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________________ ४४] छक्खंडाग वेयणाखंड [४, २, ५, २१. असंखेज्जदिभागो । कुदो ? सुहुमादो सुहुमस्स ओगाहणगुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो त्ति सुत्तवयणादो'। एसो गुणगारो सुहुमेसु सव्वत्थ वत्तव्यो । पुणो इमं घेत्तूण पदेसुत्तरादिकमेण इमिस्से ओगाहणाए उवरि एदं चेव ओगाहणमावलियाए असंखेज्जभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वं । एवं वड्ढाविदे सुहुमवाउक्काइयणिब्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा होदि । पुणो पदेसुत्तरादिकमेण तं चेव आगाहणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्ते वड्देि सुहुमवाउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं पावदि । पुणो तत्थ पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव सुहुमतेउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणं पत्तं ति । पुणो एदमोगाहणं पदेसुत्तरादिकमेण असंखज्जभागवड्डीए आवलियाए असंखेज्जदिमागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वं जाव सुहुमते उक्काइयणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणं पत्तं त्ति । पुणो एवं पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेतं वड्ढावेदव्वं जाव सुहुमतेउक्काइयणिन्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहणाए सरिसा जादा ति। पुणो पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि इमा ओगाहणा वड्ढावेदव्वा जाव आउक्काइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्सै जहण्णो है, क्योंकि, सूक्ष्मसे सूक्ष्मका अवगाह नागुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है, ऐसा सूत्रमें निर्देश किया गया है । यह गुणकार सूक्ष्म जीवोंमें सर्वत्र कहना चाहिये। पश्चात् इसको ग्रहण करके एक प्रदेश अधिक इत्यादि ऋमसे इ अवगाहनाके ऊपर इसी अवगाहनाको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमें से एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ानेपर सूक्ष्म घायुकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना होती है । पश्चात् एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे उक्त अवगाहनाको ही आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण वृद्धि हो जानेपर सूक्ष्म वायुकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना प्राप्त होती है। पश्चात् उसको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा सूक्ष्म तेजकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये। पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा आवाके असंख्यातवें भागसे खण्डित कर उसमेंसे एक खण्ड प्रमाण बढ़ाना चाहिये जब तक कि सूक्ष्म सेजकायिक निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहना न प्राप्त हो जावे । पश्चात इसको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमेंसे एक खण्ड मात्र बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह सूक्ष्म तेजकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके समान नहीं हो जाती । फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश आधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा सूक्ष्म जलकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके १ क्षेत्रविधान ९५. २ तातौ ' सरिसी' इति पाठः । ३ तापतौ ' अपज्ज० ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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