________________
विषय-परिचय
प्रधानकाल कालाणु स्वरूप होकर संख्यामें लोकाकाशप्रदेशोंके बराबर, रत्नराशिके समान प्रदेशप्रचयसे रहित, अमूर्त एवं अनादि-निधन है । अप्रधानकाल सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका बतलाया है। इनमें दंशकाल ( डांसोंका समय ) व मशककाल ( मच्छरोंका समय ) आदिको सचित्तकाल; धूलिकाल, कर्दमकाल, वर्षाकाल, शीतकाल व उष्णकाल आदिको अचित्तकाल; तथा सदंश शीतकाल आदिको मिश्रकालसे नामांकित किया गया है।
समाचारकाल लौकिक और लोकोत्तरके मेदसे दो प्रकार है । वन्दनाकाल, नियमकाल, स्वाध्यायकाल, व ध्यानकाल आदिरूप लोकोत्तर समाचारकाल तथा कर्षणकाल (खेत जोतनेका समय) लुननकाल व वपनकाल (वोनेका समय ) आदि रूप लौकिक समाचारकाल कहा जाता है । वर्तमान, अतीत व अनागत रूप काल अद्धाकाल तथा पल्योपम व सागरोपम आदि रूप काल प्रमाणकाल नामसे प्रसिद्ध हैं।
वेदनाद्रव्यविधान और क्षेत्रविधानके समान इस अनुयोगद्वारमें भी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ये ही तीन अनुयोगद्वार हैं। .
(१) पदमीमांसा अनुयोगद्वारमें ज्ञानावरणादि कर्मोंकी वेदनाओंके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट आदि उन्हीं १३ पदोंकी प्ररूपणा कालकी अपेक्षा ठीक उसी प्रकारसे की गयी है जैसे कि द्रव्यविधानमें द्रव्यकी अपेक्षासे और क्षेत्रविधानमें क्षेत्रकी अपेक्षासे वह की गयी है । यहाँ उससे कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं है।
(२) स्वामित्व—पिछले उन दोनों अनुयोगद्वारोंके समान यहाँ भी इस अनुयोगद्वारको उत्कृष्ट पदविषयक और अनुत्कृष्ट पदविषयक इन्हीं दो भेदोंमें विभक्त किया गया है । प्रकरणवश यहाँ भी प्रारम्भमें क्षेत्रके विधानके समान जघन्य और उत्कृष्टके विषयमें नामादि रूप निक्षेपविधिकी योजना की गयी है । तत्पश्चात् ज्ञानावरणादि कर्मों सम्बन्धी कालकी अपेक्षा होनेवाली उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट एवं जघन्य-अजघन्य वेदनाओंके स्वामियोंकी प्ररूपणा की गयी है। उदाहरणार्थ, ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट वेदनाके स्वामीका कथन करते हुए यह बतलाया है कि जो संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो चुका है, साकार उपयोगसे युक्त होकर श्रुतोपयोगसे सहित है, जागृत है, तथा उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य संक्लेशस्थानोंसे अथवा कुछ मध्यम जातिके संक्लेश परिणामोंसे सहित है, उसके ज्ञानावरण कर्मकी कालकी उत्कृष्ट वेदना होती है। उपर्युक्त विशेषताओंसे संयुक्त यह जीव कर्मभूमिज ( १५ कर्मभूमियोंमें उत्पन्न ) ही होना चाहिये, भोगभूमिज नहीं; कारण कि भोगभूमियोंमें उत्पन्न जीवोंके उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध सम्भव नहीं है । इसके अतिरिक्त वह चाहे अकर्मभूमिज ( देव-नारकी) हो, चाहे कर्मभमिप्रतिभागज ( स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्य भागमें उत्पन्न होः इसकी कोई विशेषता यहाँ अभीष्ट नहीं है। इसी प्रकार वह संख्यातवर्षायुष्क (अढाई द्वीप-समुद्रों तथा कर्मभूमि प्रतिभागमें उत्पन्न ) और असंख्यातवर्षायुष्क ( देव-नारकी ) इनमेंसे कोई भी हो सकता है । वह देव होना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org