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________________ ३३२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २०४ जत्तियमद्धाणं तत्तियमेत्तमुवरि गंवण द्विदद्विदीणं जीवपमाणं जवमज्झटिमजीवेहि सरिसं होदि । पुणो वि उवरिमट्ठिदिदीहपमाणं संखेजगुणमत्थि । तासु हिदीसु हिदसव्वजीवा जवमज्झहेहिमजीवाणमसंखेजदिभागमेत्ता । तेसिं पमाणमेदं ७८ । पुणो एदम्मि एत्थ ३१२ पक्खित्ते जवमज्झटिमजीवाणमसंखेजदिभागमेत्तेण उवरिमजीवा अहिया हॉति ३९० । सव्वासु हिदीसु जीवा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? जवमज्झहेहिमजीवपक्खित्तमत्तण ६३८ । अधवा, पुणरवि अण्णेण पयारेण अप्पाबहुअं भणिस्सामो । तं जहा-सव्वत्योवा छण्णं जवाणं उक्कस्सियाए.हिदीए जीवा । अप्पप्पणो जहणियाए हिदीए जीवा पुध पुध असंखेजगुणा । अजहण्ण-अणुक्कस्सियासु हिदीसु जीवा असंखेजगुणा । पढमासु हिदीसु जीवा विसेसाहिया । अचरिमासु हिदीसु जीवा विसेसाहिया । सव्वासु हिदीसु जीवा विसेसाहिया । एदाओ द्विदीओ णाणोवजोगेण बझंति, एदाओ च दंसणोवजोगेण वज्झंति त्ति जाणावणहमुत्तरसुत्तं भणदि सादस्स असादस्स य बिट्ठाणयम्मि णियमा अणागारपाओग्गडाणाणि ॥ २०४॥ अणागारउवजोगपाओग्गहिदिबंधट्टाणाणि णियमा णिच्छएण सादासादाणं विट्ठामात्र ऊपर जाकर स्थित स्थितियोंके जीवोंका प्रमाण यवमध्यसे नीचेके जीवोंके समान होता है। फिर भी उपरिम स्थितियोंकी दीर्घताका प्रमाण संख्यातगुणा है । उन स्थितियों में स्थित सब जीघ यवमध्यके अधस्तन जीर्थोके असंख्यातवें भाग मात्र हैं। उनका प्रमाण यह है-७८ । इसको इसमें ( ३१२) मिलानेपर यवमध्यसे नीचेके जीवोंके असंख्यातवें भाग मात्रसे ऊपरके जीव अधिक होते है-३१२+७८=३९० । सब स्थितियों में जीव विशेष अधिक हैं । कितने मात्रसे अधिक हैं ? यवमध्यके नीचेके जीवोंके प्रक्षिप्त मात्रसे घे अधिक हैं-६३८ । अथवा फिरसे भी दूसरे प्रकारसे अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार हैछह यवोंकी उत्कृष्ट स्थिति में जीव सबसे स्तोक हैं । अपनी अपनी जघन्य स्थितिमें पृथक् पृथकु असंख्यातगुणे हैं। अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितियों में जीव असंख्यातगुणे हैं । प्रथम स्थितियों में जीव विशेष अधिक हैं। अचरम स्थितियों में जीव विशेष अधिक हैं। सब स्थितियों में जीव विशेष अधिक हैं। ये स्थितियाँ शानोगयोगसे बँधती हैं और ये स्थितियाँ दर्शनोपयोगसे बंधती हैं, यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं साता व असाता वेदनीयके विस्थानिक अनुभागमें निश्चयसे अनाकार उपयोग योग्य स्थान होते हैं ॥ २०४॥ __अनाकार उपयोग योग्य स्थितिबन्धस्थान नियम अर्थात् निश्चयसे साता व असावा १ प्रतिषु 'अजहण्णा-' इति पाठः। २ अणगारप्पाउग्गा बिट्टाणगयाउ दुविहपगडीणं । सागारा सम्वत्थ वि...॥ क. प्र. १,९६.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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