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________________ ., ५, ६, १६.] यणमहाहियार वेयणकालविहाणे सामित्त (१५१ मूलपयडिहिदिबंधे त्ति गिद्देसेण उत्तरपयडिविदिबंधवुदासो कदो। उत्तरपयडिद्विदिबंधवुदासो किमढ़े कदो ? ण, मूलपयडिविदिबंधावगमादो तदवगमो होदि ति तव्वुदासकरणादो । पुव्वसही कारणवाचओ किरियाविसेसणभावेण घेत्तव्यो । ण च पुन्वसद्दो कारणत्थभावेण अप्पीसद्धो, मदिपुव्वं सुदमिच्चेत्थ कारणे वट्टमाणपुव्वसहवलंभादो। तीहि अणियोगद्दारेहि पुव्वं परूविदत्थविसययोहस्स पुवं कारणं होदण गमणिज्जे मूलपयडिविदिबंधे इमाणि अणियोगद्दाराणि होति त्ति भणिदं होदि । अथवा, मूलपयडिविदिबंधो कालविहाणे पुव्वं पढममेव गमणिज्जो', हिदिअद्धाच्छेदादिसु अणवगदेसु सामितादिअणिओगद्दाराणमवगमोवायाभावादो । तत्थ इमाणि अणियोगद्दाराणि होति ति भणिदं होदि। ___ अणुक्कस्स अजहण्णाटिदिट्ठाणाणि पुव्वं परूविदाणि । तेसैं ठाणेसु कम्हि कम्हि जीवसमासे तत्थ केत्तियाणि बंधट्ठाणाणि केत्तियाणि वा संतढाणाणि कस्स जीवसमासस्स बंधट्ठाणेहिंतो कस्स वा बंधट्टाणाणि समाणि अहियाणि ऊणाणि ति पुच्छिदे तस्स णिच्छयुप्पायणहूँ हिदिबंधट्ठाणपरूवणा आगदा । बज्झमाणकम्मपदेसविण्णासो किं पढमसमयप्पहुडि 'मूलप्रकृतिबन्धस्थान' इस निर्देशसे उत्तर प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका निषेध किया गया है। शंका-उत्तर प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका प्रतिषेध किसलिये किया जाता है ? समाधान -नहीं, चूंकि मूलप्रकृति-स्थितिबन्धके ज्ञात हो जानेपर उसका ज्ञान हो जाता है, अतः उसका प्रतिषेध किया गया है। ___ यहां पूर्व शब्दको क्रियाविशेषण वरूपसे कारण अर्थका वाचक ग्रहण करना चाहिये । पूर्व शब्द कारण अर्थका वाचक अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, "मतिपूर्व श्रुतम्" इस सूत्र में कारण अर्थमें वर्तमान पूर्व शब्द देखा जाता है। तीन अनुयोगद्वारोंसे पूर्व में प्ररूपित अर्थविषयक बोधका पूर्व अर्थात् कारण होनेसे अवगमनीय मूलप्रकृति-स्थितिबन्धमें ये अनुयोगद्वार होते हैं, यह उसका अभिप्राय है । अथवा, मूलप्रकृति-स्थितिबन्ध कालविधानमें पूर्वमें अर्थात् पहिले ही ज्ञातव्य है, क्योंकि, स्थितिअर्धच्छेदादिकोंके अज्ञात होनेपर स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंके जाननेका कोई उपाय नहीं रहता। उसमें ये अनुयोगद्वार हैं, यह उक्त कथनका निष्कर्ष है। ___ अनुत्कृष्ट-अजघन्यस्थितिस्थान पूर्वमें कहे जा चुके हैं। उन स्थानोंमसे किस किस जीवसमासमें वहां कितने बन्ध स्थान हैं व कितने सत्त्वस्थान, किस जीवसमासके बन्धस्थानोंसे किसके बन्धस्थान समान, अधिक अथवा कम हैं। ऐसा पूछनेपर उसका निश्चय उत्पन्न करानेके लिये स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा प्राप्त हुई है। १ अ-आ-काप्रत्योः 'पुर्व सदो' इति पाठः। २ प्रति विसयजादस्स' इति पाठः। ३ अ-आ-काप्रतिषु 'गणिज्जा': तापतोगमणि' इति पाठ। प्रतिषु ' तिम्' इति पाठः। ५ अ-आ-काप्रतिषु उहाणाणि ' इति पाठः। ६ अप्रती 'गिन्छसप्पायणटुं '; आरती 'पिच्छयउप्पायगढुंपति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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