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________________ ३५२) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, २५१. जहा पुग्विल्लीणं तिण्णं द्विदीणं अज्झवसाणहाणाणि पमाणेण असंखेजलोगमेत्ताणि तहा उवरिमसव्वहिदीणं पि हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणं पमाणं होदि त्ति जाणावण?मेवमिदि णिद्देसो कदो। एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ २५१ ॥ जहा णाणावरणीयस्स हिदि पडि हिदिबंधज्झवसाणहाणाणं पमाणपरूवणा कदा तथा सेससत्तण्णं पि कम्माणं परवेदव्वं, असंखेजलोगपमाणत्तं पडि भेदाभावादो । एवं पमाणपरूवणा गदा। ___एत्थ संतपरूवणा किण्ण परूविदा ? ण, तिस्से पमाणंतब्भावादो । कदो ? पमाणेण विणा संताणुववत्तीदो । तेसिं दुविधा सेडिपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा ॥२५२ ॥ जत्थ णिरंतरं थोवबहुत्तपरिक्खा कीरदे सा अणंतरोवणिधा । जत्थ दुगुण-चदुगुणादिपरिक्खा कीरदि सा परंपरोवणिधा । एवं सेडिपवणा दुविहा चेव, तदियादिपयारा___ जिस प्रकार पूर्वोक्त तीन स्थितियोंके अध्यवसानस्थान प्रमाणसे असंख्यात लोक मात्र हैं, उसी प्रकार आगेकी सब स्थितियोंके भी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंका प्रमाण होता है। यह बतलानेके लिये सूत्रमें ' एवं ' पदका निर्देश किया गया है।। इसी प्रकार सात कर्मोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ २५१॥ जिस प्रकार मानावरणीयकी प्रत्येक स्थितिसम्बन्धी स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार शेष सात कर्मोंकी भी स्थितियोंके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उनमें असंख्यात लोक प्रमाणकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। इस प्रकार प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। शंका-यहां सत्प्ररूपणाकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है ? ___समाधान नहीं, क्योंकि उसका प्रमाण अनुयोगद्वार में अन्तर्भाव हो जाता है, कारण कि प्रमाणके विना सत्व घटित ही नहीं होता है। . उक्त स्थानोंकी श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा ॥ २५२॥ जहांपर निरन्तर अल्पबहुत्वकी परीक्षा की जाती है वह अनन्तरोपनिधा कही जाती है। जहांपर दुगुणत्व और चतुर्गुणत्व आदिकी परीक्षा की जाती है वह परम्परोपनिधा कहलाती है। इस प्रकार श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार ही है, क्योंकि, और ततीयादि प्रकारोंकी १ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-प्रतिषु 'णाणावरणीयस्स पडि', ताप्रतौ ‘णाणावरणीयस्स पयडि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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