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________________ २० ' छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, ११. पुणरवि मारणंतियसमुग्घादेण समुहदो तिण्णि विग्गहकंदयाणि कादूण ॥ ११ ॥ ___ महामच्छो लोगणालीए वायव्वदिसाए पुव्ववेरियदेवसंबंधेण दक्खिणुत्तरायामेण पदिदो । तत्थ मारणंतियसमुग्धादेण समुहदो । तेण महामच्छेण वेयणसमुग्घादेण मारणंतियसमुग्धादं करतेण तिष्णि विग्गहकंदयाणि कदाणि । विग्गहो णाम वक्कत्त, तेण तिण्णि कदंयाणि कदाणि । तं जहा- लोगणालीवायव्वदिसादो कंडुज्जुवाए गईए सादिरेयअद्धरज्जूमेत्तमागदो दक्खिणदिसाए । तमेगं कंदयं । पुणो तत्तो वलिदूण कंडुज्जुवाए गईए एगरज्जुमेत्तं पुन्वदिसमागदो' । तं बिदियं कंदयं । पुणो तत्तो वलिदूण अधो छरज्जुमेत्तद्धाणमुजुगदीए गदो। तं तदिय कंदयं । एवं तिणि कंदयाणि कादूण मारणंतियसमुग्घादं गदो । चत्तारि कंदए किण्ण कराविदो ? ण, तसेसु दो विग्गहे मोत्तूण तिष्णिविग्गहाणमभावादो । तं कधं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । से काले अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उप्पज्जिहिदि त्ति तस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो उक्कस्सा ॥१२॥ फिर भी जो तीन विग्रह करके मारणान्तिकसमुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त हुआ है ॥ ११ ॥ महामत्स्य लोकनालीकी वायव्य दिशामें पूर्वके वैरी देवके सम्बन्धसे दक्षिण-उत्तर मायाम स्वरूपसे गिरा । वहां वह मारणान्तिकसमुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त हुआ। वेदनासमुद्घातके साथ मारणान्तिकसमुद्घातको करनेवाले उक्त महामत्स्यने तीन विग्रहकाण्डक किये । विग्रहका अर्थ वक्रता है, उससे तीन काण्डक किये । वे इस प्रकारसे- लोकनालीकी वायव्य दिशासे बाणके समान ऋजुगतिसे साधिक अर्ध राजु मात्र दक्षिण दिशामें आया। वह एक काण्डक हुआ। फिर वहांसे मुड़कर बाण जैसी सीधी गति से एक राजु मात्र पूर्व दिशामें आया । वह द्वितीय काण्डक हुआ। फिर वहांसे मुड़कर नीचे छह राजु मात्र मार्गमें ऋजुगतिसे गया। वह तृतीय काण्डक हुआ। इस प्रकार तीन काण्डकोंको करके मारणान्तिकसमुद्घातको प्राप्त हुआ। शंका-चार काण्डकोंको क्यों नहीं कराया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रसोंमें दो विग्रहोंको छोड़कर तीन विग्रह नहीं होते। शंका-वह कैसे ज्ञात होता है ? समाधान-वह इसी सूत्रसे ज्ञात होता है। अनन्तर समयमें वह सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न होगा, अनः उसके ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ १२ ॥ १ मप्रतिपाठोध्यम् । अ-काप्रत्योः 'पुवदिसावसमागदो', साप्रती 'पुवदिसाव (ए) समागदो' इति पाठः। २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-कानयोः 'तं तदियकंडयाणि', ताप्रती ' तं तदियकंड [य] | या (ता)णि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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