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________________ विषय-परिचय समय परिणत द्रव्य कालजघन्य, तथा तीन गुण-परिणत द्रव्यकी अपेक्षा दो गुण-परिणत द्रव्य भावजघन्य है । इसी प्रकारसे आदेशकी अपेक्षा इन द्रव्यजघन्यादिके भेदोंकी आगे भी कल्पना करना चाहिये । जैसे–चार प्रदेशवाले स्कन्धकी अपेक्षा तीन प्रदेशवाला तथा पाँच प्रदेशवाले स्कन्धकी अपेक्षा चार प्रदेशवाला स्कन्ध आदेशकी अपेक्षा द्रव्यजघन्य है, इत्यादि । यही प्रक्रिया उत्कृष्टके सम्बन्धमें भी निर्दिष्ट की गयी है। विशेष इतना है कि यहाँ ओघकी अपेक्षा महास्कन्धको द्रव्य-उत्कृष्ट, लोकाकाशको कर्मक्षेत्र-उत्कृष्ट, आकाशद्रव्यको नोकर्मक्षेत्र-उत्कृष्ट, अनन्त लोकोंको काल-उत्कृष्ट, और सर्वोत्कृष्ट वर्णादिको भाव-उत्कृष्ट कहा गया है। आगे इस अनुयोगद्वारमें ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंकी क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य वेदनायें किन किन जीवोंके कौन कौनसी अवस्थाओंमें होती हैं, इस प्रकार इन वेदनाओंके स्वामियोंकी विस्तारसे प्ररूपणा की गयी है । उदाहरणस्वरूप क्षेत्रकी अपेक्षा ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट वेदनाके स्वामीकी प्ररूपणा करते हुए बतलाया गया है कि एक हजार योजन प्रमाण आयत जो महामत्स्य स्वयम्भूरमण समुद्रके बाह्य तटपर स्थित है, वहां वेदनासमुद्धातको प्राप्त होकर जो तनुवातवलयसे संलग्न है तथा जो मारणान्तिकसमुद्धातको करते हुए तीन विग्रहकाण्डकोंको करके अनन्तर समयमें नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न होनेवाला है उसके ज्ञानावरण कर्मकी क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट वेदना होती है । इस उत्कृष्ट वेदनासे भिन्न ज्ञानावरणकी क्षेत्रकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना है । इसी प्रकारसे दर्शनावरण आदि शेष कर्मोंकी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट वेदनाओंकी प्ररूपणा की गयी है । वेदनीय कर्मकी क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट वेदना लोकपूरण केवलिसमुद्धातको प्राप्त हुए केवलीके कही गयी है। ज्ञानावरणकी क्षेत्रतः जघन्य वेदना ऐसे सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवके बतलायी है जो ऋजुगतिसे उत्पन्न होकर तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान व तृतीय समयवर्ती आहारक है, जघन्य योगवाला है, तथा सर्वजघन्य अवगाहनासे युक्त है । इस जघन्य क्षेत्रवेदनासे भिन्न अनघन्य क्षेत्रवेदना कही गयी है। इसी प्रकारसे शेष कर्मोंकी भी क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य व अजघन्य वेदनाकी यहाँ प्ररूपणा की गयी है। (३) अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारमें आठों कर्मोंकी उक्त वेदनाओंके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा जघन्यपदविषयक, उत्कृष्टपदविषयक व जघन्य उत्कृष्टपदविषयक, इन ३ अनुयोगद्वारोंके द्वारा की गयी है । प्रसंग पाकर यहाँ (सूत्र ३०-९९ में) मूलग्रन्थकर्ताने सब जीवोंमें अवगाहनादण्डककी मी प्ररूपणा कर दी है। ६ वेदनाकालविधान इस अनुयोगद्वारमें पहिले नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल, समाचारकाल, अद्धाकाल, प्रमाणकाल और भावकाल, इस प्रकार कालके ७ मेदोंका निर्देश कर इनके और भी उत्तरमेदोंको बतलाते हुए तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकालके प्रधान और अप्रधान रूपसे २ मेद बतलाये हैं। इनमें जो काल शेष पांच द्रव्योंके परिणमनमें हेतुभूत है वह प्रधानकाल कहा गया है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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