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________________ १० विषय-परिचय चाहिये, मनुष्य होना चाहिये, तिर्यंच होना चाहिये अथवा नारकी होना चाहिये; इस प्रकारकी गतिजन्य विशेषताके साथ ही यहाँ वेदजनित विशेषताकी भी कोई अपेक्षा नहीं की गयी है। वह जलचर भी हो सकता है, थलचर भी हो सकता है, और नभचर भी हो सकता है; इसकी भी विशेषता यहाँ नहीं ग्रहण की गयी । ___ इस उत्कृष्ट वेदनासे भिन्न वेदना अनुत्कृष्ट बतलायी गई है। इसी प्रकारसे यथासम्भव शेष कर्मोंकी कभी कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट वेदनाओंकी विशदतासे प्ररूपणा की गयी है। आयु कर्मकी कालतः उत्कृष्ट वेदनाका निरूपण करते हुए यह स्पष्ट किया है कि उत्कृष्ट देवायुके बन्धक मनुष्य सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, किन्तु उत्कृष्ट नारकायुके बन्धक मनुष्य पर्याप्त मिथ्यादृष्टिके साथ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच मिथ्यादृष्टि भी होते हैं। देवोंकी उत्कृष्ट आयुका बन्ध १५ कर्मभूमियोंमें ही होता है, कर्मभूमिप्रतिभाग और भोगभूमियोंमें उत्पन्न जीवोंके उसका बन्ध सम्भव नहीं है। उत्कृष्ट नारकायुका बन्ध १५ कर्मभूमियोंके साथ कर्मभूमिप्रतिभागमें भी उत्पन्न जीवोंके होता है, भोगभूमियोंमें उसका बन्ध नहीं होता। इस उत्कृष्ट देवायु और नारकायुके बन्धक संख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य व तिर्यंच उसके बन्धक नहीं होते। तीनों वेदोंमेंसे किसी भी वेदके साथ उत्कृष्ट आयुका बन्ध हो सकता है, उसका किसी वेदविशेषके साथ विरोध सम्भव नहीं है; यह जो मूल ग्रन्थकारद्वारा सामान्य कथन किया गया है उसका स्पष्टीकरण करते हुए श्री वीरसेन स्वामीने कहा है कि वेदसे अभिप्राय यहाँ भावबेदका रहा है। कारण कि अन्यथा द्रव्य स्त्रीवेदसे भी उत्कृष्ट नारकायुका बन्ध हो सकता है, किन्तु वह “ आ पंचमी त्ति सिंहा इत्थीओ जंति छठिपुढवि त्ति” इस सूत्र ( मूलाचार १२-११३ ) के विरुद्ध होनेसे सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त द्रव्यस्त्रीवेदके साथ उत्कृष्ट देवायुका भी बन्ध संभव नहीं है, क्योंकि, उसका बन्ध निर्ग्रन्थ लिंगके साथ ही होता है; परन्तु द्रव्यस्त्रियोंके वस्त्रादि त्यागरूप भावनिर्ग्रन्थता सम्भव नहीं है। कालकी अपेक्षा सब कर्मोंकी जघन्य वेदनाकी प्ररूपणा करते हुए ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मकी यह वेदना छद्मस्थ अवस्थाके अन्तिम समयको प्राप्त जीवके (क्षीणकषायके अन्तिम समयमें ) बतलायी गयी है । वेदना, आयु, नाम व गोत्रकी कालतः जघना वेदना अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें होती है । मोहनीय कर्मकी उक्त वेदना सूक्ष्मसाम्यरावके अन्तिम समयमें होती है । अपनी अपनी जघन्य वेदनासे भिद्ध सब कर्मोंकी कालतः अजघन्य वेदना कही गयी है। (३) अल्पबहुत्व-अनुयोगद्वारमें क्रमशः जघन्य पद, उत्कृष्ट पद और जघन्य-उत्कृष्ट पदकी अपेक्षा आठों कर्मोंकी कालवेदनाके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार इन ३ अनुयोगद्वारोंके समाप्त हो जानेपर प्रस्तुत वेदनाकालविधान अनुयोगद्वारा समाप्त हो जाता है । आगे चलकर उसकी प्रथम चूलिका प्रारम्भ होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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