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________________ १, २, ६, २१०. 1 वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे द्विदिबंधज्मवसाणपरूवणा ३५ . सादस्स तिहाणियजवमज्झस्स हेट्टदो ट्ठाणाणि संखेज गुणाणि ॥ २०८ ॥ कुदो १ चउहाणियअणुभागबंधपाओग्गणझवसाणेहितो सादतिहाणियजवमज्झट्ठिमअणुभागबंधपाओग्गअज्झवसाणाणमसुहत्तदंसणादो। उवरि संखेजगुणाणि ॥२०९॥ कुदो १ सादतिहाणियजवमज्झटिमअंज्झवसाणेहिंतो उवरिमअज्झवसाणाणमसुहर दसणादो । मंदविसोहीहि परिणममाणा जीवा बहुगा होति, तासिं पाओग्महिदीयो वि बहुगीयो त्ति उत्तं होदि । कुदो ? जं तेणें वि मंदविसोहीणमुप्पत्तीदो। सादस्स बिट्टाणियजवमज्झस्स हेटदो एयंतसागारपाओग्गडाणाणि संखेज्जगुणाणि ॥२१० ॥ कुदो ? सादतिहाणियजवमज्झस्स उवरिमट्ठिदिसंकिलेसादो सादविद्वाणिसवन स्थितियोंकी अपेक्षा मन्द विशुद्ध स्थितियों के बहुत होने में कोई विरोध नहीं है। साता वेदनीयके त्रिस्थानिक यवमध्यके नीचेके स्थान उनसे असंख्यातगुणे हैं ॥२०॥ कारण यह कि चतुःस्थानिक अनुभागबन्धके योग्य परिणामोंकी अपेक्षा सातक त्रिस्थानिक यवमध्यके नीचेके अनुभागबन्धके योग्य परिणाम अशुभ देखे जाते हैं। - यवमध्यसे ऊपरके स्थितिबन्धस्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २०९ ॥ यक कारण कि साताके त्रिस्थानिक यवमध्यके अधस्तन परिणामोंकी अपेक्षा उपरिम परिणाम अशुभ देने जाते हैं । मन्द विशुद्धियों रूप परिणमन करनेवाले जीव बहुत हैं तथा उनके योग्य स्थितियां भी बहुत हैं, यह अभिप्राय है। इसका कारण यह है कि उसने भी मम्द विशुद्धियां उत्पन्न होती हैं। साता वेदनीयके द्विस्थानिक यवमध्यके नीचे एकान्ततः साकार उपयोगके योग्य स्थान संख्यातगुणे हैं ॥ २१० ॥ इसका कारण यह है कि साता वेदनीयके त्रिस्थानिक यषमध्यके ऊपरके स्थितिबन्ध १ अ-आ-काप्रतिषु 'असंखेज्जगुणाणि' इति पाठ । २ तेभ्योऽपि त्रिस्थानकरसयवमध्यस्योपरि स्थितिस्थानानि संख्येयगुणानि ४ । क. प्र. (म.टी.) १,९७ । तेभ्योऽपि परावर्तमानशुभप्रकृतीना त्रिस्थानकरसयवध्यादधः स्थितिस्थानानि संख्येयगुणाणि ३ । क. प्र. (म. टी.) १,९७ ।३ अ-आ-पा. प्रतिषु 'जुत्तेण' इति पाठः। ४ अप्रतौ 'सायर', आ-काप्रत्योः 'सागर' इति पाठः। ५ तेम्बोऽपि पयवर्तमानशुभप्रकृतीनां द्विस्थानकरसयवमध्यादधास्थितिस्थानानि एकान्तसाकारोपयोगयोग्यानि संख्येषगुणानि५ । क. प्र. (म. टी.) १,९७.। । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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