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________________ ४, २, ६, १६८. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे डिदिबंधल्झवसाणपख्वणा [३१३ णाणुभागस्स संभवो जदि वि णत्थि तो वि संत पडुच्च अत्थि ति एगट्ठाणाणुभागों एत्थ किण्ण परूविदो ? ण, बंधाहियारे संतपरूवणाणुववत्तीदो । एत्य सादाणुभागो जहण्णफहयप्पहुडि जाव उक्कस्सफद्दयो त्ति ताव रचेयव्वो सेडिआगारेण । तत्थ पढमो भागो गुडसमाणो' एगं हाणं, बिदियो भागो खंडसमाणो बिदियं हाणं, तदियो भागो सक्करातुल्लो तदियं ठाणं, चउत्यो भागो अमियसमो चउत्थट्ठाणं । एदाणि चत्तारिहाणाणि जम्मि सादाणुभागबंधे अत्थि सो अणुभागबंधो चउत्थट्ठाणो । तस्स बंधया जीवा चउठाणबंधया णाम । एवं तिहाण-बिट्ठाणबंधाणं पि परूवणं कायव्वं । एवं सादबंधया अणुभागबंधभेदेण तिविहा चेव होति । ___ असादबंधा जीवा तिविही- बिट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा चउटाणबंधा ति ॥ १६८ ॥ एत्य असादाणुभागो पुव्वं व सेडिआगारेण ठइदूण चत्तारिभागेसु कदेसु तत्थ पढमभागो णिबसमो एगट्ठाणं, बिदियभागो कांजीरसमो बिदियहाणं, तदियभागो विससमो शंकायद्यपि बन्धकी अपेक्षा एकस्थान अनुभागकी सम्भावना नहीं है, तथापि सत्त्वकी अपेक्षा तो उसकी सम्भावना है ही। फिर एकस्थानानुभागकी प्ररूपणा यहाँ क्यों नहीं की गई? समाधान नहीं, क्योंकि बन्धके अधिकार में सत्त्वकी प्ररूपणा संगत नहीं है। यहाँ जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक श्रेणिके आकारसे साताके अनुभागकी रचना करना चाहिये । उसमें प्रथम भाग गुड़के समान एक स्थान, द्वितीय के समान दसरा स्थान, तृतीय भाग शक्करके समान तीसरा स्थान, और चतुर्थ भाग अमृतके समान चौथा स्थान है । इस प्रकार जिस साताके अनुभागमें ये चार स्थान हों वह अनुभागबन्ध चतुर्थस्थान कहा जाता है। उसको बाँधनेवाले जीव चतुःस्थानबन्धक कहलाते हैं । इसी प्रकार त्रिस्थान और द्विस्थानबन्धकोंकी भी प्ररूपणा करना चाहिये । इस अनुभागके मेदसे सातबन्धक तीन प्रकारके हैं। असातबन्धक जीव तीन प्रकारके हैं-द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक ॥ १६८॥ ___यहाँ असाताके अनुभागको पहिलके ही समान श्रेणिके आकारसे स्थापित करके चार भाग करनेपर उनमें से प्रथम भाग नीमके समान एक स्थान, द्वितीय भाग कांजीरके समान इसरे स्थान, तृतीय भाग विषके समान तीसरे स्थान, और चतुर्थ भाग हालाहलके १ अ-आ-काप्रतिषु 'गुणसमाणो', ताप्रतौ 'गुण (ड) समाणो' इति पाठः। २ इह शुभप्रकृतीनां रस: क्षीरादिरसोपमः। अशुभप्रकृतीनां तु घोषातकी-निंबादिरसोपमः। उक्त च-'घोसाडइ-निबुवमो असुभाण सुभाष खीर-खंडुवमो' इति । क्षीरादिरसश्च स्वाभाविक एकस्थानिक उम्यते । योस्तु कर्षयोरावर्तने कृते सति योऽवशिष्यते एकः कर्षः स विस्थानिकः । प्रयाणामावर्तने कृते सति य उद्धरित एकः कर्षः त्रिस्थानगतः। चतुर्णा तु कर्षणामावर्तने कृते सति योऽवशिष्टः एकः कर्षः स चतुस्थानगतः । क. प्र. (म. टी.) १,९०. ३ अप्रतौ ' असादबंधजीवा तिविहा' इति पाठः । छ. ११-४०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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