________________
३४४
छक्खंडागमे वेयणाखंड - [४, २, ६, २३८. चेव सुत्तादो। विसंवादिसुत्तं किण्ण जायदे १ ण, विसंवादकारणसयलदोसुम्मुक्कभूदबलिवयण-विणिग्गयस्स सुत्तस्स विसंवादितैविरोहादो। एसो जीवसमुदाहारो बीइंदिय-तीइंदियचउरिंदिय-असण्णिपंचिंदियपजत्तापजत्तएसु सण्णिअपजत्तएसु च जोजेयव्वो। णवैरि हिदिविसेसो णायव्वो । बादर-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्तेसु वि एवं चेव वत्तव्यो । णवरि एदेसु सव्वेसु वि सादासादाणं बिट्ठाणजवमझं चेव, तत्थ तिहाण-चउहाणाणुभागाणं बंधाभावादो। णवरि बादर-सुहुमेइंदियपजत्तापजत्तएसु एक्कक्किस्से हिदीए अणंता जीवा । पढमहिदिबंधजीवप्पहुडि कमेण विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण खंडिदमेत्तेण । पलिदोवमस्स असंखेजदिमागं गंण दुगुणवड्डिदा दुगुणवडिदा जाव जवमझं । तेण परं विसेसहीणा । सेसं जाणिदूण वत्तव्यं । एसो जीवसमुदाहारो बहुभेदो वि संतो संखेवेण एत्थ परूविदो । एवं जीवसमुदाहारो समत्तो।
शंका-यह सूत्र विसंवाद सहित क्यों नहीं है ? - समाधान नहीं, क्योंकि, जो भूतबलि भट्टारक विसंवादके कारणभूत समस्त दोषोंसे रहित हैं उनके मुखसे निकले हुए सूत्रके विसंवादी होनेमें विरोध है।
इस जीवसमुदाहारको द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक अपर्याप्तक तथा संज्ञी अपर्याप्तक जीवोंमें जोड़ना चाहिये । विशेष इतना है कि उक्त जीवों के स्थितिभेदको जानना चाहिये । बादर व सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवों में भी इसी प्रकार कहना चाहिये । विशेष इतना है कि इन सभी जीवोंमें साता व असाताका द्विस्थानिक अनुभाग रूप यवमध्य ही होता है, क्योंकि, उनमें त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक अनुभागोंके बन्धका अभाव है। विशेषता यह है कि बादर व सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवों में एक एक स्थितिमें अनन्त जीव होते हैं। वे क्रमशः प्रथम स्थितिबन्धके जीवोंसे लेकर विशेष अधिक हैं । कितने मात्रसे वे अधिक हैं ? उनको पत्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध हो उतने मात्रसे भी अधिक हैं । पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर यवमध्य तक दुगुणी दुगुणी वृद्धिसे वृद्धिंगत होते गये हैं । आगे वे विशेष हीन हैं। शेष कथन जानकर कना चाहिये। बहुत भेदोंसे संयुक्त होनेपर भी इस जीवसमुदाहारकी यहां संक्षेपसे प्ररूपणा की गई है । इस प्रकार जीवसमुदाहार समाप्त हुआ।
... १ अ-आ-काप्रतिषु विसंवादीसुत्तं', ताप्रती विसंवादी सुत्तं' इति पाठः । २ प्रतिषु विसंवादत्तइति पाठः। ३ ताप्रतौ द्विदिविसेसो वत्तवो' इत्येतावानयं पाठस्त्रुटितोऽस्ति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org