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________________ छक्खंडागमे वैयणाखंड [१, ३, ६, ३७. आहो अण्णहा होदि त्ति पुच्छिदे एवं होदि त्ति आबाधपमाणपरूवणहूं णिसिंचमाणकम्मपदेसाणं गिसेगक्कमपरूवणटुं च णिसेयपरूवणा आगदा । एगमावा, कादूण किमेक्कं चेव हिदिबंधट्ठाणं बंधदि, आहो अण्णहा बंधदि त्ति पुच्छिदे एक्काए आबाधाए एत्तियाणि ट्टिदिबंधट्ठाणाणि बंधदि, अवराणि ण बंधदि त्ति जाणावणट्टमाबाधाकंदयपरूवणा आगदा । आवाधाण आबाधकंदयाणं च थोवबहुत्तजाणावणट्ठमप्पाबहुगपरूवणा अगदा। एवमेत्थ चत्तारि चेव अणियोगद्दाराणि होति अण्णेसिमत्त्येवं अंतब्भावादो। द्विदिबंधढाणपरूवणदाए सव्वत्थोवा सुहुमेइंदियअपज्जत्तयस्स द्विदिबंधट्ठाणाणि ॥ ३७॥ एदमप्पाबहुअसुत्तं देसामासियं, सूइदहिदिट्टाणपरूवणा पम णाणिओगद्दारत्तादो। ण च अस्थित्त-पमाणेहि अणवगयाणं द्विदिबंधट्टाणाणमप्पाबहुगं संभवदि, विरोहादो । तम्हा हिदिबंधट्ठाणपरूवणदाए परूवणा-पमाणप्पाबहुगं चेदि तिणि अणियोगद्दाराणि । तत्थ परूवणदाए अस्थि चौदसणं जीवसमासाणं पुघ पुध द्विदिवंधट्ठःणाणि । एत्थ द्विदिबंधट्ठाणाणि त्ति उत्ते केसिं गहणं १ (बध्यत इति बन्धः । स्थितिरेव बन्धः स्थितिबन्धः। बध्यमान कर्मप्रदेशीका विन्यास क्या प्रथम सप्रयसे लेकर होता है, अथवा अन्य प्रकारसे होता है, ऐसा पूछने पर वह इस प्रकारसे होता है, इस प्रकार आबाधाप्रमाणकी प्ररूपण के लिये तथा निसिंचमान कर्मप्रदेशोंके निषेकक्रमकी प्ररूपणाके लिये निषेकप्ररूपणा प्राप्त हुई है। एक आवाधाको करके क्या एक ही स्थितिबन्धस्थान बंधता है अथवा अन्य प्रकारसे बंधता है, ऐसा पूछने पर एक आबाधामें इतने स्थितिबन्धस्थानोंको बांधता है, इतर स्थानोंको नहीं बांधता है; यह ज्ञात कराने के लिये आवाधाकाण्डका रूपणा प्राप्त हुई है। आवाधाओं और आवाधाकाण्डकोंके अल्पबहुत्वको बतलाने के लिये अल्पब हुत्व ग्रूपणा प्राप्त हुई है। इस प्रकार इसमें चार ही अनुयोगद्वार हैं, क्योंकि, अन्य अनुयोगद्वारोंका इन्हीमें अन्तर्भाव हो जाता है। स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणाकी अपेक्षा सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं ॥ ३७॥ - यह अल्पबहुत्वसूत्र देशामर्शक है, क्योंकि, वह स्थितिस्थानोंके प्ररूपणानुयोगदार और प्रमाणानुयोगद्वारका सूचक है। इन अनुयोगद्धारोंकी आवश्यकता यहां इसलिये है कि इनके विना अस्तित्व और प्रमाणसे अज्ञात स्थितिस्थानोंका अल्पबहुत्व सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, वैसा होने में विरोध है। इस कारण स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणामें प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पवहुत्व ये तीन अनुयोगद्वार हैं। उनमेंसे प्ररूपणाकी मपेक्षा चौदह जीवसमालोके पृथक् पृथक् स्थितिबन्धस्थान है। . शंका- यहां स्थितिबन्धस्थान ऐसा कहने पर किनका ग्रहण किया गया है ? , अ-आ-काप्रतिषु ' अण्णेसमुत्थेव ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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