SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ५, २५. कुदो १ तदियसमयआहारय-तदियसमयतब्भवत्थसुहुमणिगोदलद्धिअपज्जत्तयम्मि जहण्णजोगिम्हि अट्ठण्णं पि कम्माण जहण्णक्खेत्तुवलंभादो । तम्हा जहण्णपदप्पाबहुगं णस्थि त्ति भणिदं होदि । उक्कस्सपदे णाणावरणीय- दंसणावरणीय-मोहणीय - अंतराइयाणं वेयणाओ खेत्तदो उक्कस्सियाओ चत्तारि वि तुल्लाओ थोवाओ ॥२५॥ कधमेदेसि तुल्लत्तं १ एगसामित्तादो। सादिरेयअट्ठमरज्जूहि संखेज्जपदरंगुलेसु गुणिदेसु घादिकम्माणमुक्कस्सखेतं होदि । एदं थोवमुवरिभण्णमाणखेत्तादो त्ति उत्तं होदि। वेयणीय-आउअ-णामा-गोदवेयणाओ खेत्तदो उक्कस्तियाओ चत्तारि वि तुल्लाओ असंखज्जगुणाओ ॥ २६ ॥ __एत्थ गुणगारो जगपदरस्स असंखेज्जदिभागो। कुदो ? संखेज्जपदरंगुलगुणिदजगसेडिमेत्तेण घादिकम्माणं उक्कस्सक्खेत्तेण घणलोगे भागे हिदे जगपदरस्स असंखेज्जदिमागुवलंभादो। इसका कारण यह है कि तृतीय समयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके तीसरे समयमें वर्तमान सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवके जघन्य योगके होनेपर आठों ही कर्मोका जघन्य क्षेत्र पाया जाता है। इसीलिये जघन्य पदमें अल्पबहुत्व नहीं है, यह उक्त कथनका अभिप्राय है। उत्कृष्ट पदमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन कमीकी वेदनायें क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट चारों ही समान व स्तोक हैं ॥ २५ ॥ शंका-इन वेदनाओंके समानता कैसे है ? समाधान - इसका कारण यह है कि उनका स्वामी एक है। साधिक साढ़े सात राजुओं द्वारा संख्यात प्रतरांगुलोंको गुणित करने पर धातिया कर्मोंका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है । यह आगे कहे जानेवाले क्षेत्रसे स्तोक है, यह सूत्रका अभिप्राय है। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इनकी वेदनायें क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट चारों ही समान व पूर्वकी वेदनाओंसे असंख्यातगुणी हैं ॥ २६॥ यहां गुणकार जगप्रतरका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, घातिकर्मीका जो उस्कृष्ट क्षेत्र संख्यात प्रतरांगुलोसे गुणित जगश्रेणिके बराबर है उसका घनलोकमें भाग देनेपर जगप्रतरका असंख्यातवां भाग पाया जाता है। १ तापतौ ' महणनोगेहि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy