचार्योंका उपदेश है, तथा उसमें कोई बाधा भी नहीं पायी जाती है। यहां संहष्टि-(पृष्ठ ३४५पर देखिये) इस प्रकार स्थापित करके इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-शानावरणीयकी जघन्य स्थितिमें जो स्थितिबन्धाध्यघसानस्थान - १ अ-आ-काप्रतिषु 'विसमाणि ण होति विसमाणि', ताप्रती 'विसमाणि ण होति ? विसमाणि' इति पाठः। २ अनोपलभ्यमाना संदृष्टयः ३४५ तमे पृष्ठे द्रष्टव्याः। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २७०. द्विदिवंधज्ज्ञवसाणट्ठाणाणि ताणि च बिदियाए हिदीए द्विदिबंधज्झवसाणहाणाणि होति, अपुष्वाणि च । कधमपुव्वाणं संभवो ? ण, बिदियट्ठिदीए हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणचरिमखंडज्झवसाणहाणाणं धुवहिदिअज्झवसाणेसु अभावादो । ण च जहण्णटिदिसव्वज्झवसाणाणि विदियट्ठिदिअज्झवसाणट्ठाणेसु अत्थि, जहण्णट्ठिदिपढमखंडज्झवसाणहाणाणं बिदियटिदिअज्झवसाणहाणेसु अणुवलंभादो। जाणि बिदियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणहाणाणि ताणि तदियाए हिदीए हिदिबंधज्झवसाणहाणेसु होति ति ण घेत्तव्यं, पढमखंडज्झवसाणहाणाणं तदियट्टिदिअज्झवसाणहाणेसु अणुवलंभादो । कधमेदं णव्वदे १ ताणि सव्वाणि होति ति णिदेसाभावादो। अपुव्वाणि ति वुत्ते अपुव्वाणि चेव वत्तव्वं, च-सद्देण विणासमुच्चयावगमाभावादो । जदि एवं तो सुत्ते च-सद्दो किण्ण परूविदो ? ण, च-सद्दणिद्देसेणे विणा वि तदहावगमादो । एवमपुव्वाणि अपुव्वाणि जाव उक्कस्सिया हिदि ति ॥२७॥ हैं वे भी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान द्वितीय स्थितिमें हैं, तथा अपूर्व भी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हैं। शंका-अपूर्व स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी सम्भावना कैसे है ? . समाधान नहीं, क्योंकि द्वितीय स्थितिके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके अन्तिम खण्ड सम्बन्धी अध्यवसानस्थान ध्रुवस्थितिके अध्यवसानस्थानों में नहीं हैं, तथा जघन्य स्थितिके सब अध्यवसानस्थान द्वितीय स्थितिके अध्यवसानस्थानोंमें नहीं हैं; कारण कि जघन्य स्थितिसम्बन्धी प्रथम खण्डके अध्यवसानस्थान द्वितीय स्थितिके अध्यवसानस्थानों में नहीं पाये जाते हैं । जो स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान द्वितीय स्थितिमें हैं वे तृतीय स्थितिके अध्यवसानोंमें होते हैं, ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि द्वितीय स्थितिके प्रथम खण्ड सम्बन्धी अध्यवसानस्थान तृतीय स्थितिके अध्यघसानस्थानोंमें नहीं पाये जाते हैं। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि, "वे सभी होते हैं, ऐसा सूत्र में निर्देश नहीं किया गया है, इसीसे उसका ज्ञान हो जाता है। सूत्र में जो ' अपुवाणि' ऐसा निर्देश किया है उससे 'अपुब्वाणि चेव' अर्थात् अपूर्व भी होते हैं, ऐसा कथन करना चाहिये, क्योंकि, च शब्दके विना समुच्चयका ज्ञान नहीं होता है। शंका-यदि ऐसा है तो सूत्रमें च शब्दका निर्देश क्यों नही किया ? समाधान नहीं, क्योंकि च शब्दके निर्देशके विना भी उक्त अर्थका शान हो जाता है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक अपूर्व अपूर्व स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं ॥२७॥ १ अ-काप्रत्योः '-णिद्देसोण ' इति पाठः। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २७०.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिवधज्झवसाणपरूवणा . [३६५ . एवं उत्तविधाणेण अपुव्वाणि अपुव्वाणि चेव डिदिबंधज्झवसाणहाणाणि सव्वद्विदिविसेसेसु होदूण गच्छंति जाव उक्कस्सहिदि त्ति । सवहिदिविसेसेसु पुवहिदिबंधज्झवसाणहाणाणि वि अस्थि, ताणि च अभणिदूण अपुव्वाणि चेव अत्थि त्ति किमडं वुच्चदे ? ण, एवमिदि वयणादो चेव पुव्वाणं अथित्तसिद्धीदो । एवं वयणादो चेव पुवाणं पि अत्थित्तसिद्धीए संतीए अपुव्वाणं णिद्देसो किमर्से कदो? ण, अपुव्वपरिणामअत्थित्तपओजणत्तेण तप्पदुप्पायणे दोसाभावादो। जहण्णहिदीए पढमखंडं उवरि केण वि सरिसं ण होदि । बिदियखंडं समउत्तरजहण्णहिदीए पढमझवसाणखंडेण सरिसं । तदियखंडं दुसमउत्तरजहण्णट्ठिदीए पढमखंडेण सरिसं । चउत्थखंडं तिसमउत्तरजहण्णहिदीए पढमखंडेण सरिसं । एवं णेयव्वं जाव णिव्वग्गणकंदयचरिमसमओ त्ति । तदो उवरिमसमए जहण्णहिदिअज्झवसाणाणमणुकाठी वोच्छिन्नदि, तत्य एदेहि सरिसपरिणामाभावादो। एवं सवहिदिविसेससव्वझवसाणाणे पादेकमणुकहिवोच्छेदो परवेदव्यो ति भावत्यो । इस प्रकार उक्त प्रक्रियासे उत्कृष्ट स्थितितक सब स्थितिविशेषोंमें होकर अपूर्व ही अपूर्ण स्थितिबन्धाभ्यवसानस्थान होते जाते हैं। शंका-सब स्थितिविशेषों में जब पूर्व स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान भी हैं, तब उन्हें न कहकर ' अपूर्व ही हैं ' ऐसा किसलिये कहा जाता है ? समाधान -नहीं, क्योंकि 'एवं' अर्थात् ' इसी प्रकार' ऐसा कहनेसे ही पूर्व स्थितिबन्धाभ्यवसानस्थानोंका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। __ शंका-यदि ' एवं ' पदका निर्देश करनेस ही पूर्ष स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है, तो फिर अपूर्व स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंका निर्देश किसलिये किया गया है? __ समाधान नहीं, क्योंकि यहां अपूर्व परिणामोंके अस्तित्वका प्रयोजन होनेसे अके कहने में कोई दोष नहीं है। जघन्य स्थितिका प्रथम खण्ड आगे किसीके भी सदृश नहीं है। उसका द्वितीय खण्ड एक समय अधिक जघन्य स्थितिके प्रथम अध्यवसानखण्डके सदृश होता है। जघन्य स्थितिके अध्यवसानोंका तृतीय खण्ड दो समय अधिक जघन्य स्थितिके प्रथम अध्भवसानखण्डके सरश होता है। चतुर्थ स्खण्ड तीन समय अधिक जघन्य स्थितिक प्रथम अध्यवसानखण्डके सहश होता है। इस प्रकार निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये। उससे बाजेके समयमें जघन्य स्थितिके अध्यवसानस्थानों अनुकृष्टिका व्युच्छेद हो जाता है, क्योंकि, वहां इनके सदृश परिणामोंका अभाव है। इस प्रकारले सब स्थितिविशेषोंके सब अध्यबसानोंमेसे प्रत्येको अनुकृष्टिके. व्युच्छेदकी प्ररूपणा करना चाहिये । यह उक्त कथनका भावार्थ है। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ६, २७१. संपहि अपुणरूत्तज्झवसाणपरूवणा कीरदे । तं जहा- जहणट्ठिदिमादिं कादूण जाव दुरिमट्ठिदित्ति ताव सव्वट्ठिदिविसेसेसव्वज्झवसाणाणं सव्वपढमखंडाणि अपुणरूत्ताणि । उक्कस्सट्ठिदीए सव्वखंडाणि अपुणरुताणि चेव । सेस - दुरिमादिट्ठिदीणं बिदियादिखंडाणि पुणरूत्ताणि, एहि समाणपरिणामाणमपुणरूत्तपरिणामेसु उवलंभादो । एवं सत्तणं कम्माणं ॥ २७१ ॥ जहा णाणावरणीसस्स अणुकट्ठी परूविदा तहा सत्तण्णं कम्माणं परूवेदव्वं । णवरि आउअस्स जहणहिदी णिव्वग्गणमेत्तअज्झवसाणखंडाणि पुव्वं व पढमखंडप्पहुडि विसेसाहियाण होंति । समउत्तरजहण्णट्ठिदि पहुडिसव्वज्झवसाणखंडाणि अण्णोष्णं पेक्खिदूण जहाकमेण विसेंसाहियाणि चेव । किंतु तत्थ समयाहियजहण्णहिदीए दुचरिमखंडादो चरिमखंडमायामेण असंखेज्जगुणं । तदुवरिमट्ठिदीए पुण तिचरिमखंडादो दुरिमखंडमसंखेजगुणं । तदो चरिमखंडमसंखेज्जगुणं । एवं दव्वं जाव णिव्वग्गणकंदयदुचरिमसमओ त्ति । पुणो तदुवरिमट्ठिदिप्पहुडि जाव उक्कस्सट्ठिदित्ति ताव सव्वखंडाणि अण्णोष्णं पेक्खिदूण आयामेण असंखेज्जगुणाणि होंति त्ति घेत्तव्वं । एत्थ वि अणुकट्ठिवोच्छेदो पुव्वं व परूवेदव्वो । एवमणुकट्ठी समत्ता । तिब्व-मंददाए णाणावरणीयस्स जहण्णियाए हिदीए जहण्णयं अब अपुनरुक्त अध्यवसानोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है - जघन्य स्थितिको आदि लेकर द्विचरम स्थिति तक सब स्थितिविशेषोंके सभी अध्यवसानस्थान सम्बन्धी सब प्रथम खण्ड अपुनरुक्त हैं । उत्कृष्ट स्थितिके सब खण्ड अपुनरुक्त ही हैं । शेष द्विवरम आदि स्थितियोंके द्वितीयादिक खण्ड पुनरुक्त हैं, क्योंकि, इनके समान परिणाम अपुनरुक्त परिणामोंमें पाये जाते हैं । इसी प्रकार शेष सात कर्मोंके विषयमें अनुकृष्टिका कथन करना चाहिये ॥ २७९ ॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके विषय में अनुकृष्टिकी प्ररूपणा की है, उसी प्रकार अन्य सात कर्मोंके सम्बन्धमें अनुकृष्टिकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि आयुकी जघन्य स्थितिके निर्वर्गणाकाण्डक प्रमाण अध्यवसानखण्ड पूर्वके ही समान प्रथम खण्डको आदि लेकर उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते हैं। एक समय अधिक जघन्य स्थितिको आदि लेकर सब अध्यवसानखण्ड परस्परकी अपेक्षा यथाक्रमले विशेष अधिक ही हैं। परन्तु उनमें एक समय अधिक जघन्य स्थितिके द्विचरम खण्डले अन्तिम खण्ड आयामकी अपेक्षा असंख्यातगुणा है। उससे आगेकी स्थितिके त्रिचरम खण्डकी अपेक्षा द्विचरम खण्ड असंख्यात गुणा । उससे अन्तिम खण्ड असंख्यातगुणा है । इस प्रकार निर्वर्गेणाकाण्डक द्विचरम समय तक ले जाना चाहिये । फिर उससे आगेकी स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सब खण्ड एक दूसरेकी अपेक्षा आयामसे असंख्यात गुणे होते हैं, ऐसा समझना चाहिये। यहां भी अनुकृष्टिके व्युच्छेदकी पूर्वके ही समान प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार अनुकुष्टिका कथन समाप्त हुआ । तीव्र - मन्दताकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थिति सम्बन्धी जघन्य स्थिति१ ताप्रतौ ' सव्वट्ठिदिविसेसस्स ' इति पाठः । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, २, ६, २७४.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्झवसाणपरूवणां [३६७ द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणं सब्वमंदाणुभागं ॥२७२॥ सव्वहिदीसु पुणरुत्तहिदिबंधज्झवसाणहाणाणि अवणिय अपुणरुत्ताणि घेत्तूण एद- मप्पाबहुगं वुच्चदे । सव्वमंदाणुभागमिदि वुत्ते सव्वजहण्णसत्तिसंजुत्तमिदि घेत्तव्वं । सेसं सुगमं । तिस्से चेव उक्कस्समणंतगुणं ॥ २७३॥ तिस्से चेव जहण्णहिदीए पढमखंडस्स अपुणरुत्तस्स उक्कस्सपरिणामो अणंतगुणो, असंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणि उवरि चडिदण द्विदत्तादो। चरिमखंडुक्कस्सपरिणामो ण गहिदो त्ति कथं णव्वदे ? जहण्णहिदिउक्कस्सपरिणामादो समयाहियजहण्णट्ठिदीए जहण्णपरिणामो अणंतगुणो त्ति सुत्तणिदेसादो णव्वदे। बिदियाए ट्ठिदीए जहण्णयं ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणमणंतगुणं ॥२७४॥ पुविल्लउक्कस्सपरिणामो उव्वंको, एसो जहण्णपरिणामो अटुको ति काऊण हेडिमउक्कस्सपरिणामं सव्वजीवरासिणा गुणिदे उवरिमहिदिजहण्णपरिणामो होदि, तेण अणंतगुणत्तं ण विरुज्झदे । उवरिं पि उक्कस्सपरिणामादो जत्थ जहण्णपरिणामो अणंतगुणो त्ति वुच्चदि तत्थ एवं चेव कारणं वत्तव्वं । बन्धाध्यवसानस्थान सबसे मन्द अनुभागवाला है ॥ २७२ ॥ सब स्थितियों में पुनरुक्त स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंको छोड़कर और अपुनरुकोंको प्रहण करके यह अल्पबहुत्व कहा जा रहा है। 'सवमंदाणुभाग' ऐसा कहनेपर सबसे जघन्य शक्तिसे संयुक्त है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। शेष कथन सुगम है। उसीका उत्कृष्ट स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान अनन्तगुणा है ॥ २७३॥ उसी जघन्य स्थितिके अपुनरुक्त प्रथम खण्डका उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगुणा है, क्योंकि वह असंख्यात लोकमात्र छहस्थान आगे जाकर स्थित है। . शंका अन्तिम खण्डका उत्कृष्ट परिणाम नहीं ग्रहण किया गया है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट परिणामसे एक समय अधिक जघन्यस्थितिका परिणाम अनन्तगुणा है, ऐसा सूत्रमें निर्देश किया जानेसे उसका परिज्ञान होता है। - द्वितीय स्थितिका जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान अनन्तगुणा है ॥ २७४॥ ...... पूर्वका उत्कृष्ट परिणाम उर्वक और यह जघन्य परिणाम अष्टांक है, ऐसा करके अधस्तन उत्कृष्ट परिणामको सर्व जीवराशिसे गुणित करनेपर आगेकी स्थितिका जघन्य परिणाम होता है, इसी कारण उसके अनन्तगुणे होने में कोई विरोध नहीं है। आगे भी जहांपर उत्कृष्ट परिणामकी अपेक्षा जघन्य परिणाम अनन्तगुणा है, ऐसा कहा जाता है वहां पर भी यही कारण बतलाना चाहिये। १संप्रति स्थितिसमुदहारे या प्राक् तीव्र-मन्दता नोक्ता साभिधीयते-अणंतेत्यादि । तद्यथाशानावरणीयस्य जघन्यस्थिती बघन्यस्थितिबन्धाध्यवसायस्थानं सर्वमन्दानुभावम् । ततस्तस्यामेव जघन्यस्थिती उत्कृष्टमध्यवसायस्थानमनन्तगुणम् । ततोऽपि द्वितीयस्थितो जघन्यं स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानमनन्तगुणम् । ततोऽपि तस्यामेव द्वितीयस्थितो उत्कृष्टमनन्तगुणम् । एवं प्रतिस्थिति जघन्यमुत्कृष्टं च स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानमनन्तगुणतया तावद्वक्तव्यं यावदुत्कृष्टायां स्थितो चरमं स्थितिबन्धाभ्यवसायस्थानमनन्तगुणम् (१-३)। क. प्र. (म. टी.) १,८९.। २ अ-आ-काप्रतिषु-'पुणरूत्ताणि' इति पाठः। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २७५ तिस्से चेव उक्कस्समणंतगुणं ॥ २७५॥ असंखेजलोगमेत्तछटाणाणि उवरि चडिदूण ट्ठिदत्तादो। तदियाए ट्ठिदीए जहण्णयं द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणमणंतगुणं ॥२७६॥ कारणं सुगमं, पुव्वं परूविदत्तादो। तिस्से चेव उक्कस्सयमणंतगुणं ॥ २७७॥ असंखेजलोगमेत्तछट्ठाणाणि उवरि चडिदूण द्विदत्तादो। एवमणंतगुणा जाव उक्कस्सटिदि ति ॥ २७८ ॥ ... एवं पुव्वुत्तकमेण अणंतगुणाए सेडीए णेदव्वं जाव उक्कस्सहिदि ति । णवरि उक्कस्सियाए ट्टिदीए जहण्णादो उक्कस्समणंतगुणमिदि वुत्ते चरिमखंडुक्कस्सपरिणामो अणंतगुणो ति घेत्तव्वं । एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ २७९ ॥ जहा णाणावरणीयस्स तिन्वमंददाए अप्पाबहुगं परूविदं तहा सत्तण्णं कम्माण परवेदव्वं, विसेसाभावादो । एवं तिव्व-मंददा ति समत्तमणियोगद्दारं । एवं हिदिसमुदाहारो समत्तो। एवं द्विदिबंधज्झवसाणपख्वणा समत्ता । एवं वेयणकालविहाणे त्ति समत्तमणियोगद्दारं। उसी स्थितिका उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगुणा है ॥ २७५॥ क्योंकि, वह जघन्य परिणामसे असंख्यात लोक प्रमाण छह स्थान आगे जाकरस्थित है। उससे तृतीय स्थितिका जघन्य स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान अनन्तगुणा है ॥ २७६ ॥ इसका कारण सुगम है, क्योंकि, यह पूर्वमें बतलाया जा चुका है। उसी स्थितिका उत्कृष्ट परिणाम उससे अनन्तगुणा है ॥ २७७ ॥ क्योंकि, यह उससे असंख्यात लोक मात्र छह स्थान आगे जाकर स्थित है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक वे अनन्सगुणे अनन्तगुणे हैं ॥ २७८॥ इस प्रकार अर्थात् पूर्वोक्त क्रमसे उत्कृष्ट स्थिति तक अनन्तगुणित श्रेणिसे ले जाना चाहिये । विशेष इतना है कि उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य परिणामकी अपेक्षा उत्कृष्ट परिणाम ममन्तगुणा है, ऐसा कहनेपर अन्तिम खण्डका उत्कृष्ट परिणाम अनन्तगुणा है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। - इसी प्रकार शेष सात कर्मोंके विषयमें तीव्र-मन्दताके अल्पबहुत्वको कहना चाहिये।२७९॥ जिस प्रकार झानावरणीय कर्मके विषयमें तीव-मन्दताके अल्पबहुत्वकी मरूपणा की • गई है, उसी प्रकार शेष सात कर्मोंके विषयमें कहना चाहिये, क्योंकि वहां उसमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार तीवमन्दता अनुयोगद्वार समाप्त हुश्रा । इस प्रकार स्थितिसमुहार समाप्त हुआ। इस प्रकार स्थितिबन्धाध्यवसान प्ररूपणा समाप्त हुई। इस प्रकार वेदनकालविधान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदणाखेत्तविहाणसुत्ताणि सूत्र २९ सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या १ वेयणखेत्तविहाणे त्ति तत्थ इमाणि१६ अण्णदरस्स केवलिस्स केवलितिण्णि अणिओगहाराणि णाद समुग्घादेण समुहदस्त सव्वलोगं व्वाणि भवति । गदस्त तस्स वेदणीयवेदणा २ पदमीमांसा सामित्त अप्पाबहुए त्ति । ३| खेत्तदो उकसा। ३ पदमीमांसाए णाणावरणीयवेयणा. खेत्तदो कि उक्कस्सा किमणुक्कस्सा | १. एवमाउव-णामा-गोदाण। किं जहण्णा किमजहण्णा? १९ सामित्तेण जहण्णपदे णाणावर४ उकस्सा वा अणुक्कस्सा वा ____णीयवेयणा खेत्तदो जहणिया कस्ल?,, जहण्णा वा अजहण्णा वा। ४२० अण्णदरस्स सुहमणिगोदजीवअप५ एवं सत्तण्णं कम्माण।। जत्तयस्स तिसमयआहारयस्स तिसमयतब्भवत्थस्स जहण्ण६ सामित्तं दुविहं जहण्णपदे । जोगिमसतम्घजहणियाए सरीरोउक्कस्सपदे । ७ सामित्तण उक्कस्सपदे णाणावरणीय गाहणाए वट्टमाणस्स तस्स णाणा- . धेयणा खेत्तदो उक्कस्सिया कस्स? १५ वरणीयवेयणा खेत्तदोजहण्णा। , ८ जो मच्छो जोयणसहस्सिओ सयंभु । २१ तव्वदिरित्तमजहण्णा । २२ एवं सत्तण्णं कम्माणं। रमणसमुदस्स बाहिरिल्लए तडे । अच्छिदो। १५/२३ अप्पाबहुए त्ति । तत्थ इमाणि ९ वेयणसमुग्घादेण समुहदो। तिणि अणिओगहाराणि जहण्णपदे १८ १० कायलेस्सियाए लग्गो। १९ उक्कस्सपदै जहण्णुक्कस्सपदे। ११ पुणरवि मारणंतियसमुग्धादेण | २४ जहण्णपदे अट्टण्णं पि कम्माणं - वेयणाओ तुलाओ। ___ समुहदो तिण्णि विग्गहकंदयाणि कादूण। ... २५ उक्कस्सपदे णाणावरणीय-दंस णावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं १२ से काले अधो सत्तमाए पुढवीए वेयणाओ खेत्तदो उक्कस्सियाओ रहएसु उपज्जिहिदि त्ति तस्स _ चत्तारि वि तुल्लाओ थोवाओ। ५४ णाणावरणीयवेयणाखेत्तदो उक्कस्सा यणीय-आउअ-णामा-गादवेयणाओं १३ तव्वदिरिता अणुक्कस्सा। खेत्तदो उक्कस्सियाओ चत्तारि १४ एवं दलणावरणीय-मोहणीय वि तुल्लाओ असंखेज्जगुणाओ। , अंतराइयाणं । २९ २७ जहण्णुक्कस्सपदेण अट्टण्णं पि १५ सामित्तेण उकरलपदे वेदणीय कम्माणं वेदणाओ खेत्तदो जह- . वेदणा बेसदो उकस्सिया कस्स? ,, णियाओ तुल्लाओ थोवाओ। ५५ ५३ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ २८ णाणावरणीय-दसणावरणीय ४१ णिगोदपदिहिदअपजत्तयत्तस्स जह. मोहणीय-अंतराइयवेयणाओ पिणया ओगाहणा असंखेजगुणा। ५८ खेत्तदो उक्कस्लियाओ चत्तारि ४२ बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरवि तुल्लाओ असंखेज्जगुणाओ। ५५ अपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा २९ वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवेय असंखेजगुणा। णाओ खेत्तदो उक्कस्सियाओ४३ बीइंदियअपजत्तयस्स जहणिया चत्तारि वि तुल्लाओ असंखेज्ज __ओगाहणा असंखेजगुणा। गुणाओ। ४४ तीइंदियअपजत्तयस्स जहणिया ३० एत्तो सब्यजीवेसु ओगाहणमहा ओगाहणा असंखेज्जगुणा। दंडओ कायव्वो भवदि । ४५ चउरिदियअपजत्नयस्स जहणिया ३१ सव्वत्थोवा सुहमणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा। , __ओगाहणा असंखेजगुणा। ५९ ४६ पंचिंदिय अपजत्तयस्स जहणिया ३२ सुहमवाउक्काइयअपज्जत्तयस्स ओगाहणा असंखेजगुणा। जहणिया ओगाहणा असंखेज्ज " गुणा। ४७ सुहमणिगोदजीवणिव्वत्तिपजत्त यस्स जहणिया ओगाहणा असं३३ सुहुमतेउकाइयअपज्जत्तयस्त खेजगुणा। जहणिया ओगाहणा असंखेज्ज | ४८ तस्सेव अपजत्तयस्स उक्कस्सिया गुणा। ओगाहणा विसेसाहिया। ३४ सुहुमआउक्काइयअपज्जयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्ज- ४९ तस्सेव पजत्तयस्स उपकस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। गुणा। ३५ सुहमपुढविकाहयलद्धिअपज्जत्त " | ५० सुहुमवाउक्कइयपजत्तयस्स जह यस्स जहणिया ओगाहणा |णिया ओगाहणा असंखेजगुणा । असंखेज्जगुणा। ५७ | ५१ तस्सेव अपजत्तयस्स उपकस्सिया २६ बादरवाउक्काइयअपज्जत्तयस्स ओगाहणा विसेसाहिया। जहणिया ओगाहणा असंखेज्ज- . ५२ तस्सेव पज्जत्तयस्स उपकस्सिया गुणा। ,, ओगाहणा विसेसाहिया। ३७ बादरतेउक्काइयअपजयस्त जह- ५३ सुहुमते उक्काइयणिवत्तिपजत्तयस्स णिया ओगाहणा असंखेजगुणा , जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा।, ३८ बादरआउषकाइयअपज्जत्तयस्स ५४ तस्सेव अपजत्तयस्स उक्कस्सिया जण्णियाओगाहणा असंखेजगुणा।,, आगाहणा विससाहिया। ६१ ३९ बादरपुढविकाइयअपजत्तयस्स ५५ तस्सेव णिवत्तिपजत्तयस्स उक्क... जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा, स्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। , ४० बादरणिगोदजीवअपजत्तयस्स जह- ५६ सुहमउक्काइयर्याणवत्तिपज्जप्तयस्स.. णिया ओगाहणा असंखेजगुणा। ५८ जहणिया ओगाहणा असंखेजगुणा।, Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेदणाखेसविहाणमुत्ताणि सूत्र संपया सूत्र पर सूत्र संख्या ५७ तस्सेव णिव्वत्तिअपजत्तयस्त उपक- । ७१ बादरपुढ विकाइयणिव्वत्तिपजत्त स्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। ६१ यस्स जहणिया ओगाहणा असं५८ तस्सेव णिव्वत्तिपजत्तयस्स उपक खेज्जगुणा। स्तिया ओगाहणा विसेसाहिया। ,, ७२ तस्सेव णिवत्तिअपजत्तयस्स उक्क५९ सुहुमपुढविकाइयणिवत्तिपजत्त- स्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। , यस्स जहणिया ओगाहणा ७३ तस्सेव णिवत्तिपज्जत्तयस्स उक्कअसंखेजगुणा। स्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। , ६० तस्सेव णिव्वत्तिअपजत्तयस्स ७४ बादरणिगोदणियत्तिपजत्तयस्स . उक्कस्सिया ओगाहणा विसे जहणिया ओगाहणा विसेसाहिया। ६५ साहिया। ,, ७५ तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उ ६१ तस्सेव णिवत्तिपजत्तयस्स उक्क स्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। , स्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। , ७६ तस्सेव णिवत्तिपज्जत्तयस्स उक्क६२ बादरवाउक्काइयणिवत्तिपजत्त स्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। " यस्स जहणिया ओगाहणा | ७७ णिगोदपदिट्टिदपज्जत्तयस्स जहणिया असंखेजगुणा। ओगाहणा असंखेज्जगुणा। " ६३ तस्सेव णिव्यत्तिअपजत्तयरल तस्सेव णिवत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसे उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया।" साहिया। तस्सेव णिवत्तिपज्जत्तयस्ल उक्क६४ तस्सेव णिव्वत्तिपजत्तयस्स उक्क- स्तिया ओगाहणा विसेसाहिया। ६६ स्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। ६३ ८० बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर६५ बादरतेउकाइयणिवत्तिपज्जत्त णिव्वत्तिपज्जत्तयस्त जहणिया यस्स जहणिया ओगाहणा असं. ओगाहणा असंखेज्जगुणा । खेज्जगुणा। ८१ बेइंदियणिवत्तिपज्जत्तयस्स जह६६ तस्सेव णिवत्तिअपज्जत्तयस्स णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा। ,, उक्कस्सिया ओगाहणा विसे- | ८२ तेइंदियणिवत्तिपज्जत्तयस्म जहसाहिया। पिणया ओगाहणा संखेज्जगुणा। ,, ६७ तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्ल उक्क- ८३ चउरिंदियणिवत्तिपज्जत्तयस्स स्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। , जहणिया ओगाहणा संखेज्जगुणा।" ६८ बादरउक्काइयणिव्वत्तिपजत्त- ८४ पंचिंदियणिवत्तिपज्जत्तयस्स जहयस्स जहणिया ओगाहणा णिया ओगाहणा संखेज्जगुणा। ६७ असंखेज्जगुणा। ८५ तेइंदियणिवत्तिअपज्जयस्स उक्क६९ तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स स्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा। " उक्कस्सिया ओगाहणा विसे- ८६ चउरिदियणिव्वत्तिअपज्जयत्तस्स साहिया। ६४. उक्कस्सिया ओगाहणासंखेजगुणा।" ७० तस्लेव णिवत्तिपजत्तयस्स उक्क- ८७ बेदियणि वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया। , स्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा। " Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सून ६७ [४] परिशिष्ट सून संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या पृष्ठ पृष्ठ पृष्ठ ८८ बादरवणप्फदिकाहयपत्तेयसरीर- ९४ पंचिदियणिवत्तिपजत्तयस्स उक्कणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया स्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा। ६२ , ओगाहणा संखेज्जगुणा। ८९ पचिदियणिव्यत्तिअपज्जत्तयस्स ५७९५ सुहुमादो सुहुमस्स ओगाहणगुणगारो उक्कस्सिया ओगाहणासंखेज्जगुणा।