SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१२ ] - छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ६, १६७. अत्थपडिवत्तीए अभावादो । सादबंधा ति उत्ते सादबंधया त्ति घेत्तव्यं, कत्तारणिदेसादो। णाणावरणीयस्स बंधया जीवा' दुविहा चेव सादबंधया असादबंधया चेदि । ण च सादासादाणं बंधेण विणा णाणावरणीयस्स बंधया जीवा अत्थि, अणुवलंभादो। एत्थ णाणावरणीयगहणण णाणावरणादीणं धुवबंधीणं पयडीणं बंधया जीवा दुविहा त्ति वत्तव्वं । सादबंधया इदि उत्ते साद-थिर-सुभ-सुस्सर-सुभग-आदेज-जसकित्ति-उच्चागोदाणमट्टण्णं सुहपयडीणं परियत्तमाणीणं गहणं कायव्वं, अण्णोण्णाविणाभाविबंधादो । असादबंधया इदि उत्ते असाद-अथिर-असुह-दुभग-दुस्सर-अणादेज-अजसगित्ति-णीचागोदबंधयाणं गहणं कायव्वं, बंधेण अण्णोण्णाविणाभावित्तदंसणादो । सादासादादीणमक्कमेण एगजीवम्मि बंधो किण्ण जायदे ? ण, अचंताभावेण पडिसिद्धअक्कमप्पउत्तीदो। सादासादादीणमक्कमबंधे जीवाणं सत्ती पत्थि त्ति भणिदं होदि । । तत्थ जे ते सादबंधा जीवा ते तिविहा- चउट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा बिट्ठाणबंधी ॥ १६७ ॥ . तत्थ सादबंधा जीवा ति णिद्देसेण असादबंधयजीवाणं पडिसेहो कदो । तिविहा त्ति वयणेण चउव्विहादिपडिसेहो कदो। चउठाण-तिहाण-बिट्ठाणमिदि तिविहो सादाणु भागो होदि । सादावेदणीए एगहाणाणुभागो णत्यि, तहाणुवलंभादो । बंधं पडि एगट्ठाकहनेपर 'सादबंधया' अर्थात् सातावेदनीयके बन्धक, ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, कर्ताका निर्देश है। ज्ञानावरणीयसे बन्धक जीव दो प्रकार ही हैं-सातबन्धक और असातबन्धक । साता व असाता वेदनीयके बन्धसे रहित ज्ञानावरणीयके बन्धक जीव नहीं हैं, क्योंकि वे पाये नहीं जाते । सूत्र में जो झानावरणीय पदका उपादान किया है उससे ज्ञानावरणादिक ध्रुव प्रकृतियोंके बन्धक जीय दो प्रकार हैं, ऐसा कहना चाहिये। 'सादबंधया ' कहनेपर साता, स्थिर, शुभ, सुस्वर, सुभग, आदेय, यशकीर्ति और उश्चगोत्र, इन आठ परिवर्तमान प्रकृतियोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, इनके बन्धमें परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। असादबंघया' कहनेसे असाता, अस्थिर, अशुभ, दुर्मग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति और नीच गोत्रके बन्धकोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, बन्धकी अपेक्षा उनमें अविनाभाव सम्बन्ध देखा जाता है। शंका-एक जीवमें एक साथ साता व असातादिकोंकाबन्ध क्यों नहीं होता है? समाधान नहीं, उनकी युगपत् प्रवृत्ति अत्यन्ताभावसे प्रतिषिद्ध है, अर्थात् साता व असाता आदिकोंको एक साथ बाँधनेमें जीवोंकी शक्ति नहीं है, यह अभिप्राय है। उनमें जो सातबन्धक जीव हैं वे तीन प्रकार हैं-चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक ॥ १६७॥ सूत्रमें 'सादबन्धा जीवा' इस निर्देशसे असातबन्धक जीवोंका निषेध किया गया है। चतुःस्थान, त्रिस्थान और द्विस्थान इस प्रकारसे साता वेदनीयका अनुभाग तीन प्रकार है । सातावेदनीयमें एकस्थान अनुभाग नहीं है, क्योंकि, पैसा पाया नहीं जाता। १बंधंतीधुवपगडी परित्तमाणिगसुमाण तिविहरसं चउ-तिगबिट्ठाणगयं विवरीयगयं च असुभाणं|क.प्र.१.९०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy