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________________ ४, २, ६, ३७.] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे सामित्तं स्थितिबंधस्स स्थानमवस्थाविशेष इति यावत् । एदेसि हिदिबंधविसेसाणं गहणं । जहण्णहिदिमुक्कस्सहिदीए सोहिय एगरूवे पक्खित्ते हिदिवंधट्ठाणाणि होति, तेसिं गहणमिदि उत्तं होदि । परूवणा गदा । सव्वएइंदियाणं ट्ठिदिबंधवाणाणि पलिदोवमस्स असंखज्जदिभागो । कुदो ? अप्पप्पणो जहण्णाबाहाए समऊणाए अप्पप्पणो समऊणजहण्णहिदीए ओवट्टिदाए एगमावाधाकंदयमागच्छदि । पुणो एदमावलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तआवाधाट्ठाणेहि गुणिय एगरूवे अवणिदे एइंदिएसु हिदिबंधट्ठाणविसेसो उप्पज्जदि, तत्थ एगरूवे पक्खित्ते टिदिबंधट्ठाणुप्पत्तीदो।विगलिंदिएसु द्विदिबंधट्ठाणाणं पमाणं पलिदोवमरस संखज्जीदभागो । कुदो ? सग-सगउक्कस्साबाहाए सग-सगउक्कस्सहिदीए ओवट्टिदाए एगमाबाहकंदयमागच्छदि । पुणो एदमाबाहहाणेहि आवलियाए संखेज्जदिभागमत्तेहि गुणिदे पलिदोवमरस संखज्जदिभागढिदिवंधट्ठाणुप्पत्तिदसणादा। सण्णिपंचिंदिय अपज्जत्तयस्स विदिबंधट्ठाणाणि अंतोकोडाकोडिसागरोवममेत्ताणि । कुदो ? सगुक्कस्साबाहाए सगुक्करसहिदीए ओवट्टिदाए एगमाबाहाकंदयमा समाधान- जो बांधा जाता है वह बन्ध कहा जाता है। स्थिति ही बन्ध, स्थितिबन्ध इस प्रकार यहां कर्मधारय समास है। स्थितिबन्धका स्थान अर्थात् अवस्थाविशेष, इस प्रकार यहां तत्पुरुष समास है। इन स्थितिबन्धविशेषोंका ग्रहण किया गया है। अर्थात् जघन्य स्थितिको उत्कृष्ट स्थितिमेसे घटा देनेपर जो शेष रहे . उसमें एक अंकका प्रक्षेप करने पर स्थितिवन्धस्थान होते हैं, उनका यहां ग्रहण किया है, यह उक्त कथनका अभिप्राय है। प्ररूपणा समाप्त हुई। समस्त एकेन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धस्थान पल्यापमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं, क्योंकि, एक समय कम अपनी अपनी आबाधाका अपनी अपनी एक समय कम जघन्य स्थिति में भाग देने पर एक आबाधाकाण्डकका प्रमाण आता है। फिर इसको आवलीके असंख्यातचे भाग प्रमाण आवाधास्थानोंसे गणित करके उसमेंसे एक अंकको घटा देने पर एकेन्द्रिय जीवों में स्थितिबन्धस्थानविशेष उत्पन्न होता है। उसमें एक अंक मिलाने पर स्थितिबन्धस्थान उत्पन्न होता है । विकलेन्द्रिय जीवों में बन्धस्थानोंका प्रमाण पत्योपमका संख्यातवां भाग है। इसका कारण यह है कि अपनी अपनी उत्कृष्ट आवाधाका अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देने पर एक आबाधाकाण्डक आता है। इसको आवलीके संख्यातवें भाग मात्र आबाधास्थानोंसे गुणित करनेपर पल्योपमके संख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिस्थानोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। संक्षी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान अन्तःकोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण हैं। इसका कारण यह है कि अपनी उत्कृष्ट आवाधाका अपनी उत्कृष्ट स्थितिमें भाग देनेपर एक आबाधाकाण्डक आता है। फिर इसको जघन्य आवाधाकी अपेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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