६८ ___ आवलियाए असंखेजदिभागो। , ९० तेदियणिवत्तिज्जत्तयस्ल उक्क- २६ सुहुमादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो स्सिया ओगाहणा संखेजगुणा। , पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। " ९१चउरिदिय णिवत्तिपज्जत्तयस्स ९७ पावरादो सुष्टुमस्स ओगाहणगुणगारो उक्कस्सिया ओगाहणासंखेज्जगुणा।,, ' आवलियाए असंखेज्जदिभागो। , ९२बेइंदिणिव्यत्तिपज्जत्तयस्स उषकस्सिया ओगाहणा संखेजगुणा। , | ९८ बादरादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो ९३ बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर __पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। ७० णित्तिपज्जत्तयस्स उक्क्रस्सिया | ९९ बादरादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो ओगाहणा संखेज्जगुणा । संखेज्जा समया। वेयणकालविहाणसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या पृष्ठ १ वेयणकालविहाणे त्ति । तत्थ इमाणि । पज्जत्तयदस्स कम्मभूमियस्स तिण्णि अणियोगद्दाराणि णाव्याणि अकम्मभूमियस्स वा कम्मभूमिपभवंति। डिभागस्स वा संखेज्जवासा२ पदमीमांसा-सामित्तमप्पाबहुए त्ति । ७७ उअस्स या असंखेज्जवासाउअस्स ३ पदमीमांसाए णाणावरणीयवेयणा वा देवस्स वा मणुस्सस्स वा तिरिकालदो किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा क्खस्स वाणेरइयरस वा इत्थिकिं जहण्णा किमजहण्णा ? ७८ वेदस्स चा पुरिसवेदस्त घा ४ उक्कसा वा अणुक्कस्सा वा णउंसयवेदस्स वा जलचरस्म वा जहण्णा वा अजहण्णा वा। थलचरस्स वा खगचरस्स वा ५एवं सत्तण्णं कम्माणं । सागार-जागार-सुदोवजोगजुत्तस्स उक्कस्सियाए द्विदीए उक्कस्सट्ठिदि६ सामित्तं दुविहं जहण्णपदे उक्कस्स संकिलेसे वट्टमाणस्स, अधवा ७ सामित्तेण उक्कसपदे णाणावरणीय ईसिमज्झिमपरिणामस्त तस्स णाणा. वेयणा कालदो उपकस्सिया कस्स? ८७ | वरणीयवेयणा कालदो उक्कस्सा। ८८ ८ अण्णदरस्स पंचिंदियस्स सण्णिस्स ९ तव्वदिरित्तमणुक्कस्सा। मिच्छाइटिस्स सव्वाहि पज्जचीहि १० एवं छण्णं कम्माण । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या ११ सामित्तेन उक्करसपदे आउअवेणा कालदो उक्कस्सिया कस्स ? ११२ १२ अण्णदस्त मणुस्सस्स वा पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स वा सण्णिस्स सम्माट्ठिस्ल वा [मिच्छाइट्ठिस्ल वा ] सव्वाहि पज्जन्तीहि पज्जन्तयदस्स कम्मभूमियरस वा कम्म भूमिपडिभागस्स वा संखेज्जवासा - अस्स इत्थवेदस्स वा पुरिसवेदस्स वा णउंलयवेदस्त वा जलचरस्स वा थलचरस्स वा सागार-जागारतप्पा ओग्गकिलिट्ठस्स वा [ तप्पा ओग्गविशुद्धस्स वा ] उक्कस्सियाए आबाधाए जस्स तं देव- णिरयाउअं पढमसमए बंधंतस्स आउअवेयणा कालदो उक्कस्सा | arratoविणसुत्ताणि - पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ११३ ११६ १३ तव्चदिरित्तमणुक्कस्सा | १४ सामित्तेण जहण्णपदे णाणावरणीयवेदणा कालदो जहणिया कस्स ? ११८ १५ अण्णदरस्स चरिमसमय छदुमत्थस्स तस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो जहण्णा । ११९ १२० १६ तब्वदिरित्तम जहण्णा । १७ एवं दंसणावरणीय अंतराइयाणं । १३२ १८ सामित्तेण जहण्णपदे वेयणीयवेयणा कालदो जहण्णिया कस्स ? १९ अण्णदस्स चरिमसमयभवसिद्धियस तस्स वेयणीयवेयणा कालदो ار जहण्णा । २० तव्वदिरित्तमजहण्णा । २१ एवं आउअ णामा-गोदाणं । २२ सामित्तेण जहण्णपदे मोहणीयवेणा कालदो जहणिया कस्स ? १३५ २३ अण्णदरस्स खवगस्स चरिमसमयसकसाइयस्स मोहणीयवेयणा कालदो जहण्णा । २४ तव्यदिरिप्तमजद्दण्णा । " १३३ १३४ १३६ " सूत्र २५ अप्पा बहुए ति । तत्थ इमाणि तिष्णि अणिओगद्दाराणि - जहण्णपदे उक्कस्पदे जहण्णुक्करसपदे । १३६ २६ जहण्णपदेण अटुण्णं पि कम्माणं वेयणाओ कालदो जहण्णियाओ तुल्लाओ । [4] २७ उक्कस्लपदेण सव्वत्थोवा आउअवेणा कालदो उक्कस्सिया । २८ णामा- गोदवेयणाओ कालदो उक्क"स्सियाओ दो वि तुलाओ संखेजगुणाओ । २९ णाणावरणीय दंसणावरणीय-वेयणीय अंतराइयवेयणाओ कालदो उक्कस्सियाओ चत्तारि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ | ३० मोहणीयस्स वेयणा कालदो उपकस्सिया संखेज्जगुणा । ३१ जहण्णुक्कसपदे अटुण्णं पि कम्माणं वेयणाओं कालदो जहण्णियाओ तुल्लाओ थोवाओ। ३२ आउअत्रेयणा कालदो उक्कस्सिया असंखेज्जगुणा । ३३ णामा- गोदवेयणाओ कालदो उक्कस्सियाओ दो वि तुल्लाओ असंखेज्जगुणाओ | ३५ मोहणीयवेयणा कालदो उक्कस्सिया संखेज्जगुणा । ( १ चूलिया ) १३७ ३४ णाणावरणीय दंसणावरणीय वेयणीय अंतराइयवेयणाओ कालदो उक्कस्सियाओ चत्तारि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ । - पृष्ठ ३६ पत्तो मूलपयडिट्ठिदिबंधे पुल्वं गमणिज्जे तत्थ इमा'ण चत्तारि अणियोगदार णि- ट्ठदिबधट्टाणपरूवणा णिसेय परूवणा आवाधादयपरूवणा अप्पा बहुए ति । "" 35 १३८ "" १३९ " "" 33 "" १३ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र परिशिष्ट सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ३७ टिदिबंधट्ठाणपरूवणदाए सव्वत्थोवा ५४ बादरे दियपज्जत्तयस्स संकिलेस सुष्टुमेइंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंध- विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । २२२ हाणाणि। १४२ ५५ बीइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस३८ बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स हिदिबंध- विसोहिट्ठणाणि असंखेज्जगुणाणि।, ___ट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि। १४४ ५६ बीइंदियपज्जत्तयस्स संकिलेस३९ सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स ट्ठिदिबंध विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । " टाणाणि संखेज्जगुणाणि । " ५७ तीइंदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस. ४० बादरेइंदियपज्जत्तयस्स टिदिबंध- विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ,, ट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । १४५ ५८ तीइंदियपज्जत्तयस्स संकिलेस४१ बीइंदियअपज्जत्तयट्ठिदिवंधहाणाणि विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । २२३ ___ असंखेज्जगुणाणि। ५९ चउरिदियअपज्जत्तयस्स संकिलेस४२ तस्सेव पज्जत्तयस्स ट्ठिदिबंध विलोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । " ट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि। " ६० चउरिदियपज्जत्तयस्स संकिलेस४३ तीइंदियअपज्जत्तयस्स विदिबंधः । विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । " ट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि। " , ६१ असण्णिपंचिंदयअपज्जत्तयस्स ४४ तस्सेव पज्जत्तयस्त ट्ठिदिबंध - संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्ज गुणाणि। __ हाणाणि संखेज्जगुणाणि। २२४ ६२ असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्स ४५ चउरिदियअपजत्तयस्स हिदिबंध. संकिलेस-विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्ज___ हाणाणि संखेज्जगुणाणि । गुणाणि । ४६ तस्सेव पज्जत्तयस्त टिदिबंध- ६३ सपिणपंचिदियपज्जत्तयस्स संकिलेस. ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । ____ विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । , ४७ असण्णिपंचिंदियअपज्जत्तयस्स ६४ सण्णिपंचिंदियपज्जत्तयरस संकिलेस ट्रिदिबंधट्ठाणाणि संखज्जगुणाणि।, विसोहिट्राणाणि असंखेज्जगुणाणि। ., ४८ तस्सेव पज्जत्तयस्स ट्ठिदिबंध- | ६५ सव्वथोवो संजदस्स जहण्णओ ट्राणाणि संखेज्जगुणाणि। , ट्रिदिबंधो। २२५ ४२ सणिपंचिदियअपज्जयस्स टिदि- ६६ बादरेइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ। ___ बंधट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि । १४७ . ट्ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो। २२९ ५० तस्सेव पज्जत्तयस्ल टिदिबंध. ६७ सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ - ट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि। " टिदिबंधो विसेसाहियो । ५१ सव्वत्थोवा सुहमे इंदियअपज्जत्त- | ६८ बादरेइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ ___ यस्स संकिलेसविसोहिट्ठाणाणि । २०५ हिदिबंधो विसेसाहिओ। ५२बादरेइंदियअपज्जत्तयस्ससंकिलेस- ६९ सुष्टुमेइंडियअपज्जत्तयस्स जहण्णओं विसोहिट्ठाणाणि असंखेजगुणाणि । २१० टिदिबंधो विसेसाहिओ। २३० ५३ सुहुमेहंदिय पज्जत्तयस्स संकिलेस- ७० तम्सेव अपजत्तयस्स उक्कस्सभो विसोहिट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि। २२१/ टिदिबंधो विसेसाहिओ। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणकालविरुणसुत्साणि । सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ७१ बादरेइंदियअपजत्तयस्स उक्क. ८८ तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ ___ स्सओ हिदिबंधो विसेसाहिओ। २३० लिहिबंधो विसेसाहिओ। २३४ ७२ सुहमेइंदियपजत्तयस्स उक्क ८९ तस्सेव पज्जत्तयस्ल उक्कस्सओ स्सओ टिदिबंधो विसेसाहिओ। टिदिबंधो विसेसाहिओ। ७३ बादरेइंदियपजत्तयस्स उक्कस्सओ ९० संजदस्स उक्कस्सओ हिदिवंधो टिदिबंधो विसेसाहिओ। २३१ संखेज्जगुणो ७४ बीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ ९१ संजदासंजदस्स जहण्णओ ट्ठिदिट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणो। बंधो संखेज्जगुणो। ९२ तस्सेव उक्कस्सओ ट्ठिदिवंधो , ७५ तस्सेव अपज्जत्तयस्त जहण्णओ संखेज्जगुणो। टिदिबंधो विसेसाहिओ। ६३ असंजदसम्मादिट्रिपज्जत्तयस्स ७६ तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ ___जहण्णओ ट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणो , ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ। " ९४ तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ ७७ तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सओ ट्रिदिबंधो संखेज्जगुणो। छिदिबंधो विसेसाहिओ। २३२ ९५ तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ . ७८ तीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णओं ट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणो। २३६ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ। ९६ तस्सेव पज्जत्तयस्त उपकस्सओ ७९ तीइंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णओ विदिबंधो संखेज्जगुणो। छिदिबंधो विसेसाहिओ। ९७ सण्णिमिच्छइट्टिपंचिंदियपज्जत्तयस्स ८० तस्सेव उक्कस्सटिदिबंधो जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। ,, विसेसाहिओ। ९८ तस्सेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ ८१ तीइंदियपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ विदिबंधो संखेज्जगुणो। २३७ - ट्ठिदिबंधी पिसेसाहिओ। " ९९ तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ ८२ चउरिदियपज्जत्तयस्स जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो। विदिबंधो विसेसाहिओ। १०० तस्सेष अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ. ८३ तस्लेव अपज्जत्तयस्स जहण्णओ टिदिबंधो संखेन्जगुणो। द्विदिबंधो विसेसाहिओ। | १०१ णिसेयपरूवणदाए तत्थ इमाणि ८४ तस्सेव अपज्जत्तयस्स उपकस्सओ दुवे अणियोगद्दाराणि अणंतट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ। रोवणिधा परंपरोवणिधा। ८५ तस्सेव पज्जत्तयस्स उकस्सओ अणंतरोवणिधाए पंचिंदियाणं टिदिबंधो विसेसाहिओ। सण्णीणं मिच्छाइट्ठीणं पज्जत्त. याणं णाणावरणीय-दसणावर- ... ८६ असण्णिपंचिंदियपज्जत्तयस्त णीय-वेयणीय-अंतराइयाणं जहण्णो दिबंधो संखेज्जगुणो । २३४ | तिणि वाससहस्साणि आबाधं ८७ तस्सेष अपज्जत्सयस्स जहण्णओ मोत्तण जं पढमसमए पदेसम्गं . ट्रिदिपंधो विसेसाहियो। णिसितं तं बहुगं, जं बिदियसमए Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] परिशिष्ट सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या - सूत्र पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, णमाउववजाणमंतोमुहुत्तमावाधं अंतदियसमए पदेसग्गं णिसितं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं णिसित्तं तं बहुगं, जं बिदियविसेसहीणं जाव उक्कसेण तीसं समए पदेसगं णिसित्तं तं सागरोवमकोडीयो त्ति। २३८ विसेसहीणं, जं तदियसमए पदे१०३ पंचिंदियाणं सण्णीण मिच्छाइट्ठीणं सग्गं णिसित्तं तं विसेसहीगं, पज्जत्तयाणं मोहणीयस्स सत्त एवं विसेसहीणं विसेसहीणं वाससहस्साणि आवाहं मोत्तूण जाव उक्कस्सेण अंतोकोडा. जं पढमसमए पदेसगं णिसित्तं कोडीयो त्ति। तंबहुअं, जं बिदियसमए पदेसग्गं १०७ पंचिंदियाणं सण्णीणमसपणीणं णिसित्तं तं विसेसहीणं,जंतदिय. चििदय-तीइंदिय-बीइंदियाणं समए पदेसग्गं णिसित्तं तं घिसे. बादरेइंदियअपजत्तयाणं सुहुमेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसे इंदियपजत्तापजत्ताणमाउअस्स सहीणं जाव उकसेण सत्तरि अंतोमुहुत्तमाबाधं मोत्तूण जं सागरोवमकोडाकोडि त्ति। २४२ पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं १०४ पंचिंदियाणं सण्णीणं सम्मादि बहुंअं, जं बिदियसमए पदेसग्गं ट्ठीणं वा मिच्छादिट्ठीणं वा णिसित्तं तं विसेसहीणं, जंतदियपज्जत्तयाणमाउअस्स पुवकोडि समए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेतिभागमाबाधं मोत्तूण जं पढम सहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, सहीणं जाव उक्कस्सेण पुवकोजं बिदियसमए पदेसगं णिसित्तं डीयो त्ति। तं विसेसहीगं, जं तदियसमए पदेसगं णिसित्तं तं विसेसहीणं, १०८ पंचिंदियाणमसण्णीणं चउरिंदि. एवं विसेसहीणं विसेसहीणं याणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं जाव उक्कस्सेण तेतीससागरो बादरएइंदियपज्जत्तयाणं सत्तण्णं वमाणि ति। कम्माणं आउअपज्जाणं अंतो०५ पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइ. मुहुत्तमाबाधं मोतूण जं पढमट्ठीणं पज्जत्तयाणं णामा-गोदाणं समए पदेसग्गणिसित्तं तं बहुअं, बेवाससहस्साणि आबाधं मोत्तण जं विदियसमए पदेसग्गं णिसितं पढमसमए पदेसगं णिसितं तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए बहुगं, जं बिदियसमए पदेसग्गं .