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________________ ४, २, ६, २०५. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्यवसाणपरूवणा [३३३. णियम्मि अणुभागे षज्झमाणे होति, ण अण्णत्थ; दंसणोवजोगकाले अइसकिलेसविसोहीणमभावादो। को दंसणोबजोगो णाम ? अंतरंगउवंजोगो'। कुदो ? आगारो णाम कम्मकत्तारभावो, तेण विणा जा उवलद्धी सो अणागारउवजोगो । अंतरंगउवजोगे वि कम्म-कत्तारभावो अस्थि त्ति णासंकणिजं, तत्य कत्तारादो दव-खेत्तेहि फर्टेकम्माभावादो। एवं संते सुद-मणपजवणाणाणं पि दंसणोवजोगपुरंगमत्तं पसजदि ति उत्ते, ण, मदिणाणपुरंगमाणं तेसिं दोण्णं पि दंसणोवजोगपुरंगमत्तविरोहादो । तदो बज्झत्थगहणसंते विसिट्ठसगसरूवसंवेयणं दंसणमिदि सिद्धं । ण च बज्झत्यग्गहणुम्मुहावत्था चेव दंसणं, किंतु बज्झत्यग्गहणुवसंहरणपढमसमयप्पहुडि जाव बज्झत्थअग्गहणचरिमसमओ त्ति दंसणुवजोगो त्ति घेत्तन्वं, अण्णहा दंसण-णाणोवजोगवदिरित्तस्स वि जीवस्स अस्थित्तप्पसंगादो। सागारपाओग्गट्टाणाणि सव्वत्थ ॥ २०५॥ वेदनीयके विस्थानिक अनुभागका बन्ध होनेपर होते हैं, अन्यत्र नहीं होते; क्योंकि, दर्शनोपयोगके समयमें अतिशय संक्लेश और विशुद्धिका अभाव होता है। शंका-दर्शनोपयोग किसे कहते हैं ? समाधान-अन्तरंग उपयोगको दर्शनोपयोग कहते हैं। कारण यह कि आकारका अर्थ कर्मकर्तृत्व है, उसके विना जो अर्थोपलब्धि होती है उसे अनाकार उपयोग कहा जाता है। ___अन्तरंग उपयोगमें भी कर्मकर्तृत्व होता है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये। क्योंकि, उसमें कर्ताकी अपेक्षा द्रव्य व क्षेत्रसे स्पष्ट कर्मका अभाव है। शंका-ऐसा होनेपर श्रुतबान और मनापर्यय ज्ञानके भी दर्शनोपयोगपूर्वक होनेका प्रसंग आवेगा? समाधान नहीं आवेगा, क्योंकि, वे दोनों शान मतिशानपूर्वक होते हैं, अतः उनके दर्शनोपयोगपूर्वक होने में विरोध है । इस कारण बाह्य अर्थका ग्रहण होनेपर जो विशिष्ट आत्मस्वरूपका वेदन होता है वह दर्शन है, यह सिद्ध होता है। बाह्य अर्थके ग्रहणके उन्मुख होने रूप जो अवस्था होती है वही दर्शन हो, ऐसी बात भी नहीं है, किन्तु बाह्यार्थग्रहणके उपसंहारके प्रथम समयसे लेकर बाह्यार्थक अग्रहणके अन्तिम समय तक दर्शनोपयोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, इसके विना दर्शन व शानोपयोगसे मिन्न भी जीवके अस्तित्वका प्रसंग आता है। साकार उपयोगके योग्य स्थान सर्वत्र बँधते हैं ॥ २०५॥ wun........................ ..... १ ताप्रती ‘णाम ! अंतरोवजोगो अंतरंगउवलोगो' इति पाठः। २ अप्रतौ 'जाउवाउवल्दी' इति पाठः। ३ताप्रतो'अंतरंगउवजागो' इति पाठः। ४ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु फिद्धि ताप्रती 'फड्ढ (१)' इति पाठः। ५ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-ताप्रतिषु 'दो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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