पदेसगं णिसित्तं तं विसेसहीणं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं एवं विसेसहीणं विलेसहीणं तदियसमए पदेसगं णिसित्तं तं जाघ उक्कस्सेण सागरोवमसहविसेसहीणं, एवं विसेसहीणं स्सस्ससागरोवमसदस्स सागरोविसेसहीणं जाव उक्कस्सेण षमपण्णासाए सागरोवमपणुवी. बीसं सागरोषमकोडीयो ति। ,, साए सागरोवमस्लतिण्णि-सत्त १०६ पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइ भागा सस-सत्त-भागा सत्त हीणमपज्जत्तयाणं मसणं कम्मा भागा पडिषुण्णा सि। . २४९ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणकालविहाणसुत्ताणि [९] सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या १०९ पंचिंदियाणमसण्णीणं चउरिदि असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा, याणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव बादरपइंदियपज्जत्तयाणमाउअस्स उक्कस्सिया ट्ठिदी त्ति। २५३ पुवकोडित्तिभागं बेमासं सोल- | ११२ एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरं असंसरादिदियाणि सादिरेयाणि खेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि।२५५ चत्तारिवासाणि सत्तवाससह- | ११३ णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि स्साणि सादिरेयाणि आवाहं पलिदोषमवग्गमूलस्स असंखेमोत्तूण जं पढमसमए पदेसगं __ ज्जदिभागो। २५६ णिसित्तं तं बहुगं, जं बिदियसमए ११४ जाणापदेसगुणहाणिट्ठाणतराणि पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, थोवाणि । २५७ जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं ११५ एयपदेसगुणहाणिटाणंतरमसंखेविसेसहीणं, एवं विसेसहीणं ज्जगुणं । विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण ११६ पंचिंदयाण सण्णीणमसणीणपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो मपज्जत्तयाणं चउरिदिय-तीपुवकोडि त्ति । २५१ दिय-बीइंदिय-एइंदिय-बादर-सुहु११० पंचिंदियाणमसण्णीणं चउरिंदि म पज्जत्तापज्जत्तयाणं सत्तण्णं याणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं कम्माणमाउववज्जाणं जं पढमबादरेइंदियअपज्जत्तयाणं सुहु समए पदेसग्गं तदो पलिदोवमेइंदियपज्जत्तअपज्जत्तयाणं मस्त असंखेदज्जदिभागं गंतूण सत्तण्ह कम्माणमाउववज्जाणमंतो दुगुणहीणा, एवं दुगुणहीणा मुहुत्तमावाधं मोत्तूण जं पढम दुगुणहीणा जाव उक्कस्सिया समए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, ट्ठिदि त्ति। जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं | ११७ एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेतं विसेसहीणं, जं तदियसमए ज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि। , पदेसगं निसित्तं तं विसेसहीणं, | ११८ णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि .. एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेउक्कस्सेण सागरोवमसदस्स ज्जदिभागो। २५८ सागरोषमपण्णासाए सागरोवम- | ११९ णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि । पणुवीसाए सागरोवमस्त तिण्णि थोवाणि। सत्तभागा, सत्त-सत्तभागा, बे १२० एयपदेसगुणहाणिट्ठाणतरमसंसत्तभागा पलिदोवमस्स संखेज. खेज्जगुणं । दिभागेण ऊणया पलिदोवमस्स | १२१ आबाधाकंदयपरूवणदाए। २६६ असंखेज्जदिभागेण ऊणया त्ति । २५२ १२२ पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणं १११ परंपरोवणिधाए पंचिंदियाणं चउरिदियाणं तीइंदियाणं बीई. सण्णीणमसण्णीणं पज्जत्तयाणं दियाणं एइंदियबादर-सुहुमअट्ठपणं कम्माणं जं पढमसमए पज्जत्त-अपज्जत्तयाणं सत्तण्णं पदेसग्गं तदो पलिदोवमस्स कम्माणमाउववज्जाणमुक्कस्सि..., Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] सूत्र संख्या सूत्र समए असंखेज्जदि यादो ट्ठिदीदो समए पलिदोवमस्स भागमेत्तमोसरिदूण एयमाबाहाकंदयं करेदि । एस कमो जांव जहण्णिया ट्ठिदिति । १२३ अप्पा बहुए त्ति । १२४ पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छारट्ठीगं पज्जन्तापज्जत्ताणं सत्तणं कम्माणमा उववज्जाणं सव्वत्थोवा जहणिया आबाहा । परिशिष्ट पृष्ठ सूत्र संख्या २६७ २७० "" १२५ आबाहट्ठाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वि तुल्लाणि संखेज्जगुणाणि । " १२६ उकस्सिया आबाहा विसेसाहिया । २७१ १२७ णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि । १२८ एयपदेसगुणहाणिट्टानंतरमसंखेज्जगुणं । "" १२९ एयमाबाहाकंदयमसंखेज्जगुणं । २७२ १३० जण्णओ ट्ठदिबंधो असंखेज्जगुणो । 39 " १३१ ट्ठिदिबंधट्टाणाणि संखेज्जगुणाणि । " १३२ उक्कसओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । २७३ १३३ पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणं पज्जन्त्तयाणमाउ अस्स सव्वत्थोवा जहणिया आबाहा । "" 33 १३४ जहण्णओ ट्ठिदिबंधो संखेज्जगुणो । १३५ आवाहाद्वाणाणि संखेज्जगुणाणि १३६ उक्कस्सिया आबाहा बिसेसादिया । 23 २७४ १३७ णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणतराणि असंखेज्जगुणाणि । १३८ एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । 33 १३९ ठिदिबंधट्टणाणि असंखेज्जगुणाणि ।,, " सूत्र १४० उकस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ । १४१ पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणमपज्जन्तयाणं चउरिंदियाणं ती इंदियाणं बीइंदियाणं एइंदियबादर - सुहुम पज्जन्ता पज्जत्तयामाउ अस्स सव्वत्थोवा जहण्णिया आबाहा । १४२ जण्णओ ट्ठदिबंधो संखेज्जगुणो,, १४३ आब्राहाणाणि संखेज्जगुणाणि । ” १४४ उक्कस्सिया आबाहा विसेलाहिया । पृष्ठ : २७५ "" 33 २७६ १४५ ठिदिबंधट्टाणाणिसंखेज्जगुणाणि । १४६ उक्कस्सओ ट्ठिदिबधो विसेसाहिओ । "" १४७ पंचिदियाणमसण्णीणं चउरिंदियाणं ती इंदियाणं पजत्त-अपजत्तयाणं सत्तणं कम्माणं आउववज्राणमाबाहद्वाणाणि आबाहाकंदयाणि च दो वितुल्लाणि थोवाणि ।,, १४८ जहणिया आबादा संखेजगुणा । २७७ १४९ उक्कस्त्रिया आबाहा विसेसाहिया | 33 १५० णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि असंखे जगुणाणि । १५१ एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेजगुणं । १५२ एयमाबाधाकंदद्यमसंखेजगुणं । १५३ ठिदिबंवट्टणाणि असंखेजगुणाणि । २७८ १५४ जहण्णओ ट्ठदिबंधो संखेजगुणो ।,, १५५ उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ।,, १५६ एइंदियबादर - सुहुम-पजत्तअपजत्तयाणं सत्तण्हं कम्माणं आउववज्जाणमाबाद्दट्ठाणाणि "" "" "" Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणो। वेयणकालविहणमुत्ताणि । सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या आबाहाकंदयाणि च दो वि१७३ तिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिहदरा ॥३९५ .. तुल्लाणि थोवाणि । २७८ १७४ चउट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्ठदरा।, १५७ जहणिया आवाहा असंखेज्जगुणा।, १७५ सादस्त चउट्ठाणबंधा जीवा १५८ उक्कस्सिया आवाहा विसेसाहिया।२७९ / णाणावरणीयस्स जहणियं ट्रिर्दि १५९ णाणापदेस गुणहाणिट्ठाणंतराणि बंधंति। ३१६ असंखेज्जगुणाणि । | १७६ सादस्स . तिट्ठाणबंधा जीवा १६० एयपदेसगुणहाणिट्ठाणतरम णाणावरणीयस्स अजहण्ण-अणुसंखेजगुणं । क्कस्तियं ठिदि बंधंति । १६१ एयमाबाहाकंदयमसंखेजगुणं । , १७७ सादस्स बिट्ठाणबंधा जीवासादस्स १६२ ठिदिबंधट्टाणाणि असंखेजगुणाणि।,, चेव उक्कस्सियं हिदि बंधंति। ३१७ १६३ जहण्णओ ट्ठिदिबंधो असंखेज | १७८ असादस्स बेट्ठाणबंधा जीवा. सत्थाणेण णाणाबरणीयस्स जह१६४ उक्कस्सओ ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ।,, णियं द्विदि बंधंति। ३१८ । १७९ असादस्स तिट्ठाणबंधा जीवा (विदिया चूलिया) णाणावरणीयस्स अजहण्ण१६५ ठिदिबंधज्यवसाणपरूवणदाए अणुक्कस्सियं ट्ठिदिं बंधंति । ३१९ तत्थ इमाणि तिणि अणिओग | १८० असादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा हाराणि जीवसमुंदाहारो पयडि असादस्त चेव उक्कसियं द्विदि बंधति । समुदाहारोट्टिदिसमुदाहारो त्ति। ३०८ १६६ जीवसमुदाहारे त्ति जे ते णाणा- १८१ तेसिं दुविहा सेडिपरूवणा अणंतवरणीयस्स बंधा जीवाते विहा- रोवणिधा परंपरोवणिधा। ३२० सादबंधा चेव असादबंधा चेव । ३११. १८२ अणंतरोवणिधाए सादस्स चउ१६७ तत्थ जे ते सादबंधा जीवा ते ट्राणबंधा तिठाणबंधा जीवा । असादस्स विट्ठाणबंधा तिट्ठाणविट्ठाणबंधा। ३१२ बंधा जीवा जाणावरणीयस्स १६८ असादबंधाजीवा तिविहा-विट्ठा जहणियाए ट्ठिदीए जीवाथोबा । ३२१ ... णबंधा तिट्ठाणबंधा चउहाण- १८३ बिदियाए द्विदीए जीवा विसेबंधा त्ति । ३१३ साहिया।। ३२२ १६९ सयविसुद्धा सादस्स चउट्ठाण- १८४ तदियाए ट्ठिदीए जीवा विसेबंधा जीवा। साहिया। ३२३ १७० तिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्ठदरा।,, १८५ एवं विसेसाहिया विसेसाहिया १७१ बिट्ठाणबंधा जीवासंकिलिट्ठदरा । ३१५ जाव सागरोवमसदपुधत्तं । १७२ सव्वविसुद्धा असादस्स बिहाण- १८६ तेण परं विसेसहीणा विसेसहीणा । बंधा जीवा। जाव सागरोवमस पुधत्तं। " हा-चउठाणबंधा तिट्ठाणबधा. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र [१२] परिशिष्ट सूत्र संख्या पृष्ठ सूत्र संख्या १८७- सादस्स विट्ठाणबंधा जीवा असा- १९८ तेण परं पलिदोवमस्स असंखेदस्स चउठाणवंधा जीवा जाणा जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा। ३२७ वरणीयस्स जहणियाए ट्ठिदीए १९९ एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा . जीवा थोवा। ३२४ जाव सादस्स असादस्स उक्क१८८ बिदियाए ट्ठिदीए जीवा विसेसा- स्सिया टिदि त्ति। हिया। | २०० एगजीव-दुगुणवड्ढि-हाणिवाणं१८९ तदियाए ट्ठिदीए जीवा विसेसा तरमसंखेजाणि पलिदोवमवग्गहिया। मूलाणि। २०१ णाणाजीव-दुगुणवड्ढि-हाणि१९० एवं विसेसाहिया विसेसाहिया ट्ठाणंतराणि पलिदोवमवग्गमू. जाव सागरोपमसदपुधत्तं । लस्स असंखेजदिभागो। ३२८ १९१ तेण परं विसेसहीणा विसेसहीणा २०२ जाणाजीव-दुगुणवड्ढि- हाणि. जाव सादस्त असादस्स उक्क ट्राणंतराणि थोवाणि । स्सिया हिदि त्ति। २०३ एगजीव-दुगुणवडिढ-हाणिवाणं . १९२ परंपरोवणिधाए सादस्स चउ- तरमसंखेजगुणं । ट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा जीवा | २०४ सादस्स असादस्स य बिठाणअसादस्स बिट्ठाणबंधा, तिट्ठाण यम्मिणियमा अणागारपाओग्गबंधा णाणावरणीयस्स जहणि ट्ठाणाणि । याए ट्ठिदीए जीवे हिंतो तदो २०५ सागारपाओग्गट्ठाणाणि सव्वत्थ ।, पलिदोवमस्त असंखेज्जदिभागं २०६ सादस्स चउढाणियजवमज्झस्स गंतूण दुगुणवड्ढिदा । ३२५ हेट्रदो ट्रामाणि थोवाणि । ३३४ २९३ एवं दुगुणवढिदा दुगुणवढिदा | २०७ उवरि संखेज्जगुणाणि। , जाव जममज्झं। ३२६ २०८ सादस्स तिहाणियजवमझस्ल १९४ तेण परं पलिदोवमस्स असंखेज्जदि- हेट्टदो ट्ठाणाणि संखेज्जगुणाणि ३३५ भागं गंतूण दुगुणहीणा। , | २०९ उवरि संखेज्जगुणाणि। १९५ एवं दुगुणहीणा-दुगुणहीणा जाव २१० सादस्त बिट्ठाणियजवमज्झस्स ... सागरोवमसदपुधत्तं। " हेट्टदो एयंतसागारपाओग्गट्ठाणाणि १९६ सादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा असा- .. संखेज्जगुणाणि । दस्स चउठाणबंधा जीवाणाणा- २११ मिस्सयाणि संखेज वरणीयस्स जहणियाए द्विदीए २१२ सादस्स चेव बिट्ठाणियजवजीवहिंतो तदो पलिदोवमस्त मज्झस्स उवरि मिस्सयाणि असंखेजदिभागं गंतूण दुगुण संखेज्जगुणाणि। वड्ढिदा। ३२७/ २१३ असादस्स बिट्टाणियजवमज्झस्स . १९७ एवं दुगुणवढिदा दुगुणवडि हेदो एयंतासायारपाओग्ग-... ढदा जाव सागरोवमसदपुधत्तं । " हाणाणि संखेज्जगुणाणि। . " Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयणकालविहाणमुत्ताणि [१३] सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या . सूत्र , पृष्ठ २१५ मिस्सयाणि संखेज्जगुणाणि। ३३७ | २३४ तिट्ठाणबंधा जीवा संखेजगुणा । ३४२ २१५ असादस्स चेव बिट्ठाणियजवमझ- २३५ बिट्ठाणबंधा जीवा संखेजगुणा। ,, स्सुवरि मिस्सयाणि संखेज्ज- २३६ असादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा . गुणाणि । संखेज्जगुणा। २१६ एयंतासागारपाओग्गट्ठाणाणि २३७ चउट्ठाणबंधा जीवा संखेज्जगुणा। ३४३ संखेज्जगुणाणि । २३८ तिट्ठाणबन्धा जीवा विसेसाहिया।,, २१७ असादस्स तिहाणियजवमज्झस्स २३९ पयडिसमुदाहारे त्ति तत्थ हेढदो टाणाणि संखेज्जगुणाणि । ३३८ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि २१८ उवरि संखेज्जगुणाणि । पमाणाणुगमो अप्पाबहुए त्ति। ३४६ २१९ असादस्स चउट्ठाणियजवमज्झस्स २४० पमाणाणुगमे णाणावरणीयस्स हेहदो छाणाणि संखेज्जगुणाणि। " असंखेजा लोगा हिदिवंधज्झव२२० सादस्स जहण्णओ हिदिबंधो साणट्ठाणाणि। संखेज्जगुणो। २४१ एवं सत्तण्णं कम्माणं । २२१ जट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ। , २४२ अप्पाबहुए त्ति सव्वत्थोवा आउ२२२ असादस्स जहण्णओ हिदिबंधो अस्स ट्ठिदिबंधज्झवसाण. विसेसाहिओ। ३३१ ट्ठाणाणि । | २४३ णामा-गोदाणं ठिदिबंधज्झवसा .. २२३ जट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ। णट्टाणाणि दो वि तुल्लाणि असं२२४ जत्तो उक्कस्सयं दाहं गच्छदि खेजगुणाणि । सा टिदी संखेज्जगुणा। "२५४ णाणावरणीय-दसणावरणीय२२५ अंतोकोडाकोडी संखेज्जगुणा। , वेयणीय-अंतराइयाणं ट्रिदिबंध२२६ सादस्स बिट्ठाणियजवमझस्स ज्झवसाणट्ठाणाणि चत्तारि वि उपरि एयंतसागारपाओग्गट्ठाणाणि तुल्लाणि असंखेजगुणाणि। ३४८ संखेज्जगुणाणि । ३४० ३४५ मोहणीयस्स टिदिबंधज्झवसा२२७ सादस्स उक्कसओ ट्ठिदिबंधो णट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि। ३४९ विसेसाहिओ। " २४६ ठिदिसमुदाहारे त्ति इत्थ इमाणि २२८ जट्टिदिबंधो विसेसाहियो। , तिणि अणियोगद्दाराणि पगणणा २२९ दाहट्ठिदी विसेसाहिया। , अणुकट्ठी तिव्व-मंददा त्ति।.. , २३० असादस्स चउट्ठाणियजवमयस्स २४७ पगणणाए णाणावरणीयस्स उवरिमट्ठाणाणि विसेसाहियाणि। ३४१ जहणियाए हिदीए द्विदिबंधज्झ२३१ असादस्स उक्कस्सटिदिबंधो बसाणट्ठाणाणि असंखेज्जा लोगा।३५० ,, | २४८ बिदियाए द्विदीए डिदिबंधन२३२ जट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ। ,, . घसाणठाणाणि असंखेज्जा लोगा।, २३३ पदेण अटुपदेण सब्बत्थोवा २४९ तदियाए हिदीए ट्ठिदिबंधज्झ सादस्त च उठाणबंधा जीवा। , साणट्टाणाणि असंखेज्जा लोगा।३५१ ३४७ विसेसाहिओ।.. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र [१४] परिशिष्ट सूत्र संख्या ___ सत्र पृष्ठ सूत्र संख्या - पृष्ठ २५० एवमसंखेज्जा लोगा असंखेज्जा | २६४ एवं विदिबंधज्यवसाण-दुगुण लोगा जाव उक्कस्सट्ठिदि त्ति। , पड्ढिहाट्ठिाणंतरं पलिदोवमस्स . २५१ एवं सत्तण्णं कम्माणं । ३.२ असंखेज्जदिभागो। २५२ तेसिंदुविधा सेडिपरूवणा अणंत- २६५ णाणाटिदिबंधज्झवसाण-दुगुणरोवणिधा परंपरोवणिधा। ३५३ वड्ढिहाणिट्ठाणतराणि अंगुल वग्गमूलछेदणाणमसंखेज्जदि२५३ अणंतरोवणिधाए जाणावरणी. भागो। यस्त जहणियाए हिदीए टिदि- २६६ णाणाठिदिबंधज्झवसाणदुगुण बंधज्झवसाणट्ठाणाणि थोवाणि , | वढिहाणिट्ठाणंतराणि थोबाणि ।। २५४ बिदियाए ट्ठिदीए टिदिबंधज्झ- २६७ एयट्ठिदिबंधझवसाणदुगुणव घसाणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि । ,, | ड्ढिहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं । ३५८ २५५ तदियाए [ हिदीए ] ट्रिदिबंधज्झ २६८ एवं छण्णं कम्माणमाउवषजाणं। , वसाणट्ठाणाणि विसेसाहियाणि।, २६९ अणुकट्ठीए णाणावरणीयस्स जहणियाए ट्ठिदीए जाणि हिदि२५६ एवं बिसेसाहियाणि विसेसा बंधज्झवसाणठ्ठाणाणि ताणि हियाणि जाव उक्कस्सिया हिदि त्ति।, बिदियाए हिदीए बंधज्झवसाण..', २५७ एवं छण्णं कम्माणं। ३५५ हाणाणि अपुवाणि । . ३६२ २५८ आउअस्त जहणियाए हिदीए २७० एवमपुधाणि अपुवाणि जाव .. ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि उक्कस्सिया ठिदि त्ति। ३६४ थोवाणि । ___... २७१ एवं सत्तण्णं कम्माणं । . ३६६ २५९ बिदियाए टिदिबंधज्झवसाण- २७२ तिव्वमंददाए जाणावरणीयस्स. ट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि। , जहणियाए हिदीए जहण्णयं २६० तदियाए ट्ठिदीए ट्ठिदिबंधज्यवसा द्विदिवंधज्झवसाणट्ठाणं सव्व मंदाणुभागं । णट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । " २७३ तिस्से चेव उक्कस्समणंतगुणं । ३६७ २६१ एवमसंखेज्जगुणाणि असंखेज्ज २७४ बिदियाए हिदीए जहण्णयं गुणाणि जाव उक्कस्सिया हिदि हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणमणंतगुण , त्ति। २७५ तिस्से चेव उक्कस्समणंतगुणं। ३६८ २६२ परंपरोवणिधाए णाणावरणी २७६ तदियाए हिदीए जहण्णयं द्विदि. यस्स जहणियाए ट्ठिदीए हिदि. बंधज्झवसाणठाणमणतगुणं । बंधज्झवसाणठाणेहिंतो तदो " पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं २७७ तिस्से चेव उक्कस्सयमणंतगुणं । , गंतूण दुगुणवढिदा। " | २७८ एषणंतगुणा जाव उपकस्सटिदित्ति।, २६३ एवं दुगुणवड्ढिदा दुगुणवढिवा - २७९ एवं सत्तण्णं कम्माणं । ... · जाव उक्कस्सिया हिदि ति। " ३५६ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] अवतरण-गाथा-सूची २ अवतरण-गाथा-सूची क्रमसंख्या गाथा अन्यत्र कहाँ (वेदणा-क्षेत्रविधान) प्रमाणवार्तिक ४-१९० १ अवगयनिवारणटुं (वेदणा-कालविधान) पंचा. १०१ - ५ अच्छेदनस्य राशेः १२४ पंचा. १०० । ८ अयोगमपरयोग ३१७ गो. जी. ५६९ i ४ कालो त्ति य वचएसो ७६ १कालो परिणामभवो ष. खं. पु. ६ पृ. १५८, पु.१० पृ. ४८५४ २णय परिणमह सयं सो गो. जी. ५८८ ६ प्रक्षेपकसंक्षेपेण २४१ ३ लोगागासपदेसे ७६ ७विशेषणविशेषाम्याम् ३ ग्रन्थोल्लेख १ छेदसूत्र / १ ण च दवित्थि-णपुंसयवेदाणं चेलादिचागो अस्थि, छेदसुत्तेण सह विरोहादो। ११४ २ तत्त्वार्थसूत्र (१-२०) १ ण च पुषसहो कारणत्थभावेण अप्पसिद्धो, “मदिपुव्वं सुदं” (विशेषा १०५) . इच्चेत् कारणे वट्टमाणपुव्वसद्वलंभादो। ३ प्रदेशविरचितअल्पबहुत्व १ तं कधं णव्वदे ? चरिमगुणहाणिदव्वादो पढमणिसेयो असंखेजगुणो त्ति पदेसविरइयअप्पाबहुगादो। . ४ मूलाचार १ ण च तेण सह तस्स बंधो, आपंचमी त्ति सिंहा इत्थीओ जंति छट्टिपुढवि . त्ति (१२-११३)। २ ण च देवाणं उक्कस्साउअं दब्वित्थिवेदेण सह बज्झइ, णियमा णिग्गंथलिंगेण (१२-१३४) ५ संतकम्मपाहुड१ संतकम्मपाहुडे पुण णिगोदेसु उप्पाइदो। २१ ६ अनिर्दिष्टनाम १ " अर्द्ध शून्यं रूपेषु गुणम्" इति गणितन्यायेन जं लद्धं तं ठविय "रूवोनमादिसंगुणमेकोनगुणोन्मथितमिच्छा" एदेण रूवूर्ण काऊण...सव्वज्झवसाणपमाणं होदि । ३६० ४ पारिभाषिक शब्द-सूची शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ शब्द - अ अनन्तगुणवृद्धि ३५१ अन्ययोगव्यवच्छेद २४५,३१८ अकर्मभूमि अनन्तभागवृद्धि " अप्रधानकाल ७६ अचित्तकाल ७६ अनन्तरोपनिधा ३५२ अयोगव्यवच्छेद २४५,३१७ अत्यन्तायोगव्यवच्छेद ३१८ अनुकृष्टि ३४९ अलोक अद्धाकाल अन्धकाकलेश्या १९ अवगाहनादण्डक २५६ . पृष्ठ www.jainelibraryorg Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] परिभाषिक शब्द-सूची शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ शब्द अव्वोगाढअल्पब हुत्व १४७, चतुर्थस्थान अनुभागबन्ध ,, प्रधानद्रव्यकाल १६३, १७७|चतु:स्थानवन्धक प्रमाणकाल असंख्यातगुणवृद्धि ३५१ चूलिका असंख्यातभागवृद्धि भावजघन्य असंख्येयवर्षायुप्क ८९,९० छेदगुणकार भावतः आदेशजघन्य असातबन्धक छेदभागहार भावतः उत्कृष्ट १२८ २२५ आ २ ९०, ११५ २० ३३९ दर्शनोपयोग Mr. १२, ८५ आगमभावकाल जघन्यबन्ध लब्धमत्स्य आगमभावक्षेत्र जघन्यस्थिति लोक आगमभाव जघन्य ज-स्थितिबन्ध लोकोत्तरसमाचारकाल ७६ आदेश उत्कृष्ट जलचर लौकिकसमाचारकाल आदेश जघन्य झानोपयोग आदेशतः काल जघन्य विग्रह आबाधा ९२,२०२,२६१ विशुद्धता ३१४ आबाधा काण्डक ९२,२६६ तृतीयस्थान विशुद्धि २०९ आषाधा स्थान १६२,२७१ त्रिस्थानबन्धक विशुद्धिस्थान २०८,३०९ वीचारस्थान उत्कृष्ट दाह ३३३ वेदना उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश ९१ दाह वेदनाक्षेत्रविधान दाहस्थिति ४. वेदनासमुद्धात द्रव्य उत्कृष्ट एकस्थान ३१३ द्रव्य जघन्य ओघ उत्कृष्ट द्रव्यतः आदेश जघन्य १२ सचित्तकाल द्वितीय स्थान ओघ जघन्य द्विस्थानबन्धक समाचारकाल समुदाहार ३०८ कर्मक्षेत्र उत्कृष्ट संक्लेश २०९, ३०२ कर्मक्षेत्र जघन्य ध्रुवस्थिति ३५० संक्लेशस्थान २०८ कर्मभूमिप्रतिभाग संख्यातगुणवृद्धि ३५१ काकलेश्या निर्वर्गणाकाण्डक ३६३ संख्यातभागवृद्धि काक जघन्य २३७ संख्येयवर्षायुष्क कालतः उत्कृष्ट १३ नोआगमभावकाल ७७ सातबन्धक नोआगमभावक्षेत्र २ सिक्थमत्स्य क्षेत्र जघन्य ८५ नोआगमभावजघन्य १३ स्थलचर . ९०, ११५ क्षेत्रतः आदेशजघन्य १२ नोकर्मक्षेत्र उत्कृष्ट स्थिबन्धस्थान १४२, १५२, नोकर्मक्षेत्रजघन्य २०५, २२५ खगवर . स्थितिबन्धाध्यवसान ३१० पञ्जिका ३०३ स्वस्थान जघन्यस्थिति ३२९ चतुर्थस्थान ३१३ परम्परोपनिधा ३५२ १३ समभागहार १२७ .७६ ८५ निषेक क्षेत्र ९०,११५/ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य उद्धारक फंड तथा कारंजा जैन ग्रन्थमालाओं में डॉ. हीरालाल जैन द्वारा आधुनिक ढंगसे सुसम्पादित होकर काशित जैन साहित्यके अनुपम ग्रंथ प्रत्येक ग्रन्थ सुविस्तृत भूमिका, पाठभेद, टिप्पण व अनुक्रमणिकाओं आदिसे खूब सुगम और उपयोगी बनाया गया है। 1 षदखंडागम-[धवलसिद्धान्त ] हिन्दी अनुवाद सहित पुस्तक 1, जीवस्थान-सत्यरूपणा पुस्तकाकार व शास्त्राकार (अप्राप्य ) पुस्तक 2, पुस्तकाकार 10) , पुस्तक 3, जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम, 10) , पुस्तक 4, क्षेत्र-स्पशन-कालानुगम पुस्तकाकार व शास्त्राकार , पुस्तक 5-9 (प्रत्येक भाग), 10) , 12), पुस्तक 10-12, वेदना अनुयोगद्वार / प्रत्येक भाग पुस्तक 12) शास्त्राकार 14) यह भगवान् महावीर स्वामीकी द्वादशांग वाणीसे सीधा संबन्ध रखनेवाला, अत्यन्त प्राचीन, जैन सिद्धान्तका खूब गहन और विस्तृत विवेचन करनेवाला सर्वोपरि प्रमाण ग्रंथ है। श्रुतपंचमीकी पूजा इसी ग्रंथकी रचनाके उपलक्ष्यमें प्रचलित हुई। 2 यशोधरचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य इसमें यशोधर महाराजका अत्यंत रोचक वर्णन सुन्दर काव्यके रूपमें किया गया है। इसका सम्पादन डॉ. पी. एल. वैद्य द्वारा हुआ है। 3 नागकुमारचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य / इसमें नागकमारके सुन्दर और शिक्षापूर्ण जीवनचरित्र द्वारा श्रतपंचमी विधानकी महिमा बतलाई गई है / यह काव्य अत्यन्त उत्कृष्ट और रोचक है / 4 करकडूवारत-मुनि कनकामरकृत अपभ्रश काव्य जा) इसमें करकंडु महाराजका चरित्र वर्णन किया गया है, जिससे जिनपूजाका माहात्म्य प्रकट होता है / इससे धाराशिवकी जैन गुफाओं तथा दक्षिणके शिलाहार राजवंशके इतिहास पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। 5 श्रावकधमंदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित इसमें श्रावकोंके व्रतों व शीलों का बड़ा ही सुन्दर उपदेश पाया जाता है। इसकी रचना दोहा छंदमें हुई है। प्रत्येक दोहा काव्यकलापूर्ण और मनन करने योग्य है। 6 पाहुडदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित इसमें दोहा छंदोद्वारा अध्यात्मरमको अनुपम गंगा बहाई गई है जो अवगाहन करने योग्य है। 7 सिद्धान्त-समीक्षा-संजय सम्बन्धी लेखों और प्रतिलेखों का संग्रह डॉ. हीरालाल जैन कृत / मू. 4 ) 7)